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॥ ॐ परमात्मने नमः ॥

श्रीमदानन्दरामायणे विवाहकाण्डे

अष्टमोऽध्यायः ॥

श्रीमदानन्दरामायणे विवाहकाण्डे मदनसुन्दरीहरणम् -
विवाहकाण्ड अष्टमः सर्गः (शत्रुघ्नतनय यूपकेतु द्वारा मदनसुन्दरीका हरण ) -


श्रीरामदास उवाच अर्थकदा दक्षिणे हि शिवकांत्यां महापुरि ।
कंबुकंठो नृपः श्रीमान्निजकन्यास्वयंवरम् ॥ १ ॥
कर्तुकामो नृपान्स नाह्वयामास सादरम् ।
तदा ते पार्थिवाः सर्वे पत्राणि हि पृथक पृथक् ॥ २ ॥
पूर्ववैरमनुस्मृत्य कुशस्यापि लवस्य च ।
स्वयंवरे स्वीयमानभंगेनोद्भतहत्स्थितम् ॥ ३ ॥
प्रेषयामासु पति न ययुश्च स्वयंवरम् ।
तेषां पत्राणि सर्वाणि कंबुकंठो ददर्श सः ॥ ४ ॥
्रीरामदास कहने लगे-एक समय दक्षिणको शिवकांतिपुरी में बहाँके राजा कम्बुकण्ठने अपनी कन्याका स्वयम्बर करनेके विचारसे सब राजाओंके यहाँ निमन्त्रणपत्र भेजकर बुलवाया। किन्तु कुश-लवके कारण वे महाराज कम्बुकण्ठके यहां नहीं आये और एक-एक पत्र लिखकर भेज दिया। कम्बुकण्ठने एक-एक करके सब राजाओंका पत्र देखा ॥ १-४॥

सर्वेषु लिखितस्त्वेक एवार्थस्तं वदाम्यहम् ।
यदि नायांति रामस्य बालकास्ते स्वयंवरे ॥ ५ ॥
वयं सर्वे तर्हि यामो जंबुद्वीपान्तरस्थिताः ।
तेषामेवमभिप्रायं ज्ञात्वा स नृपतिस्तदा ॥ ६ ॥
न समाहूय श्रीराममायामास पार्थिवान् ।
स्वयं चापि स्मरन्वैरं तदेवं रामपुत्रयोः ॥ ७ ॥
उन सब पत्रोंमें एक ही चर्चा थी। वह यह कि यदि रामचन्द्रके लड़के तुम्हारे स्वयंवर न आयें तो हम सब जम्बुद्वीपके राजे तुम्हारे यहाँ आयेंगे-अन्यथा नहीं। राजा कम्बुकण्ठने उनके अभिप्राय समझकर रामचन्द्रजोके पास निमन्त्रण न भेजकर बाकी सब राजाओंको बुलाया। कम्बुकण्ठको स्वयं भी वह वात याद आ गयी कि रामके पुत्रोंने चम्पिका और सुमतिके स्वयंवरमें सबसे वैर कर लिया ॥ ५-७॥

चंपिकासुमतिपाणिग्रहणीयं पुरातनम् ।
ततस्ते पार्थिवाः सर्वे श्रुन्वा राप हि नागतम् ॥ ८ ॥
सप्तद्वीपांतरस्थाश्च ययुः कांतिपुरी प्रति ।
अथ तां कबुकठस्य कन्यां मदनसुन्दरीम् ॥ ९ ॥
प्रासादसंस्थितां दृष्ट्वा नारदः खासमाययौ ।
सखीभिः सा मुनि पूज्य विनयात्पुरतः स्थिता ॥ १० ॥
इसके अनन्तर जब सब राजाओंने यह सुन लिया कि राम नहीं आयेंगे, तब वे कम्बुकण्ठके यहां पहुंचे। उधर कम्बुकण्ठकी कन्या मदनसुन्दरीको अंटारीपर देखकर नारदजी आकाशमार्गसे उतर आये। मदनसुन्दरीने सखियोंके साथ आकर नारदकी पूजा की और उन मुनिके सामने जा बैठी ॥८-१०॥

पप्रच्छ नारदं भक्त्या विनयावनता शनैः ।
कुतः समागतः स्वामिन् गम्यते क्वाधुना वद ॥ ११ ॥
फिर भक्तिपूर्वक नारदसे पूछने लगी-स्वामिन् ! आप इस समय कहाँसे आ रहे हैं और अब कहाँ जायेंगे, सो बताइए ॥ ११ ॥

