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भुवनकोशवर्णने हरिवर्षकेतुमालरम्यकवर्षवर्णनम् -
हरिवर्षमें प्रह्लादके द्वारा नृसिंहरूपकी आराधना, केतुमालवर्षमें श्रीलक्ष्मीजीके द्वारा कामदेवरूपकी तथा रम्यकवर्षमें मनुजीके द्वारा मत्स्यरूपकी स्तुति-उपासना -
श्रीनारायण उवाच हरिवर्षे च भगवान्नृहरिः पापनाशनः । वर्तते योगयुक्तात्मा भक्तानुग्रहकारकः ॥ १ ॥
श्रीनारायण बोले-[हे नारद !] पापोंका नाश करनेवाले, योगसे युक्त आत्मावाले तथा भक्तोंपर अनुग्रह करनेवाले भगवान् नृसिंह हरिवर्षमें प्रतिष्ठित हैं ॥ १ ॥
प्रह्लाद बोले-तेजोंके भी तेज ॐकारस्वरूप भगवान् नरसिंहको बार-बार नमस्कार है । हे वज्रदंष्ट्र ! आप मेरे सामने प्रकट होइये, प्रकट होइये; मेरे कर्मविषयोंको जला डालिये, जला डालिये और मेरे अज्ञानरूप अन्धकारको नष्ट कीजिये, ॐ स्वाहा: मुझे अभय दीजिये तथा मेरे अन्त:करणमें प्रतिष्ठित होइये । । ॐ क्ष्रौं । हे प्रभो ! अखिल जगत्का कल्याण हो, दुष्टलोग शुद्ध भावनासे युक्त हों, सभी प्राणी अपने मनमें एक दूसरेके कल्याणका चिन्तन करें, हम सबका मन शुभ मार्गमें प्रवृत्त हो और हमारी मति निष्कामभावसे युक्त होकर भगवान् श्रीहरिमें प्रविष्ट हो ॥ ३ ॥
मागारदारात्मजवित्तबन्धुषु सङ्गो यदि स्याद्भगवत्प्रियेषु नः । यः प्राणवृत्त्या परितुष्ट आत्मवान् सिद्ध्यत्यदूरान्न तथेन्द्रियप्रियः ॥ ४ ॥
[हे भगवन् !] घर, स्त्री, पुत्र, धन और बन्धुबान्धवोंमें हमारी आसक्ति न हो और यदि हो तो भगवान्के प्रियजनोंमें हो । जो संयमी पुरुष केवल प्राण-रक्षाके योग्य आहारसे सन्तुष्ट रहता है, वह शीघ्र ही सिद्धि प्राप्त कर लेता है, किंतु इन्द्रियप्रिय व्यक्ति वैसा नहीं कर पाता ॥ ४ ॥
यत्सङ्गलब्धं निजवीर्यवैभवं तीर्थं मुहुः संस्पृशतां हि मानसम् । हरत्यजोऽन्तः श्रुतिभिर्गतोऽङ्गजं को वै न सेवेत मुकुन्दविक्रमम् ॥ ५ ॥
जिन भगवद्भक्तोंके संगसे भगवान्के तीर्थतुल्य चरित्र सुननेको मिलते हैं, जो उनकी असाधारण शक्ति-वैभवके सूचक हैं तथा जिनका बार-बार सेवन करनेवालोंके कानोंके मार्गसे भगवान् हृदयमें प्रवेश करके उनके सभी प्रकारके मानसिक तथा दैहिक कष्टोंको हर लेते हैं-उन भगवद्भक्तोंका संग कौन नहीं करना चाहेगा ? ॥ ५ ॥
भगवान्में जिस पुरुषकी निष्काम भक्ति होती है, उसके हृदयमें देवता, धर्म, ज्ञान आदि सभी गुणोंसहित निवास करते हैं, किंतु अनेक मनोरथोंसे युक्त होकर बाहरी विषय-सुखकी ओर दौड़नेवाले भगवद्भक्तिरहित मनुष्य में महान् गुण कहाँसे हो सकते हैं ? ॥ ६ ॥
हरिर्हि साक्षाद्भगवाञ्छरीरिणा- मात्मा झषाणामिव तोयमीप्सितम् । हित्वा महांस्तं यदि सज्जते गृहे तदा महत्त्वं वयसा दम्पतीनाम् ॥ ७ ॥
जैसे मछलियोंको जल अत्यन्त प्रिय है, उसी प्रकार साक्षात् भगवान् श्रीहरि ही सभी देहधारियोंकी आत्मा हैं । उनका त्याग करके यदि कोई महत्त्वाभिमानी घरमें आसक्त रहता है तो उस दशामें दम्पतियोंका महत्त्व केवल उनकी आयुको लेकर माना जाता है, गुणोंकी दृष्टिसे कदापि नहीं ॥ ७ ॥
