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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
अष्टमः स्कन्धः
सप्तदशोऽध्यायः

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ध्रुवमण्डलसंस्थानवर्णनम् -
शिशुमारचक्र तथा ध्रुवमण्डलका वर्णन -


श्रीनारायण उवाच
अथर्षिमण्डलादूर्ध्वं योजनानां प्रमाणतः ।
लक्षैस्त्रयोदशमितैः परमं वैष्णवं पदम् ॥ १ ॥
श्रीनारायण बोले-इस सप्तर्षिमण्डलसे तेरह लाख योजन दूरीपर वह परम वैष्णवपद स्थित है ॥ १ ॥

महाभागवतः श्रीमान् वर्तते लोकवन्दितः ।
औत्तानपादिरिन्द्रेण वह्निना कश्यपेन च ॥ २ ॥
धर्मेण सह चैवास्ते समकालयुजा ध्रुवः ।
बहुमानं दक्षिणतः कुर्वद्‌भिः प्रेक्षकैः सदा ॥ ३ ॥
आजीव्यः कल्पजीविनामुपास्ते भगवत्पदम् ।
परम भागवत तथा लोकपूजित उत्तानपादपुत्र श्रीमान् ध्रुव यहींपर विराजमान हैं । इन्द्र, अग्नि, कश्यप, धर्म तथा सप्तर्षिगण-ये सब देखते हुए आदरपूर्वक जिनकी प्रदक्षिणा करते रहते हैं, वे ध्रुव कल्पपर्यन्त जीवित रहनेवाले प्राणियोंके जीवनाधार हैं और निरन्तर भगवान्के चरणोंकी उपासना करते रहते हैं ॥ २-३.५ ॥

ज्योतिर्गणानां सर्वेषां ग्रहनक्षत्रभादिनाम् ॥ ४ ॥
कालेनानिमिषेणायं भ्राम्यतां व्यक्तरंहसा ।
अवष्टम्भस्थाणुरिव विहितश्चेश्वरेण सः ॥ ५ ॥
भासते भासयन्भासा स्वीयया देवपूजितः ।
सर्वदा जाग्रत् रहनेवाले व्यक्तगति भगवान कालने भ्रमण करनेवाले ग्रह, नक्षत्र, राशि आदि समस्त ज्योतिर्गणोंके अचल स्तम्भके रूपमें ध्रुवको व्यवस्थित कर रखा है । वे देवपूज्य ध्रुव अपने तेजसे सबको आलोकित करते हुए सदा प्रकाशित होते रहते हैं ॥ ४-५.५ ॥

मेढिस्तम्भे यथा युक्ताः पशवः कर्षणार्थकाः ॥ ६ ॥
मण्डलानि चरन्तीमे सवनत्रितयेन च ।
एवं ग्रहादयः सर्वे भगणाद्या यथाक्रमम् ॥ ७ ॥
अन्तर्बहिर्विभागेन कालचक्रे नियोजिताः ।
ध्रुवमेवावलम्ब्याशु वायुनोदीरिताश्च ते ॥ ८ ॥
आकल्पान्तं च क्रमन्ति खे श्येनाद्याः खगा इव ।
कर्मसारथयो वायुवशगाः सर्व एव ते ॥ ९ ॥
एवं ज्योतिर्गणाः सर्वे प्रकृतेः पुरुषस्य च ।
संयोगानुगृहीतास्ते भूमौ न निपतन्ति च ॥ १० ॥
जिस प्रकार अनाजको पृथक् करनेवाले पशु छोटी-बड़ी रस्सियोंमें बंधकर निकट दूर और मध्यमें रहकर खलिहानमें गड़े खम्भेके चारों ओर मण्डल बनाकर घूमते रहते हैं, उसी प्रकार सभी नक्षत्रगण और ग्रह आदि भीतर-बाहरके क्रमसे कालचक्रमें नियुक्त होकर ध्रुवका ही आश्रय लेकर वायुकी प्रेरणासे कल्पपर्यन्त परिभ्रमण करते रहते हैं, जिस प्रकार बाज आदि पक्षी अपने कर्मोंकी सहायतासे वायुके अधीन रहकर आकाशमें घूमते रहते हैं, उसी प्रकार वे सभी ज्योतिर्गण भी पुरुष और प्रकृतिके संयोगसे अनुगृहीत होकर परिभ्रमण करते रहते हैं और भूमिपर नहीं गिरते ॥ ६-१० ॥