भवतां दर्शनेनाथ पावित्र्यं परमं गना ।
इति तस्या वचः श्रुत्वा किंचित् स्मित्वा मुनिस्तदा ॥ १२ ॥
तामाह वाले स्वलोकादागतोऽस्म्यधुना वहम् ।
अयोध्यायां राघवस्य पुत्राणांतु पृथक् पृथक् ॥ १३ ॥
गेहे संभोक्तकामोऽद्य निर्गतोऽस्मि विहायसा ।
एतस्मिन्नंतरे कांतिपुर्याः सैन्यानि वै बहिः ॥ १४ ॥
दृष्ट्वा केषां हि सैन्यानि संतीति हृदि चिंतितम् ।
ततः पांथमुखाच्छ्रुत्वा तव चात्र स्त्रयवरम् ॥ १५ ॥
तदा विनिचितं चित्ते मया रामः स्वयंवरे ।
अत्रैवास्ति ह्यागतश्चेत्तं पश्यामि सबालकम् ॥ १६ ॥
नैवास्ति धागतश्चेद्वै तर्हि यास्याम्यतः परम् ।
स्वयंवरो विना रामं न भविष्यति सात्मजम् ॥ १७ ॥
पश्याम्यत्रैव तं रामं वृथाऽग्रे गमनं मम ।
निश्वित्येत्थं समायातस्ततोऽदृष्ट्वा रघूत्तमम् ॥ १८ ॥
कथं रामो नागतोन चेति पृष्टा नृपा मया ।
नृपाभिप्रायमाकर्ण्य तदा खिन्नं मनो मम ॥ १९ ॥
आपके दर्शनसे मै आज परम पवित्र हो गयी। इस प्रकार उसकी बात सुनी तो थोड़ा मुसकाकर नारद कहने लगे-हे बाले ! इस समय मैं स्वर्गलोकसे आ रहा है और रामके सब पूत्रोंके यहाँ अलग-अलग भोजन करनेके लिए अयोध्या जा रहा हूँ। आते समय मैने कान्तिपूरी नगरीके बाहर सेना देखो। उसे देखकर मुझे बड़ा कौतुहल हुआ। रास्तेमें एक पथिकसे पूछनेपर ज्ञात हुआ कि यहां तुम्हारा स्वयम्बर है तो यह सोचा कि जहां तक है, रामचन्द्रजा अपने बालकों समेत यहां अवश्य आये होंगे। चलो, यहाँ ही दर्शन कर लें। यह निश्चय करके में यहाँ आया, कितु रामचन्द्र जीको नहीं देखा तो राजाओंसे पूछा कि राम क्यों नहीं आये। उन लोगोंने जो कारण बतलाया, उससे मेरा मन बहुत खिन्न हुआ ॥ १२-१९ ॥

सप्तद्वीपपति रामं बंधुवालकसंयुतम् ।
स्वयंवरमनाहय त्वपित्रा निश्चितं नृपः ॥ २० ॥
सप्तद्वीपके अधिपति राम तथा उनके लड़कोंको न बुलानेका निश्चय करके ही तुम्हारे पिताने मौर-और राजाओंको बुलाया है ॥ २०॥

अधुनाऽहं प्रगच्छामि साकेतस्थं रघूत्तमम् ।
मन्दभाग्याऽसि बाले व स्नुषा राघवसत्पतेः ॥ २१ ॥
यतो जाताऽसि नैवात्र विचित्रा कर्मणो गतिः ।
इत्युक्त्वा बालिका पृष्ट्वा नारदो गन्तुमुद्यतः ॥ २२ ॥
ततः संप्रार्थयामास नारदं बालिका मुहः ।
खिन्नचित्ताऽश्रुपूर्णाक्षी म्लानास्या स्फुरिताधरा ॥ २३ ॥
रोमांचिततनुर्मुग्धा गतश्रीर्गद्गदस्वरा ।
येनाहं मुनिवर्यात्र स्नुपा श्रीराघवस्य च ॥ २४ ॥
भविष्यामि तथा कार्य त्वया त्वां शरणं गता ।
इत्युक्त्वा मुनिवर्यस्य पादयोः स्थाप्य सा शिरः ॥ २५ ॥
चकार करुणं वाला तदा तां मुनिरत्रवीत् ।
मा चिन्तां कुरु रंभोरु समुत्तिष्ठस्व बालिके ॥ २६ ॥
अच्छा, अब मै अयोध्यामे रामचन्द्रजाके पास जा रहा है। हे बाले ! तुम अभागी हो, जो रामचन्द्रजी जैसे राजराजकी पतोहू नहीं बन रही हो। कर्मको भी बड़ी विचित्र गति होती है। ऐसा कह और कन्यासे पूछकर नारदजी जाने लगे। तब वह कन्या मदनसुंदरी खिन्न मन, आंसू भरी आँखों, म्लानमुख, कापते हए अधरों तथा रोमांचित शरीर होकर गद्गद वाणोसे इस प्रकार विनय करती हुई कहने लगी-आप कोई ऐसी युक्ति करिए कि जिससे मैं रामकी ही पतोहू बनू । मैं आपकी शरणमें हूँ। ऐसा कहकर उसने अपना मस्तक मुनिराजके चरणोंमें रख दिया और रोने लगी। तब नारद मुनिने कहा हे रम्भोर ! हे वालिके ! तुम किसी प्रकारकी चिन्ता न करो, उठो ॥ २१-२६ ॥

