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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
चतुर्थः स्कन्धः
अष्टादशोऽध्यायः

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ब्रह्माणं प्रति विष्णुवाक्यम् -
पापभारसे व्यथित पृथ्वीका देवलोक जाना, इन्द्रका देवताओं और पृथ्वीके साथ ब्रह्मलोक जाना, ब्रह्माजीका पृथ्वी तथा इन्द्रादि देवताओंसहित विष्णुलोक जाकर विष्णुकी स्तुति करना, विष्णुद्वारा अपनेको भगवतीके अधीन बताना -


व्यास उवाच
शृणु राजन्प्रवक्ष्यामि कृष्णस्य चरितं महत् ।
अवतारकारणं चैव देव्याश्चरितमद्‌भुतम् ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! सुनिये, अब मैं श्रीकृष्णके महान् चरित्र, उनके अवतारके कारण और भगवतीके अद्धत चरित्रका वर्णन करूँगा ॥ १ ॥

धरैकदा भराक्रान्ता रुदती चातिकर्शिता ।
गोरूपधारिणी दीना भीतागच्छत्त्रिविष्टपम् ॥ २ ॥
एक समयकी बात है-[पापियोंके] भारसे व्यथित, अत्यधिक कृश, दीन तथा भयभीत पृथ्वी गौका रूप धारण करके रोती हुई स्वर्गलोक गयी ॥ २ ॥

पृष्टा शक्रेण किं तेऽद्य वर्तते भयमित्यथ ।
केन वै पीडितासि त्वं किं ते दुःखं वसुन्धरे ॥ ३ ॥
वहाँ इन्द्रने पूछा-हे वसुन्धरे ! इस समय तुम्हें कौन-सा भय है, तुम्हें किसने पीड़ा पहुँचायी है और तुम्हें क्या दुःख है ? ॥ ३ ॥

तच्छ्रुत्वेला तदोवाच शृणु देवेश मेऽखिलम् ।
दुःखं पृच्छसि यत्त्वं मे भाराक्रान्तोऽस्मि मानद ॥ ४ ॥
यह सुनकर पृथ्वीने कहा-हे देवेश ! यदि आप पूछ ही रहे हैं तो मेरा सारा दुःख सुन लीजिये । हे मानद ! मैं भारसे दबी हुई हूँ ॥ ४ ॥

जरासन्धो महापापी मागधेषु पतिर्मम ।
शिशुपालस्तथा चैद्यः काशिराजः प्रतापवान् ॥ ५ ॥
रुक्मी च बलवान्कंसो नरकश्च महाबलः ।
शाल्वः सौभपतिः क्रूरः केशी धेनुकवत्सकौ ॥ ६ ॥
सर्वे धर्मविहीनाश्च परस्परविरोधिनः ।
पापाचारा मदोन्मत्ताः कालरूपाश्च पार्थिवाः ॥ ७ ॥
मगधदेशका राजा महापापी जरासन्ध, चेदिनरेश शिशुपाल, प्रतापी काशिराज, रुक्मी, बलवान् कंस, महाबली नरकासुर, सौभनरेश शाल्व, क्रूर केशी, धेनुकासुर और वत्सासुर-ये सभी राजागण धर्महीन, परस्पर विरोध रखनेवाले, पापाचारी, मदोन्मत्त और साक्षात् कालस्वरूप हो गये हैं ॥ ५-७ ॥

तैरहं पीडिता शक्र भाराक्रान्ताक्षमा विभो ।
किं करोमि क्व गच्छामि चिन्ता मे महती स्थिता ॥ ८ ॥
हे इन्द्र ! उनसे मुझे बहुत व्यथा हो रही है । मैं उनके भारसे दबी हुई हूँ और अब [उनका भार सहनेमें] मैं असमर्थ हो गयी हूँ । हे विभो ! मैं क्या करूँ और कहाँ जाऊँ ? मुझे यही महान् चिन्ता है ॥ ८ ॥

