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अध्याय ००१ ते ०५०

अध्याय ०५१ ते १००

अध्याय १०१ ते १५०

अध्याय १५१ ते २००

अध्याय २०१ ते २५०

अध्याय २५१ ते ३००

अध्याय ३०१ ते ३५०

अध्याय ३५१ ते ३८३



अग्निपुराण - प्रस्तावना

भारतीय जीवन-संस्कृतिके मूलाधार 'वेद' हैं । वेद भगवान् के स्वाभाविक उच्छ्वास हैं, अतः वे भगवत्स्वरूप ही हैं । श्रुत ब्रह्मवाणीका संरक्षण परम्परासे ऋषियोंद्वारा होता रहा, इसीलिये इसे 'श्रुति' कहते हैं । भगवदीय वाणी वेदोंके सत्यको समझनेके लिये षडङ्ग, अर्थात् शिक्षा, कल्प, व्याकरण, छन्द, निरुक्त और ज्योतिषका अध्ययन आवश्यक था । परंतु जन-साधारणके लिये यह भी सहज सम्भव न होनेसे पुराणोंका कथोपकथन आरंभ हुआ, जिससे वैदिक सत्य रोचक ऐतिहासिक आख्यायिकाओंद्वारा जन- जनतक पहुँच सके । इसीलिये कहा जाता है कि पुराणोंका कथोपकथन उतना ही प्राचीन है, जितना वैदिक ऋचाओंका संकलन और वंशानुवंश-संरक्षण । अध्ययनकी पाश्चात्य विश्लेषण-विवेचन- पद्धतिको सर्वोपरि मानकर पुराणोंको ईसा-जन्मके आस-पास अथवा उसके बादका ठहराना सर्वथा भ्रान्त तथा अनुचित है । भारतके आदिकालमे समाजका प्रतिभासम्पन्न समुदाय जिस प्रकार वेदोंके अध्ययन-अध्यापन-निर्वचनमे निमग्र रहा, उसी प्रकार उसी कालमे समाजके साधारण समुदायको धर्ममे लगाये रखनेके लिये पुराणोंका कथन-श्रवण-प्रवचन होता रहा । शतपथब्राह्मण ( १४.२.४.१०) -मे आया है कि 'चारो वेद, इतिहास, पुराण ये सब महान् परमात्माके हीं निःश्वास हैं ।' अथर्ववेद ( ११.७.२४) मे आया हे, यज्ञसे यजुर्वेदके साथ ऋक्, साम, छन्द और पुराण उत्पन्न हुए ।'

जो पुरातन आख्यान ऋषियोंकी स्मृतियोंमे सुरक्षित थे और जो वंशानुवंश ऋषि-कण्ठोंसे कीर्तित ये, उन्हींका संकलन और विभागीकरण भगवान् वेदव्यासद्वारा हुआ । उन आख्यायिकाओंको व्यवस्थित करके प्रकाशमे लानेका श्रेय भगवान् वेदव्यासको है, इसी कारण वे पुराणोंके प्रणेता कहलाये; अन्यथा पुराण भी वेदोंकी भाति ही अनादि, अपौरुषेय एवं प्रामाणिक हैं ।

भगवान् वेदव्यासद्वारा प्रणीत अठारह महापुराणोंमे अग्निपुराणका एक विशेष स्थान है । विष्णुस्वरूप भगवान् अग्निदेवद्वारा महर्षि वसिष्ठजीके प्रति उपदिष्ट यह अग्निपुराण ब्रह्मस्वरूप है, सर्वोत्कृष्ट है तथा वेदतुल्य है । देवताओंके लिये सुखद और विद्याओंका सार है । इस दिव्य पुराणके पठण श्रवणसे भोग-मोक्षकी प्राप्ति होती है ।

पुराणोंके पांच लक्षण बताये गये हैं- १. सृष्टि-उत्पत्ति-वर्णन, २. सृष्टि-विलय-वर्णन, ३. वशपरंपरावर्णन, ४. मन्वन्तरवर्णन और ५. विशिष्ट-व्यक्ति-चरित्र-वर्णन । पुराणके पांचो लक्षण तो अग्निपुराणमे घटित होते ही हैं, इनके अतिरिक्त वर्ण्य-विषय इतने विस्तुत हैं कि अग्निपुराणको 'विश्वकोष' कहा जाता है । मानवके लौकिक, पारलौकिक और पारमार्थिक हितके लगभग सभी विषयोंका वर्णन अग्निपुराणमे मिलता है । प्राचीनकालमे न तो मुद्रणकी प्रथा थी और न ग्रन्थ ही सहज सुलभ होते थे । ऐसी परिस्थितिमे विविध विषयोंके महत्त्वपूर्ण विवेचनका एक ही स्थानपर एक साथ मिल जाना, यह एक बहुत बडी बात थी । इसी कारण अग्निपुराण बहुत जनप्रिय और विद्वद्‌वर्ग-समादृत रहा ।