भविष्यसि त्वं रामस्य स्नुपा यत्नं करोम्यहम् ।
इत्युक्त्वा तां समाश्चास्य खमार्गेण मुनिर्ययौ ॥ २७ ॥
तुम अवश्य रामकी पतोहू बनोगी। मैं इसके लिए उद्योग करूँगा। ऐसा कह और उसे ढाढ़स बंधाकर नारदजी आकाशमार्गसे चल दिये ॥ २७ ॥

एतस्मिन्नंतरेऽयोध्यापुर्याः स्यन्दनसंस्थितः ।
वृषकेतुर्वन पश्यंस्तमसातीरमाययौ ॥ २८ ॥
इसी समय यूपकेतू रयपर बैठकर अयोध्यासे निकले और रास्ते के चनोंको देखते हुए तमसा नदीके किनारे पहुंचे ॥ २८॥

किश्चित्सैन्ययुतो बालस्तमसायां निगाह्य सः ।
यावत्सध्यादिकं कर्तुमुपविष्टस्तदा मुनिम् ॥ २९ ॥
ददर्श नारदं नत्वा पूजयामास सादरम् ।
ततः पप्रच्छ मुनये यूपकेतुः पुरःस्थितः ॥ ३० ॥
कुतः समागतं चेति तच्छ्रुत्वा नारदो मुनिः ।
सर्व वृत्तं सविस्तारं कथयामास बालकम् ॥ ३१ ॥
तच्छ्रत्वा सकलं वृत्तं नत्वा तं नारदं मुनिम् ।
अब्रवीद्वालको वाक्यं सक्रोधः संभ्रमान्वितः ॥ ३२ ॥
उस समय थोड़ी-सी सेना उनके साथ थी। उसके साथ यूपकेतने तमसामें स्नान किया और सन्ध्यावन्दन करनेको बैठे ही थे कि नारदजीको देखा। तब उनको प्रणाम करके सादर पूजन किया। इसके बाद नारद मुनिने विस्तारपूर्वक उस कन्या मदनसुंदरीका सारा वृत्तांत कहा। उसे सुनकर क्रोध और घबराहटसे पूर्ण होकर यूपकेतुने कहा-॥ २९-३२॥

मुने नृपाणां सर्वेषां द्वेपथुद्धिश्च राघवे ।
या जाता साऽद्य सर्वेषां ज्ञेयाऽनर्थकरी जवात् ॥ ३३ ॥
हे मुने! इस समय जो सब राजे रामसे द्वेषबुद्धि रखते हैं, वह उनके लिए अनर्थकारिणी सिद्ध होगी॥ ३३ ॥

कंबुकंठादिभूपानां सारं पश्याम्यहं रणे ।
रणे त्वत्कृपया सर्वान जित्वा तामानयाम्यहम् ॥ ३४ ॥
कम्बुकण्ठ आदि राजाओंका बल में संग्रामभुमिमें पहुंचकर देखता हूँ। हे मुनिराज ! मैं आपकी कृपासे उन सबको जीतकर मदनसुंदरीको लिये आता हूँ॥ ३४ ॥

इत्युक्त्वा स ययौ कांति पञ्चमेऽहनि सेनया ।
नारदोऽपि ययौ राम द्रष्टुं प्रीतमनास्तदा ॥ ३५ ॥
ऐसा कहकर यूपकेतु अपनी सेनाके साथ पांचवें दिन कान्तिपूरीमें पहुंचे और नारदजी प्रसन्नतापूर्वक रामका दर्शन करनेके लिए अयोध्या चले गये ॥ ३५ ॥

रामेण पूजितः प्रेम्णा भोजनार्थ निमंत्रितः ।
अथ भोजनयेलायां युपकेतुं रघूत्तमः ॥ ३६ ॥
अदृष्टा लक्ष्मणं प्राह यूपकेतुर्ने दृश्यते ।
वालेषु त भोजनार्थ लक्ष्मणात्र समाह्वय ॥ ३७ ॥
वहां पहुंचनेपर रामने प्रेमसे नारदजीका पूजन करके भोजनका निमंत्रण दिया । जब भोजनका समय हुआ, तब यूपकेतुको न देखकर रामने लक्ष्मणसे कहा कि इस समय यूपकेतु नहीं दिखायी देता। हे लक्ष्मण ! और-और बालकोंके साथ उसे भी भोजन करनेके लिए बुलाओ ॥ ३६-३७ ॥

तदा स मालतीं गत्वा प्रपच्छ लक्ष्मणो जवात् ।
सा प्राह बनमध्येध्य किश्चित्सैन्ययुतो गतः ॥ ३८ ॥
रामके आज्ञानुसार लक्ष्मण मालतीके पास पहुंचे और यूपकेतुको पूछा । उसने कहा कि वे अपने साथ थोड़ी-सो सेना लेकर वनको गये हैं ॥ ३८ ॥