पीडिताहं वराहेण विष्णुना प्रभविष्णुना ।
शक्र जानीहि हरिणा दुःखाद्दुःखतरं गता ॥ ९ ॥
हे इन्द्र ! पूर्वमें मैं [दानव हिरण्याक्षसे] पीड़ित थी । उस समय परम ऐश्वर्यशाली वराहरूपधारी भगवान् विष्णुने मेरा उद्धार किया था । यदि वे वराहरूप धारण करके मेरा उद्धार न किये होते तो उससे भी अधिक दुःखकी स्थितिमें मैं न पहुँचतीआप ऐसा जानिये ॥ ९ ॥

यतोऽहं दुष्टदैत्येन कश्यपस्यात्मजेन वै ।
हृताहं हिरण्याक्षेण मग्ना तस्मिन्महार्णवे ॥ १० ॥
तदा सूकररूपेण विष्णुना निहतोऽप्यसौ ।
उद्धृताहं वराहेण स्थापिता हि स्थिरा कृता ॥ ११ ॥
नोचेद्‌रसातले स्वस्था स्थिता स्यां सुखशायिनी ।
न शक्तास्म्यद्य देवेश भारं वोढुं दुरात्मनाम् ॥ १२ ॥
कश्यपके पुत्र दुष्ट दैत्य हिरण्याक्षने मुझे चुरा लिया था और उस महासमुद्र में डुबो दिया था । उस समय भगवान् विष्णुने सूकरका रूप धारणकर उसका संहार किया और मेरा उद्धार किया । तदनन्तर उन वराहरूपधारी विष्णुने मुझे स्थापित करके स्थिर कर दिया अन्यथा मैं इस समय पातालमें स्वस्थचित्त रहकर सुखपूर्वक सोयी रहती । हे देवेश ! अब मैं दुष्टात्मा राजाओंका भार वहन करने में समर्थ नहीं हूँ ॥ १०-१२ ॥

अग्रे दुष्टः समायाति ह्यष्टाविंशस्तथा कलिः ।
तदाहं पीडिता शक्र गन्तास्म्याशु रसातलम् ॥ १३ ॥
तस्मात्त्वं देवदेवेश दुःखरूपार्णवस्य च ।
पारदो भव भारं मे हर पादौ नमामि ते ॥ १४ ॥
हे इन्द्र ! अब आगे अट्ठाईसवाँ दुष्ट कलियुग आ रहा है । उस समय मैं और भी पीड़ित हो जाऊँगी तब तो मैं शीघ्र ही रसातलमें चली जाऊँगी । अतएव हे देवदेवेश ! इस दुःखरूपी महासागरसे मुझे पार कर दीजिये; मेरा बोझ उतार दीजिये, मैं आपके चरणों में नमन करती हूँ ॥ १३-१४ ॥

इंद्र उवाच
इले किं ते करोम्यद्य ब्रह्माणं शरणं व्रज ।
अहं तत्रागमिष्यामि स ते दुःखं हरिष्यति ॥ १५ ॥
इन्द्र बोले-हे वसुन्धरे ! मैं इस समय तुम्हारे लिये क्या कर सकता हूँ ! तुम ब्रह्माकी शरणमें जाओ, वे ही तुम्हारा दु:ख दूर करेंगे, मैं भी वहाँ आ जाऊँगा ॥ १५ ॥

तच्छ्रुत्वा त्वरिता पृथ्वी ब्रह्मलोकं गता तदा ।
शक्रोऽपि पृष्ठतः प्राप्तः सर्वदेवपुरःसरः ॥ १६ ॥
यह सुनकर पृथ्वीने तत्काल ब्रह्मलोकके लिये प्रस्थान कर दिया । उसके पीछे-पीछे इन्द्र भी सभी देवताओंके साथ वहाँ पहुँच गये ॥ १६ ॥

