उसने समुद्रपर्यन्त सारी पृथ्वीको अपने बाहुबलसे जीतकर शत्रु-समुदायसे रहित कर दिया तथा वह निर्भय होकर एकच्छत्र राज्य करने लगा ॥ २ ॥
सेनानीश्चिक्षुरस्तस्य महावीर्यो मदोत्कटः । धनाध्यक्षस्तथा ताम्रः सेनायुतसमावृतः ॥ ३ ॥
उसका सेनाध्यक्ष चिक्षुर महापराक्रमी एवं मदमत्त था । ताम्र उसका कोषाध्यक्ष था, जिसके पास दस हजार सैनिक थे ॥ ३ ॥
असिलोमा तथोदर्को बिडालाख्यश्च बाष्कलः । त्रिनेत्रोऽथ तथा कालबन्धको बलदर्पितः ॥ ४ ॥ एते सैन्ययुताः सर्वे दानवा मेदिनीं तदा । आवृत्य संस्थिताः काममृद्धां सागरमेखलाम् ॥ ५ ॥
उस समय असिलोमा, उदर्क, बिडालाख्य, बाष्कल, त्रिनेत्र तथा बलोन्मत्त कालबन्धक-इन दानवोंने अपनी-अपनी विशाल सेनाओंके साथ सागरान्त समृद्धिशालिनी पृथ्वीको घेरकर राज्य स्थापित किया ॥ ४-५ ॥
करदाश्च कृताः सर्वे भूमिपालाः पुरातनाः । निहता ये बलोदग्राः क्षात्रधर्मव्यवस्थिताः ॥ ६ ॥
जो पुराने नरेश थे, वे भी अब महिषासुरको कर देने लगे । उनमें भी जो स्वाभिमानी थे और क्षात्रधर्मानुसार जिन्होंने उसका सामना किया, वे मार डाले गये ॥ ६ ॥
ब्राह्मणा वशगा जाता यज्ञभागसमर्पकाः । महिषस्य महाराज निखिले क्षितिमण्डले ॥ ७ ॥
हे महाराज ! सम्पूर्ण भूमण्डलपर ब्राह्मणलोग महिषासुरके अधीन हो गये और उसे यज्ञभाग देने लगे ॥ ७ ॥
एकातपत्रं तद्राज्यं कृत्वा स महिषासुरः । स्वर्गं जेतुं मनश्चक्रे वरदानेन गर्वितः ॥ ८ ॥
इस प्रकार एकच्छत्र राज्य स्थापित करके वरदानसे गर्वित वह महिषासुर स्वर्गपर भी विजय प्राप्त करनेकी अभिलाषा करने लगा ॥ ८ ॥
प्रणिधिं प्रेषयामास हयारिस्तु शचीपतिम् । स सन्देशहरं शीघ्रमाहूयोवाच दैत्यराट् ॥ ९ ॥ गच्छ वीर महाबाहो दूतत्वं कुरु मेऽनघ । ब्रूहि शक्रं दिवं गत्वा निःशङ्कः सुरसन्निधौ ॥ १० ॥ मुञ्च स्वर्गं सहस्राक्ष यथेष्टं गच्छ मा चिरम् । सेवां वा कुरु देवेश महिषस्य महात्मनः ॥ ११ ॥
महिषासुरने इन्द्रके पास अपना एक दूत भेजा । उस दैत्यराजने दूतको बुलाकर उससे कहा-हे वीर ! जाओ, हे महाबाहो ! तुम मेरा दूतकार्य करो । हे अनघ ! तुम निडर होकर स्वर्गमें देवताओंके पास जाकर वहाँ इन्द्रसे कहो-हे सहस्राक्ष ! तुम स्वर्ग छोड़ दो और अपनी इच्छाके अनुसार जहाँ चाहो, शीघ्र चले जाओ । अथवा हे देवेश ! महान् महिषासुरकी सेवा करो ॥ ९-११ ॥
स त्वां संरक्षयेन्नूनं राजा शरणमागतम् । तस्मात्त्वं शरणं याहि महिषस्य शचीपते ॥ १२ ॥
यदि तुम राजा महिषासुरकी शरणागति स्वीकार कर लो तो वे तुम्हारी रक्षा अवश्य करेंगे । अतएव हे इन्द्र ! तुम महिषासुरको शरणमें चले जाओ ॥ १२ ॥
अन्यथा हे बलसूदन ! युद्धके लिये शीघ्र ही अपना वज्र उठा लो । हमारे पूर्वजोंने तुम्हें पराजित किया है, अतएव हम तुम्हारा पुरुषार्थ जानते हैं ॥ १३ ॥
