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॥ ॐ परमात्मने नमः ॥
॥ श्रीअग्निपुराणम् ॥
एकत्रिंशोऽध्यायः ॥ अपामार्जनविधानम् -
'अपामार्जन-विधान' एवं 'कुशापामार्जन' नामक स्तोत्रका वर्णन - अग्निरुवाच - रक्षां स्वस्य परेषाञ्च वक्ष्ये तां मार्जनाह्वयाम् । यया विमुच्यते दुःखैः सुखञ्च प्राप्नुयान्नरः ॥ १ ॥ ॐ नमः परमार्थाय पुरुषाय महात्मने । अरूपबहुरूपाय व्यापिने परमात्मने ॥ २ ॥ निष्कल्मषाय शुद्धाय ध्यानयोगरताय च । नमस्कृत्य प्रवक्ष्यामि यत् तत्सिध्यतु मे वचः ॥ ३ ॥ वराहाय नृसिंहाय वामनाय महामुने । नमस्कृत्य प्रवक्ष्यामि यत्तत्सिध्यतु मे वचः ॥ ४ ॥ त्रिविक्रमाय रामाय वैकुण्ठाय नराय च । नमस्कृत्य प्रवक्ष्यामि यत्तत् सिध्यतु मे वचः ॥ ५ ॥ अग्निदेव कहते हैं-मुने ! अब मैं अपनी तथा दूसरोंकी रक्षाका उपाय बताऊँगा । उसका नाम है-मार्जन (या अपामार्जन) । यह वह रक्षा है, जिसके द्वारा मानव दुःखसे छूट जाता है और सुखको प्राप्त कर लेता है । उन सच्चिदानन्दमय, परमार्थस्वरूप, सर्वान्तर्यामी, महात्मा, निराकार तथा सहस्रों आकारधारी व्यापक परमात्माको मेरा नमस्कार है । जो समस्त कल्मषोंसे रहित, परम शुद्ध तथा नित्य ध्यानयोगरत है, उसे नमस्कार करके मैं प्रस्तुत रक्षाके विषयमें कहूँगा, जिससे मेरी वाणी सत्य हो । महामुने ! मैं भगवान् वाराह, नृसिंह तथा वामनको भी नमस्कार करके रक्षाके विषयमें जो कुछ कहूँगा, मेरा वह कथन सिद्ध (सफल) हो । मैं भगवान् त्रिविक्रम (त्रिलोकीको तीन पगोंसे नापनेवाले विराट्स्वरूप), श्रीराम, वैकुण्ठ (नारायण) तथा नरको भी नमस्कार करके जो कहूँगा, वह मेरा वचन सत्य सिद्ध हो ॥ १-५ ॥ वराह नरसिंहेश वामनेश त्रिविक्रम । हरग्रीवेश सर्वेश हृषीकेश हराशुभम् ॥ ६ ॥ अपराजितचक्राद्यैश्चतुर्भिः परमायुधैः । अखण्डितानुभावैस्त्वं सर्वदुष्टहरो भव ॥ ७ ॥ हरामुकस्य दुरितं सर्वञ्च कुशलं कुरु । मृत्युबन्धार्तभयदं दुरितस्य च यत् फलम् ॥ ८ ॥ भगवन् वराह ! नृसिंहेश्वर ! वामनेश्वर ! त्रिविक्रम ! हयग्रीवेश, सर्वेश तथा हृषीकेश ! मेरा सारा अशुभ हर लीजिये । किसीसे भी पराजित न होनेवाले परमेश्वर ! अपने अखण्डित प्रभावशाली चक्र आदि चारों आयुधोंसे समस्त दुष्टोंका संहार कर डालिये । प्रभो ! आप अमुक (रोगी या प्रार्थी)के सम्पूर्ण पापोंको हर लीजिये और उसके लिये पूर्णतया कुशल-क्षेमका सम्पादन कीजिये । दोषयुक्त यज्ञ या पापके फलस्वरूप जो मृत्यु, बन्धन, रोग, पीडा या भय आदि प्राप्त होते हैं, उन सबको मिटा दीजिये ॥ ६-८ ॥ पराभिध्यानसहितैः प्रयुक्तञ्चाभिचारकम् । गदस्पर्शमहारोगप्रयोगं जरया जर ॥ ९ ॥ ॐ नमो वासुदेवाय नमः कृष्णाय खड्गिने । नमः पुष्करनेत्राय केशवायादिचक्रिणे ॥ १० ॥ नमः कमलकिञ्जल्कपीतनिर्मलवाससे । महाहररिपुस्कन्धसृष्टचक्राय चक्रिणे ॥ ११ ॥ दंष्ट्रोद्धृतक्षितिभृते त्रयीमूर्तिमते नमः । महायज्ञवराहाय शेषभोगाङ्कशायिने ॥ १२ ॥ तप्तहाटककेशाग्रज्वलत्पावकलोचने । वज्राधिकनखस्पर्श दिव्यसिंह नमोस्तु ते ॥ १३ ॥ काश्यपायातिह्रस्वाय ऋग्यजुःसामभूषित । तुभ्यं वामनरूपायाक्रमते गां नमो नमः ॥ १४ ॥ दूसरोंके अनिष्ट-चिन्तनमें संलग्न लोगोंद्वारा जो आभिचारिक कर्मका, विषमिश्रित अन्नपानका या महारोगका प्रयोग किया गया है, उन सबको जरा-जीर्ण कर डालिये-नष्ट कर दीजिये । ॐ भगवान् वासुदेवको नमस्कार है । खड्गधारी श्रीकृष्णको नमस्कार है । आदिचक्रधारी कमलनयन केशवको नमस्कार है । कमलपुष्पके केसरोंकी भाँति पीत-निर्मल वस्त्र धारण करनेवाले भगवान् पीताम्बरको प्रणाम है । जो महासमरमें शत्रुओंके कंधोंसे घृष्ट होता है, ऐसे चक्रके चालक भगवान् चक्रपाणिको नमस्कार है । अपनी दंष्ट्रापर उठायी हुई पृथ्वीको धारण करनेवाले वेद-विग्रह एवं शेषशय्याशायी महान् यज्ञवराहको नमस्कार है । दिव्यसिंह ! आपके केशान्त प्रतप्त-सुवर्णके समान कान्तिमान् हैं, नेत्र प्रज्वलित पावकके समान तेजस्वी हैं तथा आपके नखोंका स्पर्श वजसे भी अधिक तीक्ष्ण है; आपको नमस्कार है । अत्यन्त लघुकाय तथा ऋग्, यजु और साम तीनों वेदोंसे विभूषित आप कश्यपकुमार वामनको नमस्कार है । फिर विराट-रूपसे पृथ्वीको लाँघ जानेवाले आप त्रिविक्रमको नमस्कार है ॥ ९-१४ ॥ वराहाशेषदुष्टानि सर्वपापफलानि वै । मर्द मर्द महादंष्ट्र मर्द मर्द च तत्फलम् ॥ १५ ॥ नरसिंह करालास्य दन्तप्रान्तानलोज्ज्वल । भञ्ज भञ्ज निनादेन दुष्टान्यस्यार्तिनाशन ॥ १६ ॥ ऋग्यजुःसामगर्भाभिर्वाग्भिर्वामनरूपधृक् । प्रशमं सर्वदुःखानि नयत्त्वस्य जनार्दनः ॥ १७ ॥ ऐकाहिकं द्व्याहिकञ्च तथा त्रिदिवसं ज्वरम् । चातुर्थकं तथात्युग्रं तथैव सततज्वरम् ॥ १८ ॥ दोषोत्थं सन्निपातोत्थं तथैवागन्तुकं ज्वरम् । शमं नयाशु गोविन्द च्छिन्धि च्छिन्ध्यस्य वेदनाम् ॥ १९ ॥ वराहरूपधारी नारायण ! समस्त पापोंके फलरूपसे प्राप्त सम्पूर्ण दुष्ट रोगोंको कुचल दीजिये, कुचल दीजिये । बड़े-बड़े दाढ़ोंवाले महावराह ! पापजनित फलको मसल डालिये, नष्ट कर दीजिये । विकटानन नृसिंह ! आपका दन्त-प्रान्त अग्निके समान जाज्वल्यमान है । आर्तिनाशन ! आक्रमणकारी दुष्टोंको देखिये और अपनी दहाड़से इन सबका नाश कीजिये, नाश कीजिये । वामनरूपधारी जनार्दन ! ऋक्, यजुः एवं सामवेदके गूढ़ तत्त्वोंसे भरी वाणीद्वारा इस आर्तजनके समस्त दुःखोंका शमन कीजिये । गोविन्द ! इसके त्रिदोषज, संनिपातज, आगन्तुक, ऐकाहिक, याहिक, त्र्याहिक तथा अत्यन्त उग्र चातुर्थिक ज्वरको एवं सतत बने रहनेवाले ज्वरको भी शीघ्र शान्त कीजिये । इसकी वेदनाको मिटा दीजिये, मिटा दीजिये ॥ १५-१९ ॥ नेत्रदुःखं शिरोदुःखं दुःखञ्चोदरसम्भवम् । अन्तःश्वासमतिश्वासं परितापं सवेपथुम् ॥ २० ॥ गुदघ्राणाङ्घ्रिरोगांश्च कुष्ठरोगांस्तथा क्षयम् । कामलादींस्तथा रोगान् प्रमेहांश्चातिदारुणान् ॥ २१ ॥ भगन्दरातिसारांश्च मुखरोगांश्च वल्गुलीम् । अश्मरीं मूत्रकृच्छ्रांश्च रोगानन्यांश्च दारुणान् ॥ २२ ॥ ये वातप्रभवा रोगा ये च पित्तसमुद्भवाः । कफोद्भवाश्च ये केचित् ये चान्ये सान्निपातिकाः ॥ २३ ॥ आगन्तुकाश्च ये रोगा लूता विस्फोटकादयः । ते सर्वे प्रशमं यान्तु वासुदेवापमार्जिताः ॥ २४ ॥ विलयं यान्तु ते सर्वे विष्णोरुच्चारणेन च । क्षयं गछन्तु चाशेषास्ते चक्राभिहता हरेः ॥ २५ ॥ अच्युतानन्तगोविन्दनामोच्चारणभीषिताः । नश्यन्ति सकला रोगाः सत्यं सत्यं वदाम्यहम् ॥ २६ ॥ इस दुखियाके नेत्ररोग, शिरोरोग, उदररोग, श्वासावरोध, अतिश्वास (दमा), परिताप, कम्पन, गुदरोग, नासिका-रोग, पादरोग, कुष्ठरोग, क्षयरोग, कामला आदि रोग, अत्यन्त दारुण प्रमेह, भगंदर, अतिसार, मुखरोग, वल्गुली, अश्मरी (पथरी), मूत्रकृच्छू तथा अन्य महाभयंकर रोगोंको भी दूर कीजिये । भगवान् वासुदेवके संकीर्तनमात्रसे जो भी वातज, पित्तज, कफज, संनिपातज, आगन्तुक तथा लूता (मकरी), विस्फोट (फोडे) आदि रोग हैं, वे सभी अपमार्जित होकर शान्त हो जायँ । वे सभी भगवान् विष्णुके नामोच्चारणके प्रभावसे विलुप्त हो जायें । वे समस्त रोग श्रीहरिके चक्रसे प्रतिहत होकर क्षयको प्राप्त हों । अच्युत', 'अनन्त' एवं 'गोविन्द'-इन नामोंके उच्चारणरूप औषधसे सम्पूर्ण रोग नष्ट हो जाते हैं, यह मैं सत्य-सत्य कहता हूँ ॥ २०-२६ ॥ स्थावरं जङ्गमं वापि कृत्रिमं चापि यद्विषम् । दन्तोद्भवं नखभवमाकाशप्रभवं विषम् ॥ २७ ॥ लूतादिप्रभवं यच्च विषमन्यत्तु दुःखदम् । शमं नयतु तत्सर्वं कीर्तितोस्य जनार्दनः ॥ २८ ॥ ग्रहान् प्रेतग्रहांश्चापि तथा वै डाकिनीग्रहान् । वेतालांश्च पिशाचांश्च गन्धर्वान् यक्षराक्षसान् ॥ २९ ॥ शकुनीपूतनाद्यांश्च तथा वैनायकान् ग्रहान् । मुखमण्डीं तथा क्रूरां रेवतीं वृद्धरेवतीम् ॥ ३० ॥ वृद्धकाख्यान् ग्रहांश्चोग्रांस्तथा मातृग्रहानपि । बालस्य विष्णोश्चरितं हन्तु बालग्रहानिमान् ॥ ३१ ॥ वृद्धाश्च ये ग्रहाः केचिद्ये च बालग्रहाः क्वचित् । नरसिंहस्य ते दृष्ट्या दग्धा ये चापि यौवने ॥ ३२ ॥ सदा करालवदनो नरसिंहो महाबलः । ग्रहानशेषान्निःशेषान् करोतु जगतो हितः ॥ ३३ ॥ नरसिंह महासिंह ज्वालामालोज्ज्वलानन । ग्रहानशेषान् सर्वेश खाद खादाग्निलोचन ॥ ३४ ॥ स्थावर, जङ्गम, कृत्रिम, दन्तोद्भुत, नखोद्भत, आकाशोद्भूत तथा लूतादिसे उत्पन्न एवं अन्य जो भी दुःखप्रद विष हों-भगवान् वासुदेवका संकीर्तन उनका प्रशमन करे । बालरूपधारी श्रीहरि (श्रीकृष्ण)-के चरित्रका कीर्तन ग्रह, प्रेतग्रह, डाकिनीग्रह, वेताल, पिशाच, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, शकुनी-पूतना आदि ग्रह, विनायकग्रह, मुखमण्डिका, क्रूर रेवती, वृद्धरेवती, वृद्धिका नामसे प्रसिद्ध उग्र ग्रह एवं मातृग्रह-इन सभी बालग्रहोंका नाश करे । भगवन् ! आप नरसिंहके दृष्टिपातसे जो भी वृद्ध, बाल तथा युवा ग्रह हों, वे दग्ध हो जायें । जिनका मुख सटा-समूहसे विकराल प्रतीत होता है, वे लोकहितैषी महाबलवान् भगवान् नृसिंह समस्त बालग्रहोंको निःशेष कर दें । महासिंह नरसिंह ! ज्वालामालाओंसे आपका मुखमण्डल उज्ज्वल हो रहा है । अग्निलोचन ! सर्वेश्वर ! समस्त ग्रहोंका भक्षण कीजिये, भक्षण कीजिये ॥ २७-३४ ॥ ये रोगा ये महोत्पाता यद्विषं ये महाग्रहाः । यानि च क्रूरभृतानि ग्रहपीडाश्च दारुणाः ॥ ३५ ॥ शस्त्रक्षतेषु ये दोषा ज्वालागर्दभकादयः । तानि सर्वाणि सर्वात्मा परमात्मा जनार्दनः ॥ ३६ ॥ किञ्चिद्रूपं समास्थ्स्स्य वासुदेवास्य नाशय ॥ ३७ ॥ क्षिप्त्वा सुदर्शनं चक्रं ज्वालामालातिभीषणम् । सर्वदुष्टोपशमनं कुरु देववराच्युत ॥ ३८ ॥ सुदर्शन महाज्वाल च्छिन्धि च्छिन्धि महारव । सर्वदुष्टानि रक्षांसि क्षयं यान्तु विभीषण ॥ ३९ ॥ प्राच्यां प्रतीच्यां च दिशि दक्षिणोत्तरतस्तथा । रक्षाङ्करोतु सर्वात्मा नरसिंहः सुगर्जितः ॥ ४० ॥ दिवि भुव्यन्तरीक्षे च पृष्ठतः पार्श्वतोग्रतः । रक्षाङ्करोतु भगवान् बहुरूपी जनार्दनः ॥ ४१ ॥ यथा विष्णुर्जगत्सर्वं सदेवासुरमानुषम् । वासुदेव ! आप सर्वात्मा परमेश्वर जनार्दन हैं । इस व्यक्तिके जो भी रोग, महान् उत्पात, विष, महाग्रह, क्रूर भूत, दारुण ग्रहपीडा तथा ज्वालागर्दभक आदि शस्त्र-क्षत-जनित दोष हों, उन सबका कोई भी रूप धारण करके नाश करें । देवश्रेष्ठ अच्युत ज्वालामालाओंसे अत्यन्त भीषण सुदर्शनचक्रको प्रेरित करके समस्त दुष्ट रोगोंका शमन कीजिये । महाभयंकर सुदर्शन ! तुम प्रचण्ड ज्वालाओंसे सुशोभित और महान् शब्द करनेवाले हो; अतः सम्पूर्ण दुष्ट राक्षसोंका संहार करो, संहार करो । वे तुम्हारे प्रभावसे क्षयको प्राप्त हों । पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण दिशामें सर्वात्मा नृसिंह अपनी गर्जनासे रक्षा करें । स्वर्गलोकमें, भूलोकमें, अन्तरिक्षमें तथा आगे-पीछे अनेक रूपधारी भगवान् जनार्दन रक्षा करें । देवता, असुर और मनुष्योंसहित यह सम्पूर्ण जगत् भगवान् विष्णुका ही स्वरूप है; इस सत्यके प्रभावसे इसके दुष्ट रोग शान्त हों ॥ ३५- ४१.५ ॥ तेन सत्येन दुष्टानि शममस्य व्रजन्तु वै ॥ ४२ ॥ यथा विष्णौ स्मृते सद्यः सङ्क्षयं यान्ति पातकाः । सत्येन तेन सकलं दुष्टमस्य प्रशाम्यतु ॥ ४३ ॥ परमात्मा यथा विष्णुर्वेदान्तेषु च गीयते । तेन सत्येन सकलं दुष्टमस्य प्रशाम्यतु ॥ ४४ ॥ यथा यज्ञेश्वरो विष्णुर्देवेष्वपि हि गीयते । सत्येन तेन सकलं यन्मयोक्तं तथास्तु तत् ॥ ४५ ॥ शान्तिरस्तु शिवञ्चास्तु दुष्टमस्य प्रशाम्यतु । वासुदेवशरीरोत्थैः कुशैः निर्मथितं मया ॥ ४६ ॥ अपमार्जतु गोविन्दो नरो नारायणस्तथा । तथास्तु सर्वदुःखानां प्रशमो जपनाद्धरेः ॥ ४७ ॥ अपमार्जनकं शस्त्रं सर्वरोगादिवारणम् । अयं हरिः कुशो विष्णुर्हता रोगा मया तव ॥ ४८ ॥ श्रीविष्णुके स्मरणमात्रसे पापसमूह तत्काल नष्ट हो जाते हैं, इस सत्यके प्रभावसे इसके समस्त दूषित रोग शान्त हो जायें । यज्ञेश्वर विष्णु देवताओंद्वारा प्रशंसित होते हैं; इस सत्यके प्रभावसे मेरा कथन सत्य हो । शान्ति हो, मंगल हो । इसका दुष्ट रोग शान्त हो । मैंने भगवान् वासुदेवके शरीरसे प्रादुर्भूत कुशोंसे इसके रोगोंको नष्ट किया है । नरनारायण और गोविन्द-इसका अपामार्जन करें । श्रीहरिके वचनसे इसके सम्पूर्ण दुःखोंका शमन हो जाय । समस्त रोगादिके निवारणके लिये 'अपामार्जन-स्तोत्र' प्रशस्त है । मैं श्रीहरि हूँ, कुशा विष्णु हैं । मैंने तुम्हारे रोगोंका नाश कर दिया है । ४२-४८ ॥ इति आदिमहापुराणे आग्नेये कुशापामार्जनस्तोत्रवर्णनं नाम एकत्रिंशोऽध्यायः इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'कुशापामार्जन-स्तोत्रका वर्णन 'नामक इकतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३१ ॥ हरिः ॐ तत्सत् |