सुरभीमागतां तत्र दृष्ट्वोवाच प्रजापतिः ।
महीं ज्ञात्वा महाराज ध्यानेन समुपस्थिताम् ॥ १७ ॥
कस्माद्‌रुदसि कल्याणि किं ते दुःखं वदाधुना ।
पीडितासि च केन त्वं पापाचारेण भूर्वद ॥ १८ ॥
हे महाराज ! उस आयी हुई धेनुको अपने सम्मुख उपस्थित देखकर तथा ध्यान-दृष्टिद्वारा उसे पृथ्वी जान करके ब्रह्माजीने कहा-हे कल्याणि ! तुम किसलिये रो रही हो और तुम्हें कौन-सा दुःख है; मुझे अभी बताओ । हे पृथ्वि ! किस पापाचारीने तुम्हें पीड़ा पहुँचायी है, मुझे बताओ ॥ १७-१८ ॥

धरोवाच
कलिरायाति दुष्टोऽयं बिभेमि तद्‌भयादहम् ।
पापाचाराः प्रजास्तत्र भविष्यन्ति जगत्पते ॥ १९ ॥
राजानश्च दुराचाराः परस्परविरोधिनः ।
चौरकर्मरताः सर्वे राक्षसाः पूर्णवैरिणः ॥ २० ॥
तान्हत्वा नृपतीन्भारं हर मेऽद्य पितामह ।
पीडितास्मि महाराज सैन्यभारेण भूभृताम् ॥ २१ ॥
धरा बोली-हे जगत्पते ! यह दुष्ट कलि अब आनेवाला है । मैं उसीके आतंकसे डर रही हूँ; क्योंकि उस समय सभी लोग पापाचारी हो जायेंगे । सभी राजालोग दुराचारी हो जायेंगे, आपसमें विरोध करनेवाले होंगे और चोरीके कर्ममें संलग्न रहेंगे । वे राक्षसके रूपमें एक-दूसरेके पूर्णरूपसे शत्रु बन जायेंगे । हे पितामह ! उन राजाओंका वध करके मेरा भार उतार दीजिये । हे महाराज ! मैं राजाओंकी सेनाके भारसे दबी हुई हूँ ॥ १९-२१ ॥

ब्रह्योवाच
नाहं शक्तस्तथा देवि भारावतरणे तव ।
गच्छावः सदनं विष्णोर्देवदेवस्य चक्रिणः ॥ २२ ॥
स ते भारापनोदं वै करिष्यति जनार्दनः ।
पूर्वं मयापि ते कार्यं चिन्तितं सुविचार्य च ॥ २३ ॥
तत्र गच्छ सुरश्रेष्ठ यत्र देवो जनार्दनः ।
ब्रह्माजी बोले-हे देवि ! तुम्हारा भार उतारनेमें मैं सर्वथा समर्थ नहीं हूँ । अब हम दोनों चक्रधारी देवाधिदेव भगवान् विष्णुके धाम चलते हैं । वे जनार्दन तुम्हारा भार अवश्य उतार देंगे । मैंने पहलेसे ही भलीभाँति विचार करके तुम्हारा कार्य करनेकी योजना बनायी है । [उन्होंने इन्द्रसे कहा-] हे सुरश्रेष्ठ ! जहाँपर भगवान् जनार्दन विद्यमान हैं, अब आप वहींपर चलें ॥ २२-२३३ ॥

व्यास उवाच
इत्युक्त्वा वेदकर्तासौ पुरस्कृत्य सुरांश्च गाम् ॥ २४ ॥
जगाम विष्णुसदनं हंसारूढश्चतुर्मुखः ।
तुष्टाव वेदवाक्यैश्च भक्तिप्रवणमानसः ॥ २५ ॥
व्यासजी बोले-ऐसा कहकर वे वेदकर्ता चतुर्मुख ब्रह्माजी हंसपर आरूढ़ हुए और देवताओं तथा गोरूपधारिणी पृथ्वीको साथमें लेकर विष्णुलोकके लिये प्रस्थित हो गये । [वहाँ पहुँचकर] भक्तिसे परिपूर्ण हदयवाले ब्रह्माजी वेदवाक्योंसे उनकी स्तुति करने लगे ॥ २४-२५ ॥