अतएव तृष्णा, राग, विषाद, क्रोध, मान, कामना, भय, दीनता, मानसिक सन्तापके मूल और जन्ममरणरूप संसारचक्रका वहन करनेवाले गृहका परित्याग करके भगवान् नृसिंहके चरणका आश्रय लेनेवालोंको भय कहाँ ! ॥ ८ ॥
एवं दैत्यपतिः सोऽपि भक्त्यानुदिनमीडते । नृहरिं पापमातङ्गहरिं हृत्पद्मवासिनम् ॥ ९ ॥
[हे नारद !] इस प्रकार वे दैत्यपति प्रह्लाद पापरूपी हाथियोंके लिये सिंहस्वरूप तथा हृदयकमलमें निवास करनेवाले भगवान् नृसिंहकी भक्तिपूर्वक निरन्तर स्तुति करते रहते हैं ॥ ९ ॥
केतुमाले च वर्षे हि भगवान्स्मररूपधृक् । आस्ते तद्वर्षनाथानां पूजनीयश्च सर्वदा ॥ १० ॥
केतुमालवर्षमें भगवान् श्रीहरि कामदेवका रूप धारण करके प्रतिष्ठित हैं । उस वर्षके अधीश्वरोंके लिये वे सर्वदा पूजनीय हैं ॥ १० ॥
एतेनोपासते स्तोत्रजालेन च रमाब्धिजा । तद्वर्षनाथा सततं महतां मानदायिका ॥ ११ ॥
इस वर्षकी अधीश्वरी तथा महान् लोगोंको सम्मान देनेवाली समुद्रतनया लक्ष्मीजी इस स्तोत्रसमूहसे निरन्तर उनकी उपासना करती हैं ॥ ११ ॥
रमा बोलीं-इन्द्रियोंके स्वामी, सम्पूर्ण श्रेष्ठ वस्तुओंसे लक्षित आत्मावाले, ज्ञान-क्रिया-संकल्पशक्ति आदि चित्तके धर्मों तथा उनके विषयोंके अधिपति, सोलह कलाओंसे सम्पन्न, वेदोक्त कर्मोसे प्राप्त होनेवाले, अन्नमय, अमृतमय, सर्वमय, महनीय, ओजवान बलशाली तथा कान्तियुक्त भगवान् कामदेवको ॐ ह्रां ह्रीं हूं ॐ-इन बीजमन्त्रोंके साथ सब ओरसे नमस्कार है । [हे प्रभो !] स्त्रियाँ अनेक प्रकारके व्रतोंद्वारा आप हषीकेश्वरकी आराधना करके लोकमें अन्य पतिकी इच्छा किया करती हैं; किंतु वे पति उनके प्रिय पुत्र, धन और आयुकी रक्षा नहीं कर पाते हैं । क्योंकि वे स्वयं ही परतन्त्र होते हैं ॥ १२ ॥
स वै पतिः स्यादकुतोभयः स्वतः समन्ततः पाति भयातुरं जनम् । स एक एवेतरथा मिथो भयं नैवात्मलाभादधिमन्यते परम् ॥ १३ ॥
[हे परमात्मन् ] पति तो वह होता है, जो स्वयं किसीसे भयभीत न रहकर भयग्रस्त जनकी भलीभांति रक्षा करता है । वैसे पति एकमात्र आप ही हैं । यदि एक-से अधिक पति माने जाये तो उन्हें परस्पर भयकी सम्भावना रहती है । अतः आप अपनी प्राप्तिसे बढ़कर और कोई लाभ नहीं मानते ॥ १३ ॥
या तस्य ते पादसरोरुहार्हणं न कामयेत्साखिलकामलम्पटा । तदेव रासीप्सितमीप्सितोऽर्चितो यद्भग्नयाञ्चा भगवन् प्रतप्यते ॥ १४ ॥
हे भगवन् ! जो स्त्री आपके चरणकमलोंके पूजनकी कामना करती है और अन्य वस्तुकी अभिलाषा नहीं करती, उसकी सभी कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं । किंतु जो किसी एक कामनाको लेकर आपकी उपासना करती है, उसे आप केवल वही वस्तु देते हैं और जब भोगके पश्चात् वह वस्तु नष्ट हो जाती है तो उसके लिये उसे दुःखित होना पड़ता है ॥ १४ ॥
हे अजित ! इन्द्रियसुख पानेका विचार रखनेवाले ब्रह्मा, रुद्र, देव तथा दानव आदि मेरी प्राप्तिके लिये कठिन तप करते हैं; किंतु आपके चरणकमलोंकी उपासना करनेवालेके अतिरिक्त अन्य कोई भी मुझे प्राप्त नहीं कर सकते; क्योंकि मेरा हृदय सदा आपमें ही लगा रहता है ॥ १५ ॥
स त्वं ममाप्यच्युत शीर्ष्णि वन्दितं कराम्बुजं यत्त्वदधायि सात्वताम् । बिभर्षि मां लक्ष्य वरेण्य मायया क ईश्वरस्येहितमूहितुं विभुः ॥ १६ ॥