वृत्तमेतद्यथावत्स गत्वा राम जगाद ह ।
अथ रामो भोजनादि संपाद्य मुनिना मुदा ॥ ३९ ॥
यो सभायामासीनस्त मनि वाक्यमत्रवीत ।
पञ्चमप्तदिनान्यत्र स्थेयं मदचनात्वया ॥ ४० ॥
तथेति नारदः प्राह सभायां संस्थितः सुखम् ।
अथ रात्री यूपकेतुमदृष्ट्वा रघुनन्दनः ॥ ४१ ॥
उपाहारं कतुकामः पुनलक्ष्मणमब्रवीत् ।
आकारय यूपकेतुं नायं दृष्टो मया शिशुः ॥ ४२ ॥
यह वृत्तान्त लक्ष्मणने जाकर रामको सुना दिया। तत्पश्चात् मुनिके साथ राम भोजन आदि करके अपने सभाभवनमें गये और वहाँ बैठकर नारद मुनिसे कहने लगे कि आप मेरे कहनेसे पांच-सात दिन यहाँ ही ठहर जाइये । 'तथास्तु' कहकर नारदजो भी ठहर गये। तदनन्तर भोजनके समय रात्रिमें भी यूपकेतुको न देखकर रामने लक्ष्मणसे कहा-यूपकेतुको बुलाओ। आज मैने दिनभर उस बच्चेको नहीं देख पाया है ॥ ३९-४२ ॥

तथेति रामवचनात्पुनर्गत्वा तु मालतीम् ।
पप्रच्छ यूपकेतुं स सा प्राह नागतस्त्विति ॥ ४३ ॥
'बहुत अच्छा' कहकर लक्ष्मण फिर मालतीके पास गये और यूपकेतुको पूछा । उसने कहा कि वे अभी तक नहीं लौटे ॥ ४३ ॥

ततः स विह्वलो भूत्वा रामं वृत्तं न्यवेदयत् ।
रामोऽपि नागतं श्रुत्वा बंधुभ्यां विह्वलोऽभवत् ॥ ४४ ॥
यह सुना तो विहल होकर लक्ष्मणने रामसे कहा। जब रामने यह सुना तो भ्राताओंके साथ-साथ वे भी विह्वल हो उठे ॥ ४४ ॥

ततः सा जानकी श्रुत्वा विह्वला खिन्न मानसा ।
द्राव राघवाग्रे सा सर्वे तूष्णीं कथं स्थिताः ॥ ४५ ॥
जानकीने सुना तो वह भी विहल तथा खिन्न होकर दौड़ती हुई रामके पास पहुंची और कहा कि आप लोग चुपकेतुको अनुपस्थित देखकर भी चुपचाप बैठे हैं ? ॥ ४५ ॥

इति तान् प्राह वैदेही तदा सर्वेऽतिविह्वलाः ।
त्यक्त्वोपाहागन वेगेन तच्छोधार्थ समुद्यताः ॥ ४६ ॥
यह सनकर सब लोग धबड़ा उठे और भोजन त्यागकर उसे ढ़नेको तयारी कर दिये ॥ ४६ ॥

सदा तान्बिहलान्दृष्ट्वा नारदः प्राह गवत्रम् ।
कांतिवृत्तं ग्रुपकेतोः प्रयाणादिकामादरात ॥ ४७ ॥
इस प्रकार सवको व्याकुल देखकर नारदजीने रामसे कान्तिपुरीका वृत्तान्त बतलाया और यूपकेतुके प्रस्थानको भी बात कह सुनायो॥ ४७ ॥

तत्सर्व राघवः श्रुत्वा किंचित्तुष्टम नास्तदा ।
लक्ष्मणं प्राह वेगेन शत्रुघ्नोऽद्यैव गच्छतु ॥ ४८ ॥
सेनया चतुरंगिण्या जबात्कांति कुशादिभिः ।
तथेति लक्ष्मणोक्या चोपाहाराविधाय सः ॥ ४९ ॥
सेनया बालकैवगाच्छत्रुघ्नं प्रेषयन्निशि ।
रामं नत्वाऽय शत्रुघ्नः शीघ्र स्यन्दनसंस्थितः ॥ ५० ॥
यह हाल सुना तो रामको थोड़ा सन्तोष हुआ और तुरंत लक्ष्मणको आज्ञा दी कि मेरी चतुरंगिणो सेना लेकर शत्रुघ्न अभी पांतिपुरी जाय। "बहुत अच्छा" कहकर लक्ष्मणने भोजन आदि कराके रातमें हो सेना और कुश आदि वीर बालकोंके साथ शत्रुघ्नको कांतिपुरी भेजा। रामको प्रणाम करके शत्रुघ्न रथपर सवार हुए और प्रसन्नतापूर्वक प्रस्थान कर दिये ॥ ४८-५० ॥