ब्रह्मोवाच
सहस्रशीर्षास्त्वमसि सहस्राक्षः सहस्रपात् ।
त्वं वेदपुरुषः पूर्वं देवदेवः सनातनः ॥ २६ ॥
भूतपूर्वं भविष्यच्च वर्तमानं च यद्विभो ।
अमरत्वं त्वया दत्तमस्माकं च रमापते ॥ २७ ॥
एतावान्महिमा तेऽस्ति को न वेत्ति जगत्त्रये ।
त्वं कर्ताप्यविता हन्ता त्वं सर्वगतिरीश्वरः ॥ २८ ॥
ब्रह्माजी बोले-आप हजार मस्तकोंवाले, हजार नेत्रोंवाले और हजार पैरोंवाले हैं । आप देवताओंके भी आदिदेव तथा सनातन वेदपुरुष हैं । हे विभो ! हे रमापते ! भूतकाल, भविष्यकाल तथा वर्तमानकालका जो भी हमारा अमरत्व है, उसे आपने ही हमें प्रदान किया है । आपकी इतनी बड़ी महिमा है कि उसे त्रिलोकीमें कौन नहीं जानता ? आप ही सृष्टि करनेवाले, पालन करनेवाले और संहार करनेवाले हैं । आप सर्वव्यापी और सर्वशक्तिसम्पन्न हैं ॥ २६-२८ ॥

व्यास उवाच
इतीडितः प्रभुर्विष्णुः प्रसन्नो गरुडध्वजः ।
दर्शनञ्च ददौ तेभ्यो ब्रह्मादिभ्योऽमलाशयः ॥ २९ ॥
पप्रच्छ स्वागतं देवान्प्रसन्नवदनो हरिः ।
ततस्त्वागमने तेषां कारणञ्च सविस्तरम् ॥ ३० ॥
व्यासजी बोले-इस प्रकार स्तुति करनेपर पवित्र हृदयवाले वे गरुडध्वज भगवान् विष्णु प्रसन्न हो गये और उन्होंने ब्रह्मा आदि देवताओंको अपने दर्शन दिये । प्रसन्न मुखमण्डलवाले भगवान् विष्णुन देवताओंका स्वागत किया और विस्तारपूर्वक उनके आगमनका कारण पूछा ॥ २९-३० ॥

तमुवाचाब्जजो नत्वा धरादुःखञ्च संस्मरन् ।
भारावतरणं विष्णो कर्तव्यं ते जनार्दन ॥ ३१ ॥
भुवि धृत्वावतारं त्वं द्वापरान्ते समागते ।
हत्वा दुष्टान्नृपानुर्व्या हर भारं दयानिधे ॥ ३२ ॥
तदनन्तर पायोनि ब्रह्माजीने उन्हें प्रणाम करनेके उपरान्त पृथ्वीके दुःखका स्मरण करते हुए उनसे कहा-हे विष्णो ! हे जनार्दन ! अब पृथ्वीका भार दूर कर देना आपका कर्तव्य है । अतः हे दयानिधे ! द्वापरका अन्तिम समय उपस्थित होनेपर आप पृथ्वीपर अवतार लेकर दुष्ट राजाओंको मारकर पृथ्वीका भार उतार दीजिये ॥ ३१-३२ ॥

विष्णुरुवाच
नाहं स्वतन्त्र एवात्र न ब्रह्मा न शिवस्तथा ।
नेन्द्रोऽग्निर्न यमस्त्वष्टा न सूर्यो वरुणस्तथा ॥ ३३ ॥
योगमायावशे सर्वमिदं स्थावरजङ्गमम् ।
ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तं ग्रथितं गुणसूत्रतः ॥ ३४ ॥
विष्णु बोले-इस विषयमें मैं (विष्णु), ब्रह्मा. शंकर, इन्द्र, अग्नि, यम, त्वष्टा, सूर्य और वरुणकोई भी स्वतन्त्र नहीं है । यह सम्पूर्ण चराचर जगत् योगमायाके अधीन रहता है । ब्रह्मासे लेकर तृणपर्यन्त सब कुछ [सात्त्विक, राजस, तामस] गुणोंके सूत्रोंद्वारा उन्हींमें गुंथा हुआ है ॥ ३३-३४ ॥