संपूर्ण सृष्टिके कारण भगवान् विष्णु हैं, अतः अग्निपुराणमे भगवान्‌के विविध अवतारोंका संक्षिप्त वर्णन किया गया है । भगवान् विष्णु ही मत्स्य, कूर्म, वराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, श्रीराम, श्रीकृष्ण और बुद्धके रूपमे अवतरित हुए तथा कल्किके रूपमे अवतरित होंगे । भगवानके अवतारोंकी संख्या निश्चित नहीं है; परंतु सभी अवतारोंका हेतु यही है कि सभी वर्ण और आश्रमके लोग अपने- अपने धर्ममे दृढतापूर्वक लगे रहे । जगत्‌की सृष्टिके आदिकारण श्रीहरि अवतार लेकर धर्मकी व्यवस्था और अधर्मका निराकरण ही करते हैं ।

भगवान् विष्णुसे ही जगत्‌की सृष्टि हुई । प्रकृतिमे भगवान् विष्णुने प्रवेश किया । क्षुब्ध प्रकृतिसे महत्तत्त्व, फिर अहंकार उत्पन्न हुआ । फिर अनेक लोकोंका प्रादुर्भाव हुआ, जहां स्वायम्भुव मनुके वंशज एवं कश्यप आदिके वंशज परिव्याप्त हो गये । भगवान् विष्णु आदिदेव हैं और सर्वपूज्य हैं । प्रत्येक साधकको आत्मकल्याणके लिये विधिपूर्वक भगवान् विष्णुका पूजन करना चाहिये । भगवानकी पूजाका विधान क्या है, पूजाके अधिकारकी प्राप्ति किस प्रकार हो सकती है, यज्ञके लिये कुण्डका निर्माण एवं अग्निकी स्थापना किस तरह की जाय, शिष्यद्वारा आचार्यके अभिषेकका विधान क्या है तथा भगवानका पूजन एवं हवन किस प्रकार सम्पन्न किया जाय, इसका विस्तृत वर्णन अग्निपुराणमे है । मन्त्र एवं विधिसहित पूजन-हवन करनेवाला अपने पितरोंका उद्धारक एवं मोक्षका अधिकारी होता है ।

देव-पूजनके समान महत्त्व ही देवालय निर्माणका है । देवालय-निर्माण अनेक जन्मके पापोंको नष्ट कर देता है । निर्माण कार्यके अनुमोदनमात्रसे ही विष्णुधामकी प्राप्तिका अधिकार मिल जाता है । कनिष्ठ, मध्य और श्रेष्ठ - इन तीन श्रेणीके देवालयोंके पांच भेद अग्निपुराणमे बताये गये हैं - १. एकायतन २. त्र्यायतन, ३. पञ्चायतन, ४. अष्टायतन तथा ५. षोडशायतन । मन्दिरोंका जीर्णोद्धार करनेवालेको देवालय-निर्माणसे दूना फल मिलता है । अग्निपुराणमे विस्तारसे बताया गया है कि श्रेष्ठ देव-प्रासादके लक्षण क्या हैं ।

देवालयमे किस प्रकारकी देव-प्रतिमा स्थापित की जाय, इसका बडा सूक्ष्म, एवं अत्यन्त विस्तृत वर्णन इसमे है । शालग्रामशिला अनेक प्रकारकी होती है । द्विचक्र एवं श्वेतवर्ण शिला 'वासुदेव' कहलाती है, कृष्णकान्ति एवं दीर्घ छिद्रयुक्त 'नारायण' कहलाती है । इसी प्रकार इसमें संकर्षण, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, परमेष्ठी, विष्णु, नृसिंह, वाराह, कूर्म, श्रीधर आदि अनेक प्रकारकी शालग्राम-शिलाओंका विशद वर्णन है । देवालयमे प्रतिष्ठित करनेके लिये भगवान् वासुदेवकी, दशावतारोंकी, चण्डी, दुर्गा, गणेश, स्कन्द आदि देवी-देवताओंकी, सूर्यकी, ग्रहोंकी, दिक्‌पाल, योगिनी एवं शिवलिङ्ग आदिकी प्रतिमाओंके श्रेष्ठ लक्षणोंका वर्णन है । देवालयमे श्रेष्ठ लक्षणोंसे सम्पन्न श्रीविग्रहोंकी स्थापना सभी प्रकारके मङ्गलोंका विधान करती है । अग्निपुराणोक्त विधिके अनुसार देवालयमे देव-प्रतिमाकी स्थापना और प्राण-प्रतिष्ठा करानेसे परम पुण्य होता है । श्रेष्ठ साधकके लिये यही उचित है कि अत्यन्त जीर्ण, अङ्गहीन, भग्न तथा शिलामात्रावशिष्ट (विशेष चिह्नोसे रहित) देव-प्रतिमाका उत्सवसहित विसर्जन करे और देवालयमे नवीन मूर्तिका न्यास करे । जो देवालयके साथ अथवा उससे अलग कूप, वापी, तडागका निर्माण करवाता या वृक्षारोपण करता है, वह भी बहुत पुण्यका लाभ करता है ।