ययौ कांतिसमीपं स पष्ठेऽहनि मुदान्वितः ।
एतस्मिन्नंतरे कांतिपुर्यां तत्र स्वयंवरे ॥ ५१ ॥
इस तरह अयोध्यासे चलकर ठाक छठे दिन शत्रुघ्न कांतिपुरीके पास पहुंच गये। उधर कांतिपुरी में स्वयंवर हो रहा था ॥ ५१ ॥

सभायां राजशार्दूलाः संस्थितास्ते मुदान्विताः ।
अच सा शिविकारूढाऽऽययो मदनसुन्दरी ॥ ५२ ॥
सभामण्डपमें बहुतसे राजे हर्षपूर्वक बैठे हुए थे। इतनेमें मदनसुन्दरी पालकी में बैठी हुई सभामें आयी ॥ ५२ ॥

किंचिन्म्लानमुखी दुःखात्स्मरंती नारदेरितम् ।
वृद्धोपमाता तां सर्वान् दर्शयामास पार्थिवान् ॥ ५३ ॥
उस समय वह दुःखसे नारदको बातोंका स्मरण कर रही थी। इस कारण उसका मुख कुम्हलाया हुआ था। सभामें पहुंचकर वृद्धा पात्रीने सब राजाओंको दिखलाया ॥ ५३ ॥

यूपकेतुस्तदा वेगाद्गत्वा तूष्णी सभांगणम् ।
मोहनावं विसृज्याथ मोहयामास तां सभाम् ॥ ५४ ॥
उसी समय वेगके साथ यूपकेतु सभाभवनमें पहुंचे और मोहनास्त्रका प्रयोग करके उन्होंने सारी सभाको मूछित कर दिया ॥ ५४ ॥

मोहितैर्मोहनास्त्रेण न्यस्तां तद्वाहकै वि ।
रथेन शिविकां गत्वा धृत्वा मदनसुन्दरीम् ॥ ५५ ॥
निजाभिधानं संश्राव्य तां तुष्टामकरोत्तदा ।
अथ सा वरयामास वीरं मदनसुन्दरी ॥ ५६ ॥
मुमोच माला तत्कण्ठे नवरत्नमयीं शुभाम् ।
ततः स यूपकेतुहि रथे मदनसुन्दरीम् ॥ ५७ ॥
मोहनास्त्रसे मोहित होकर शिविकावाहकोंने भो शिविका जमीनपर रख दी। इतने में रथपर बैठे हुए यूपकेतु शिविकाके पास पहुंचे और मदनसुन्दरीका हाथ पकड़कर अपना नाम बताया, जिससे वह बहुत प्रसन्न हुई और वीर यूपकेतुको वरकर उसने उनके गलेमें वह नवरत्नमयो वरमाला डाल दी। तब प्रसन्न होकर यूपकेतुने मदनसुन्दरीको स्वमें बिठा लिया ॥ ५५-५७ ॥

निवेश्य कांतिपुर्याः सव हेर्गत्वा स्थिरोऽभवत् ।
तामाह दयितां वीर स्त्विदानीं त्वं भयं त्यज ॥ ५८ ॥
तव कान्तिपुरीसे बाहर निकलकर वे एक स्थानपर रुक गये। वहाँपर उन्होंने मदनसुन्दरीसे कहा कि अब तुम किसी प्रकारका भय न करो ॥ ५८ ॥

जित्वा सर्वान्नृपानद्य त्वया गच्छाम्यह पुरीम् ।
तत्तस्य वचन श्रुत्वा सा प्राह वचन तदा ॥ ५९ ॥
मैं सब राजाओंको जीतकर तुम्हारे साथ अयोध्यापुरी चलूंगा। यूपकेतुकी बात सुनकर उसने कहा- ॥ ५९॥

बहवः सति राजानस्त्वमेकः स्वल्पसेनया ।
असंख्यातानि सैन्यानि तेषां पश्य समन्ततः ॥ ६० ॥
वे राजे बहुतसे हैं और तुम अकेले हो, तुम्हारे साथ सेना भी थोड़ो-सी है और देखो न, उनकी असंख्य सेना चारों ओर पड़ी हुई है ॥ ६०॥

कथं युद्धं भवेदत्र मा कुरुष्वाद्य संगरम् ।
शीघ्रं मां नय साकेतं ततो रामेण सेनया ॥ ६१ ॥
युद्धं कुरु नृपैर्घोरं शृणु मद्वचनं प्रभो ।
मा साहसं कुरुष्वात्रार्थये त्वां मुहुर्मुहुः ॥ ६२ ॥
ऐसी अवस्थामें युद्ध कैसे करोगे? आज तुम संग्राम न करो। मुझे शीन अयोध्या पहुंचा दो और वहाँसे रामचन्द्रजोकी विशाल सेना लेकर आओ, तब युद्ध करो। है प्रभो! ऐसे समय साहस करना ठीक नहीं है। मैं बार-बार यही विनती करती हैं॥ ६१-६२ ॥