ज्योतिश्चक्रं केचिदेतच्छिशुमारस्वरूपकम् ।
सोपयोगं भगवतो योगधारणकर्मणि ॥ ११ ॥
यस्यार्वाक्‌शिरसः कुण्डलीभूतवपुषो मुने ।
पुच्छाग्रे कल्पितो योऽयं ध्रुव उत्तानपादजः ॥ १२ ॥
लाङ्गूलेऽस्य च सम्प्रोक्तः प्रजापतिरकल्मषः ।
अग्निरिन्द्रश्च धर्मश्च तिष्ठन्ते सुरपूजिताः ॥ १३ ॥
धाता विधाता पुच्छान्ते कट्यां सप्तर्षयस्ततः ।
दक्षिणावर्तभोगेन कुण्डलाकारमीयुषः ॥ १४ ॥
हे मुने । कुछ लोग भगवान् श्रीहरिकी योगमायाके आधारपर स्थित इस ज्योतिष्चक्रका वर्णन शिशुमारके रूपमें करते हैं, जो नीचेकी ओर सिर किये हुए कुण्डली मारकर स्थित है । उसकी पूँछके अग्रभागपर उत्तानपादपुत्र ध्रुव विराजमान कहे गये हैं । उसकी पूँछके मध्यभागमें देवताओद्वारा पूजित पवित्रात्मा प्रजापति, अग्नि, इन्द्र और धर्म विराजमान हैं । पूँछकी जड़में धाता और विधाता तथा उसके कटिभागमें सप्तर्षिगण स्थित हैं । यह शिशुमार अपने शरीरको दाहिनी ओरसे कुण्डलाकार बनाकर स्थित है ॥ ११-१४ ॥

उत्तरायणभानीह दक्षपार्श्वेऽर्पितानि च ।
दक्षिणायनभानीह सव्ये पार्श्वेऽर्पितानि च ॥ १५ ॥
कुण्डलाभोगवेशस्य पार्श्वयोरुभयोरपि ।
समसंख्याश्चावयवा भवन्ति कजनन्दन ॥ १६ ॥
उत्तरायणके चौदह नक्षत्र इसके दाहिने भागमें हैं और दक्षिणायनके चौदह नक्षत्र इसके बायें भागमें हैं । हे ब्रह्मापुत्र नारद ! लोकमें भी शिशुमार जब कुण्डलाकार होकर बैठता है तो उसके दोनों पार्श्वभागोंके अवयवोंकी संख्या समान होती है, उसी प्रकार यहाँ नक्षत्रसंख्यामें भी समानता है ॥ १५-१६ ॥

अजवीथी पृष्ठभागे आकाशसरिदौदरे ।
पुनर्वसुश्च पुष्यश्च श्रोण्यौ दक्षिणवामयोः ॥ १७ ॥
इसके पृष्ठभागमें अजवीथी (मूल, पूर्वाषाढ़, उत्तराषाढ़ नक्षत्रोंका समूह) और उदरमें आकाशगंगा है । दायें तथा बायें कटिप्रदेशमें पुनर्वसु और पुष्य नक्षत्र स्थित हैं ॥ १७ ॥

आर्द्राश्लेषे पश्चिमयोः पादयोर्दक्षवामयोः ।
अभिजिच्चोत्तराषाढा नासयोर्दक्षवामयोः ॥ १८ ॥
पीछेके दाहिने और बायें चरणोंमें आर्द्रा तथा आश्लेषा नक्षत्र हैं । दाहिनी तथा बायीं नासिकाओंमें अभिजित् और उत्तराषाढ़ नक्षत्र विद्यमान हैं ॥ १८ ॥

