॥ ॐ परमात्मने नमः ॥
॥ श्रीअग्निपुराणम् ॥
प्रथमोऽध्यायः ॥
ग्रंथप्रस्तावना -
मङ्गलाचरण तथा अग्नि और वसिष्ठके संवाद-रूपसे अग्निपुराणका आरम्भ -
गीता-दर्शन
[ २ ]
प्रवचन : १
प्रपन्नपारिजाताय तोत्रवेकपाणये।
ज्ञानमुद्राय कृष्णाय गीताऽमृतदुहे नमः॥ भगवान् श्रीकृष्ण प्रपन्नपारिजात हैं। जो उनके चरण पकड़ ले, उनकी शरणमें आजाये; उसके लिए कल्पवृक्ष हैं। स्वभक्तपक्षपाती हैं। ब्रह्मका जो वर्णन वेदान्ती करते हैं, वह निष्पक्ष होता है, उसमें भक्ति-सम्प्रदाय चलानेकी आवश्यकता नहीं होती। परन्तु जहाँ सगुण-साकार परमेश्वरका वर्णन होता है, उसमें भक्ति-परम्परा अनिवार्य है। वहां भक्ति करनेसे लाभ होता है, न करनेसे हानि होती है। भगवान् अपनो शरणमें आये हुए की रक्षा करते हैं और उसके सारे मनोरथ भी पूरे करते हैं। यदि शरणमें जानेपर भी समानताका ही व्यवहार मिले, न्याय ही मिले तो कोई शरणमें क्यों जायेगा ? शरणागति न्याय-प्राप्तिके लिए नहीं, सहायताके लिए सुरक्षाके लिए होती है। अस्तु; प्रपन्नपारिजात हैं भगवान् श्रीकृष्ण । वे संयम और प्रशासन-स्वरूप तोत्र और वेत्रका अथात् घोड़ेकी लगाम और उसके बेकाबू होनेपर उसे दण्डित करनेके लिए चाबुकको अपने हाथमें रखते हैं। तात्पर्य यह है कि इन्द्रियाँ स्वच्छन्द नहीं हैं और उनके उच्छृङ्खल होनेपर उनको दण्ड देनेकी सामर्थ्य भी है। भगवान्के हाथमें तोत्र-क्षेत्र तो है ही वे ज्ञानमुद्रासे भी सुशोभित है। उनकी मद्रासे ही ज्ञानकी वर्षा होती है। वे सार्वजनिक हितको दृष्टिसे ही गीताऽमृतका दोहन कर रहे हैं। ये सब शरण्यके लक्षण हैं। इसलिए आइये हम नमस्कार करें भगवान् श्रीकृष्णको, जो समस्त आकर्षणोंके, प्यारके केन्द्र हैं और सच्चिदानन्दघन परमेश्वर हैं।
श्रीमद्भगवद्गीतामें जो 'गीता' शब्द है वह संज्ञा भी है और क्रिया भी है-'गीताशास्त्रमिदं पुण्यं ।' थोड़ा इसपर ध्यान दें। दुर्योधन और अर्जुन दोनों युद्धभूमिमें आते हैं। दुर्योधनका सारथि कौन है-इसका अनुसन्धान आप लोग करना। महाभारतमें ढूँढ़ना कि कहीं उसका नाम मिल जाये। अज्ञातप्राय सारथि है। इसका यह अर्थ है कि अज्ञान ही सारथ्य कर रहा है दुर्योधनका । इधर अर्जुनके सारथि हैं श्रीकृष्ण । दुर्योधन आचार्यके पास जाकर कहता है-'पश्यैतां'-'देखो यह सेना।' अर्जुनका कहना है कि'यावतानिरीक्षेऽहं'-'मैं निरीक्षण करूंगा।' देखते दोनों हैं सेनाको-दुर्योधन भी और अर्जुन भी। परन्तु दुर्योधनके मनमें विवेकका उदय नहीं होता। वह अपने पहलेके आग्रहपर ही अडिग है और अर्जुनके मनमें विवेकका उदय होता है। जो सोचविचारकर काम करता है, उसको सफलता मिलती है और जो बिना सोचे-समझे, आग्रहवश, काम करता है, वह निष्फल होता है, विफल होता है।
अब आप अर्जुन और दुर्योधन दोनोंकी प्रवृत्तियों में जो अन्तर है, उसे देखो-एक तो भगवदृष्टिसे और दूसरे अर्जुनकी दृष्टिसे । भगवान् अपने शरणागतकी रक्षा करनेके लिए पूर्णरूपसे तैयार हैं। वे आज्ञाकारी तक बन गये हैं। अर्जुनने-'करिष्ये वचनं तव'मैं तुम्हारी आज्ञाका पालन करूंगा-यह बात गीताके अन्तमें कही है। परन्तु श्रीकृष्णने गीताके प्रारम्भमें ही अर्जुनकी आज्ञाका पालन किया है
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत। यह श्रीकृष्णकी शरण्यताके सामर्थ्यका द्योतक है। श्रीकृष्ण इतने शरणागतवत्सल हैं कि अर्जुन उनसे छोटा होनेपर भी उन्हें आज्ञा दे देता है। अर्जुन जीव होनेपर भी श्रीकृष्णको आज्ञा देते हैं और श्रीकृष्ण ईश्वर होकर भी जीवकी आज्ञाका पालन करते हैं। जब ईश्वर अपने ऐश्वर्यको स्वभक्तपर बलिदान कर देता है तो भक्तमें ऐसा क्या सामर्थ्य है कि वह ईश्वरके प्रेममें, ईश्वरकी भक्तिमें, अपने ऐश्वर्यका बलिदान न करे? श्रीकृष्ण अपनी ईश्वरताको एक ओर किनारे रखकर अर्जुनके सारथिका काम करते हैं। 'सारयति अश्वान् इति सारथिः-जो हमारे जीवनका संचालन करे उसका नाम सारथि होता है। यह हम आपको बता चुके हैं। युद्धमें युर्योधनको जो प्रवृत्ति है, वह स्वार्थको है। वह कहता है कि 'मदर्थे त्यक्तजीविता:-मेरा अर्थ पूरा होगा और सैनिक मरेंगे। ये सब मेरे हितार्थ मरनेके लिए तैयार होकर आये हैं। किन्तु अर्जुनकी युद्धमें प्रवृत्ति लोकहितके लिए है