अहल्याजार विज्ञातं बलं ते सुरसङ्घप । युध्यस्व व्रज वा कामं यत्र ते रमते मनः ॥ १४ ॥
अहल्याके साथ अनाचार करनेवाले तथा देवसमुदायके अधिपति हे इन्द्र ! मैं तुम्हारे बलसे भलीभांति परिचित हूँ । तुम मेरे साथ युद्ध करो अथवा जहाँ तुम्हारा मन करे, वहाँ चले जाओ ॥ १४ ॥
व्यास उवाच तच्छुत्वा वचनं तस्य शक्रः क्रोधसमन्वितः । उवाच तं नृपश्रेष्ठ स्मितपूर्वं वचस्तदा ॥ १५ ॥ न जानेऽहं सुमन्दात्मन् यतस्त्वं मददर्पितः । चिकित्सां संकरिष्यामि रोगस्यास्य प्रभोस्तव ॥ १६ ॥ अतः परं करिष्यामि मूलस्यास्य निमूलनम् । गच्छ दूत तथा ब्रूहि तस्याग्रे मम भाषितम् ॥ १७ ॥ शिष्टैर्दूता न हन्तव्यास्तस्मात्त्वां विसृजाम्यहम् ।
व्यासजी बोले-हे नृपश्रेष्ठ ! दूतका वचन सुनकर इन्द्र कुपित हो उठे; फिर भी उन्होंने मुसकराकर दूतसे कहा-हे मन्दबुद्धि ! मैं यह नहीं जान पा रहा हूँ कि तुम अभिमानके मदमें इतना चूर क्यों हो गये हो ! मैं तुम्हारे स्वामी महिषासुरके अभिमानरूपी इस रोगकी चिकित्सा अवश्य करूँगा । इसके बाद मैं इस रोगको जड़से नष्ट कर दूंगा । हे दूत ! अब तुम जाओ और उस महिषासुरसे मेरी कही गयी बात बता दो । शिष्टजनोंको चाहिये कि दूतोंका वध न करें, अत: मैं तुम्हें छोड़ दे रहा हूँ ॥ १५-१७.५ ॥
युद्धेच्छा चेत्समागच्छ त्वरितो महिषीसुत ॥ १८ ॥ हयारे त्वद्बलं ज्ञातं तृणादस्त्वं जडाकृतिः । शृङ्गयोस्ते करिष्यामि सुदृढं च शरासनम् ॥ १९ ॥ दर्पः शृङ्गबलात्तेऽस्ति विदितं कारणं मया । विषाणे ते परिच्छिद्य संहरिष्यामि तद् बलम् ॥ २० ॥ यद् बलेनातिपूर्णस्त्वं जातोऽसि बलदर्पितः । कुशलस्त्वं तदाघाते न युद्धे महिषाधम ॥ २१ ॥
[वहाँ जाकर मेरी तरफसे उससे कह देना-] हे महिषीपुत्र ! यदि तुम्हारी युद्ध करनेकी इच्छा हो तो शीघ्र आ जाओ । हे महिषासुर ! तुम तो घास खानेवाले जड प्रकृतिके जीव हो । अतः मुझे तुम्हारा बल ज्ञात है । मैं तुम्हारी सींगोंसे एक सुदृढ़ धनुष बनाऊँगा । तुम्हारे अभिमानका कारण मुझे विदित है । तुम्हें अपनी सींगोंके बलपर गर्व है, अतएव तुम्हारी सींगोंको काटकर मैं उस अभिमानबलको समाप्त कर दूँगा । हे महिषाधम ! जिन सींगोंके बलपर तुम गर्वोन्मत्त हो तथा अपनेको सर्वसमर्थ समझते हो, केवल उन्हींसे आघात करनेमें तुम कुशल हो; युद्ध करनेमें तुम दक्ष नहीं हो सकते ॥ १८-२१ ॥
व्यास उवाच इत्युक्तोऽसौ सुरेन्द्रेण स दूतस्त्वरितो गतः । जगाम महिषं मत्तं प्रणम्य प्रत्युवाच ह ॥ २२ ॥
व्यासजी बोले-देवराज इन्द्रके ऐसा कहनेपर वह दूत तत्काल वहाँसे चल दिया । वह उन्मत्त महिषासुरके पास पहुँचा और उसे प्रणाम करके कहने लगा- ॥ २२ ॥
दूत उवाच राजन्देवाधिपः कामं न त्वां विगणयत्यसौ । मन्यते स्वबलं पूर्णं देवसैन्यसमावृतः ॥ २३ ॥