भारतवर्षमे पञ्चदेवोपासना अति प्राचीन है । गणेश, शिव, शक्ति, विष्णु और सूर्य - ये पाँचो देव आदिदेव भगवानकी ही पांच अभिव्यक्तियां हैं; परंतु सब तत्त्वतः एक ही हैं । गणपति-पूजन, सूर्य-पूजन, शिव-पूजन, देवी-पूजन और विष्णु-पूजनके महत्त्वका भी अग्निपुराणमे स्थान-स्थानपर प्रतिपादन हुआ है ।

साधनाके क्षेत्रमे श्रेष्ठ गुरु, श्रेष्ठ मन्त्र, श्रेष्ठ शिष्य और सम्यक् दीक्षाका बडा महत्त्व है । जिससे शिष्यमे ज्ञानकी अभिव्यक्ति करायी जाय, उसीका नाम 'दीक्षा' है । पाशमुक्त होनेके लिये जीवको आचार्यसे मन्त्राराधनकी दीक्षा लेनी चाहिये । सविधि दीक्षित शिष्यको शिवत्वकी प्राप्ति शीघ्र होती है ।

जहां भक्त-मन-वाच्छा-कल्पतरु भगवानके सिद्ध श्रीविग्रहोंके देवालय हैं, अथवा जहां सर्वलोकवन्दनीय श्रीहरिके प्रीत्यर्थ ऋषि-मुनियोंने कठिन साधना की है, वही भूमि 'तीर्थ' कहलाती है, जिसके सेवनसे भोग-मोक्षकी प्राप्ति होती है । तीर्थ-सेवनका फल सबको समान नहीं होता । जिसके हाथ, पैर और मन संयमित हैं तथा जो जितेन्द्रिय, लघ्वाहारी, अप्रतिग्रही, निष्पाप है, उसी तीर्थयात्रीको तीर्थ-सेवनका यथार्थ फल मिलता है । ऐसे तीर्थयात्रीको पुष्कर, कुरुक्षेत्र, काशी, प्रयाग, गया आदि तीर्थोंका सेवन करना चाहिये । गयातीर्थमें शास्त्रोक्त विधिसे श्राद्ध करनेपर नरकस्य पितर स्वर्गके अधिकारी और स्वर्गस्थस्य पितर परमपदके अधिकारी होते हैं ।

काम-क्रोधग्रस्त मानवद्वारा नहीं चाहते हुए भी अज्ञानवश बलात् पापाचरण हो जाता है । पातक तो अनेक प्रकारके हैं; पर कभी-कभी ब्रह्महत्या, सुरापान, चोरी और गुरुतल्पगमन-जैसे महापातक भी घटित हो जाते हैं । इन पातकोंसे विमुक्तिका उपाय प्रायश्चित्त है । पातक, उपपातक, महापातकके परिशमनार्थ अनेक प्रकारके प्रायश्चित्तका निर्देश किया गया है । यदि कुछ भी न हो सके तो भगवान् विष्णुकी स्तुति करे । भगवान् विष्णुके समस्त पापनाशक स्तोत्रके आश्रयसे समस्त पातक विनष्ट हो जाते हैं ।

आत्मशुद्धि तथा शरीर-शुद्धिका एक महान् साधन 'व्रत' भी है । शास्त्रोक्त नियमको ही 'व्रत' कहते हैं । इन्द्रियसंयम और मनोनिग्रह आदि विशेष नियम व्रतके ही अङ्ग हैं । व्रत करनेवालेको किंचित् कष्ट सहन करना पडता है, अतः इसे 'तप' भी कहते हैं । क्षमा, सत्य, दया, दान, शौच, इन्द्रियसंयम, देवपूजा, अग्निहोत्र, संतोष तथा चोरीका अभाव - ये दस नियम सामान्यतः संपूर्ण व्रतोंमे आवश्यक माने गये हैं । भगवान् अग्निदेवने महर्षि वसिष्ठको तिथि, वार, नक्षत्र, दिवस, मास, ऋतु वर्ष, संक्रान्ति आदिके अवसरपर होनेवाले स्त्री-पुरुष-सम्बन्धी व्रत बताये हैं, जिनसे आत्यन्तिक कल्याणका सम्पादन होता है ।