इति तस्या वचः श्रुत्वा तामाश्वास्य पुनः पुनः ।
उपसंहारयामास मोहनास्त्रं स लीलया ॥ ६३ ॥
इस प्रकार मदनमुरादरीकी बात सुनकर उन्होंने उसे आश्वासन दिया और मोहनास्त्रका संवरण कर लिया ॥६३ ॥

तदा ते पार्थिवाः सर्वे श्रुत्वा नीता वधू बलात् ।
शत्रुध्नतनयेनेति श्रीवाक्यैः स्पंदने स्थिताः ॥ ६४ ॥
निर्ययुः कोटिशो योद्ध' स्वस्वसेनावृता जवात् ।
चंपिकायाः सुमत्याच पूर्ववैरेण दर्पिताः ॥ ६५ ॥
जब उन राजाओंने स्त्रियोंके मुखसे सुना कि शत्रुधनके पुत्र यूपकेतुने मदनसुन्दरीका हरण किया है तो अपने-अपने रथोंपर सवार हो-होकर बड़ी-बड़ी सेना लिये वेगके साथ वे लड़नेको निकल पड़े। एक तो सुमति और चम्किकाके बरनेका हो र उन लोगोंके मनमें था, दूसरे अब मदनसुन्दरीके हरणसे उनके हृदयको और भी ठेस लगी ॥ ६४-६५ ॥

तुद्रुवुर्नेमिमार्गेण ददृशुस्तं रथस्थितम् ।
युक्तं मदनसुन्दर्या विभ्रंतं मालिकां हृदि ॥ ६६ ॥
फिर क्या था, शत्रके रथके पहियोंका रास्ता देखते हुए वे चले और थोड़ी ही दूर जाकर उन्होंने देखा कि यूपकेतु मदनसुन्दरीके साथ बैठा है और उसके गले में वरमाला पड़ी हुई है ॥ ६६ ॥

ततस्तं मुमुचुः सर्वे नानाशस्त्राणि सैनिकाः ।
युपकेतुस्तदा वेगाट्टणत्कृत्य महद्धनुः ॥ ६७ ॥
देखते ही सब राजाओंने एक साथ उस वीर बालकपर कितने ही शस्त्रोंका प्रहार कर दिया। यूपकेतुने भी वेगके साय अपने धनुषका टडोर किया ॥६७ ॥

वायव्यास्त्रेण तान्सर्वानुद्धय दशदिक्षु सः ।
प्राक्षिपत्पार्थिवान सैन्यै नावाहनसंस्थितान ॥ ६८ ॥
और वायव्य अस्त्रका प्रयोग करके उन सब राजाओंको रथ, वाहन तथा सेना समेत उड़ाकर दूर फेंक दिया ॥ ६८॥

तदा स कंबुकण्ठोऽपि पूर्ववैरमनुस्मरन् ।
चंपिकायाः सुमत्याच स्वयंवरसमुद्भवम् ॥ ६९ ॥
निमेषान्निजकन्याया वैरतो हरणं बलात् ।
महाक्रोधान्निर्ययौ स स्वसैन्येन परिवेष्टितः ॥ ७० ॥
कुर्वन् दुंदुभिघोपांश्च युद्धार्थ यूपकेतुना ।
यूपकेतुरपि श्रुत्वा दुन्दुभीनां महत्स्वनम् ॥ ७१ ॥
कांतिपुर्युत्तरद्वारपुरतः संस्थितो रथी ।
टणत्कृत्य महच्चापं सन्दधे शरमुत्तमम् ॥ ७२ ॥
महाराज कम्बुकण्ठ भी पूर्ववरका स्मरण करके विशेषकर इस समय वरवश अपनी कन्याका हरण देखकर अपनी सेनाके साथ यूपकेतुसे युद्ध करनेके लिए दुदुभीका घोष करते हुए निकल पड़े। यूपकेतुने भी जब दुंदुभीकी गर्जना सुनी तो कांतिपुरोके उत्तरी द्वारपर पहुंचे और अपने धनुषका टङ्कोर करके उसपर एक उत्तम शरका संधान किया ॥ ६९-७२ ॥

ये ये वीराः पुरद्वारान्निर्गताश्च बहिः शनैः ।
तान् जघान क्षणादेव प्रेतैर रुरोध सः ॥ ७३ ॥
उस पुरद्वारसे जो-जो योद्धा निकलते, उनको अपने बाणोसे यूपकेतु बरावर मारते जाते थे। इससे थोड़ी ही देर में वह द्वार मृतकोंसे भर गया ॥ ७३ ॥