यथासंख्यं च देवर्षे श्रुतिश्च जलभं तथा ।
कल्पिते कल्पनाविद्‌‍भिर्नेत्रयोर्दक्षवामयोः ॥ १९ ॥
धनिष्ठा चैव मूलं च कर्णयोर्दक्षवामयोः ।
मघादीन्यष्टभानीह दक्षिणायनगानि च ॥ २० ॥
युञ्जीत वामपार्श्वीयवंक्रिषु क्रमतो मुने ।
तथैव मृगशीर्षादीन्युदग्भानि च यानि हि ॥ २१ ॥
दक्षपार्श्वे वंक्रिकेषु प्रातिलोम्येन योजयेत् ।
शततारा तथा ज्येष्ठा स्कन्धयोर्दक्षवामयोः ॥ २२ ॥
हे देवर्षे ! इसी प्रकार कल्पनाविदोंने दाहिने तथा बायें नेत्रों में क्रमशः श्रवण तथा पूर्वाषाढ़ और दाहिने तथा बायें कानोंमें क्रमशः धनिष्ठा और मूल नक्षत्रोंकी स्थिति बतायी है । हे मुने ! दक्षिणायनके मघा आदि आठ नक्षत्र वाम पार्श्वकी पसलियोंमें स्थित हैं । उसी प्रकार विपरीत क्रमसे उत्तरायणके मृगशिरा आदि जो आठ नक्षत्र हैं, वे इसके दाहिने पार्श्वकी पसलियोंमें स्थित हैं । शतभिषा और ज्येष्ठा नक्षत्र दाहिने तथा बायें कन्धोंपर विराजमान हैं । १९-२२ ॥

अगस्तिश्चोत्तरहनावधरायां हनौ यमः ।
मुखेष्वङ्गारकः प्रोक्तो मन्दः प्रोक्त उपस्थके ॥ २३ ॥
बृहस्पतिश्च ककुदि वक्षस्यर्को ग्रहाधिपः ।
नारायणश्च हृदये चन्द्रो मनसि तिष्ठति ॥ २४ ॥
इसकी ऊपरकी ठोड़ीमें अगस्ति, नीचेकी ठोड़ीमें यमराज, मुखमें मंगल और जननेन्द्रियमें शनि स्थित कहे गये हैं । इसके ककुद्पर बृहस्पति, वक्षपर ग्रहपति सूर्य, हृदयमें नारायण और मनमें चन्द्रमा स्थित रहते हैं ॥ २३-२४ ॥

स्तनयोरश्विनौ नाभ्यामुशनाः परिकीर्तितः ।
बुधः प्राणापानयोश्च गले राहुश्च केतवः ॥ २५ ॥
सर्वाङ्गेषु तथा रोमकूपे तारागणाः स्मृताः ।
एतद्‍भगवतो विष्णोः सर्वदेवमयं वपुः ॥ २६ ॥
सन्ध्यायां प्रत्यहं ध्यायेत्प्रयतो वाग्यतो मुनिः ।
निरीक्षमाणश्चोत्तिष्ठेन्मन्त्रेणानेन धीश्वरः ॥ २७ ॥
नमो ज्योतिर्लोकाय कालायानिमिषां
पतये महापुरुषायाभिधीमहीति ॥ २८ ॥
दोनों स्तनोंमें दोनों अश्विनीकुमारों तथा नाभिमें शुक्रका स्थान कहा गया है । प्राण और अपानमें बुध, गलेमें राहु और केतु एवं सभी अंगों तथा रोमकूपोंमें तारागण कहे गये हैं । हे नारद ! भगवान् विष्णुका यह सर्वदेवमय विग्रह है । परम बुद्धिमान् साधकको चाहिये कि वह प्रतिदिन सायंकालके समय मौन धारण करके अपने हृदयमें भगवानको स्थित देखते हुए उनके उस दिव्य स्वरूपका ध्यान करे और इस मन्त्रसे जप करते हुए स्तुति करे-सम्पूर्ण ज्योतिर्गणोंके आश्रय, कालचक्ररूपसे विराजमान तथा देवताओंके अधिपति परम पुरुषको मेरा नमस्कार है; मैं आपका ध्यान करता हूँ ॥ २५-२८ ॥

ग्रहर्क्षतारामयमाधिदैविकं
     पापापहं मन्त्रकृतां त्रिकालम् ।
नमस्यतः स्मरतो वा त्रिकालं
     नश्येत तत्कालजमाशु पापम् ॥ २९ ॥
ग्रहों, नक्षत्रों तथा ताराओंके रूपमें भासित होता हुआ भगवान्का आधिदैविकस्वरूप तीनों कालोंमें इस मन्त्रका जप करनेवाले पुरुषोंके पापोंका नाश कर देता है । तीनों कालोंमें भगवान्के इस रूपका वन्दन तथा ध्यान करनेवाले व्यक्तिका उस समयका किया हुआ पाप तत्काल नष्ट हो जाता है ॥ २९ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायामष्टमस्कन्धे ध्रुवमण्डलसंस्थानवर्णनं
नाम सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्वयां संहितायामष्टमस्कन्धे ध्रुवमण्डलसंस्थानवर्णनं नाम सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७ ॥


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