यथा सा स्वेच्छया पूर्वं कर्तुमिच्छति सुव्रत ।
तथा करोति सुहिता वयं सर्वेऽपि तद्वशाः ॥ ३५ ॥
हे सुव्रत ! वे हितकारिणी भगवती सर्वप्रथम स्वेच्छापूर्वक जैसा करना चाहती हैं, वैसा ही करती हैं । हमलोग भी सदा उनके ही अधीन रहते हैं ॥ ३५ ॥

यद्यहं स्यां स्वतन्त्रो वै चिन्तयन्तु धिया किल ।
कुतोऽभवं मत्स्यवपुः कच्छपो वा महार्णवे ॥ ३६ ॥
तिर्यग्योनिषु को भोगः का कीर्तिः किं सुखं पुनः ।
किं पुण्यं किं फलं तत्र क्षुद्रयोनिगतस्य मे ॥ ३७ ॥
अब आपलोग स्वयं अपनी बुद्धिसे विचार करें कि यदि मैं स्वतन्त्र होता तो महासमुद्र में मत्स्य और कच्छपरूपधारी क्यों बनता ? तिर्यक-योनियों में कौन-सा भोग प्राप्त होता है, क्या यश मिलता है, कौन-सा सुख होता है और कौन-सा पुण्य प्राप्त होता है ? [इस प्रकार] क्षुद्रयोनियोंमें जन्म लेनेवाले मुझ विष्णुको क्या फल मिला ? ॥ ३६-३७ ॥

कोलो वाथ नृसिंहो वा वामनो वाभवं कुतः ।
जमदग्निसुतः कस्मात्सम्भवेयं पितामह ॥ ३८ ॥
नृशंसं वा कथं कर्म कृतवानस्मि भूतले ।
क्षतजैस्तु ह्रदान्सर्वान्पूरयेयं कथं पुनः ॥ ३९ ॥
तत्कथं जमदग्नेश्च पुत्रो भूत्वा द्विजोत्तमः ।
क्षत्रियान्हतवानाजौ निर्दयो गर्भगानपि ॥ ४० ॥
यदि मैं स्वतन्त्र होता तो सूकर, नृसिंह और वामन क्यों बनता ? इसी प्रकार हे पितामह ! मैं जमदग्निपुत्र (परशुराम)-के रूपमें उत्पन्न क्यों होता ? इस भूतलपर मैं [क्षत्रियोंके संहार जैसा] नृशंस कर्म क्यों करता और उनके रुधिरसे समस्त सरोवरोंको क्यों भर डालता ? उस समय मैं जमदग्निपुत्र परशुरामके रूपमें जन्म लेकर एक श्रेष्ठ ब्राह्मण होकर भी युद्ध में क्षत्रियोंका संहार क्यों करता और घोर निर्दयी बनकर गर्भस्थ शिशुओंतकको भला क्यों मारता ? ॥ ३८-४० ॥

रामो भूत्वाथ देवेन्द्र प्राविशद्दण्डकं वनम् ।
पदातिश्चीरवासाश्च जटावल्कलवान्पुनः ॥ ४१ ॥
असहायो ह्यपाथेयो भीषणे निर्जने वने ।
कुर्वन्नाखेटकं तत्र व्यचरं विगतत्रपः ॥ ४२ ॥
हे देवेन्द्र ! रामका अवतार लेकर मुझे दण्डकवनमें पैदल विचरण करना पड़ा, गेरुआ वस्त्र धारण करना पड़ा और जटा-वल्कलधारी बनना पड़ा । उस निर्जन वनमें असहाय रहते हुए तथा पासमें बिना किसी भोज्य-सामग्रीके ही निर्लज्ज होकर आखेट करते हुए मैं इधर-उधर भटकता रहा । ४१-४२ ॥