दूत बोला-हे राजन् ! वह देवराज इन्द्र आपको कुछ भी नहीं समझ रहा है । देवसेनासे सम्पन्न होनेके कारण वह अपनेको पूर्ण बलवान् मानता है ॥ २३ ॥
यदुक्तं तेन मूर्खेण कथमन्यद् ब्रवीम्यहम् । प्रियं सत्यं च वक्तव्यं भृत्येन पुरतः प्रभोः ॥ २४ ॥
उस मूर्खने जो कुछ कहा है, उसके अतिरिक्त दूसरी बात मैं कैसे कहूँ ? सेवकको अपने स्वामीके समक्ष सत्य तथा प्रिय वाणी बोलनी चाहिये ॥ २४ ॥
प्रियं सत्यं च वक्तव्यं प्रभोरग्रे शुभेच्छुना । इति नीतिर्महाराज जागर्ति शुभकारिणी ॥ २५ ॥
कल्याणकी इच्छा रखनेवाले सेवकको अपने स्वामीके आगे सदा सत्य तथा प्रिय वचन बोलना चाहिये । हे महाराज ! यही नीति संसारमें सदासे कल्याणप्रद होती आयी है ॥ २५ ॥
केवलं चेत्प्रियं ब्रूयान्न ते कार्यं भविष्यति । परुषं च न वक्तव्यं कदाचिच्छुभमिच्छता ॥ २६
किंतु यदि केवल प्रिय लगनेवाली बात ही कहूँ तो इससे आपका कार्य सिद्ध नहीं होगा । साथ ही अपना कल्याण चाहनेवाले सेवकको अपने स्वामीसे कठोर बात कभी नहीं कहनी चाहिये ॥ २६ ॥
यथा रिपुमुखाद्वाचः प्रसरन्ति विषोपमाः । तथा भृत्यमुखान्नाथ निःसरन्ति कथं गिरः ॥ २७ ॥
हे नाथ ! शत्रके मुखसे जिस तरहकी विषतुल्य बातें निकलती हैं, उस तरहकी बातें सेवकके मुखसे कैसे निकल सकती हैं ? ॥ २७ ॥
यादृशानीह वाक्यानि तेनोक्तानि महीपते । तादृशानि न मे जिह्वा वक्तुमर्हति कर्हिचित् ॥ २८ ॥
हे पृथ्वीपते ! इन्द्रने जिस प्रकारके वाक्य बोले हैं, उन्हें कह सकने में मेरी जिह्वा कभी भी समर्थ नहीं है ॥ २८ ॥
व्यास उवाच तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य हेतुगर्भं तृणाशनः । भृशं कोपपरीतात्मा बभूव महिषासुरः ॥ २९ ॥
व्यासजी बोले-उस दूतका रहस्यपूर्ण वचन सुनकर घास खानेवाले महिषासुरका मन पूर्णरूपसे क्रोधके वशीभूत हो गया ॥ २९ ॥
समाहूयाब्रवीद्दैत्यान्क्रोधसंरक्तलोचनः । लाङ्गूलं पृष्ठदेशे च कृत्वा मूत्रं परित्यजन् ॥ ३० ॥ भो भो दैत्याः सुरेन्द्रोऽसौ युद्धकामोऽस्ति सर्वथा । बलोद्योगं कुरुध्वं वै जेतव्योऽसौ सुराधमः ॥ ३१ ॥
सभी दैत्योंको बुलाकर क्रोधके मारे लाल आँखोंवाला महिषासुर अपनी पूँछ पीठपर रख करके मूत्र त्याग करते हुए उनसे कहने लगा-हे दैत्यो ! वह इन्द्र निश्चय ही युद्ध करना चाहता है । अतः तुमलोग सेना संगठित करो । हमें उस देवाधमको जीतना है ॥ ३०-३१ ॥
मदग्रे को भवेच्छूरः कोटिशश्चेत्तथाविधाः । न बिभेम्येकतः कामं हनिष्याम्यद्य सर्वथा ॥ ३२ ॥
मेरे सम्मुख भला कौन पराक्रमी बन सकता है ? यदि उस इन्द्रके समान करोड़ों लोग मेरे सामने आ जायँ तो भी मैं नहीं डरूँगा, तब उस अकेले इन्द्रसे कैसे डर सकता हूँ ? उसको तो मैं अब निश्चितरूपसे मार डालूंगा ॥ ३२ ॥
