[ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ]
हरेर्नानावतारवर्णनम् -
भगवान् श्रीहरिके विविध अवतारोंका संक्षिप्त वर्णन -
जनमेजय उवाच भृगुशापान्मुनिश्रेष्ठ हरेरद्भुतकर्मणः । अवताराः कथं जाताः कस्मिन्मन्वन्तरे विभो ॥ १ ॥ विस्तराद्वद धर्मज्ञ अवतारकथा हरेः । पापनाशकरीं ब्रह्मञ्छ्रुतां सर्वसुखावहाम् ॥ २ ॥
जनमेजय बोले-हे मुनिश्रेष्ठ ! हे विभो ! अद्भुत चरित्रवाले भगवान् विष्णुने भृगुके शापसे किस मन्वन्तरमें किस प्रकार अवतार ग्रहण किये । हे धर्मज्ञ ! हे ब्रह्मन् ! श्रवण करनेपर समस्त सुख सुलभ करानेवाली तथा पापोंका नाश कर देनेवाली भगवान् विष्णुकी अवतार-कथाका विस्तारसे वर्णन कीजिये ॥ १-२ ॥
व्यास उवाच शृणु राजन् प्रवक्ष्यामि अवतारान् हरेर्यथा । यस्मिन्मन्वन्तरे जाता युगे यस्मिन्नराधिप ॥ ३ ॥ येन रूपेण यत्कार्यं कृतं नारायणेन वै । तत्सर्वं नृप वक्ष्यामि संक्षेपेण तवाधुना ॥ ४ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! हे नराधिप ! जिस मन्वन्तर तथा जिस युगमें जैसे-जैसे भगवान् विष्णुके अवतार हुए हैं, उन अवतारोंको मैं बता रहा हूँ, आप सुनें । हे नृप ! भगवान् नारायणने जिस रूपसे जो कार्य किया, वह सब मैं आपको इस समय संक्षेपमें बताता हूँ ॥ ३-४ ॥
धर्मस्यैवावतारोऽभूच्चाक्षुषे मनुसम्भवे । नरनारायणौ धर्मपुत्रौ ख्यातौ महीतले ॥ ५ ॥
चाक्षुष मन्वन्तरमें साक्षात् विष्णुका धर्मावतार हुआ था । उस समय वे धर्मपुत्र होकर नर-नारायण नामसे धरातलपर विख्यात हुए ॥ ५ ॥
अथ वैवस्वताख्येऽस्मिन्द्वितीये तु युगे पुनः । दत्तात्रेयावतारोऽत्रेः पुत्रत्वमगमद्धरिः ॥ ६ ॥
इस वैवस्वत मन्वन्तरके दूसरे चतुर्युगमें भगवान्का दत्तात्रेयावतार हुआ । वे भगवान् श्रीहरि महर्षि अत्रिके पुत्ररूपमें अवतीर्ण हुए ॥ ६ ॥
ब्रह्मा विष्णुस्तथा रुद्रस्त्रयोऽमी देवसत्तमाः । पुत्रत्वमगमन्देवास्तस्यात्रेर्भार्यया वृताः ॥ ७ ॥
उन अत्रिमुनिकी भार्या अनसूयाकी प्रार्थनापर ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश-ये तीनों महान् देवता उनके पुत्ररूपमें उत्पन्न हुए थे ॥ ७ ॥
अनसूयात्रिपत्नी च सतीनामुत्तमा सती । यया सम्प्रार्थिता देवाः पुत्रत्वमगमंस्त्रयः ॥ ८ ॥
अत्रिकी पत्नी साध्वी अनसूया सती स्त्रियोंमें श्रेष्ठ थीं, जिनके सम्यक् रूपसे प्रार्थना करनेपर वे तीनों देवता उनके पुत्ररूपमें अवतरित हुए ॥ ८ ॥
ब्रह्माभूत्सोमरूपस्तु दत्तात्रेयो हरिः स्वयम् । दुर्वासा रुद्ररूपोऽसौ पुत्रत्वं ते प्रपेदिरे ॥ ९ ॥
उनमें ब्रह्माजी सोम (चन्द्रमा)-रूपमें, साक्षात् विष्णु दत्तात्रेयके रूपमें और शंकरजी दुर्वासाके रूपमें उनके यहाँ पुत्रत्वको प्राप्त हुए ॥ ९ ॥
नृसिंहस्यावतारस्तु देवकार्यार्थसिद्धये । चतुर्थे तु युगे जातो द्विधारूपो मनोहरः ॥ १० ॥ हिरण्यकशिपोः सम्यग्वधाय भगवान् हरिः । चक्रे रूपं नारसिंहं देवानां विस्मयप्रदम् ॥ ११ ॥
देवताओंका कार्य सिद्ध करनेके लिये चौथे चतुर्युगमें दो प्रकारके रूपोंवाला मनोहर नृसिंहावतार हुआ । भगवान् श्रीविष्णुने उस समय हिरण्यकशिपुका सम्यक् वध करनेके लिये ही देवताओंको भी चकित कर देनेवाला नारसिंहरूप धारण किया था ॥ १०-११ ॥
बलेर्नियमनार्थाय श्रेष्ठे त्रेतायुगे तथा । चकार रूपं भगवान् वामनं कश्यपान्मुनेः ॥ १२ ॥ छलयित्वा मखे भूपं राज्यं तस्य जहार ह । पाताले स्थापयामास बलिं वामनरूपधृक् ॥ १३ ॥
