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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
अष्टमः स्कन्धः
एकादशोऽध्यायः

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भुवनकोशवर्णने भारतवर्षवर्णनम् -
जम्बूद्वीपस्थित भारतवर्षमें श्रीनारदजीके द्वारा नारायणरूपकी स्तुति उपासना तथा भारतवर्षकी महिमाका कथन -


श्रीनारायण उवाच
भारताख्ये च वर्षेऽस्मिन्नहमादिजपूरुषः ।
तिष्ठामि भवता चैव स्तवनं क्रियतेऽनिशम् ॥ १ ॥
श्रीनारायण बोले-[हे नारद !] भारत नामक इस वर्षमें आदिपुरुष मैं सदा विराजमान रहता हूँ और यहाँ आप निरन्तर मेरी स्तुति करते रहते हैं ॥ १ ॥

नारद उवाच
ॐ नमो भगवते उपशमशीलायोपरतानात्म्याय
नमोऽकिञ्चनवित्ताय ऋषिऋषभाय नरनारायणाय
परमहंसपरमगुरवे आत्मारामाधिपतये नमो नम इति ।
कर्तास्य सर्गादिषु यो न बध्यते
nbsp;    न हन्यते देहगतोऽपि दैहिकैः ।
द्रष्टुर्न दृश्यस्य गुणैर्विदूष्यते
nbsp;    तस्मै नमोऽसक्तविविक्तसाक्षिणे ॥ २ ॥
नारद बोले-शान्त स्वभाववाले, अहंकारसे रहित, निर्धनोंके परम धन, ऋषियोंमें श्रेष्ठ, परमहंसोंके परम गुरु, आत्मारामोंके अधिपति तथा ओंकारस्वरूप भगवान् नरनारायणको बार-बार नमस्कार है ।
जो विश्वकी उत्पत्ति आदिमें उनके कर्ता होकर भी कर्तृत्वके अभिमानसे नहीं बंधते, जो देहमें रहते हुए भी भूख-प्यास आदि दैहिक गुण-धर्मोके वशीभूत नहीं होते तथा द्रष्टा होते हुए भी जिनकी दृष्टि दृश्यके गुण-दोषोंसे दूषित नहीं होती; उन असंग तथा विशुद्ध साक्षिस्वरूप भगवान् नारायणको नमस्कार है ॥ २ ॥

इदं हि योगेश्वरयोगनैपुणं
nbsp;    हिरण्यगर्भो भगवाञ्जगाद यत् ।
यदन्तकाले त्वयि निर्गुणे मनो
nbsp;    भक्त्या दधीतोज्झितदुष्कलेवरः ॥ ३ ॥
हे योगेश्वर ! हिरण्यगर्भ ब्रह्माजीने योगसाधनकी सबसे बड़ी कुशलता यही बतलायी है कि मनुष्य अन्तकालमें देहाभिमानको छोड़कर भक्तिपूर्वक आप गुणातीतमें अपना मन लगाये ॥ ३ ॥

यथैहिकामुष्मिककामलम्पटः
nbsp;    सुतेषु दारेषु धनेषु चिन्तयन् ।
शङ्केत विद्वान् कुकलेवरात्यया-
nbsp;    द्यस्तस्य यत्‍नः श्रम एव केवलम् ॥ ४ ॥
लौकिक तथा पारलौकिक भोगोंकी लालसा रखनेवाला मूढ मनुष्य जैसे पुत्र, स्त्री और धनकी चिन्ता करता हुआ मृत्युसे डरता है, उसी प्रकार यदि विद्वान् भी इस कुत्सित शरीरके छूट जानेके भयसे युक्त रहे तो ज्ञानप्राप्तिके लिये किया हुआ उसका सारा प्रयत्न केवल परिश्रममात्र है ॥ ४ ॥

