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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
पञ्चमः स्कन्धः
तृतीयोऽध्यायः

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भगवतीमाहाम्ये दैत्यसैन्याद्योगः -
महिषासुरका दूत भेजकर इन्द्रको स्वर्ग खाली करनेका आदेश देना, दूतद्वारा इन्द्रका युद्धहेतु आमन्त्रण प्राप्तकर महिषासुरका दानववीरोंको युद्धके लिये सुसजित होनेका आदेश देना -


व्यास उवाच
एवं स महिषो नाम दानवो वरदर्पितः ।
प्राप्य राज्यं जगत्सर्वं वशे चक्रे महाबलः ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-इस प्रकार वरदान पानेके कारण अभिमानयुक्त उस महाबली दानव महिषासुरने राज्य प्राप्त करके सम्पूर्ण जगत्को अपने अधीन कर लिया ॥ १ ॥

पृथिवीं पालयामास सागरान्तां भुजार्जिताम् ।
एकच्छत्रां निरातङ्कां वैरिवर्गविवर्जिताम् ॥ २ ॥
उसने समुद्रपर्यन्त सारी पृथ्वीको अपने बाहुबलसे जीतकर शत्रु-समुदायसे रहित कर दिया तथा वह निर्भय होकर एकच्छत्र राज्य करने लगा ॥ २ ॥

सेनानीश्चिक्षुरस्तस्य महावीर्यो मदोत्कटः ।
धनाध्यक्षस्तथा ताम्रः सेनायुतसमावृतः ॥ ३ ॥
उसका सेनाध्यक्ष चिक्षुर महापराक्रमी एवं मदमत्त था । ताम्र उसका कोषाध्यक्ष था, जिसके पास दस हजार सैनिक थे ॥ ३ ॥

असिलोमा तथोदर्को बिडालाख्यश्च बाष्कलः ।
त्रिनेत्रोऽथ तथा कालबन्धको बलदर्पितः ॥ ४ ॥
एते सैन्ययुताः सर्वे दानवा मेदिनीं तदा ।
आवृत्य संस्थिताः काममृद्धां सागरमेखलाम् ॥ ५ ॥
उस समय असिलोमा, उदर्क, बिडालाख्य, बाष्कल, त्रिनेत्र तथा बलोन्मत्त कालबन्धक-इन दानवोंने अपनी-अपनी विशाल सेनाओंके साथ सागरान्त समृद्धिशालिनी पृथ्वीको घेरकर राज्य स्थापित किया ॥ ४-५ ॥

करदाश्च कृताः सर्वे भूमिपालाः पुरातनाः ।
निहता ये बलोदग्राः क्षात्रधर्मव्यवस्थिताः ॥ ६ ॥
जो पुराने नरेश थे, वे भी अब महिषासुरको कर देने लगे । उनमें भी जो स्वाभिमानी थे और क्षात्रधर्मानुसार जिन्होंने उसका सामना किया, वे मार डाले गये ॥ ६ ॥

ब्राह्मणा वशगा जाता यज्ञभागसमर्पकाः ।
महिषस्य महाराज निखिले क्षितिमण्डले ॥ ७ ॥
हे महाराज ! सम्पूर्ण भूमण्डलपर ब्राह्मणलोग महिषासुरके अधीन हो गये और उसे यज्ञभाग देने लगे ॥ ७ ॥

एकातपत्रं तद्‌राज्यं कृत्वा स महिषासुरः ।
स्वर्गं जेतुं मनश्चक्रे वरदानेन गर्वितः ॥ ८ ॥
इस प्रकार एकच्छत्र राज्य स्थापित करके वरदानसे गर्वित वह महिषासुर स्वर्गपर भी विजय प्राप्त करनेकी अभिलाषा करने लगा ॥ ८ ॥

