नारदजी बोले-[हे भगवन् !] मूलप्रकृतिरूपा देवियोंका सारा आख्यान मैंने यथार्थरूपमें सुन लिया, जिसका श्रवण करके प्राणी जन्म-मरणरूपी भवबन्धनसे मुक्त हो जाता है । अब मैं भगवती राधा तथा दुर्गाका वेदगोपित रहस्य तथा वेदोक्त पूजा-विधान सुनना चाहता हूँ ॥ १-२ ॥
महिमा वर्णितोऽतीव भवता परयोर्द्वयोः । श्रुत्वा तं तद्गतं चेतो न कस्य स्यान्मुनीश्वर ॥ ३ ॥
हे मुनीश्वर ! आपने इन दोनों पराशक्तियोंकी अद्भुत महिमा बतायी, उसे सुनकर भला किस पुरुषका मन उनमें लीन नहीं हो जायगा ॥ ३ ॥
[हे भगवन् !] यह सम्पूर्ण जगत् जिनका अंश है, यह चराचर विश्व जिनसे नियन्त्रित है तथा जिनकी भक्तिसे प्राणियोंकी मुक्ति हो जाती है, उन देवियोंके पूजा-विधानके विषयमें अब आप मुझे बताइये ॥ ४ ॥
श्रीनारायण बोले-हे नारद ! सुनिये, मैं वह वेदवर्णित परम सारस्वरूप तथा परात्पर रहस्य आपको बता रहा हूँ, जिसे मैंने किसीको भी नहीं बताया है । इसे सुनकर आप किसी दूसरेसे मत कहियेगा; क्योंकि यह परम गोपनीय है ॥ ५ ॥
श्रुत्वा परस्मै नो वाच्यं यतोऽतीव रहस्यकम् । मूलप्रकृतिरूपिण्याः संविदो जगदुद्भवे ॥ ६ ॥ प्रादुर्भूतं शक्तियुग्मं प्राणबुद्ध्यधिदैवतम् । जीवानां चैव सर्वेषां नियन्तृप्रेरकं सदा ॥ ७ ॥
जगत्की उत्पत्तिके समय मूलप्रकृतिस्वरूपिणी ज्ञानमयी भगवतीसे प्राण तथा बद्धिकी अधिष्ठात्री देवियोंके रूपमें दो शक्तियाँ प्रकट हुईं । [श्रीराधा भगवान् श्रीकृष्णके प्राणोंकी तथा श्रीदुर्गा उनकी बुद्धिकी अधिष्ठात्री देवी हैं । वे शक्तियाँ ही सम्पूर्ण जीवोंको सदा नियन्त्रित तथा प्रेरित करती हैं । विराट आदि चराचरसहित सम्पूर्ण जगत् उन्हीं शक्तियोंके अधीन है ॥ ६-७ ॥
तदधीनं जगत्सर्वं विराडादिचराचरम् । यावत्तयोः प्रसादो न तावन्मोक्षो हि दुर्लभः ॥ ८ ॥
जबतक उन दोनों शक्तियोंकी कृपा नहीं होती, तबतक मोक्ष दुर्लभ रहता है । अतएव उन दोनोंकी प्रसन्नताके लिये उनकी निरन्तर उपासना करनी चाहिये ॥ ८ ॥
हे नारद ! उनमें आप पहले राधिकामन्त्रको भक्तिपूर्वक सुनिये, जिस परात्पर मन्त्रको ब्रह्मा, विष्णु आदि भी सदा जपते रहते हैं । 'श्रीराधा' इस शब्दके अन्तमें चतुर्थी विभक्ति लगाकर उसके आगे अग्निपत्नी 'स्वाहा' पद जोड़ देनेपर 'श्रीराधायै स्वाहा' नामक यह षडक्षर महामन्त्र धर्म, अर्थ आदिको प्रकाशित करनेवाला है । इसी राधिकामन्त्रके आदिमें मायाबीज (ही)-से युक्त होकर ह्रीं श्रीराधायै स्वाहा-यह वाञ्छाचिन्तामणि मन्त्र कहा गया है । इस मन्त्रका माहात्म्य करोड़ों मुखों तथा जिह्वाओंके द्वारा भी नहीं कहा जा सकता है ॥ ९-१२ ॥