तं दृष्ट्वा यपकेतोश्च कंबुकण्ठः पराक्रमम् ।
ययौ स्वयं स्यन्दनेन प्रेतसंघ विदार्य च ॥ ७४ ॥
शेषसैन्येन संयुक्तो यपकेतुं कृधा जवात् ।
तदाऽऽह यूपकेतुं स मया त्वं सङ्गरं कुरु ॥ ७५ ॥
इस तरह यूपकेतुका पराक्रम देखकर राजा कम्बुकण्ठ स्वयं अपने रथपर सवार होकर उन शयोंको शेंदते हुए बची हुई सेनाके साथ यूपकेतुके सामने जा पहुंचे और क्रोधमें भरकर उन्होंने कहा-अब तू मेरे साथ संग्राम कर ॥ ७४-७५ ॥

किमतान्मशकान् हत्वा पौरुष मन्यसे जड ।
इत्युक्त्वा सप्तभिर्वाणर्य पकेतं जघान सः ॥ ७६ ॥
अरे जड़ ! इन मच्छडोंको मारकर क्या तू अपने पौरुषको पौरुष मानता है ? ऐसा कहकर कम्बुकण्ठने तीन बाणोंसे यूपकेतुपर प्रहार किया ॥ ७६ ॥

तान्बाणानागतान् दृष्ट्वा यूपकेतुनिजैः शरैः ।
तांश्छित्वा नववाणैस्तच्चापं सारथिनं ध्वजम् ॥ ७७ ॥
कवचं मुकुटं छित्वा जधान तुरगानपि ।
पद्भयां तदा कंबुकण्ठो गदामादाय दुद्रुवे ॥ ७८ ॥
उन बाणोंको अपनी ओर आते देखकर यूपकेतुने अपने ती बाणोंसे कम्बुकण्ठके बाणों, धनुष, सारथी, ध्वजा, कवच और मुकुटको काट डाला और घोड़ोंको भी मार दिया तब कम्बुकण्ठ पैदल ही गदा लेकर दौड़ पट्टे ॥ ७७-७८ ॥

तावत्सहस्रधा वाणैर्यपकेतुश्चकार ताम् ।
ततो बछा दृढां मुष्टिं कम्बुकंठस्त्वरान्वितः ॥ ७९ ॥
हृदये युपकेतोस्तां जघानाचलसन्निभाम् ।
तदा स यूपकेतुस्तं श्वशुरं स्यदनोपरि ॥ ८० ॥
चजे बबंध वेगेन खङ्गं जग्राह सम्भ्रमात् ।
कंचुकण्ठशिरश्छेदं कर्तुं तं समुपस्थितम् ॥ ८१ ॥
यूपकेतुने अपने बाणोंसे उनकी गदाके भी हजार टुकड़े कर दिये। इसके बाद सरकाटने यूपकेतुकी छातीपर कठोर घुसा मारा। तब यूपकेतुने अपने ससुर कम्बकण्टको रथकी ध्वजामें बांध लिया और सिर काटनेके लिए धेगके साथ तलवार उठायी ॥ ७९-८१॥

दृष्ट्वा धृत्वा करे तस्य सखद् सम्भ्रमान्विता ।
तमाह नवा साध्वक्षी तदा मदनसुन्दरी ॥ ८२ ॥
इस तरह सिर काटनेको उद्यत एवं हाथ में खड़ा लिये यूपकेतुको देखकर मदनसुन्दरीने प्रणाम किया और आँखों में आंसू भरकर कहा-॥८२॥

विला विगतोत्साहा पती ह्यथलोचना ।
मम तातं कंबकण्ठमेनं हंसि कथं प्रभो ॥ ८३ ॥
मक्षिकापतनं पूर्व ग्रासे यद्वन्चया कृतम् ।
सुखारम्भे पर्वमेव दुःखकर्मावलम्बितम् ॥ ८४ ॥
हे प्रभो ! मेरे पिता कम्बुकण्ठको आप क्यों मारना चाहते हैं ? पहले ही यास मयखी गिर पड़ने के समान आपने नखक स्थान में इस दुःखदायी कर्मको क्यों अपनाया है ? ॥८३-८४॥

मद्वाक्यान्नव हंतव्यस्तस्माचा प्राथेयाम्यहम् ।
एवं मदनसुन्दा वचः श्रत्वा विहस्य सः ॥ ८५ ॥
कराद्विसज्य तं खई स्वसूतं चोदयन्मुदा ।
सेनया स ययौ यावत्पथाऽयोध्यां पूरी प्रति ॥ ८६ ॥
आप मेरी बात मानकर इन्हें मत मारिए। मैं आपसे यही प्रार्थना करती हूँ। यह कहती हई मदनसन्दरी विकल हो गयी। उसका उत्साह नष्ट हो गया था, वह कांप रही थी और नेत्रोंसे आँसूकी धाराएं बहाती जा रही थी। इस प्रकार मदनसुन्दरीकी बात सुनकर यूपकेतु मुस्कराये और खड्ग फेंककर अपने सारथीको रथ चलानेका संकेत किया। वे अपनी सेनाके साथ अयोध्यापुरी की ओर चले ही थे ॥ ८५-८६ ॥