न ज्ञातवान्मृगं हैमं मायया पिहितस्तदा ।
उटजे जानकीं त्यक्त्वा निर्गतस्तत्पदानुगः ॥ ४३ ॥
उस समय मायासे आच्छादित रहनेके कारण मैं उस मायावी स्वर्ण-मृगको नहीं पहचान सका और जानकीको पर्णकुटीमें छोड़कर उस मृगके पीछेपीछे निकल पड़ा ॥ ४३ ॥

लक्ष्मणोऽपि च तां त्यक्त्वा निर्गतो मत्पदानुगः ।
वारितोऽपि मयात्यर्थं मोहितः प्राकृतैर्गुणैः ॥ ४४ ॥
मेरे बहुत मना करनेपर भी प्राकृत गुणोंसे व्यामुग्ध होनेके कारण लक्ष्मण भी उस सीताको छोड़कर मेरे पदचिह्नोंका अनुसरण करते हुए वहाँसे निकल पड़े ॥ ४४ ॥

भिक्षुरूपं ततः कृत्वा रावणः कपटाकृतिः ।
जहार तरसा रक्षो जानकीं शोककर्शिताम् ॥ ४५ ॥
तदनन्तर कपटस्वभाव राक्षस रावणने भिक्षुकका रूप धारण करके शोकसे व्याकुल जानकीका तत्काल हरण कर लिया ॥ ४५ ॥

दुःखार्तेन मया तत्र रुदितञ्च वने वने ।
सुग्रीवेण च मित्रत्वं कृतं कार्यवशान्मया ॥ ४६ ॥
अन्यायेन हतो वाली शापाच्चैव निवारितः ।
सहायान्वानरान् कृत्वा लङ्कायां चलितः पुनः ॥ ४७ ॥
तब दुःखसे व्याकुल होकर मैं वन-वन भटकता हुआ रोता रहा और अपना कार्य सिद्ध करनेके लिये मैंने सुग्रीवसे मित्रता की । मैंने अन्यायपूर्वक वालीका वध किया तथा उसे शापसे मुक्ति दिलायी और इसके बाद वानरोंको अपना सहायक बनाकर लंकाकी ओर प्रस्थान किया ॥ ४६-४७ ॥

बद्धोऽहं नागपाशैश्च लक्ष्मणश्च ममानुजः ।
विसंज्ञौ पतितौ दृष्ट्वा वानरा विस्मयं गताः ॥ ४८ ॥
गरुडेन तदाऽऽगत्य मोचितौ भ्रातरौ किल ।
चिन्ता मे महती जाता दैवं किं वा करिष्यति ॥ ४९ ॥
हृतं राज्यं वने वासो मृतस्तातः प्रिया हृता ।
युद्धं कष्टं ददात्येवमग्रे किं वा करिष्यति ॥ ५० ॥
[वहाँ युद्धमें] मैं तथा मेरा छोटा भाई लक्ष्मण दोनों ही नागपाशोंसे बाँध दिये गये । हम दोनोंको अचेत पड़ा देखकर सभी वानर आश्चर्यचकित हो गये । तब गरुड़ने आकर हम दोनों भाइयोंको छुड़ाया । उस समय मुझे महान् चिन्ता होने लगी कि दैव अब न जाने क्या करेगा ? राज्य छिन गया, वनमें वास करना पड़ा, पिताकी मृत्यु हो गयी और प्रिय सीता हर ली गयी । युद्ध कष्ट दे ही रहा है, अब आगे दैव न जाने क्या करेगा ! ॥ ४८-५० ॥