जग्राह प्रथमं मन्त्रं श्रीकृष्णो भक्तितत्परः । उपदेशान्मूलदेव्या गोलोके रासमण्डले ॥ १३ ॥ विष्णुस्तेनोपदिष्टस्तु तेन ब्रह्मा विराट् तथा । तेन धर्मस्तेन चाहमित्येषा हि परम्परा ॥ १४ ॥
सर्वप्रथम भगवान् श्रीकृष्णने गोलोकमें रासमण्डलमें मूलदेवी भगवती श्रीराधाके उपदेश करनेपर भक्तिपूर्वक इस मन्त्रको ग्रहण किया था । तत्पश्चात् भगवान् श्रीकृष्णने विष्णुको, विष्णुने विराट् ब्रह्माको, ब्रह्माने धर्मदेवको और धर्मदेवने मुझको इस मन्त्रका उपदेश किया । इस प्रकार यह परम्परा चली आयी ॥ १३-१४ ॥
मैं उस मन्त्रका जप करता हूँ, इसी कारणसे मैं ऋषिरूपमें पूजित हूँ । ब्रह्मा आदि समस्त देवता भी सदा प्रसन्नतापूर्वक उन श्रीराधिकाका ध्यान करते रहते हैं । राधाकी पूजाके बिना श्रीकृष्णकी पूजा करनेका अधिकार नहीं है, अतः सभी वैष्णवोंको राधिकाका पूजन [अवश्य] करना चाहिये ॥ १५-१६ ॥
कृष्णप्राणाधिदेवी सा तदधीनो विभुर्यतः । रासेश्वरी तस्य नित्यं तया हीनो न तिष्ठति ॥ १७ ॥ राध्नोति सकलान्कामांस्तस्माद्राधेति कीर्तिता ।
वे भगवती राधिका भगवान् श्रीकृष्णके प्राणोंकी अधिष्ठात्री देवी हैं, अतः वे विभु उनके अधीन रहते हैं । वे श्रीकृष्णके रासकी सदा स्वामिनी हैं, इसलिये श्रीकृष्ण उन राधिकाके बिना नहीं रह सकते । वे [प्राणियोंके] सम्पूर्ण मनोरथोंको पूर्ण करती हैं, इसलिये वे 'राधा'-इस नामसे विख्यात हैं ॥ १७.५ ॥
अत्रोक्तानां मनूनां च ऋषिरस्म्यहमेव च ॥ १८ ॥ छन्दश्च देवी गायत्री देवतात्र च राधिका । तारो बीजं शक्तिबीजं शक्तिस्तु परिकीर्तिता ॥ १९ ॥ मूलावृत्त्या षडङ्गानि कर्तव्यानीतरत्र च ।
यहाँ कहे गये सभी मन्त्रोंका ऋषि मैं नारायण ही हैं, उनमें राधामन्त्रका देवी गायत्री छन्द है तथा राधिका देवता हैं, तार (प्रणव) बीज है और देवी भुवनेश्वरीको शक्ति कहा गया है । मुलमन्त्रकी आवृत्तिसे षडंगन्यास कर लेना चाहिये ॥ १८-१९.५ ॥
अथ ध्यायेन्महादेवीं राधिकां रासनायिकाम् ॥ २० ॥ पूर्वोक्तरीत्या तु मुने सामवेदे विगीतया । श्वेतचम्पकवर्णाभां शरदिन्दुसमाननाम् ॥ २१ ॥ कोटिचन्द्रप्रतीकाशां शरदम्भोजलोचनाम् । बिम्बाधरां पृथुश्रोणीं काञ्चीयुतनितम्बिनीम् ॥ २२ ॥ कुन्दपङ्क्तिसमानाभदन्तपङ्क्तिविराजिताम् । क्षौमाम्बरपरीधानां वह्निशुद्धांशुकान्विताम् ॥ २३ ॥ ईषद्धास्यप्रसन्नास्यां करिकुम्भयुगस्तनीम् । सदा द्वादशवर्षीयां रत्नभूषणभूषिताम् ॥ २४ ॥ शृङ्गारसिन्धुलहरीं भक्तानुग्रहकातराम् । मल्लिकामालतीमालाकेशपाशविराजिताम् ॥ २५ ॥ सुकुमाराङ्गलतिकां रासमण्डलमध्यगाम् । वराभयकरां शान्तां शश्वत्सुस्थिरयौवनाम् ॥ २६ ॥ रत्नसिंहासनासीनां गोपीमण्डलनायिकाम् । कृष्णप्राणाधिकां वेदबोधितां परमेश्वरीम् ॥ २७ ॥