तावददंदमिनि?पानग्रे शुश्राव सेनया ।
पनचापं हटीकत्य यपकेतस्तदा पथि ॥ ८७ ॥
कस्याग्रे वाहिनी चेति चिंतयामास चेतसि ।
ततः शरं मुमोचेकं निजनामांकितं बलात् ॥ ८८ ॥
इतनेमें आगेसे दुन्दुभीका घोष सुनायी पड़ा। अब अपना धनुष सम्हालकर सोचने लगे कि आगेसे यह किसकी सेना आ रही है। यह सोचकर उन्होंने अपने मामसे अंकित एक वाण वेगपूर्वक छोड़ा॥८७-८८॥

योजनांतरसेनायां शरः शत्रुघ्नसन्निधौ ।
पपात तत्पदाने तं दृष्ट्वा स चकितस्तदा ॥ ८९ ॥
वह बाण उड़ता हुआ एक योजन तक गया और जहाँ सेना पड़ी हुई थी, वहां पहुंचकर शत्रुध्नके चरणोंके आगे गिरा। उस बाणको देखकर शत्रुघ्न चकित हो गये ॥८९॥

शरपुच्छे यूपकेतो म दृष्ट्वाऽथ शत्रुहा ।
निश्चितवान्यपकेतुर्मार्गेऽग्रे वर्तते ध्रुवम् ॥ ९० ॥
फिर वाणकी पूछमें यूपकेतुका नाम देखकर शत्रुघ्नने निश्चय किया कि यूपकेतु आगे रास्ते में ही है ॥९०॥

ततश्चापे स शत्रुघ्नः स्वनामांकितमुत्तमम् ।
शरं संधाय विमुखं यपकेतं ममोच ह ॥ ९१ ॥
तदनन्तर शत्रुघ्नने भी अपने नामसे अंकित एक बाण उठाकर यूपकेतुकी ओर छोड़ा ॥ ९१ ॥

स शरो यपकेतोश्च मस्तकादृतस्तदा ।
अपतत्पृष्ठभागे स तं ददर्श पितुः शरम् ॥ ९२ ॥
वह बाण यूपकेतुके ऊपरसे होता हुआ पीछे जा गिरा। युपकेतुने अपने पिताका बाण देखा ॥ ९२ ॥

तदा दृष्टो यूपकेतुः कुबन्दुंदुभिनि स्वनान् ।
गत्वा वेगेन शत्रुघ्न दृष्ट्वोत्प्लुत्य रथादधः ॥ ९३ ॥
ननाम पितरं पन्या कवुकंठं प्रदर्शयन् ।
तदा तं सुहृदं ज्ञात्वा मोचयामास शत्रुहा ॥ ९४ ॥
तब प्रसन्न होकर दुन्दुभी जैसा गर्जन करते हुए वेगके साथ शत्रुघ्नके पास पहुंचे । वहाँ पिताको देखते ही वे रथसे कूद पड़े और अपनी स्त्री मदनसुन्दरीके साथ जाकर शत्रुघ्नको प्रणाम किया और ध्वजामें बँधे हुए कम्बुकण्ठको दिखाया। शत्रुधनते उन्हें अपना सम्बन्धी समझकर छुड़ा दिया ॥९३-९४॥

कंवुकंठमुखाच्छत्वा सर्व वृत्तं सविस्तरम् ।
शत्रुघ्नः प्रार्थितस्तेन सुहृदा तत्पुरी ययौ ॥ ९५ ॥
फिर शत्रुघ्नने कम्बुकण्ठके मुखसे ही विस्तारसे साथ समस्त वृत्तान्त सुना । इसके बाद कंबुकंठके प्रार्थना करनेपर उनके साप ही कांतिपुरी गये ॥९५ ॥

कांतिपुर्या बहिः स्थित्वा कंयुकंठमतेन सः ।
आकारणार्थ लयाय राम दूतान्प्रचोदयत् ॥ ९६ ॥
वहाँ कम्बुकण्ठकी सलाहसे शत्रुघ्न नगरके बाहर ही ठहरे और रामको बुलानेके लिए दूतोंको भेजा ॥ ९६ ॥

तदा ते कंबुकंठस्य शत्रुघ्नस्यापि वेगतः ।
आकारणार्थ श्रीरामं ययुर्दूता मुदान्विताः ॥ ९७ ॥
उसी समय शत्रुघ्न तथा कम्बुकण्ठके दूत श्रीरामको बुलानेके लिए प्रसन्नतापूर्वक चल पड़े ॥ ॥९७ ॥

इति श्रीशतकोटिरामचरितांतर्गते श्रीमदानन्दरामायणे
विवाहकाण्डे मदनसुन्दरीहरणं नामाष्टमः सर्गः ॥ ८ ॥
इति श्रीशतकोटिरामचरितांतर्गते श्रीमदानन्दरामायणे पं० रामतेजपाण्डेयविरचित ज्योत्स्ना भाषाटीकासहिते विवाहकांडे अष्टमः सर्गः ॥८॥



हरिः ॐ तत्सत्


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