ग्रहों और नक्षत्रोंकी स्थिति भी मानवकी सफलता - असफलताको प्रभावित करती तथा शुभ - अशुभका विधान करती है । इसी कारण ज्योतिषशास्त्रका संक्षेपमे भगवान् अग्निदेवने सुन्दर उपदेश दिया, जिससे शुभ - अशुभका निर्णय करनेवाले विवेककी प्राप्ति हो सके । वर-वधूके गुण, विवाहादि संस्कारोंके मुहूर्तका निर्णय, 'काल' को समझनेके लिये गणित, युद्धमे विजय-प्राप्तिके लिये विविध योग, शत्रुके वशीकरणके लिये शान्ति, वशीकरण आदि षट् तान्त्रिक कर्म, ग्रहण-दान और ग्रहोंकी महादशा आदिका सूक्ष्मतापूर्वक विचार किया गया है । इस विवेचनमे ज्योतिषशास्त्रकी प्रायः उपयोगी बातें समाविष्ट हो गयी हैं ।

व्यष्टि और समष्टिके हितके लिये अपने - अपने वर्ण और आश्रमके अनुसार व्यक्तिमात्रके लिये स्वधर्म-पालन आवश्यक है । स्वधर्म-पालन ही सुख-शान्ति तथा मोक्षकी सीढी है । यज्ञ करना-कराना, वेद पढना-पढाना और स्वाध्याय ब्राह्मणके कर्म हैं । दान देना, वेदाध्ययन करना, यज्ञानुष्ठान करना क्षत्रिय-वैश्यके सामान्य धर्म हैं । प्रजा-पालन और दुष्टदमन क्षत्रियके तथा कृषि-गोरक्षा-व्यापार वैश्यके धर्म हैं । सेवा एवं शिल्परचना शूद्रका धर्म है । ब्रह्मचर्याश्रम मानवके पवित्र जीवन-प्रासादके लिये 'नींवका पत्थर' है । अन्तेवासीको आजके विद्यार्थियों जैसा विलास, प्रमादपूर्ण जीवन नहीं, कठोर संयमित, नियमित, अनुशासित जीवन व्यतीत करनेकी आवश्यकता है, जिससे वह वैयक्तिक और सामाजिक धर्मोंके पालनकी क्षमता प्राप्त कर सके । विवाहके उपरान्त गहस्थाश्रमकी संपूर्ण दिनचर्याका उल्लेख करते हुए यह बताया गया है कि गृही नित्य देवाराधन, द्रव्य-शुद्धि, शौचाशौच-विचार एवं शुद्ध आचरणद्वारा किस प्रकार आत्मकल्याण और समाजकल्याणका सम्पादन करे । सद्गृहस्थके लिये तो यहाँतक कहा गया है कि 'श्री और समृद्धिके लिये गाय, चूल्हा, चाकी, ओखली, मूसल, कर् एवं खभेका भी पूजन करे ।' पौत्रके जन्मके बाद गृहस्थको वानप्रस्थ धारण करके पत्‍नीसहित तपःपूर्ण जीवन व्यतीत करना चाहिये । संन्यासीका जीवन तो त्यागका मूर्तिमान् स्वरूप है । संन्यासी शरीरके प्रति उपेक्षाभाव रखता हुआ एकाकी विचरता है और मननशील रहता है । कुटीचक, बहूदक, हंस और परमहंस - इन चार प्रकारके संन्यासियोंमे अन्तिम सर्वश्रेष्ठ है, जो नित्य ब्रह्ममे स्थित है ।

वास्तु-विद्याका भी अग्निपुराणमे यत्र-तत्र प्रभूत वर्णन है । भूमिके विस्तारका दिग्दर्शन कराते हुए विभिन्न द्वीप तथा देशोंका वर्णन किया गया है । रहनेके लिये गृह-निर्माण कैसे हो, फिर नगर-निर्माणकी योजना कैसी हो, इसे भी युक्तिपूर्वक समझाया गया है । गृहनिर्माण और नगर-निर्माणके साथ देव-प्रतिमा और देवालय-निर्माणका भी विस्तृत विवरण है । नगर, ग्राम तथा दुर्गमें गृहों तथा प्रासादोंकी वृद्धि हो, इसकी सिद्धिके लिये ८१ पदोंका वास्तुमण्डल बनाकर वास्तु-देवताकी पूजा अवश्य करनी चाहिये ।