प्रणिधिं प्रेषयामास हयारिस्तु शचीपतिम् ।
स सन्देशहरं शीघ्रमाहूयोवाच दैत्यराट् ॥ ९ ॥
गच्छ वीर महाबाहो दूतत्वं कुरु मेऽनघ ।
ब्रूहि शक्रं दिवं गत्वा निःशङ्कः सुरसन्निधौ ॥ १० ॥
मुञ्च स्वर्गं सहस्राक्ष यथेष्टं गच्छ मा चिरम् ।
सेवां वा कुरु देवेश महिषस्य महात्मनः ॥ ११ ॥
महिषासुरने इन्द्रके पास अपना एक दूत भेजा । उस दैत्यराजने दूतको बुलाकर उससे कहा-हे वीर ! जाओ, हे महाबाहो ! तुम मेरा दूतकार्य करो । हे अनघ ! तुम निडर होकर स्वर्गमें देवताओंके पास जाकर वहाँ इन्द्रसे कहो-हे सहस्राक्ष ! तुम स्वर्ग छोड़ दो और अपनी इच्छाके अनुसार जहाँ चाहो, शीघ्र चले जाओ । अथवा हे देवेश ! महान् महिषासुरकी सेवा करो ॥ ९-११ ॥

स त्वां संरक्षयेन्नूनं राजा शरणमागतम् ।
तस्मात्त्वं शरणं याहि महिषस्य शचीपते ॥ १२ ॥
यदि तुम राजा महिषासुरकी शरणागति स्वीकार कर लो तो वे तुम्हारी रक्षा अवश्य करेंगे । अतएव हे इन्द्र ! तुम महिषासुरको शरणमें चले जाओ ॥ १२ ॥

नोचेद्वज्रं गहाणाशु युद्धाय बलसूदन ।
पूर्वैर्जितोऽसि चास्माकं जानामि तव पौरुषम् ॥ १३ ॥
अन्यथा हे बलसूदन ! युद्धके लिये शीघ्र ही अपना वज्र उठा लो । हमारे पूर्वजोंने तुम्हें पराजित किया है, अतएव हम तुम्हारा पुरुषार्थ जानते हैं ॥ १३ ॥

अहल्याजार विज्ञातं बलं ते सुरसङ्घप ।
युध्यस्व व्रज वा कामं यत्र ते रमते मनः ॥ १४ ॥
अहल्याके साथ अनाचार करनेवाले तथा देवसमुदायके अधिपति हे इन्द्र ! मैं तुम्हारे बलसे भलीभांति परिचित हूँ । तुम मेरे साथ युद्ध करो अथवा जहाँ तुम्हारा मन करे, वहाँ चले जाओ ॥ १४ ॥

व्यास उवाच
तच्छुत्वा वचनं तस्य शक्रः क्रोधसमन्वितः ।
उवाच तं नृपश्रेष्ठ स्मितपूर्वं वचस्तदा ॥ १५ ॥
न जानेऽहं सुमन्दात्मन् यतस्त्वं मददर्पितः ।
चिकित्सां संकरिष्यामि रोगस्यास्य प्रभोस्तव ॥ १६ ॥
अतः परं करिष्यामि मूलस्यास्य निमूलनम् ।
गच्छ दूत तथा ब्रूहि तस्याग्रे मम भाषितम् ॥ १७ ॥
शिष्टैर्दूता न हन्तव्यास्तस्मात्त्वां विसृजाम्यहम् ।
व्यासजी बोले-हे नृपश्रेष्ठ ! दूतका वचन सुनकर इन्द्र कुपित हो उठे; फिर भी उन्होंने मुसकराकर दूतसे कहा-हे मन्दबुद्धि ! मैं यह नहीं जान पा रहा हूँ कि तुम अभिमानके मदमें इतना चूर क्यों हो गये हो ! मैं तुम्हारे स्वामी महिषासुरके अभिमानरूपी इस रोगकी चिकित्सा अवश्य करूँगा । इसके बाद मैं इस रोगको जड़से नष्ट कर दूंगा । हे दूत ! अब तुम जाओ और उस महिषासुरसे मेरी कही गयी बात बता दो । शिष्टजनोंको चाहिये कि दूतोंका वध न करें, अत: मैं तुम्हें छोड़ दे रहा हूँ ॥ १५-१७.५ ॥