येषामर्थे काक्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च । मैं अपने लिए राज्य और भोग-सुख नहीं चाहता। जिनके लिए चाहता हूँ, वे मरनेके लिए तैयार हैं। फिर युद्ध करनेसे क्या लाभ है ? अस्तु; अर्जुनकी भाँति विवेक करके ही काम करना चाहिए । सहसा, बिना विचारे कोई काम नहीं करना चाहिए।
अभिवर्षति योऽनुपालयन् विधिबीजानि विवेकवारिणा। स सदा फलशालिनी क्रियां शरदो लोक इवान्धि तिष्ठति ॥
विवेकके कारण ही अर्जुनके मनमें जिज्ञासाका भाव उदय हुआ। जो विवेक करता है, उसके सामने दो पक्ष आ जाते हैं। विवेक करनेका मतलब है दो अथवा अनेकमें से एकको चुनना।
'विचिर-पृथग्भावे' विविध वस्तुओंको उनके सम्मिश्रणमें से अलगअलग करनेका नाम संस्कृत भाषामें विवेक है। अर्जुनके मनमें तो कर्तव्याकर्तव्य सम्बन्धी विवेक जागृत हुआ, परन्तु दुर्योधनके मनमें जागृत नहीं हुआ। उसकी बुद्धि करवट बदल रही है। वेदमें एक मन्त्र आता है-'कलिः शयानो भवति' जो सो गया वह कलियुग हो गया। 'संजिहानस्तु द्वापर!' जो सजिहाने लगा, करवट बदलने लगा वह द्वापर हो गया। 'उत्तिष्ठन् त्रेता भवति' जो खड़ा हो गया वह त्रेता हो गया। 'कृतं संपद्यते चरन्' जो अपने कर्तव्यके मार्गमें लक्ष्यप्राप्तिके लिए आगे बढ़ने लगा वह सत्ययुग हो गया।
इसी प्रकार अर्जुन सोया हुआ नहीं है, सुषुप्त नहीं है । उसकी बुद्धि जागृत हो रही है। 'धर्मसंमूढचेताः'-वह अपनी मूढ़ताको समझता है। किन्तु, दुर्योधन अपनेको मूढ़ नहीं मान सकता। मूटका लक्षण यही है कि वह अपनेको मूढ़ नहीं मानता, अपनी मूढ़ताको नहीं समझता। जो जागरूक है, वह अपने मोहसे परिचित है, अपनी गलतियोंको भी समझता है। इसीलिए वह कहता है
यच्छ्रेयः स्यानिश्चितं ब्रूहि तन्मे । जिससे मेरा हित हो, मुझे बताओ। वह श्रेयका जिज्ञासु है। गीतामें श्रेय शब्दका प्रयोग एक बार नहीं अनेक बार हुआ है। 'श्रेयो भोक्तु भेक्ष्यमपीह लोके-मैं भीख मांगकर खाऊँगा, परन्तु हिंसा नहीं करूंगा । यही सबसे बड़ा श्रेय होगा।
इस बार मुझे आपको पाँचवें अध्यायका प्रसंग सुनाना है। पिछली बार चार अध्याय पूरे हुए थे। भूमिकाके रूपमें आप लोग थोड़ी-सी बात समझ लें। मनुष्यके जीवनमें पुरुषार्थ चार होते हैं। कोई-कोई पाँच भी मानते हैं। हमको अर्थ चाहिए, धन चाहिए, जो भी चाहिए, उसकी दृष्टिसे हमें विचार करना पड़ेगा कि उसके लिए साधन क्या है, इस प्रश्नको लेकर उड़ान नहीं भरना चाहिए कि गीतामें कर्म करनेके लिए कहा गया है या कर्म छोड़नेके लिए अथवा उसकी मीमांसा क्या प्रस्तुत की गयी है ? पहले यह देखना चाहिए कि हमारा लक्ष्य क्या है ? यदि हमें संसारकी सम्पदा चाहिए तो न ऐसा कोई शास्त्र है, न कोई परमेश्वर है, न महात्मा है जो कह दे कि धन चाहनेवालेको कर्म नहीं करना चाहिए। है कोई ? इसलिए यदि धन चाहिए तो जहाँ धन मिलेगा, वहाँ पहुंचना पड़ेगा। जो विचारपूर्वक कर्म करता है, उसके गले में गुणको लालची सम्पदाएँ स्वयं वरमाला पहनाती हैं
सहसा विदधीत न कियाम् अविवेकः परमापदां पदम् ।
वृणुते हि विमृश्य कारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव संपदः ॥
किरातार्जुनीयम् सम्पत्ति उसीका वरण करती है जो गुणी हो, शीलवान हो, वृद्धके आश्रयमें रहता हो और कृतज्ञ हो। कृतज्ञता बड़ा भारी गुण है, जो अपनेको लाभ पहुंचानेवालेके प्रति कृतज्ञता प्रकट करनेमें कृपण होता है, सम्पत्ति उसका साथ नहीं देती। मनुष्यको कृतज्ञ होना ही चाहिए। अस्तु; यदि सांसारिक सम्पदा प्राप्त करनी है तो आपको कर्म करनेसे रोकना या उसके प्रति सन्देह उत्पन्न करना किसी भी दृष्टिसे उचित नहीं है। यदि भोग प्राप्त करना हो तो उसकी प्राप्ति भी बिना कर्मके नहीं होती। इस हास्योक्तिका तो पिछली बार भी उल्लेख किया जा चुका है कि यदि विष्णु भगवान् भी आलस्यमें ही रहने लगें तो लक्ष्मीजी उनको छोड़कर चलो जायेंगी-'विमुञ्चति श्रीरपि चक्रपाणिम् ।'