तन्नः प्रभो त्वं कुकलेवरार्पितां
nbsp;    त्वं माययाहं ममतामधोक्षज ।
भिन्द्याम येनाशु वयं सुदुर्भिदां
nbsp;    विधेहि योगं त्वयि नः स्वभावजम् ॥ ५ ॥
अतः हे अधोक्षज ! हे प्रभो ! आप हमें अपना स्वाभाविक प्रेमरूप भक्तियोग प्रदान कीजिये, जिससे इस निन्दनीय शरीरमें आपकी मायाके कारण बद्धमूल हुई दुर्भेद्य अहंता तथा ममताको हम तुरंत काट डालें ॥ ५ ॥

एवं स्तौति सदा देवं नारायणमनामयम् ।
नारदो मुनिशार्दूलः प्रज्ञाताखिलसारदृक् ॥ ६ ॥
इस प्रकार अखिल ज्ञातव्य रहस्योंको देखनेवाले मुनिश्रेष्ठ नारद निर्विकार भगवान् नारायणकी स्तुति करते रहते हैं ॥ ६ ॥

अस्मिन् वै भारते वर्षे सरिच्छैलास्तु सन्ति हि ।
तान्प्रवक्ष्यामि देवर्षे शृणुष्वैकाग्रमानसः ॥ ७ ॥
[नारायण बोले-] हे देवर्षे ! इस भारतवर्षमें अनेक नदियाँ तथा पर्वत हैं; अब मैं उनका वर्णन करूँगा; आप एकाग्रचित्त होकर सुनिये ॥ ७ ॥

मलयो मङ्गलप्रस्थो मैनाकश्च त्रिकूटकः ।
ऋषभः कूटकः कोल्लः सह्यो देवगिरिस्तथा ॥ ८ ॥
ऋष्यमूकश्च श्रीशैलो व्यङ्कटाद्रिर्महेन्द्रकः ।
वारिधारश्च विन्ध्यश्च मुक्तिमानृक्षपर्वतः ॥ ९ ॥
पारियात्रस्तथा द्रोणश्चित्रकूटगिरिस्तथा ।
गोवर्धनो रैवतकः ककुभो नीलपर्वतः ॥ १० ॥
गौरमुखश्चेन्द्रकीलो गिरिः कामगिरिस्तथा ।
एते चान्येऽप्यसंख्याता गिरयो बहुपुण्यदाः ॥ ११ ॥
मलय, मंगलप्रस्थ, मैनाक, त्रिकूट, ऋषभ, कुटक, कोल्ल, सहा, देवगिरि, ऋष्यमूक, श्रीशैल, व्यंकटाद्रि, महेन्द्र, वारिधार, विन्ध्य, मुक्तिमान्, ऋक्ष, पारियात्र, द्रोण, चित्रकूट, गोवर्धन, रैवतक, ककुभ, नील, गौरमुख, इन्द्रकील तथा कामगिरि पर्वत हैं । इनके अतिरिक्त भी प्रचुर पुण्य प्रदान करनेवाले अन्य असंख्य पर्वत हैं ॥ ८-११ ॥