हे अच्युत ! आप अपने जिस वन्दनीय करकमलको भक्तोंके मस्तकपर रखते हैं, उसे मेरे भी सिरपर रखिये । हे वरेण्य ! आप मुझे केवल श्रीवत्सरूपसे अपने वक्षःस्थलपर ही धारण करते हैं । मायासे की हुई आप परमेश्वरकी लीलाको जानने में भला कौन समर्थ है ? ॥ १६ ॥
एवं कामं स्तुवन्त्येव लोकबन्धुस्वरूपिणम् । प्रजापतिमुखा वर्षनाथाः कामस्य सिद्धये ॥ १७ ॥
[हे नारद !] इस प्रकार [केतुमालवर्षमें] लक्ष्मीजी तथा इस वर्षके अन्य प्रजापति आदि प्रमुख अधीश्वर भी कामनासिद्धिके लिये कामदेवरूपधारी लोकबन्धुस्वरूपी श्रीहरिकी स्तुति करते हैं ॥ १७ ॥
रम्यके नामवर्षे च मूर्तिं भगवतः पराम् । मात्स्यां देवासुरैर्वन्द्यां मनुः स्तौति निरन्तरम् ॥ १८ ॥
रम्यक नामक वर्षमें मनुजी भगवान् श्रीहरिकी देवदानवपूजित सर्वश्रेष्ठ मत्स्यमूर्तिकी निरन्तर इस प्रकार स्तुति करते रहते हैं ॥ १८ ॥
मनुजी बोले-सबसे प्रधान, सत्त्वमय, प्राणसूत्रात्मा, ओजस्वी तथा बलयुक्त ॐकारस्वरूप भगवान् महामत्स्यको बार-बार नमस्कार है । आप सभी प्राणियोंके भीतर और बाहर संचरण करते हैं । आपके रूपको ब्रह्मा आदि सभी लोकपाल भी नहीं देख सकते । वेद ही आपका महान् शब्द है । वे ईश्वर आप ही हैं । ब्राह्मण आदि विधिनिषेधात्मकरूप डोरीसे इस जगत्को अपने अधीन करके उसे उसी प्रकार नचाते हैं, जैसे कोई नट कठपुतलीको नचाता है ॥ १९ ॥
यं लोकपालाः किल मत्सरज्वरा हित्वा यतन्तोऽपि पृथक् समेत्य च । पातुं न शेकुर्द्विपदश्चतुष्पदः सरीसृपं स्थाणु यदत्र दृश्यते ॥ २० ॥
आपके प्रति ईर्ष्याभावसे भरे हुए लोकपाल आपको छोड़कर अलग-अलग तथा मिलकर भी मनुष्य, पशु, नाग आदि जंगम तथा स्थावर प्राणियोंकी रक्षा करनेका प्रयत्न करते हुए भी रक्षा नहीं कर सके ॥ २० ॥
हे अजन्मा प्रभो ! जब ऊँची लहरोंसे युक्त प्रलयकालीन समुद्र विद्यमान था, तब आप औषधियों और लताओंकी निधिस्वरूप पृथ्वी तथा मुझको लेकर उस समुद्र में उत्साहपूर्वक क्रीडा कर रहे थे; जगत्के समस्त प्राणसमुदायके नियन्ता आप भगवान् मत्स्यको नमस्कार है ॥ २१ ॥
एवं स्तौति च देवेशं मनुः पार्थिवसत्तमः । मत्स्यावतारं देवेशं संशयच्छेदकारणम् ॥ २२ ॥
इस प्रकार राजाओंमें श्रेष्ठ मनुजी सभी संशोंको समूल समाप्त कर देनेवाले मत्स्यरूपमें अवतीर्ण देवेश्वर भगवान् श्रीहरिकी स्तुति करते हैं ॥ २२ ॥
ध्यानयोगेन देवस्य निर्धूताशेषकल्मषः । आस्ते परिचरन्भक्त्या महाभागवतोत्तमः ॥ २३ ॥
भगवान्के ध्यानयोगकै द्वारा अपने सम्पूर्ण पापोंको नष्ट कर चुके तथा महाभागवतोंमें श्रेष्ठ मनुजी भक्तिपूर्वक भगवान्की उपासना करते हुए यहाँ प्रतिष्ठित रहते हैं ॥ २३ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायामष्टमस्कन्धे भुवनकोशवर्णने हरिवर्षकेतुमालरम्यकवर्षवर्णनं नाम नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवत महापुराणेऽष्टादशसाहस्वयां संहितायामष्टमस्कन्धे भुवनकोशवर्णने हरिवर्षकेतुमालरम्यकवर्षवर्णनं नाम नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