भगवान् विष्णुने दैत्यराज बलिका शमन करनेके उद्देश्यसे उत्तम त्रेतायुगमें कश्यपमुनिके यहाँ वामनरूपसे अवतार धारण किया था । उन वामनरूपधारी विष्णुने यज्ञमें राजा बलिको छलकर उनका राज्य हर लिया और उन्हें पातालमें स्थापित कर दिया । १२-१३ ॥
युगे चैकोनविंशेऽथ त्रेताख्ये भगवान् हरिः । जमदग्निसुतो जातो रामो नाम महाबलः ॥ १४ ॥
उन्नीसवें चतुर्युगके त्रेता नामक युगमें भगवान् विष्णु महर्षि जमदग्निके परशुराम नामक महाबली पुत्रके रूपमें उत्पन्न हुए ॥ १४ ॥
भगवान् विष्णुने त्रेतायुगमें रघुके वंशमें दशरथपुत्र रामके रूपमें अवतार धारण किया था । इसी प्रकार अट्ठाईसवें द्वापरयुगमें साक्षात् नर तथा नारायणके अंशसे कल्याणप्रद तथा महाबली अर्जुन और श्रीकृष्ण पृथ्वीतलपर अवतीर्ण हुए । श्रीकृष्ण तथा अर्जुनने पृथ्वीका भार उतारनेके लिये ही भूमण्डलपर अवतार लिया और कुरुक्षेत्रमें अत्यन्त भयंकर महायुद्ध किया ॥ १७-१८ ॥
कृतवन्तौ महायुद्धं कुरुक्षेत्रेऽतिदारुणम् । एवं युगे युगे राजन्नवतारा हरेः किल ॥ १९ ॥ भवन्ति बहवः कामं प्रकृतेरनुरूपतः । प्रकृतेरखिलं सर्वं वशमेतज्जगत्त्रयम् ॥ २० ॥ यथेच्छति तथैवेयं भ्रामयत्यनिशं जगत् । पुरुषस्य प्रियार्थं सा रचयत्यखिलं जगत् ॥ २१ ॥
हे राजन् ! इस प्रकार प्रकृतिके आदेशानुसार युग-युगमें भगवान् विष्णुके अनेक अवतार हुआ करते हैं । यह सम्पूर्ण त्रिलोकी प्रकृतिके अधीन रहती है । ये भगवती प्रकृति जैसे चाहती हैं वैसे ही जगत्को निरन्तर नचाया करती हैं । परमपुरुषकी प्रसन्नताके लिये ही वे समस्त संसारकी रचना करती हैं । १९-२१ ॥
सृष्ट्वा पुरा हि भगवाञ्जगदेतच्चराचरम् । सर्वादिः सर्वगश्चासौ दुर्ज्ञेयः परमोऽव्ययः ॥ २२ ॥ निरालम्बो निराकारो निःस्पृहश्च परात्परः । उपाधितस्त्रिधा भाति यस्याः सा प्रकृतिः परा ॥ २३ ॥
प्राचीनकालमें इस चराचर जगत्का सृजन करके सबके आदिरूप, सर्वत्र गमन करनेवाले, दुर्जेय, महान्, अविनाशी, स्वतन्त्र, निराकार, नि:स्पृह और परात्पर वे भगवान् जिन मायारूपिणी भगवतीके संयोगसे उपाधिरूपमें [ब्रह्मा, विष्णु, महेश] तीन प्रकारके प्रतीत होते हैं, वे ही 'परा प्रकृति' हैं ॥ २२-२३ ॥
उत्पत्तिकालयोगात्सा भिन्ना भाति शिवा तदा । सा विश्वं कुरुते कामं सा पालयति कामदा ॥ २४ ॥ कल्पान्ते संहरत्येव त्रिरूपा विश्वमोहिनी । तया युक्तोऽसृज द्ब्रह्मा विष्णुः पाति तयान्वितः ॥ २५ ॥
उत्पत्ति और कालके योगसे ही वे कल्याणमयी प्रकृति उस परमात्मासे भिन्न भासती हैं । सबका मनोरथ पूर्ण करनेवाली वे प्रकृति ही विश्वकी रचना करती हैं, सम्यक् रूपसे पालन करती हैं और कल्पके अन्तमें संहार भी कर देती हैं । इस प्रकार वे विश्वमोहिनी भगवती प्रकृति ही तीन रूपोंमें विराजमान रहती हैं । उन्हींसे संयुक्त होकर ब्रह्माने जगत्की सृष्टि की है, उन्हींसे सम्बद्ध होकर विष्णु पालन करते हैं और उन्हींके साथ मिलकर कल्याणकारी रुद्र संहार करते हैं ॥ २४-२५ ॥
रुद्रः संहरते कामं तया सम्मिलितः शिवः । सा चैवोत्पाद्य काकुत्स्थं पुरा वै नृपसत्तमम् ॥ २६ ॥ कुत्रचित्स्थापयामास दानवानां जयाय च । एवमस्मिंश्च संसारे सुखदुःखान्विताः किल ॥ २७ ॥ भवन्ति प्राणिनः सर्वे विधितन्त्रनियन्त्रिताः ॥ २८ ॥
पूर्वकालमें उन भगवती परा प्रकृतिने ही ककुत्स्थवंशी नृपश्रेष्ठको उत्पन्न करके दानवोंको पराजित करनेके लिये उन्हें कहींपर स्थापित कर दिया । इस प्रकार इस संसारमें सभी प्राणी विधिक नियमोंमें बँधकर सदा सुख तथा दुःखसे युक्त रहते हैं ॥ २६-२८ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे हरेर्नानावतारवर्णनं नाम षोडशोऽध्यायः ॥ १६ ॥