एतदुत्पन्नसरितः शतशोऽथ सहस्रशः ।
पानावगाहनस्नानदर्शनोत्कीर्तनैरपि ॥ १२ ॥
नाशयन्ति च पापानि त्रिविधानि शरीरिणाम् ।
ताम्रपर्णी चन्द्रवशा कृतमाला वटोदका ॥ १३ ॥
वैहायसी च कावेरी वेणा चैव पयस्विनी ।
तुङ्गभद्रा कृष्णवेणा शर्करावर्तका तथा ॥ १४ ॥
गोदावरी भीमरथी निर्विन्ध्या च पयोष्णिका ।
तापी रेवा च सुरसा नर्मदा च सरस्वती ॥ १५ ॥
चर्मण्वती च सिन्धुश्च अन्धशोणौ महानदौ ।
ऋषिकुल्या त्रिसामा च वेदस्मृतिर्महानदी ॥ १६ ॥
कौशिकी यमुना चैव मन्दाकिनी दृषद्वती ।
गोमती सरयू रोधवती सप्तवती तथा ॥ १७ ॥
सुषोमा च शतद्रुश्च चन्द्रभागा मरुद्‌वृधा ।
वितस्ता च असिक्नी च विश्वा चेति प्रकीर्तिताः ॥ १८ ॥
इन पर्वतोंसे निकली हुई सैकड़ों-हजारों नदियाँ हैं, जिनका जल पीने, जिनमें डुबकी लगाकर स्नान करने, दर्शन करने तथा जिनके नामका उच्चारण करनेसे मनुष्योंके तीनों प्रकारके पाप नष्ट हो जाते हैं । ताम्रपर्णी, चन्द्रवशा, कृतमाला, बटोदका, वैहायसी, कावेरी, वेणा, पयस्विनी, तुंगभद्रा, कृष्णवेणा, शर्करावर्तका, गोदावरी, भीमरथी, निर्विन्ध्या, पयोष्णिका, तापी, रेवा, सुरसा, नर्मदा, सरस्वती, चर्मण्वती, सिन्धु, अन्ध तथा शोण नामवाले दो महान् नद, ऋषिकुल्या, त्रिसामा, वेदस्मृति, महानदी, कौशिकी, यमुना, मन्दाकिनी, दृषद्वती, गोमती, सरयू, रोधवती, सप्तवती, सुषोमा, शतदु, चन्द्रभागा, मरुधा, वितस्ता, असिक्नी और विश्वा-ये प्रसिद्ध नदियाँ हैं । १२-१८ ॥

अस्मिन्वर्षे लब्धजन्मपुरुषैः स्वस्वकर्मभिः ।
शुक्ललोहितकृष्णाख्यैर्दिव्यमानुषनारकाः ॥ १९ ॥
भवन्ति विविधा भोगाः सर्वेषां च निवासिनाम् ।
यथा वर्णविधानेनापवर्गो भवति स्फुटम् ॥ २० ॥
इस भारतवर्षमें जन्म लेनेवाले पुरुष अपनेअपने शुक्ल (सात्त्विक), लोहित (राजस) तथा कृष्ण (तामस) कर्मोके कारण क्रमशः देव, मनुष्य तथा नारकीय भोगोंको प्राप्त करते हैं । भारतवर्षमें निवास करनेवाले सभी लोगोंको अनेक प्रकारके भोग सुलभ होते हैं । अपने वर्णधर्मके नियमोंका पालन करनेसे मोक्षतक निश्चितरूपसे प्राप्त हो जाता है । १९-२० ॥

एतदेव च वर्षस्य प्राधान्यं कार्यसिद्धितः ।
वदन्ति मुनयो वेदवादिनः स्वर्गवासिनः ॥ २१ ॥
इस मोक्षरूपी महान् कार्यकी सिद्धिका साधन होनेके कारण ही स्वर्गके निवासी वेदज्ञ मुनिगण भारतवर्षकी महिमाका इस प्रकार वर्णन करते हैं- ॥ २१ ॥

अहो अमीषां किमकारि शोभनं
nbsp;    प्रसन्न एषां स्विदुत स्वयं हरिः ।
यैर्जन्म लब्धं नृषु भारताजिरे
nbsp;    मुकुन्दसेवौपयिकं स्पृहा हि नः ॥ २२ ॥
अहो ! जिन जीवोंने भारतवर्षमें भगवान्की सेवाके योग्य जन्म प्राप्त किया है, उन्होंने ऐसा क्या पुण्य किया है ? अथवा इनपर स्वयं श्रीहरि ही प्रसन्न हो गये हैं । इस सौभाग्यके लिये तो हमलोग भी लालायित रहते हैं ॥ २२ ॥