हे मुने ! इसके बाद सामवेदमें वर्णित पूर्वोक्त रीतिके अनुसार रासेश्वरी महादेवी राधिकाका ध्यान करना चाहिये । [ध्यान इस प्रकार है]-'परमेश्वरी श्रीराधा श्वेत चम्पाके वर्णके समान आभावाली हैं, शरत्कालीन चन्द्रमाके समान मुखवाली हैं, इनके श्रीविग्रहकी कान्ति करोड़ों चन्द्रोंकी प्रभाके समान है, ये शरद् ऋतुके खिले हुए कमलके समान नेत्रोंवाली हैं, बिम्बाफलके समान ओठवाली तथा स्थूल श्रोणीवाली हैं, करधनीसे सुशोभित नितम्बदेशवाली हैं । कुन्दपुष्पोंकी पंक्तिके सदृश आभावाली दन्तपंक्तिसे सुशोभित हैं, इन्होंने अग्निके समान विशुद्ध रेशमी वस्त्र धारण कर रखा है, ये मन्द-मन्द मुसकानयुक्त प्रसन्न मुखमण्डलवाली हैं, इनके दोनों वक्षःस्थल हाथीके मस्तकके समान विशाल हैं, ये सदा बारह वर्षकी अवस्थावाली प्रतीत होती हैं, रत्नमय आभूषणोंसे अलंकृत हैं, शृंगारसिन्धुकी तरंगोंके समान हैं, भक्तोंपर अनुग्रह करनेके लिये आतुर हैं, मल्लिका तथा मालतीके पुष्पोंकी मालाओंसे युक्त केशपाशसे सुशोभित हो रही हैं, इनके सुकुमार अंगोंमें मोतियोंकी लड़ियाँ शोभा दे रही हैं, ये रासमण्डलके मध्यभागमें विराजमान हैं, इन्होंने अपने हाथोंमें वर तथा अभय मुद्राओंको धारण कर रखा है, ये शान्त स्वभाववाली हैं, सदा शाश्वत यौवनसे सम्पन्न हैं, रत्ननिर्मित सिंहासनपर विराजमान हैं, समस्त गोपियोंकी स्वामिनी हैं, ये भगवान् श्रीकृष्णको प्राणोंसे भी अधिक प्रिय हैं और वेदोंमें इन परमेश्वरी राधिकाकी महिमाका वर्णन हुआ है' ॥ २०-२७ ॥
एवं ध्यात्वा ततो बाह्ये शालग्रामे घटेऽथवा । यन्त्रे वाष्टदले देवीं पूजयेत्तु विधानतः ॥ २८ ॥
इस प्रकार हदयदेशमें ध्यान करके बाहर शालग्रामशिला, कलश अथवा आठ दलवाले यन्त्रपर विधानपूर्वक देवी राधिकाकी पूजा करनी चाहिये ॥ २८ ॥
आवाह्य देवीं तत्पश्चादासनादि प्रदीयताम् । मूलमन्त्रं समुच्चार्य चासनादीनि कल्पयेत् ॥ २९ ॥ पाद्यं तु पादयोर्दद्यान्मस्तकेऽर्घ्यं समीरितम् । मुखे त्वाचमनीयं स्यात्त्रिवारं मूलविद्यया ॥ ३० ॥ मधुपर्कं ततो दद्यादेकां गां च पयस्विनीम् । ततो नयेत्स्नानशालां तां च तत्रैव भावयेत् ॥ ३१ ॥
देवी राधिकाका आवाहन करनेके पश्चात् आसन आदि समर्पण करे । मूलमन्त्रका सम्यक् उच्चारण करके ही आसन आदि वस्तुएँ भगवतीके सम्मुख उपस्थित करनी चाहिये । पाद्य-जल उनके चरणोंमें अर्पण करना चाहिये । उनके मस्तकपर अर्घ्य देनेका विधान बताया गया है । मूलमन्त्रसे तीन बार मुख में आचमन कराना चाहिये । तत्पश्चात् मधुपर्क देकर श्रीराधाके लिये एक पयस्विनी (दूध देनेवाली) गौ प्रदान करनी चाहिये । तदनन्तर उन्हें स्नानगृहमें ले जाकर वहींपर उनकी भावना करे ॥ २९-३१ ॥