अतः मनुष्यको कर्मशील रहना चाहिए। बिना कर्मके न धन मिलता है, न भोग मिलता है। चाह मनमें हो किन्तु कर्म न हो तो आदमी पागल हो जायेगा। या तो चाह मिटानेके लिए प्रयास करो या चाह पूरी करनेके लिए प्रयास करो, प्रयास तो दोनों ओर रहेगा-ही-रहेगा। अब धर्मको लें। धर्म तो कर्मरूप ही है। यदि आप धर्म चाहते हैं तो भी कम करना ही पड़ेगा। बिना कर्मके धर्म केसे होगा? इसलिए गीतामें जब यह प्रश्न उठता है कि कर्म करना चाहिए या नहीं करना चाहिए तो उसमें दुविधाकी कोई बात न धन चाहनेवालोंके लिए है, न भोग चाहनेवालोंके लिए है और न धर्म चाहनेवालोंके लिए ही है। कर्मसे धर्मकी उत्पत्ति होती हैयह एक मत है और स्वयं विहित कम ही धर्म है यह दूसरा मत है। 'यं क्रियमाणम् आर्याः प्रशंसन्ति'-जब हम कोई काम करें और बड़े बूढ़े उसकी प्रशंसा करें कि तुमने बहुत बढ़िया काम किया तो वह धर्म हो जाता है। परम्पराका परित्याग करके, नवीन धर्मकी कल्पना की जाती है तो उसको वृद्धोंका आशीर्वाद नहीं मिलता। धर्म भी दृश्यमान पदार्थ है, दिखायी देनेवाला है। जहाँ अन्तःकरणकी शुद्धिपर दृष्टि है वहाँ कर्म धर्म हो जायेगा। हम जो कर्म वस्तुकी प्राप्तिके लिए, भोगकी प्राप्तिके लिए करते हैं, वह श्रम है। लोहा साफ करने, रुई साफ करने, सूत साफ करने, धातु साफ करने आदिमें जो कम होता है उसको श्रम बोलते हैं और इसको करनेवाले श्रमिक कहलाते हैं। किन्तु अपने हृदयमें परिवर्तन लानेके लिए, अन्तःकरणको शुद्ध करनेके लिए, आत्मदृष्टिसे, आध्यात्मिक उद्देश्यसे जो कर्म होता है, उसको धर्म कहते हैं।
वेदान्तमें भी जटा कर्म-संन्यास कहकर लोग गडबड फैलाते हैं, वहाँ वेदान्त-सिद्धान्त ठीक-ठोक न जाननेवालोंके मनमें ही शंका होती है । कर्म करनेसे ज्ञानकी इच्छा पैदा होती है, विविदिषा एवं जिज्ञासा उत्पन्न होती है-ऐसा भामतीकारका अभिमत है। कर्म करनेसे ज्ञान ही उत्पन्न होता है, विद्या उत्पन्न होती है-यह विवरण-प्रस्थानका अभिप्राय है। तो कर्म करनेसे ज्ञान हो जायेगा अथवा कर्म करनेसे ज्ञान प्राप्त करनेकी इच्छा हो जायेगी-यह मतभेद तो वेदान्तोंमें है; परन्तु कर्म करना ही नहीं चाहिए, यह मत वेदान्तोंका नहीं। बड़े-से-बड़े संन्यासीको भूख मिटानी हो तो पावसे चलकर गांवमें जाना होगा, गृहस्थके दरवाजेपर खड़े होकर 'नारायण-हरि' बोलना पड़ेगा और भिक्षा प्राप्त करनी होगी। जब भिक्षा चाहिए तो उसके साथ कर्मका सम्बन्ध अवश्य जुड़ेगा। कुछ पाना है तो कुछ करना पड़ेगा। मोक्ष-पुरुषार्थमें कर्मका सम्बन्ध कैसे जुड़ता है ? यह एक प्रश्न है। हम ज्ञानको मिलाकर कर्म करें या कर्मसे अलग करके ज्ञानके द्वारा मोक्ष प्राप्त करें अथवा दूसरे शब्दोंमें ज्ञान-कर्मसे संयुक्त होकर हमारे मोक्षका साधन होता है या कर्मसे पृथक होकर-यह प्रश्न उठाया हुआ है। जब हम मोक्षकी नित्यतापर ध्यान देते हैं तब प्रतीत होता है कि मोक्ष पहलेसे नित्य-सिद्ध है और वह जाननेमात्रसे ही मिल जाता है। जैसे कोई रासायनिक पदार्थ पहलेसे मौजूद होता है, हम उसे पहचानते नहीं, परन्तु, प्रयोगके द्वारा, यन्त्रके द्वारा, दूरबीन, खुर्दबीनके द्वारा उसे देख लेते हैं। वैसे ही मोक्ष नित्य विद्यमान है, अपने आत्माका ही स्वरूप है और हम अज्ञान तथा मोह-निवृत्तिकी प्रक्रियाके द्वारा उसको जान लेते हैं-निवृत्तिरात्मा मोहस्य ज्ञातत्वेनोपलक्षित:' मोहको निवृत्तिसे, अविद्याकी निवृत्तिसे उपलक्षित आत्मा ही मोक्ष है। अर्थात् मोक्ष हम स्वयं ही हैं। परन्तु यह बात मालम नहीं पड़ती। अतः जो मालम न पडना है, उसको मिटानेके लिए प्रयास करना पड़ता है। इस प्रकार मोक्षके लिए कर्मका जो बड़ा भारी उपयोग है इसको वेदान्ती लोग चार श्रेणियों में बाँटते हैं। हमारे ऊपर अनेक ऋण हैं। यद्यपि आजकलके बच्चे तो नहीं मानते पर ऋण तो है ही-पितृऋण है, देवऋण है, ऋषिऋण है। इन ऋणोंको उतारनेके लिए मनुष्यको कर्म करना चाहिए। ऋण-अपाकरण द्वारा किया हुआ कर्म मोक्षका साधन है-ऐसा वेदान्तियोंका एक मत है। हम मांके पेटमें दस महीने रहे। पहले तो माँका दूध भी पीते थे। अब भी मांका दिल अपने बच्चेको दूध पिलाये बिना कैसे मानेगा ? जो मां अपने बच्चेको दूध नहीं पिलाती, उसके बारेमें तो बरबस यही कहना पड़ेगा कि तेरो कठिन हियो री माई। केवल जवानो बहुत दिनोंतक बनी रहे, शरीर ढीला-ढाला न दिखायी दे, इसके लिए अपने बच्चेके मुंहमें अपना दूध न डालना, किसी मांसे कैसे हो सकेगा? जो मां अपने बच्चेको दूध नहीं पिलावेगी, वह यह आशा कैसे रखेगी कि उसका बच्चा अपनी परम्पराको, अपने पैतृक धर्मको मानेगा? ।