किं दुष्करैर्नः क्रतुभिस्तपोव्रतै-
nbsp;    र्दानादिभिर्वा द्युजयेन फल्गुना ।
न यत्र नारायणपदपङ्कज-
nbsp;    स्मृतिः प्रमुष्टातिशयेन्द्रियोत्सवात् ॥ २३ ॥
हमने कठोर यज्ञ, तप, व्रत, दान आदिके द्वारा जो यह तुच्छ स्वर्ग प्राप्त किया है, इससे क्या लाभ ? यहाँ तो इन्द्रियोंके भोगोंकी अधिकताके कारण स्मरणशक्ति क्षीण हो जानेसे भगवान्के चरणकमलोंकी स्मृति होती ही नहीं ॥ २३ ॥

कल्पायुषां स्थानजयात्पुनर्भवा-
nbsp;    त्क्षणायुषां भारतभूजयो वरम् ।
क्षणेन मर्त्येन कृतं मनस्विनः
nbsp;    संन्यस्य संयान्त्यभयं पदं हरेः ॥ २४ ॥
इस स्वर्गके निवासियोंकी आयु एक कल्पकी होनेपर भी उन्हें पुनः जन्म लेना पड़ता है । उसकी अपेक्षा भारतभूमिमें अल्प आयुवाला होकर जन्म लेना श्रेष्ठ है; क्योंकि यहाँ धीर पुरुष एक क्षणमें ही अपने इस मर्त्य शरीरसे किये हुए सम्पूर्ण कर्म भगवान्को अर्पण करके उनका अभयपद प्राप्त कर लेते हैं ॥ २४ ॥

न यत्र वैकुण्ठकथासुधापगा
nbsp;    न साधवो भागवतास्तदाश्रयाः ।
न यत्र यज्ञेशमखा महोत्सवाः
nbsp;    सुरेशलोकोऽपि न वै स सेव्यताम् ॥ २५ ॥
जहाँ भगवत्कथाकी अमृतमयी सरिता प्रवाहित नहीं होती, जहाँ उसके उद्‌गमस्थानस्वरूप भगवद्‌भक्त साधुजन निवास नहीं करते और जहाँ समारोहपूर्वक भगवान् यज्ञेश्वरकी पूजा-अर्चा नहीं होती, वह चाहे ब्रह्मलोक ही क्यों न हो, उसका सेवन नहीं करना चाहिये ॥ २५ ॥

प्राप्ता नृजातिं त्विह ये च जन्तवो
nbsp;    ज्ञानक्रियाद्रव्यकलापसम्भृताम् ।
न वै यतेरन्न पुनर्भवाय ते
nbsp;    भूयो वनौका इव यान्ति बन्धनम् ॥ २६ ॥
भारतवर्षमें उत्तम ज्ञान, कर्म तथा द्रव्य आदिसे सम्पन्न मानवयोनि प्राप्त करके भी जो प्राणी पुनर्भव (आवागमन)-रूप बन्धनसे छूटनेका प्रयत्न नहीं करते, वे [व्याधकी फाँसीसे मुक्त होकर फल आदिके लोभसे उसी वृक्षपर विहार करनेवाले] जंगली पक्षियोंकी भाँति पुनः बन्धनमें पड़ते हैं ॥ २६ ॥

यैः श्रद्धया बर्हिषि भागशो हवि-
nbsp;    र्निरुप्तमिष्टं विधिमन्त्रवस्तुतः ।
एकः पृथङ्नामभिराहुतो मुदा
nbsp;    गृह्णाति पूर्णः स्वयमाशिषां प्रभुः ॥ २७ ॥
भारतवासियोंका कैसा सौभाग्य है कि जब वे यज्ञमें भिन्न-भिन्न देवताओंके उद्देश्यसे अलगअलग भाग रखकर विधि, मन्त्र और द्रव्य आदिके योगसे भक्तिपूर्वक हवि प्रदान करते हैं, तब भिन्न-भिन्न नामोंसे पुकारे जानेपर सम्पूर्ण कामनाओंको पूर्ण करनेवाले वे एक पूर्णब्रह्म श्रीहरि स्वयं ही प्रसन्न होकर उस हविभागको ग्रहण करते हैं ॥ २७ ॥