तैल आदि सुगन्धित द्रव्योंसे विधिपूर्वक स्नान करानेके पश्चात् दो वस्त्र अर्पण करे । तदनन्तर नानाविध आभूषणोंसे अलंकृत करके चन्दन समर्पित करे । इसके बाद तुलसीकी मंजरीसे युक्त अनेक प्रकारकी पुष्पमालाएँ और पारिजात तथा शतदल कमलके पुष्प आदि समर्पित करे ॥ ३२-३३ ॥
तदनन्तर प्रधान देवता उन भगवतीकी पवित्र आवरण-पूजा सम्पन्न करनी चाहिये । अग्निकोण, ईशानकोण, नैऋत्यकोण, वायव्यकोण तथा पूर्व आदि दिशाओंमें भगवती राधिकाके अंगपूजनका विधान है । इसके बाद अष्टदल यन्त्रको आगे करके दक्षिणावर्त क्रमसे पूर्वसे प्रारम्भ करके पूजन करे । बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि अष्टदल यन्त्रके पूर्वदिशावाले दलमें मालावती, अग्निकोणमें माधवी, दक्षिणमें रत्नमाला, नैर्ऋत्यकोणमें सुशीला, पश्चिममें शशिकला, वायव्यकोणमें पारिजाता, उत्तरमें परावतीका पूजन करे तथा ईशानकोणमें सुन्दरी प्रियकारिणीकी पूजा करे । यन्त्रपर दलके बाहर ब्राह्मी आदि शक्तियोंकी तथा भूपुरमें दिक्पालों और वज़ आदि आयुधोंका अर्चन करे-इस विधिसे भगवती श्रीराधिकाका पूजन करना चाहिये ॥ ३४-३८ ॥
तत्पश्चात् बुद्धिमान् पुरुषको राजोपचारसहित . गन्ध आदि पूजनोपचारोंसे आवरणोंसहित भगवती. राधिकाकी पूजा करनी चाहिये । इसके बाद सहस्रनामस्तोत्रसे देवेश्वरी राधाकी स्तुति करनी चाहिये और मन्त्रका एक हजार जप भी नित्य प्रयत्नपूर्वक करना चाहिये ॥ ३९-४० ॥
य एवं पूजयेद्देवीं राधां रासेश्वरीं पराम् । स भवेद्विष्णुतुल्यस्तु गोलोकं याति सन्ततम् ॥ ४१ ॥
जो मनुष्य इस विधिसे रासेश्वरी परात्परा राधिकाकी पूजा करता है, वह विष्णुतुल्य हो जाता है और गोलोकमें जाकर सदा वास करता है ॥ ४१ ॥
यहाँ कहे गये मन्त्रोंकी वर्णसंख्याके अनुसार पुरश्चरण-क्रिया बतायी गयी है । इसमें जपे गये मन्त्रके दशांशसे हवन करना चाहिये, भक्ति-भावपूर्वक दुग्ध, मधु और घृत-इन तीन मधुर पदार्थोंसे मिश्रित तिलोंसे आहुति प्रदान करनी चाहिये ॥ ४४.५ ॥
श्रीनारायण बोले-[स्तोत्र इस प्रकार है-] रासमण्डलमें निवास करनेवाली हे परमेश्वरि ! आपको नमस्कार है । कृष्णको प्राणोंसे भी अधिक प्रिय हे रासेश्वरि ! आपको नमस्कार है ॥ ४६ ॥
हे तुलसीरूपे ! आपको नमस्कार है । हे लक्ष्मीस्वरूपिणि ! आपको नमस्कार है । हे दुर्गे ! हे भगवति ! आपको नमस्कार है । हे सर्वरूपिणि ! आपको नमस्कार है । ४९ ॥
जो मनुष्य तीनों कालों (प्रातः, मध्याह्न, सायं)में श्रीराधिकाका स्मरण करते हुए इस स्तोत्रका पाठ करता है, उसके लिये कोई भी वस्तु कभी भी दुर्लभ नहीं रहती । वह देह-त्यागके अनन्तर गोलोकमें रासमण्डलमें निरन्तर निवास करता है । [हे मुने !] इस परम रहस्यको किसीके समक्ष प्रकाशित नहीं करना चाहिये ॥ ५१-५२ ॥