कर्मका उपयोग किस प्रकार होता है ? एक तो जो हमारी परम्पराका ऋण हमारे ऊपर आया है-माता-पिताके द्वारा, नाना-नानीके द्वारा, दादा-दादीके द्वारा, पूरे गोत्रके द्वारा-वह उतारेके लिए हमें अपने कुलसे सम्बन्ध रखकर उसके कर्तव्योंका पालन करना चाहिए। नहीं तो मनुष्य कृतघ्न हो जाता है और कृतघ्नताके दोषसे उसके ज्ञानमें बाधा पड़ती है। दूसरा है देवऋण । हम जो सूर्य देवतासे प्रकाश ग्रहण करते हैं, वायु देवतासे सांस लेते हैं, वरुण देवतासे-पानीसे अपनी प्यास बुझाते हैं, अपने आपको तृप्त करते हैं, पृथिवी देवीपर चलते हैं, उसको अपने पावसे रौंदते हैं, यह क्या उनका थोड़ा ऋण है हमारे ऊपर ? अतः हमारी इन्द्रियां व्यष्टि-समष्टिसे जो शक्ति प्राप्त करती हैं, उसके लिए भी हमको कुछ करना चाहिए। आप यदि पूछे कि क्या करना चाहिए, तो इसका उत्तर है धरतीको, जलको, वायुको साफ-सुथरा और शुद्ध रखनेका प्रयास करना चाहिए । वातावरणको पर्यावरणको दूषित नहीं होने देना चाहिए। आप कूड़ेका धुंआ तो आसमानमें उड़ा देते हैं परन्तु धूपका धुंआ उड़ाना हो तो कहते हैं कि फिजूलखर्ची है। आप पनाला तो गंगाजोमें गिरा देते हैं, लेकिन उसमें पावभर दूध डालना हो तो कहते हैं यह अपव्यय है, व्यर्थ है। ऐसा नहीं होना चाहिए। आप जानते हैं हमारे शास्त्रोंमें धरतीकी, जलकी, वायुको, अग्निकी पूजाका विधान है। हम पूजा उसीकी करते हैं, जो हमारा आदरणीय होता है, उपकारी होता है। पूजाका तात्पर्य है श्रद्धाकी अभिव्यक्ति। व्यष्टि समष्टिसे अनुग्रह प्राप्त करके ही जीवित रहता है। यदि वह इस बातको भूल जाये तो कृतघ्न बन जाता है। हम जीवित रहनेके लिए सांस लेते हैं, देखनेके लिए प्रकाश ग्रहण करते हैं, किन्तु वायु और सूर्य हमसे कोई शुल्क नहीं लेते। हम जलमें स्नान करते हैं, मैल धोते हैं, परन्तु वरुण देवताका कोई बिल हमारे पास नहीं आता। इसी तरह अन्य देवताओंके ऋण भी किसी-न-किसी प्रकार हमारे ऊपर हैं और यदि हम उनको न चुकाएँ तो वे हमारे अन्तःकरणका अशुद्ध करते हैं और सत्यके ज्ञानमें बाधा डालते हैं। अब आप ऋषि-ऋणपर ध्यान दें। हमारा एक भी अक्षर, एक भी शब्द, एक भी वाक्य, एक भी ज्ञान ऐसा नहीं, जो हमें ऋषियोंसे प्राप्त न हुआ हो । ये स्वर और व्यंजन-अ, आ, इ तथा क, ख, ग-क्या अपने पेटमें-से लेकर हम आये हैं ? घ्राणेन्द्रियको नाक कहिये अथवा श्रवणेन्द्रियको कान कहिये, इसका व्यवहारज्ञान हमको कहाँसे मिला? तत्त्वदर्शी ऋषियोंने ही पद और पदार्थका बोध कराया। उन्होंने ही निश्चय किया है कि यह पद है, यह पदार्थ है। आपको तो शायद मालूम ही होगा, दूसरे देशोंमें भाषाके जो विद्वान् हैं वे ऐसा मानते हैं कि शब्द इशारेके रूपमें बनाये गये हैं। किन्तु अपने यहाँ जो प्राचीन शास्त्र हैं. उनमें माना गया है कि वाच्य और वाचक दोनों एक साथ ही प्रकट हुए हैं। शब्द और अर्थ, वाक् और तात्पर्य हमेशा मिले हुए होते हैं। जब कोई वस्तु प्रकट होती है तो अपना नाम लेकर ध्वनि करती हुई ही प्रकट होती है। उसके स्पन्दनमें उसका संकेत विद्यमान रहता है-औत्पत्तिकस्तु शब्दस्यार्थेन सम्बन्धः।' यह गम्भीर दृष्टिकोण ऋषियोंका ऋण मिटानेके लिए, उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करनेके लिए आवश्यक है। हमें ऋषियों द्वारा निर्मित शास्त्रोंका स्वाध्याय करना चाहिए। अन्यथा हम उनके शब्दोंका, संकेतोंका प्रयोग तो करें किन्तु उनके प्रति कृतज्ञ न हों तो कृतघ्नताका दोष लगता है।
तो जगत्में जो पदार्थ हैं, उनको पवित्र रखनेके लिए, शुद्ध रखनेके लिए हमें कर्म करना चाहिए। हम समझ जायें कि इस संसारकी कोई भी वस्तु दूषित नहीं करनी है। हवा गंदी नहीं करनी है, पानी गंदा नहीं करना है, आग गंदी नहीं करनी है, पृथिवी गंदी नहीं करनी है और अपने हृदय, शरीर और समाजको भी गंदा नहीं करना है। इसके लिए हमको सतत कर्म करना चाहिए। अपनी परम्पराको रक्षाके लिए भी कर्म करना चाहिए । और हमारे ज्ञानकी जो धारा चली आ रही है, उसे प्रवहमान बनाये रखनेके लिए भी हमें निरन्तर कर्मपरायण रहना चाहिए। यदि आप ज्ञानधाराकी रक्षा करोगे, तो