युद्धेच्छा चेत्समागच्छ त्वरितो महिषीसुत ॥ १८ ॥
हयारे त्वद्‌बलं ज्ञातं तृणादस्त्वं जडाकृतिः ।
शृङ्गयोस्ते करिष्यामि सुदृढं च शरासनम् ॥ १९ ॥
दर्पः शृङ्गबलात्तेऽस्ति विदितं कारणं मया ।
विषाणे ते परिच्छिद्य संहरिष्यामि तद्‌ बलम् ॥ २० ॥
यद्‌ बलेनातिपूर्णस्त्वं जातोऽसि बलदर्पितः ।
कुशलस्त्वं तदाघाते न युद्धे महिषाधम ॥ २१ ॥
[वहाँ जाकर मेरी तरफसे उससे कह देना-] हे महिषीपुत्र ! यदि तुम्हारी युद्ध करनेकी इच्छा हो तो शीघ्र आ जाओ । हे महिषासुर ! तुम तो घास खानेवाले जड प्रकृतिके जीव हो । अतः मुझे तुम्हारा बल ज्ञात है । मैं तुम्हारी सींगोंसे एक सुदृढ़ धनुष बनाऊँगा । तुम्हारे अभिमानका कारण मुझे विदित है । तुम्हें अपनी सींगोंके बलपर गर्व है, अतएव तुम्हारी सींगोंको काटकर मैं उस अभिमानबलको समाप्त कर दूँगा । हे महिषाधम ! जिन सींगोंके बलपर तुम गर्वोन्मत्त हो तथा अपनेको सर्वसमर्थ समझते हो, केवल उन्हींसे आघात करनेमें तुम कुशल हो; युद्ध करनेमें तुम दक्ष नहीं हो सकते ॥ १८-२१ ॥

व्यास उवाच
इत्युक्तोऽसौ सुरेन्द्रेण स दूतस्त्वरितो गतः ।
जगाम महिषं मत्तं प्रणम्य प्रत्युवाच ह ॥ २२ ॥
व्यासजी बोले-देवराज इन्द्रके ऐसा कहनेपर वह दूत तत्काल वहाँसे चल दिया । वह उन्मत्त महिषासुरके पास पहुँचा और उसे प्रणाम करके कहने लगा- ॥ २२ ॥

दूत उवाच
राजन्देवाधिपः कामं न त्वां विगणयत्यसौ ।
मन्यते स्वबलं पूर्णं देवसैन्यसमावृतः ॥ २३ ॥
दूत बोला-हे राजन् ! वह देवराज इन्द्र आपको कुछ भी नहीं समझ रहा है । देवसेनासे सम्पन्न होनेके कारण वह अपनेको पूर्ण बलवान् मानता है ॥ २३ ॥

यदुक्तं तेन मूर्खेण कथमन्यद्‌ ब्रवीम्यहम् ।
प्रियं सत्यं च वक्तव्यं भृत्येन पुरतः प्रभोः ॥ २४ ॥
उस मूर्खने जो कुछ कहा है, उसके अतिरिक्त दूसरी बात मैं कैसे कहूँ ? सेवकको अपने स्वामीके समक्ष सत्य तथा प्रिय वाणी बोलनी चाहिये ॥ २४ ॥

प्रियं सत्यं च वक्तव्यं प्रभोरग्रे शुभेच्छुना ।
इति नीतिर्महाराज जागर्ति शुभकारिणी ॥ २५ ॥
कल्याणकी इच्छा रखनेवाले सेवकको अपने स्वामीके आगे सदा सत्य तथा प्रिय वचन बोलना चाहिये । हे महाराज ! यही नीति संसारमें सदासे कल्याणप्रद होती आयी है ॥ २५ ॥

केवलं चेत्प्रियं ब्रूयान्न ते कार्यं भविष्यति ।
परुषं च न वक्तव्यं कदाचिच्छुभमिच्छता ॥ २६
किंतु यदि केवल प्रिय लगनेवाली बात ही कहूँ तो इससे आपका कार्य सिद्ध नहीं होगा । साथ ही अपना कल्याण चाहनेवाले सेवकको अपने स्वामीसे कठोर बात कभी नहीं कहनी चाहिये ॥ २६ ॥