हे विप्रवर ! अब आप उन भगवती दुर्गाका पूजा-विधान सुनिये, जिनके स्मरणमात्रसे घोर विपत्तियाँ भाग जाती हैं ॥ ५३ ॥
एनां न भजते यो हि तादृङ्नास्त्येव कुत्रचित् । सर्वोपास्या सर्वमाता शैवी शक्तिर्महाद्भुता ॥ ५४ ॥ सर्वबुद्ध्याधिदेवीयमन्तर्यामिस्वरूपिणी । दुर्गसङ्कटहन्त्रीति दुर्गेति प्रथिता भुवि ॥ ५५ ॥
जो इन भगवती दुर्गाकी उपासना नहीं करता हो, वैसा कोई मनुष्य कहीं नहीं है । ये भगवती सबकी उपास्या, सभी प्राणियोंकी जननी तथा अत्यन्त अद्भुत शैवी शक्ति हैं । ये समस्त प्राणियोंकी बुद्धिकी अधिष्ठात्री देवी तथा अन्तर्यामीस्वरूपिणी हैं । ये घोर संकटसे रक्षा करती हैं, अत: जगत्में 'दुर्गा' नामसे विख्यात हैं ॥ ५४-५५ ॥
वैष्णवानां च शैवानामुपास्येयं च नित्यशः । मूलप्रकृतिरूपा सा सृष्टिस्थित्यन्तकारिणी ॥ ५६ ॥
सभी वैष्णवों तथा शैर्वोकी ये सदा उपास्य हैं । मूल प्रकृतिरूपिणी हैं और जगत्का सृजन, पालन तथा संहार करनेवाली हैं ॥ ५६ ॥
[हे नारद !] अब मैं उन भगवती दुर्गाके उत्तमोत्तम नवाक्षर मन्त्रका वर्णन करूँगा । सरस्वतीबीज (ऐं), भुवनेश्वरीबीज (ही) और कामबीज (क्लीं)इन तीनोंका आदिमें क्रमशः प्रयोग करनेके बाद 'चामुण्डायै'-इस पदको लगानेके अनन्तर 'विच्चे' इन दो अक्षरोंको जोड़ देनेपर बना हुआ 'ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे'-यह नवाक्षर मन्त्र कहा गया है, जो जप करनेवाले मनुष्यके लिये कल्पवृक्षके समान है ॥ ५७-५८ ॥
ब्रह्मविष्णुमहेशाना ऋषयोऽस्य प्रकीर्तिताः । छन्दांस्युक्तानि सततं गायत्र्युष्णिगनुष्टुभः ॥ ५९ ॥ महाकाली महालक्ष्मीः सरस्वत्यपि देवताः । स्याद्रक्तदन्तिकाबीजं दुर्गा च भ्रामरी तथा ॥ ६० ॥
ब्रह्मा, विष्णु और शिव इस मन्त्रके ऋषि कहे गये हैं । गायत्री, उष्णिक् और अनुष्टुप्-ये तीनों इस मन्त्रके छन्द कहे गये हैं । महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती इस मन्त्रकी देवता हैं । रक्तदन्तिका, दुर्गा तथा भ्रामरी-इस मन्त्रके बीज हैं । नन्दा, शाकम्भरी और भीमा-ये देवियाँ इस मन्त्रको शक्तियाँ कही गयी हैं ॥ ५९-६० ॥
धर्म, अर्थ, काम और मोक्षकी प्राप्तिके लिये इस मन्त्रका विनियोग किया जाता है । ऋषि, छन्द और देवताका क्रमशः मस्तकपर, मुखमें और हृदयमें न्यास करना चाहिये । सर्वार्थसिद्धिके लिये दोनों स्तनोंमें शक्तिबीजोंका न्यास करना चाहिये ॥ ६१-६२ ॥
ऐं, ह्रीं, क्लीं-तीन बीजमन्त्रों, चार वर्णीवाले चामुण्डायै, दो वर्णोंवाले विच्चेके साथ तथा पूरे मन्त्रके साथ क्रमशः नमः, स्वाहा, वषट्, हुम्, वौषट् और फट्-इन छ: जातिसंज्ञक वर्णोंको लगाकर साधकको शिखा, दोनों नेत्र, दोनों कान, नासिका, मुख और गुदा आदि छः स्थानोंमें न्यास करना चाहिये; साथ ही सम्पूर्ण मन्त्रसे [सिरसे लेकर पैरतक] व्यापक न्यास करना चाहिये ॥ ६३-६४ ॥