वह इन्द्र शान्त स्वभाववाले लोगोंपर अपने पराक्रमका प्रदर्शन तथा तपस्वियोंपर अपने बलका प्रयोग करता है । वह मायावी, व्यभिचारी तथा दूसरेकी स्त्रीका हरण करनेवाला है ॥ ३३ ॥
वह दुष्ट अपनी अप्सराओंके बलबूते दूसरोंकी तपस्या में विघ्न डालता है, शत्रुकी कमजोरी देखकर अवसरवादिताका लाभ उठाकर उसपर प्रहार करता है, वह सदासे पापकृत्योंमें रत रहनेवाला तथा घोर विश्वासघात करनेवाला है ॥ ३४ ॥
भयके मारे उस छली इन्द्रने पहले विश्वासप्रदर्शनके लिये अनेक प्रकारकी शपथे खाकर नमुचि नामक दैत्यसे सन्धि स्थापित की, किंतु बादमें उस दुष्टात्माने छलपूर्वक नमुचिको मार डाला ॥ ३५ ॥
विष्णु तो कपटका आचार्य, मायावी, झूठी प्रतिज्ञाएँ करने में बड़ा ही कुशल, बहुरूपिया, सैन्यबलका संचय करनेवाला तथा महान् पाखण्डी है । उसीने सूकरका रूप धारणकर हिरण्याक्षका वध कर डाला और नृसिंहका रूप धारणकर हिरण्यकशिपुका संहार किया । ३६-३७ ॥
अतएव हे दनुके वंशजो ! मैं उसका वशवर्ती कभी भी नहीं होऊँगा और देवताओंका कहीं भी कदापि विश्वास नहीं करूँगा ॥ ३८ ॥
किं करिष्यति मे विष्णुरिन्द्रो वा बलवत्तरः । रुद्रो वापि न मे शक्तः प्रतिकर्तुं रणाङ्गणे ॥ ३९ ॥ त्रिविष्टपं ग्रहीष्यामि जित्वेन्द्रं वरुणं यमम् । धनदं पावकं चैव चन्द्रसूर्यौ विजित्य च ॥ ४० ॥
विष्णु तथा इन्द्र-ये दोनों मेरा क्या कर लेंगे ? यहाँतक कि उनसे भी अधिक शक्तिशाली रुद्र भी युद्ध-भूमिमें मेरा प्रतीकार कर पाने में समर्थ नहीं है । इन्द्र, वरुण, यम, कुबेर, अग्नि, चन्द्रमा तथा सूर्यको जीतकर मैं स्वर्गपर अधिकार कर लूँगा ॥ ३९-४० ॥
हे दानवो ! मैं तो अकेला ही समस्त देवताओंको जीतनेमें समर्थ हैं, फिर भी शोभा बढ़ानेकी दृष्टिसे आप सबको भी बुलाकर देवताओंके साथ होनेवाले संग्राममें ले चलूँगा ॥ ४४ ॥
शृङ्गाभ्यां च खुराभ्यां च हनिष्येऽहं सुरान्किल । न मे भयं सुरेभ्यश्च वरदानप्रभावतः ॥ ४५ ॥
मैं अपनी सींगों तथा खरोंसे देवताओंको निश्चितरूपसे मार डालूँगा । वरदानके प्रभावसे मुझे देवताओंसे भय नहीं है । ॥ ४५ ॥
हे दैत्यो ! देवलोकको जीतकर मैं नन्दनवनमें विहार करूँगा । मन्दारपुष्पकी मालाएँ धारण करके आपलोग देवांगनाओके साथ रहेंगे, कामधेनुके दुग्धका सेवन करेंगे, प्रसन्नतापूर्वक अमृत-पान करेंगे और देवताओं तथा गन्धर्वोक गीतों तथा मनमोहक हावभाव-युक्त नृत्योंका आनन्द लेंगे ॥ ४७-४८ ॥
देवताओंके साथ युद्ध करनेके लिये देवलोकके लिये प्रस्थान करना यदि आपलोगोंको उचित लगे तो आप सब उत्तम मंगलाचार सम्पन्न करके आज ही चलनेके लिये तैयार हो जाइये ॥ ५१ ॥
रक्षणार्थं च सर्वेषां भार्गवं मुनिसत्तमम् । समाहूय च संपूज्य स्थाप्य यज्ञे गुरुं परम् ॥ ५२ ॥
समस्त दानवोंकी रक्षाके लिये मुनिश्रेष्ठ शुक्राचार्यको बुलाकर उनका पूजन करके उन परम गुरुको यज्ञकार्यमें नियुक्त कीजिये ॥ ५२ ॥