प्रथमं तु महद्दुःखमराज्यस्य वनाश्रयम् ।
राजपुत्र्यान्वितस्यैव धनहीनस्य मे सुराः ॥ ५१ ॥
वराटिकापि पित्रा मे न दत्ता वननिर्गमे ।
पदातिरसहायोऽहं धनहीनश्च निर्गतः ॥ ५२ ॥
चतुर्दशैव वर्षाणि नीतानि च तदा मया ।
क्षात्रं धर्मं परित्यज्य व्याधवृत्त्या महावने ॥ ५३ ॥
हे देवतागण ! सर्वप्रथम दुःख तो मुझ राज्यविहीनका वनवास हुआ; बनके लिये चलते समय राजकुमारी सीता मेरे साथ थी और मेरे पास धन भी नहीं था । वन जाते समय पिताजीने मुझे एक वराटिका (कौड़ी) भी नहीं दी; असहाय तथा धनविहीन मैं पैदल ही निकल पड़ा । उस समय क्षत्रियधर्मका त्याग करके व्याधवृत्तिके द्वारा मैंने उस महावनमें चौदह वर्ष व्यतीत किये ॥ ५१-५३ ॥

दैवाद्युद्धे जयः प्राप्तो निहतोऽसौ महासुरः ।
आनीता च पुनः सीता प्राप्तायोध्या मया तथा ॥ ५४ ॥
वर्षाणि कतिचित्तत्र सुखं संसारसम्भवम् ।
प्राप्तं राज्यञ्च सम्पूर्णं कोसलानधितिष्ठता ॥ ५५ ॥
तदनन्तर भाग्यवश युद्धमें मुझे विजय प्राप्त हुई और वह महान् असुर रावण मारा गया । इसके बाद मैं सीताको ले आया और मुझे अयोध्या फिरसे प्राप्त हो गयी । इस प्रकार जब मुझे सम्पूर्ण राज्य मिल गया, तब कोसलदेशपर अधिष्ठित रहते हुए मैंने वहाँपर कुछ वर्षोंतक सांसारिक सुखका भोग किया ॥ ५४-५५ ॥

पुरैवं वर्तमानेन प्राप्तराज्येन वै तदा ।
लोकापवादभीतेन त्यक्ता सीता वने मया ॥ ५६ ॥
कान्ताविरहजं दुःखं पुनः प्राप्तं दुरासदम् ।
पातालं सा गता पश्चाद्धरां भित्त्वा धरात्मजा ॥ ५७ ॥
इस प्रकार पूर्वकालमें जब मुझे राज्य प्राप्त हो गया तब मैंने लोकनिन्दाके भयसे वनमें सीताका परित्याग कर दिया । इसके बाद मुझे पुनः पत्नीवियोगसे होनेवाला भयंकर दुःख प्राप्त हुआ । वह धरानन्दिनी सीता पृथ्वीको भेदकर पातालमें चली गयी ॥ ५६-५७ ॥

एवं रामावतारेऽपि दुःखं प्राप्तं निरन्तरम् ।
परतन्त्रेण मे नूनं स्वतन्त्रः को भवेत्तदा ॥ ५८ ॥
पश्चात्कालवशात्प्राप्तः स्वर्गो मे भ्रातृभिः सह ।
परतन्त्रस्य का वार्ता वक्तव्या विबुधेन वै ॥ ५९ ॥
परतन्त्रोऽत्म्यहं नूनं पद्मयोने निशामय ।
तथा त्वमपि रुद्रश्च सर्वे चान्ये सुरोत्तमाः ॥ ६० ॥
इस प्रकार रामावतारमें भी मैं परतन्त्र होकर निरन्तर दुःख पाता रहा । तब भला दूसरा कौन स्वतन्त्र हो सकता है ? तत्पश्चात् कालके वशीभूत होकर मुझे अपने भाइयोंके साथ स्वर्ग जाना पड़ा । अतः कोई भी विद्वान् पराधीन व्यक्तिको क्या बात करेगा ? हे कमलोद्भव ! आप यह जान लीजिये कि जैसे मैं परतन्त्र हूँ वैसे ही आप, शंकर तथा अन्य सभी बड़े-बड़े देवता भी निश्चितरूपसे परतन्त्र हैं । ५८-६० ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां सहितायां
चतुर्थस्कन्धे ब्रह्माणं प्रति विष्णुवाक्यं नामाष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ॥
अध्याय अठारवाँ समाप्त ॥ १८ ॥


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