आगे आपका जो ज्ञान है, उसका भी उपयोग होगा। अन्यथा आपका ज्ञान आपतक ही सीमित रह जायेगा। अतः इन सब दोषोंकी निवृत्तिके लिए अन्तः करणकी शुद्धिमें उपयोगी कर्मका अनुष्ठान हमें करते रहना चाहिए। देवताकी आराधनासे आगे बढ़कर ही हम प्रजापतिसे, हिरण्यगर्भसे एक होकर समष्टिका ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। उसमें राम भी हैं, श्याम भी हैं, शिव भी हैं, अन्तर्यामो भी वहीं अनुभव होता है। सर्वात्मभावको प्राप्ति करके, प्रजापतिसे तादात्म्यापन्न होकर जो समष्टिका विज्ञान है, उसको प्राप्त करनेके लिए भी कर्म करना चाहिए। हमारे मनमें सर्वात्मा सत्यके ज्ञानकी इच्छा हो, उत्पत्ति हो, इसके लिए भी कर्म करना अनिवार्य है। कर्म तत्त्वज्ञानके मार्गमें सर्वथा उपयोगी है। यदि उसमें मतभेद है तो केवल इतना हो है और वह भी सिद्धान्तका है कि कर्मसे जिज्ञासाकी उत्पत्ति होती है या कर्मसे ज्ञानकी उत्पत्ति होती है ? यह बात में शाङ्कर सम्प्रदायको स्वीकार करके आपको सुना रहा हूँ। हमारी सम्प्रदाय-परम्पराके अनुसार कर्म त्याज्य नहीं है और गीता तो साफ ही बोलती है कि-'यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम् ।' अर्थात् यज्ञ, दान और तप पवित्र कर्म हैं। इन्हें भली-भांति सोच-विचारकर मनीषापूर्वक करना चाहिए। मनीषि शब्दका अर्थ होता है मनका नियन्त्रण करनेवाला । मनका अर्थ आप जानते ही हैं। उसमें तरह-तरहके संकल्प होते रहते हैं ! उसका जो नियन्त्रण और संचालन करता है, उसका नाम मनीषि होता है। आप कैसे काम करते हैं ? जो मनमें आता है, वही करते हैं कि सोच-विचारकर करते हैं ? बचपनमें गाँवके रास्तेपर चलता था तो मनमें आता था कि आगे चलनेवालेको दौड़कर पीछे कर दें। कभी-कभी तो जब कोई जल्दी पीछे नहीं होता था तो उसको ढकेल देनेका मन होता था। अब मोटरमें चलते हैं तो ऐसा मालूम पड़ता है कि पैदल चलनेवालोंको चलनेका शऊर नहीं है और जब कभी पैदल चलते हैं तो ख्याल होता है कि मोटर चलानेवाले हमारे साथ अन्याय कर रहे हैं। यह है हमारे मनकी स्थिति । यदि हम अपने मनका ही कहना मानें, जो मनमें आवे वही करने लगे और अपने विवेकको छोड़ दें तो हममें और पशुमें क्या अन्तर रह जायेगा ? पशु भी तो बहुत विचारवान होते हैं और सोच-विचारकर, योजना बनाकर काम करते हैं। ऐसा पशुओंका निरीक्षण करनेपर विदित होता है।
ऐसी स्थितिमें यदि आप अपने मनको शुद्ध करना चाहते हैं तो उसे काबूमें रखकर बुद्धिके द्वारा विचार करके जो उचित प्रतीत हो बही कीजिये । भगवान् श्रीकृष्णने गीतामें श्रेयकी उपलब्धिके लिए, श्रेयकी प्राप्तिके लिए कर्म करना अनिवार्य बताया है। यह बात आपको कहीं भी न तो सुननेको और न पढ़नेको मिलेगी कि संसारमें अपनेको जो प्रिय लगता है, उसकी प्राप्तिके लिए कर्म नहीं करना चाहिए। कर्मका निषेध तो कहीं है ही नहीं। मतभेद वहाँ खड़ा होता है, जहाँ आप मोक्ष और परमात्माकी प्राप्तिके लिए आगे बढ़ते हैं। अर्जुनके प्रश्नोको देखिये, उनमें भी तारतम्य है। अर्जुन प्रश्न करके चुप हो जाते हैं और अपनी इच्छाके विपरीत भाव भी प्रकट कर देते हैं वे कहते हैं
यच्छ्रेयः स्यानिश्चितं ब्रूहि तन्मे । वे कहते हैं कि मेरे लिए जो कल्याणका साधन है, वह आप कृपा करके बताइये कि युद्ध करूं या न करूं। फिर इस प्रश्नके साथ ही यह बोलते हैं कि मुझे युद्ध में मत लगाइये । मैं युद्ध नहीं करूंगा-'न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह।'
अरे भाई, जब पूछते हो तो मैं जैसा कहँ वैसा करो । नहीं लड़ना ऐसा क्यों कहते हो? प्रश्न पूछना और फिर उसके साथसाथ निश्चय प्रकट कर देना तो मोहका लक्षण है। निस्सन्देह अर्जुनके प्रश्नमें मोह भरा हुआ है। इसी प्रकार तीसरे अध्यायवाले प्रश्नमें थोड़ा आक्षेप है।
व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धि मोहयसीव मे । चौथे अध्यायके प्रश्नमें संशय है अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः। और इस पांचवें अध्यायके प्रारम्भमें जो प्रश्न हैं, वह जिज्ञासुसमुचित है
सन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च संशसि ।
यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ॥