यथा रिपुमुखाद्वाचः प्रसरन्ति विषोपमाः ।
तथा भृत्यमुखान्नाथ निःसरन्ति कथं गिरः ॥ २७ ॥
हे नाथ ! शत्रके मुखसे जिस तरहकी विषतुल्य बातें निकलती हैं, उस तरहकी बातें सेवकके मुखसे कैसे निकल सकती हैं ? ॥ २७ ॥

यादृशानीह वाक्यानि तेनोक्तानि महीपते ।
तादृशानि न मे जिह्वा वक्तुमर्हति कर्हिचित् ॥ २८ ॥
हे पृथ्वीपते ! इन्द्रने जिस प्रकारके वाक्य बोले हैं, उन्हें कह सकने में मेरी जिह्वा कभी भी समर्थ नहीं है ॥ २८ ॥

व्यास उवाच
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य हेतुगर्भं तृणाशनः ।
भृशं कोपपरीतात्मा बभूव महिषासुरः ॥ २९ ॥
व्यासजी बोले-उस दूतका रहस्यपूर्ण वचन सुनकर घास खानेवाले महिषासुरका मन पूर्णरूपसे क्रोधके वशीभूत हो गया ॥ २९ ॥

समाहूयाब्रवीद्दैत्यान्क्रोधसंरक्तलोचनः ।
लाङ्गूलं पृष्ठदेशे च कृत्वा मूत्रं परित्यजन् ॥ ३० ॥
भो भो दैत्याः सुरेन्द्रोऽसौ युद्धकामोऽस्ति सर्वथा ।
बलोद्योगं कुरुध्वं वै जेतव्योऽसौ सुराधमः ॥ ३१ ॥
सभी दैत्योंको बुलाकर क्रोधके मारे लाल आँखोंवाला महिषासुर अपनी पूँछ पीठपर रख करके मूत्र त्याग करते हुए उनसे कहने लगा-हे दैत्यो ! वह इन्द्र निश्चय ही युद्ध करना चाहता है । अतः तुमलोग सेना संगठित करो । हमें उस देवाधमको जीतना है ॥ ३०-३१ ॥

मदग्रे को भवेच्छूरः कोटिशश्चेत्तथाविधाः ।
न बिभेम्येकतः कामं हनिष्याम्यद्य सर्वथा ॥ ३२ ॥
मेरे सम्मुख भला कौन पराक्रमी बन सकता है ? यदि उस इन्द्रके समान करोड़ों लोग मेरे सामने आ जायँ तो भी मैं नहीं डरूँगा, तब उस अकेले इन्द्रसे कैसे डर सकता हूँ ? उसको तो मैं अब निश्चितरूपसे मार डालूंगा ॥ ३२ ॥

शरः शान्तेष्वसौ नूनं तपस्विषु बलाधिकः ।
बलकर्ता हि कुहको लम्पटः परदारहृत् ॥ ३३ ॥
वह इन्द्र शान्त स्वभाववाले लोगोंपर अपने पराक्रमका प्रदर्शन तथा तपस्वियोंपर अपने बलका प्रयोग करता है । वह मायावी, व्यभिचारी तथा दूसरेकी स्त्रीका हरण करनेवाला है ॥ ३३ ॥

अप्सरोबलसम्मत्तस्तपोविघ्नकरः खलः ।
छिद्रप्रहरणः पापो नित्यं विश्वासघातकः ॥ ३४ ॥
वह दुष्ट अपनी अप्सराओंके बलबूते दूसरोंकी तपस्या में विघ्न डालता है, शत्रुकी कमजोरी देखकर अवसरवादिताका लाभ उठाकर उसपर प्रहार करता है, वह सदासे पापकृत्योंमें रत रहनेवाला तथा घोर विश्वासघात करनेवाला है ॥ ३४ ॥

नमुचिर्निहतो येन कृत्वा सन्धिं दुरात्मना ।
शपथान्विविधानादौ कृत्वा भीतेन छद्मना ॥ ३५ ॥
भयके मारे उस छली इन्द्रने पहले विश्वासप्रदर्शनके लिये अनेक प्रकारकी शपथे खाकर नमुचि नामक दैत्यसे सन्धि स्थापित की, किंतु बादमें उस दुष्टात्माने छलपूर्वक नमुचिको मार डाला ॥ ३५ ॥