[महाकालीका ध्यान-] 'हाथोंमें खड्ग, चक्र, गदा, बाण, धनुष, परिघ, शूल, भुशुण्डि, कपाल तथा शंख धारण करनेवाली; नानाविध आभूषणोंसे अलंकृत; नीलांजनके समान कान्तिवाली: दस चरणों तथा दस मुखोंवाली एवं तीन नेत्रोंवाली भगवती महाकालीकी मैं आराधना करता हूँ, जिनका स्तवन कमलासन ब्रह्माजीने मधु और कैटभका वध करनेके लिये किया था'-इस प्रकार कामबीजस्वरूपिणी भगवती महाकालीका ध्यान करना चाहिये ॥ ६५-६७ ॥
अक्षमालां च परशुं गदेषुकुलिशानि च । पद्मं धनुष्कुण्डिकां च दण्डं शक्तिमसिं तथा ॥ ६८ ॥ चर्माम्बुजं तथा घण्टां सुरापात्रं च शूलकम् । पाशं सुदर्शनं चैव दधतीमरुणप्रभाम् ॥ ६९ ॥ रक्ताम्बुजासनगतां मायाबीजस्वरूपिणीम् । महालक्ष्मीं भजेदेवं महिषासुरमर्दिनीम् ॥ ७० ॥
[महालक्ष्मीका ध्यान-] 'जो अपने हाथोंमें अक्षमाला, परशु, गदा, बाण, वज्र, पद्म, धनुष, कुण्डिका, दण्ड, शक्ति, खड्ग, ढाल, कमल, घण्टा, मधुपात्र, शूल, पाश और सुदर्शनचक्र धारण करती हैं । जो अरुण प्रभावाली हैं; रक्त कमलके आसनपर विराजमान हैं तथा मायाबीजस्वरूपिणी हैं'-इस तरहसे महिषासुरमर्दिनी उन महालक्ष्मीका ध्यान करना चाहिये ॥ ६८-७० ॥
[महासरस्वतीका ध्यान-] 'जो अपने करकमलोंमें घण्टा, शूल, हल, शंख, मुसल, सुदर्शनचक्र, धनुष तथा बाण धारण करती हैं; कुन्दके समान मनोहर कान्तिवाली हैं । शुम्भ आदि दैत्योंका संहार करनेवाली हैं; सच्चिदानन्द-विग्रहसे सम्पन्न हैं तथा वाणीबीजस्वरूपिणी हैं'-उन भगवती महासरस्वतीका ध्यान करना चाहिये ॥ ७१-७२ ॥
हे प्राज्ञ ! अब इन भगवतीके यन्त्रके विषयमें सुनिये । तीन अस्रोंवाला तथा छ: कोणोंसे युक्त यन्त्र होना चाहिये, उसके चारों ओर अष्टदलकमल हो और कमलमें चौबीस पंखुड़ियाँ विद्यमान हों, वह यन्त्र भूगृहसे सम्पन्न हो-इस प्रकारके यन्त्रके विषयमें चिन्तन करना चाहिये ॥ ७३.५ ॥
एकाग्रचित्त होकर शालग्राम, कलश, यन्त्र, प्रतिमा, बाणलिंग अथवा सूर्यमें भगवतीकी भावना करके उनका यजन करना चाहिये । जया आदि शक्तियोंसे सम्पन्न पीठपर देवीकी विधिवत् पूजा करे ॥ ७४-७५ ॥
तदनन्तर बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि भूपुरकोणोंमें गणेश, क्षेत्रपाल, बटुक और योगिनियोंकी पूजा करे । दलके बाहर वज्र आदि आयुधोंसे युक्त इन्द्र आदि देवताओंकी भी पूजा करे । इसी रीतिसे आवरणसहित भगवती दुर्गाकी पूजा करे । भगवतीकी प्रसन्नताके लिये विविध प्रकारके राजसी पूजनोपचार उन्हें अर्पण करने चाहिये । तत्पश्चात् मन्त्रार्थपर ध्यान रखते हुए नवार्ण मन्त्रका जप करना चाहिये ॥ ८३-८५ ॥