इस प्रश्नमें बड़ी भारी श्रद्धा है। अर्जुन श्रीकृष्णको बिना किसी शिष्टाचारके, केवल कृष्ण कहकर पुकारते हैं, क्योंकि वे परस्पर मित्र हैं। हमको एक महात्माने सुनाया था कि जब दो मित्र आपसमें मिलते हैं तो एक दूसरेके बारेमें जानकारी रहनेके कारण वे संक्षेपमें संकेतसे भी अपनी बात-चीत कर लेते हैं। मित्रकी बात मित्र ही समझता है। तात्पर्य यह निकलता है कि यदि आप श्रीकृष्णसे मैत्री नहीं करेंगे, केवल विद्या, बुद्धि, पदार्थोंकी पहचान, व्याकरण, काव्य, कोश आदिके ज्ञानके बलसे उनकी बात समझनेका प्रयास करेंगे तो आपको बड़ी कठिनाई होगी। मैंने एक अवधूतको देखा, वे यह कहकर रोने लगे कि तुम गीताके अर्थके लिए शास्त्रार्थ करते हो। अरे भाई ! पहले अर्जुनके सखा श्रीकृष्णको अपना सखा बनाओ। जब श्रीकृष्ण तुम्हारे सखा बनेंगे तो सखाकी बात स्वयं तुम्हारी समझमें आने लगेगी। कृष्ण शब्दमें न भगवत्ता है, न सर्वज्ञता है और न उसके साथ कोई विशेषता या सम्बोधन है। वह तो वैसा ही है, जैसा व्रजवासी कन्हैया भैया बोलते हैं। तो, अर्जुनके पूर्वोक्त प्रश्नका सीधासादा अर्थ यही है कि तुम कभी कर्मको प्रशंसा करते हो, कभी कर्म-संन्यासका वर्णन करते हो। (यहाँ शंसनका अर्थ वर्णन ही है।) कभी कर्मत्याग-कर्म-संन्यासको महिमा सुनाते हो तो कभी कर्मानुष्ठानका समर्थन करते हो। तुम जो कुछ भी कहते हो ठीक होगा। परन्तु मेरा श्रेय किसमें है, यह साफ-साफ बताओ। दुविधाकी बात मत करो कि यह कर लो, वह कर लो। अर्जुनके इस कथनसे यह ध्वनि निकलती है कि अब वे आज्ञा-पालन करनेके लिए भी तैयार हैं।
अर्जुन शब्दका संस्कृतमें अर्थ होता है कि जो ज्ञानका अर्जन करे, धनका अर्जन करे। धनञ्जय शब्दका पर्यायवाची है अर्जुन । 'अर्जनात् अर्जुनः।' जो धनार्जन करे वह धनञ्जय । धन केवल सोना-चांदोका ही नाम नहीं होता। सबसे बड़ा-परम धन तो विद्या धन है, ज्ञान धन है। महाभारतमें अर्जुन शब्दका अर्थ 'ऋजुत्वात् अर्जुन' किया है। जो एकदम ऋजु हो, सरल हो, उपदिष्ट वस्तुको ठीक-ठीक ग्रहण कर सके, उसका नाम अर्जुन है।
अर्जुन, केवल 'कृष्ण' शब्दके सम्बोधनसे यह कहते हैं कि तुम मेरे सखा हो और मैं तुम्हारा सखा है। इसलिए मुझे सुनिश्चित रूपसे बताओ कि मेरा कल्याण कर्मानुष्ठानमें है अथवा कर्म त्यागमें । इसके उत्तरमें भगवान् श्रीकृष्णने जो कहा है उसपर ध्यान दीजिये। यहाँ भगवानुवाचमें जो 'उवाच' है इसका अर्थ भगवान् बोले ऐसा नहीं है। यह भूतकालकी क्रिया तो संवादोंका सम्पादन करनेवालेने दे दी है। पहले इसी तरह अनुवाद होता था कि 'यह भगवान्का वचन है। क्योंकि भगवान् अब भी बोलते हैं और अर्जुन अब भी पूछते हैं। कोई भगवानकी आवाज सुनना चाहे तो अब भी सुन सकता है। क्योंकि भगवान् सदासर्वदा-सर्वत्र विद्यमान हैं और जहां भगवान हैं वहाँ उनकी वाणी भी है, उनकी कथा भी है और उनकी शान्ति भी है। हमारे हृदयमें भी भगवान् हैं और भगवान्के साथ-साथ उनका आनन्द, उनका वचन भी हमारे हृदयोंमें स्पन्दित हो रहा है। भगवान् बोल रहे हैं, यह जो हमारा ज्ञान है, यह भगवान्का ही ज्ञान है।
सन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ। तयोस्तु कर्मसंन्यासात् कर्मयोगो विशिष्यते ॥ ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति ।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात प्रमुच्यते ॥३॥ भगबान्ने कहा भाई अर्जुन, निःश्रेयसके साधन तो तुम स्वयं हो । तुम ही निःश्रेयस करनेवाले हो और तुम्हीं निःश्रेयसके कारण हो । वास्तवमें आप चाहे संन्यासको पकड़िये, चाहे कर्मको, दोनोंसे निःश्रेयसकी प्राप्ति होती है। निःश्रेयस ही परमात्माका ऐसा स्वरूप है, जिसके दो हाथ दुनियामें पैदा हुए हैं। आप इसपर विचार करें कि आपको ग्रहण करना चाहिए या त्याग करना चाहिए ? किसी एकको ही अपनानेसे आपका जीवन बिल्कुल अधूरा हो जायेगा। यदि आप केवल त्याग-ही-त्याग करेंगे तो मृत्युके निकट पहुँच जायेंगे। इसी प्रकार केवल ग्रहण-हो-ग्रहण करेंगे तब भी मृत्यु के निकट पहुँचेंगे। एक ओर कमाते हैं तो दूसरी ओर उसका खर्च भी होता है। एक ओरसे पानी आता है तो दूसरी तरफ जाता है। केवल जाये-जाये तो समाप्त हो