विष्णुस्तु कपटाचार्यः कुहकः शपथाकरः ।
नानारूपधरः कामं बलकृद्दम्भपण्डितः ॥ ३६ ॥
कृत्वा कोलाकृतिं येन हिरण्याक्षो निपातितः ।
हिरण्यकशिपुर्येन नृसिंहेन च घातितः ॥ ३७ ॥
विष्णु तो कपटका आचार्य, मायावी, झूठी प्रतिज्ञाएँ करने में बड़ा ही कुशल, बहुरूपिया, सैन्यबलका संचय करनेवाला तथा महान् पाखण्डी है । उसीने सूकरका रूप धारणकर हिरण्याक्षका वध कर डाला और नृसिंहका रूप धारणकर हिरण्यकशिपुका संहार किया । ३६-३७ ॥

नाहं तद्वशगो नूनं भवेयं दनुनन्दनाः ।
विश्वासं नैव गच्छामि देवानां कुत्र कर्हिचित् ॥ ३८ ॥
अतएव हे दनुके वंशजो ! मैं उसका वशवर्ती कभी भी नहीं होऊँगा और देवताओंका कहीं भी कदापि विश्वास नहीं करूँगा ॥ ३८ ॥

किं करिष्यति मे विष्णुरिन्द्रो वा बलवत्तरः ।
रुद्रो वापि न मे शक्तः प्रतिकर्तुं रणाङ्गणे ॥ ३९ ॥
त्रिविष्टपं ग्रहीष्यामि जित्वेन्द्रं वरुणं यमम् ।
धनदं पावकं चैव चन्द्रसूर्यौ विजित्य च ॥ ४० ॥
विष्णु तथा इन्द्र-ये दोनों मेरा क्या कर लेंगे ? यहाँतक कि उनसे भी अधिक शक्तिशाली रुद्र भी युद्ध-भूमिमें मेरा प्रतीकार कर पाने में समर्थ नहीं है । इन्द्र, वरुण, यम, कुबेर, अग्नि, चन्द्रमा तथा सूर्यको जीतकर मैं स्वर्गपर अधिकार कर लूँगा ॥ ३९-४० ॥

यज्ञभागभुजः सर्वे भविष्यामोऽद्य सोमपाः ।
जित्वा देवसमूहञ्च विहरिष्यामि दानवैः ॥ ४१ ॥
अब हमलोग यज्ञका भाग प्राप्त करेंगे तथा सोमरसका पान करनेवाले होंगे । मैं देवसमुदायको जीतकर दानवोंके साथ विहार करूँगा ॥ ४१ ॥

न मे भयं सुरेभ्यश्च वरदानेन दानवाः ।
मरणं न नरेभ्यश्च नारी किं मे करिष्यति ॥ ४२ ॥
हे दानवो ! वरदानके कारण मुझे देवताओंका भय नहीं है । पुरुषसे मेरी मृत्यु हो ही नहीं सकती; तब भला स्त्री मेरा क्या कर लेगी ? ॥ ४२ ॥

पातालपर्वतेभ्यश्च समाहूय वरान्वरान् ।
दानवान्मम सैन्येशान्कुर्वन्तु त्वरिताश्चराः ॥ ४३ ॥
हे गुप्तचरो ! पातालमें तथा पर्वतोपर रहनेवाले बड़े-बड़े दानव-वीरोंको तत्काल यहाँ बुलाकर उन्हें मेरी सेनाओंका अध्यक्ष बना दो ॥ ४३ ॥

एकोऽहं सर्वदेवेशान्विजेतुं दानवाः क्षमः ।
शोभार्थं वः समाहूय नयामि सुरसङ्गमे ॥ ४४ ॥
हे दानवो ! मैं तो अकेला ही समस्त देवताओंको जीतनेमें समर्थ हैं, फिर भी शोभा बढ़ानेकी दृष्टिसे आप सबको भी बुलाकर देवताओंके साथ होनेवाले संग्राममें ले चलूँगा ॥ ४४ ॥