तदनन्तर भगवती दुर्गाके सामने सप्तशतीस्तोत्रका पाठ करना चाहिये । तीनों लोकोंमें इस स्तोत्रके सदृश दूसरा कोई भी स्तोत्र नहीं है, इसलिये मनुष्यको इस स्तोत्रके द्वारा प्रतिदिन देवेश्वरी दुर्गाको प्रसन्न करना चाहिये । ऐसा करनेवाला मनुष्य धर्म, अर्थ, काम और मोक्षका आलय बन जाता है ॥ ८६-८७ ॥
हे विप्र ! इस प्रकार मैंने आपको भगवती दुर्गाके पूजनका विधान बता दिया । इसके द्वारा सबकी कृतार्थता सम्पन्न हो सके, इसीलिये मैंने आपसे इसका वर्णन किया है ॥ ८८ ॥
ब्रह्मा, विष्णु आदि सभी प्रमुख देवतागण, सभी मनुगण, ज्ञाननिष्ठ मुनि, योगिजन, आश्रमवासी तथा लक्ष्मी आदि देवियाँ-ये सब उन भगवती शिवाका ध्यान करते हैं । जन्मकी सफलता तभी समझी जाती है, जब श्रीदुर्गाका स्मरण हो जाय ॥ ८९-९० ॥
इस रहस्यके प्रभावसे पुत्रहीन व्यक्ति पुत्र तथा विद्याभिलाषी मनुष्य विद्या प्राप्त कर लेता है । इसका श्रवण करके मनुष्य जिस-जिस मनोरथकी पूर्णताकी कामना करता है, उस-उसको प्राप्त कर लेता है ॥ ९४ ॥
जो मनुष्य प्रतिदिन इस नवम स्कन्धके एक अध्यायका पाठ करता है, भगवती दुर्गा उसके अधीन हो जाती हैं और वह मनुष्य देवीका प्रियकर हो जाता है । ९६ ॥
शकुनांश्च परीक्षेत नित्यमस्मिन्यथाविधि । कुमारीदिव्यहस्तेन यद्वा बटुकराम्बुजात् ॥ ९७ ॥ मनोरथं तु सङ्कल्प्य पुस्तकं पूजयेत्ततः । देवीं च जगदीशानीं प्रणमेच्च पुनः पुनः ॥ ९८ ॥ सुस्नातां कन्यकां तत्रानीयाभ्यर्च्य यथाविधि । शलाकां रोपयेन्मध्ये तथा स्वर्णेन निर्मिताम् ॥ ९९ ॥ शुभं वाप्यशुभं तत्र यदायाति च तद्भवेत् । उदासीनेऽप्युदासीनं कार्यं भवति निश्चितम् ॥ १०० ॥
इस विषयमें किसी कुमारीके दिव्य हाथ अथवा बालकके करकमलसे यथाविधि शकुनकी परीक्षा करनी चाहिये । अपने मनोरथका संकल्प करके पुस्तककी पूजा करे, तत्पश्चात् जगदीश्वरी भगवती दुर्गाको बार-बार प्रणाम करे । भलीभांति स्नान की हुई कन्याको वहाँ विराजमान करके [देवीके रूपमें] उसकी विधिपूर्वक पूजा करनेके अनन्तर स्वर्णनिर्मित शलाका उस कन्यासे स्कन्धके मध्यमें रखवाना चाहिये । शलाका रखनेपर शुभ अथवा अशुभ जो भी प्रसंग आता है, वैसा ही फल होता है; अथवा उदासीन प्रसंग आनेपर कार्य भी उदासीन ही होता है-यह निश्चित है ॥ ९७-१०० ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां नवमस्कन्धे देव्या आवरणपूजाविधिवर्णनं नाम पञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५० ॥ नवमः स्कन्धः समाप्तः
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रयां संहितायां नवमस्कन्धे देव्या आवरणपूजाविधिवर्णनं नाम पञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५० ॥