जायेगा और केवल आये-आये तो भरकर फट जायेगा। कहीं भी ऐसा देखने में नहीं आता कि केवल संग्रह तो हो और त्याग नहीं हो। अतः जीवनमें व्यवस्थापूर्वक संग्रह और व्यवस्थापूर्वक त्याग आवश्यक है। यदि कोई कहे कि हमारे घरमें मेहमान आवें-हीआवें और जायें नहीं अथवा सब मेहमान चले जायें और कोई दूसरा आवे नहीं तो कैसे काम चलेगा? इसी प्रकार ये जो कर्म हैं, वे आते हैं और जाते हैं। उनको व्यवस्थापूर्वक ही पकड़ना और छोड़ना पड़ता है। पहले हम सन्ध्या-चन्दन नहीं करते थे। यज्ञोपवीत-संस्कार हुआ और सन्ध्या-वन्दन करने लगे। इसी प्रकार फिर संन्यासके बाद सन्ध्या-वन्दनकी आवश्यकता नहीं रही। मतलब यह कि कायदेसे कर्मोको ग्रहण करने और छोड़नेसे समाजमें गड़बड़ी नहीं फैलती और उनके बन्धनोंसे छुटकारा मिल जाता है। इसीलिए कर्म और कर्म-संन्यास दोनों निःश्रेयसके साधन हैं। करो ओर छोड़ो, कमाओ और देते चलो, आने दो और जाने दो इसीमें निःश्रेयस है। यदि कहोगे कि आवे पर जावे नहीं अथवा जावेपर आवे नहीं तो इसमें निःश्रेयस नहीं है। ग्रहण और त्याग दोनों कल्याणके साधन हैं। इनकी एक गिनती होती है। जैसे विज्ञान गणितपर आधारित है वैसे ही दर्शन भी गणित-साध्य है। उसमें कहीं भी, एक भी कड़ी नहीं तोड़ी जा सकती। देखो, हम जो कर्म करते हैं उनमें से एक निषिद्ध होता है एक विहित । निषिद्ध कर्म वह है जो मना किया हुआ है। गुरुने मना किया, शास्त्रने मना किया, ईश्वरने मना किया अथवा समाजने मना किया। अपनी अन्तरात्माके मना किये हुएको भी निषिद्ध कर्म माना जाता है। मनुस्मृतिमें चार बात बतायी हुई है, उसमें एक है स्वस्य च प्रियमात्मनः। जब कोई मना किये हुए कामको करने लगता है तो क्यों करता है ? वासनाके वेगसे करता है। उसको करनेकी इतनी तोत्र वासना होती है कि वह वासनाकी कठपुतली बन जाता है और गुरु, शास्त्र, ईश्वर, समाज, अन्तरात्माके मना करनेपर भी कर्म कर बैठता है। तो शासनानुसारी काम धर्म होता है और वासनानुसारी काम अधर्म हो जाता है। वासनामें कोई रोक नहीं और शासनमें नियन्त्रण है। धर्म वही होता है जहाँ नियन्त्रण होता है-'धरति इति धर्मः अथवा ध्रियते इति धर्मः।' धर्म उसको कहते हैं, जिसे हम धारण करें या जो हमको धारण करे। हम धर्मकी रक्षा करते हैं तो धर्म हमारी रक्षा करता है-'धर्मों रक्षति रक्षितः।'
तो, कर्मका पहला विभाग यह है कि हम अज्ञानके अनुसार चलते हैं या वासनाके अनुसार, इसपर दृष्टि रखें | आज्ञाके अनुसार कार्य करनेपर भी दो भेद हो जाते हैं-एक सकाम और दूसरा निष्काम । कामनाके भी दो भेद होते हैं-लौकिक कामना और पारलौकिक कामना । निष्कामता भी तत्पदार्थकी प्रसन्नताके लिए, ईश्वरको प्रसन्नताके लिए अथवा अन्तःकरणकी निर्मलता और प्रसन्नताके लिए । वास्तवमें दोनों दो चोज नहीं हैं। ईश्वर हमारे अन्तःकरणमें ही रहता है। यदि अन्तःकरणमें ईश्वर न हो तो और कहाँ मिलेगा? मिलेगा भी हमारे दिलमें हो और रहता भी है हमारे दिलमें हो। ईश्वर यदि यहाँ नहीं है तो कहीं भी नहीं है। और यदि अभी नहीं है तो कभी भी नहीं है। आप जानते हैं वैदिक धर्मकी महिमा । उसके अनुसार ईश्वर यदि यही नहीं है तो कुछ भी नही है। सर्वोपादान है ईश्वर | यह बात दूसरे मजहबोंमें नहीं है। उपादान, मैटर या माला-जिससे यह दुनिया बनती है। घड़ेमें मिट्टी है। उसकी शक्ल देखिये, मिट्टी नहीं मालूम पड़ेगी। पर यदि तत्त्वकी दृष्टिसे देखेंगे तो वह मिट्टो ही है। अतः एक बात तो यह हुई कि परमात्माके सिवाय दूसरी कोई वस्तु नहीं है।
दूसरी बात आप यह देखना कि बुद्धिकी प्रधानता और किसी मजहबने नहीं मानी। यह तो हमारी गीताकी ही विशेषता है जो बुद्धिको इतना महत्त्व देती है-'बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव ।' ददामि बुद्धियोगं तम् ।'