शृङ्गाभ्यां च खुराभ्यां च हनिष्येऽहं सुरान्किल ।
न मे भयं सुरेभ्यश्च वरदानप्रभावतः ॥ ४५ ॥
मैं अपनी सींगों तथा खरोंसे देवताओंको निश्चितरूपसे मार डालूँगा । वरदानके प्रभावसे मुझे देवताओंसे भय नहीं है । ॥ ४५ ॥

अवध्योऽहं सुरगणैरसुरैर्मानवैस्तथा ।
तस्मात्सज्जा भवन्त्वद्य देवलोकजयाय वै ॥ ४६ ॥
देवता, दानव तथा मनुष्य-सभीसे मैं अवध्य हूँ, अत: आप सब देवलोकपर विजय प्राप्त करनेके लिये अब तैयार हो जायें ॥ ४६ ॥

जित्वा सुरालयं दैत्या विहरिष्यामि नन्दने ।
मन्दारकुसुमापीडा देवयोषित्समन्विताः ॥ ४७ ॥
कामधेनुपयोत्सिक्ताः सुधापानप्रमोदिताः ।
देवगन्धर्वगीतादिनृत्यलास्यसमन्विताः ॥ ४८ ॥
हे दैत्यो ! देवलोकको जीतकर मैं नन्दनवनमें विहार करूँगा । मन्दारपुष्पकी मालाएँ धारण करके आपलोग देवांगनाओके साथ रहेंगे, कामधेनुके दुग्धका सेवन करेंगे, प्रसन्नतापूर्वक अमृत-पान करेंगे और देवताओं तथा गन्धर्वोक गीतों तथा मनमोहक हावभाव-युक्त नृत्योंका आनन्द लेंगे ॥ ४७-४८ ॥

उर्वशी मेनका रम्भा घृताची च तिलोत्तमा ।
प्रमद्वरा महासेना मिश्रकेशी मदोत्कटा ॥ ४९ ॥
विप्रचित्तिप्रभृतयो नृत्यगीतविशारदाः ।
रञ्जयिष्यन्ति वः सर्वान्नानासवनिषेवणैः ॥ ५० ॥
उर्वशी, मेनका, रम्भा, घृताची, तिलोत्तमा, प्रमद्वरा, महासेना, मिश्रकेशी, मदोत्कटा, विप्रचित्ति आदि नृत्य तथा गायन-कलामें अति निपुण अप्सराएँ विविध प्रकारके मद्य पिलाकर आप सभीका मनोरंजन करेंगी ॥ ४९-५० ॥

सर्वे सज्जा भवन्त्वद्य रोचतां गमनं दिवि ।
संग्रामार्थं सुरैः सार्धं कृत्वा मङ्गलमुत्तमम् ॥ ५१ ॥
देवताओंके साथ युद्ध करनेके लिये देवलोकके लिये प्रस्थान करना यदि आपलोगोंको उचित लगे तो आप सब उत्तम मंगलाचार सम्पन्न करके आज ही चलनेके लिये तैयार हो जाइये ॥ ५१ ॥

रक्षणार्थं च सर्वेषां भार्गवं मुनिसत्तमम् ।
समाहूय च संपूज्य स्थाप्य यज्ञे गुरुं परम् ॥ ५२ ॥
समस्त दानवोंकी रक्षाके लिये मुनिश्रेष्ठ शुक्राचार्यको बुलाकर उनका पूजन करके उन परम गुरुको यज्ञकार्यमें नियुक्त कीजिये ॥ ५२ ॥

व्यास उवाच
इति सन्दिश्य दैत्येन्द्रान्महिषः पापधीस्तदा ।
जगाम त्वरितो राजन्भवनं स्वं मुदान्वितः ॥ ५३ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन ! इस प्रकार दानववीरोंको आदेश देकर वह पापबुद्धि महिषासुर प्रसन्नताके साथ शीघ्र ही अपने भवनको चला गया ॥ ५३ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां
पञ्चमस्कन्धे भगवतीमाहाम्ये दैत्यसैन्योद्योगो नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवत महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रयाँ संहितायां पञ्चमस्कन्धे भगवतीमाहात्म्ये दैत्यसैन्योद्योगो नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥


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