सत्यं दिशत्यर्थितमर्थितो नृणां
nbsp;    नैवार्थदो यत्पुनरर्थिता यतः ।
स्वयं विधत्ते भजतामनिच्छता-
nbsp;    मिच्छापिधानं निजपादपल्लवम् ॥ २८ ॥
यह ठीक है कि भगवान् सकाम पुरुषोंके माँगनेपर उन्हें अभीष्ट पदार्थ देते हैं, किंतु यह भगवान्का वास्तविक दान नहीं है । क्योंकि उन वस्तुओंको ण लेनेपर भी मनुष्यके मनमें पुनः कामनाएँ होती ही रहती हैं । इसके विपरीत जो उनका निष्कामभावसे भजन करते हैं, उन्हें तो वे साक्षात् अपने चरणकमल ही दे देते हैं जो अन्य समस्त इच्छाओंको समाप्त कर देनेवाले हैं ॥ २८ ॥

(यद्यत्र नः स्वर्गसुखावशेषितं
nbsp;    स्विष्टस्य पूर्तस्य कृतस्य शोभनम् ।
तेनाब्जनाभे स्मृतिमज्जन्म नः स्या-
nbsp;    द्वर्षे हरिर्भजतां शं तनोति ॥)
श्रीनारायण उवाच
एवं स्वर्गगता देवाः सिद्धाश्च परमर्षयः ।
प्रवदन्ति च माहात्म्यं भारतस्य सुशोभनम् ॥ २९ ॥
(अतः अबतक स्वर्गसुख भोग लेनेके बाद हमारे पूर्वकृत यज्ञ और पूर्त कर्मोंसे यदि कुछ भी पुण्य अवशिष्ट हो, तो उसके प्रभावसे हमें इस भारतवर्षमें भगवान्की स्मृतिसे युक्त मनुष्यजन्म मिले; क्योंकि श्रीहरि अपना भजन करनेवाले प्राणियोंका परम कल्याण करते हैं । ) श्रीनारायण बोले-[हे नारद !] इस प्रकार स्वर्गको प्राप्त देवता, सिद्ध और महर्षिगण भारतवर्षकी उत्तम महिमाका गान करते हैं ॥ २९ ॥

जम्बुद्वीपस्य चाष्टौ हि उपद्वीपाः स्मृताः परे ।
हयमार्गान्विशोधद्‌भिः सागरैः परिकल्पिताः ॥ ३० ॥
स्वर्णप्रस्थश्चन्द्रशुक्र आवर्तनरमाणकौ ।
मन्दरोपाख्यहरिणः पाञ्चजन्यस्तथैव च ॥ ३१ ॥
सिंहलश्चैव लङ्केति उपद्वीपाष्टकं स्मृतम् ।
जम्बुद्वीपस्य मानं हि कीर्तितं विस्तरेण च ॥ ३२ ॥
अतः परं प्रवक्ष्यामि प्लक्षादिद्वीपषट्ककम् ॥ ३३ ॥
जम्बूद्वीपमें अन्य आठ उपद्वीप भी बताये गये हैं । खोये हुए घोड़ेके मार्गोका अन्वेषण करनेवाले सगरके पुत्रोंने इन उपवीपोंकी कल्पना की थी । स्वर्णप्रस्थ, चन्द्रशुक्र, आवर्तन, रमाणक, मन्दरहरिण, पांचजन्य, सिंहल और लंका-ये आठ उपद्वीप प्रसिद्ध हैं । इस प्रकार मैंने विस्तारके साथ जम्बूद्वीपका परिमाण बता दिया । अब इसके बाद प्लक्ष आदि छ: द्वीपोंका वर्णन करूंगा ॥ ३०-३३ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायामष्टमस्कन्धे
भुवनकोशवर्णने भारतवर्षवर्णनं नामैकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रया संहितायामष्टमस्कन्धे भुवनकोशवर्णने भारतवर्षवर्णनं नामैकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥


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