बुद्धियोगसे ईश्वर मिलता है और ईश्वर प्रसन्न होकर बुद्धि देता है। तात्पर्य यह हुआ कि ईश्वर द्वारा प्रदत्त बुद्धियोगसे पाप-पुण्य छूटते हैं, सुख-दुःख मिटते हैं और समाधि मिलती है। हमें सब कुछ मिल जाता है यदि हमारी बुद्धि ठीक हो जाये । मजहबका नाम लेते ही आप सोचते होंगे कि श्रद्धाकी कोई बात होगी। लेकिन गीता सारे मजहबोंसे विलक्षण सन्देश लेकर आयी है कि बुद्धियोगसे आपको सब मिलेगा। जिस गीताकी हम चर्चा करने जा रहे हैं, यह भगवान् श्रीकृष्णके जीवनकी पोथी है। अन्यथा वे उपनिषद्के नामपर यही बोलते कि अपौरुषेय ज्ञान ऐसा बोलता है, वैसा बोलता है। पौरुषेय ज्ञान और अपौरुषेय ज्ञानमें यही भेद होता है। एक ऐसा ज्ञान है जो दुनियाके अनुभवोंमें-से बीन-बीनकर इकट्ठा नहीं किया जाता, वह तो स्वयं-प्रकाश है। वह ज्ञान अहंको ज्ञाता नहीं बनाता और इदंको ज्ञेय नहीं बनाता। नित्य शुद्ध-बुद्ध-मुक्त ज्ञान है। पुरुषके प्रयत्नसे या अनुभवसे वंचित नहीं है। वह परमात्माका स्वरूप है। एक ज्ञान वह होता है, जो दुनियामें देख-देखकर कि यह कड़वा है, यह मोठा है, यह नीला है, यह पीला है, अनुभूतिके आधारपर संचित किया जाता है। किन्तु गीताका ज्ञान अपौरुषेय है उसको सृष्टिमें किसी भी दूसरे मजहबने न जाना है, न उसका प्रतिपादन किया है और न उस शाश्वत वस्तुको दृष्टिमें रखकर धर्मका निरूपण किया है।
तो यह जो बुद्धि है वह श्रीकृष्ण की है। आपको पिछली बार शायद सुनाया था कि जो जेलमें-बन्धनमें पड़ा है, उसका घरमें नहीं, जेलखानेमें (श्रीकृष्णका) जन्म होता है। मां-बापको छोड़कर गोकूलमें जाना पड़ता है। पीनेके लिए जहर मिलता है। चारों ओर आपत्ति-विपत्ति दिखायी पड़ती है। शैशवावस्थामें शरीरपर पेड़ गिर पड़ता है। जरासन्ध किलेपर, महलपर हमला कर देता है। कालयवनके सामनेसे भागना पड़ता है। रास्तेमें भीख मांगकर खाना पड़ता है। नंगे पांव दौड़ना पड़ता है। प्रवर्षण-पर्वतपर दावानलसे घिर जाते हैं। पत्नी सत्यभामाके पिता सत्राजितके घरपर डाका पड़ा और ससुर साहब मारे गये। द्वारिकापर हमला हुआ हवाई जहाज का । बुआ, फुफेरे भाई आदि कितनी तकलीफमें हैं। घरेलू , वातावरणका यह हाल कि सगे भाई बलरामजी भी विश्वास नहीं करते। दोनोंमें मतभेद हो गया। वैमनस्य तक हो गया । बालबच्चे भी कहना नहीं मानते, एक भी बेटा कहना नहीं मानता। श्रीकृष्ण वजित करते हैं कि ऐसा खाना मत खाओ, ऐसा मत पीओ, ऐसे मत रहो, परन्तु कोई श्रीकृष्णकी बात नहीं मानता। उनके बेटोंने महात्माओंका तिरस्कार किया, शराब पी, मांस खाया, आपसमें लड़े और श्रीकृष्णको अपने हाथों उनका वध करना पड़ा। भागवतमें साफ है कि श्रीकृष्णने अपने उच्छङ्खल और पापाचारी पुत्रोंको मारा और जब श्रीकृणके पांवमें बाण लगा तब वे अपनी लीला संवरण करके गोलोक चले गये। तात्पर्य यह कि जीवनमें इतने दुःखद और भयावह प्रसंग उपस्थित हुए, परन्तु वे विचलित नहीं हुए, उनकी मुस्कान बराबर बनी रही। तो उनके मुंहसे निकली है यह गीता । जब श्रीकृष्ण यह कहते हैं कि 'दुःखेष्वनुद्विग्मनाः सुखेषु विगतस्पृहः' तब वे अपने अनुभवोंकी ही बात कहते हैं। इसी प्रकार उन्होंने संन्यासीकी जो परिभाषा दी है, वह उनके स्वयंके संन्यस्त जीवनकी ही परिभाषा है
ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति । श्रीकृष्णने कहा मनुष्यको नित्य संन्यासी होकर रहना चाहिए, अनित्य संन्यासी नहीं। एक अनित्य संन्यासी भी होता है। जो बनता है, वह बिगड़ता भी है किन्तु जो आत्मदृष्टिसे संन्यासी है वह नित्य संन्यासी है। उसमें न द्वेष है और न आकांक्षा है। यही श्रीकृष्णका जीवन है, यही श्रीकृष्णका नित्य संन्यास है। यदि हमें नित्य संन्यासीकी तलाश हो तो श्रीकृष्णके ही जीवनका दर्शन करना चाहिए। छूट गया गोपियों और ग्वालोंके साथका क्रीड़ाकेन्द्र ब्रजमण्डल, छूट गयी सोलह हजार पत्नियोंवाली द्वारिकापुरी, किन्तु 'सुखेषु विगतस्पृहः'के मूर्तिमान विग्रह श्रीकृष्णपर उसका कोई असर नहीं पड़ा। उनका चेहरा मुस्कुराता ही रहा । उपदेश वही उपदेश हो सकता है जो उपदेष्टाके जीवन में से निकला हो। गीताके उपदेशोंका इतना प्रभाव इसीलिए है कि वह उपदेष्टा श्रीकृष्णके वास्तविक जीवनकी पोथी है। उनकी डायरी है। उनके चरित्रका निरूपण है। हम आपको श्रीमद्भागवत और महाभारतमें वणित श्रीकृष्णके एक-एक चरित्रके सम्बन्धमें यह बता सकते हैं कि गीतामें उनकी ओर कहाँ संकेत किया गया है। ऐसी है श्रीमती गीता और ऐसे हैं उसके वक्ता श्रीमान् श्रीकृष्ण । दोनोंकी शोभा अखण्ड है।
हरिः ॐ तत्सत्
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