पूजामे पुष्पोंका विशेष स्थान है । देवपूजनमे मालती, तमाल, पाटल, पद्म आदि विभिन्न पुष्पोंके विभिन्न फल होते हैं; परंतु देवपूजनके लिये श्रेष्ठ पुष्प हैं - अहिंसा, इन्द्रियनिग्रह दया, शम, तप, सत्य आदि । इन भाव-पुष्पोंसे अर्चित श्रीहरि शीघ्र संतुष्ट होते हैं । भाव-पुष्पोंसे अर्चना करनेवालेको नरक-यातना नहीं सहनी पडती; अन्यथा पापाचारीको अवीचि, ताम्र, रौरव, तामिस्र आदि नरकोंके कष्ट भोगने पडते हैं । पुण्यात्माको स्वर्गकी प्राप्ति होती है । विशेष पर्वपर, विशेष तीर्थमें, विशेष तिथिमें दानका अलग अलग फल होता है । दानसे मोक्षतककी प्राप्ति हो सकती है; परंतु फलकी कामनासे दिया गया दान मोक्षकी प्राप्ति न करवाकर व्यर्थ चला जाता है । गायत्री-मन्त्रकी व्याख्या करते हुए भगवान् अग्निदेवने बताया है कि जो लोग भगवती गायत्रीका एवं गायत्री मन्त्रका आश्रय लेते हैं, उनके शरीर और प्राण दोनोंकी रक्षा होती है । '

राज्यमे सुख-शान्ति बनाये रखनेके लिये राजाको अपने धर्मका भलीभांति पालन करना चाहिये । शत्रुसूदन, प्रजापालक, सुदण्डधारी, संयमी, रण-कलाविद्, न्यायप्रिय, दुर्गरक्षित, नीतिकुशल राजा ही अपने धर्मका पालन कर सकता है । जो राजा धनुर्वेदके शिक्षण-प्रशिक्षणकी पूर्ण व्यवस्था रखता है और जो लोक-व्यवहारमे परम कुशल है, उसका पराभव नहीं होता ।

स्वप्न और शकुनका भी जीवनपर शुभ और अशुभ प्रभाव पडता है । सभी स्वप्न और शकुन प्रभावशाली नहीं होते; पर जिनसे अशुभ होता है, उनके निवारणका उपाय भी बताया गया है । शुभ-लक्षणसम्पन्न स्त्री या पुरुषकी संगति सदा कल्याणकारी होती है; अतः इनके लक्षणोंका भी विस्तृत वर्णन है । जीवन श्रीयुक्त रहे, अतः हीरा, मोती, प्रवाल, शङ्ख आदि रत्‍नोंको परीक्षाके उपरान्त ही धारण करना चाहिये, जिससे शुभका विधान हो ।

भगवान् अग्निदेवने चारों वेदोंकी सभी शाखाओंका विस्तृत वर्णन करके चारों वेदोंकी विभिन्न ऋचाओं या सूक्तोंके सहित पाठ, जप, हवन करनेका विधान बताया जिससे भुक्ति मुक्तिकामी पुरुषको अभीष्टकी प्राप्ति तथा सभी उत्पातोंकी शान्ति होती है । जैसे ऋग्वेदके 'अग्निमीळे पुरोहितम्' इस सूक्तका सविधि जप करनेसे इष्टकामनाओंकी पूर्ति होती है । भगवान् अग्निदेवने सूर्य, चन्द्र, यदु पुरु आदि अनेक वशोंका वर्णन किया, जिनका चरित्र सुननेसे पापोंका क्षय होता है । यदुवंशमे भगवान् श्रीकृष्णका अवतार धर्मसंरक्षण, अधर्मनाश, सुरपालन और दैत्य मर्दनके लिये ही हुआ था - देवक्यां वसुदेवात्तु कृष्णोऽभूत्तपसान्वितः ॥ धर्मसंरक्षणार्थाय ह्यधर्महरणाय च । सुरादेः पालनार्थं च दैत्यादेर्मश्चनाय च ॥ - (अग्निपुराण २७६.१-२)

स्वाख्य-रक्षा-सम्बन्धी ज्ञान भी मनुष्यके लिये आवश्यक है । अतः स्वास्थके सिद्धान्त, रोगके भेद एवं कारण, ओषधिका विवेचन, वैद्यका कर्तव्य, उपचारके उपाय, शरीरके अवयव, गज और अश्वकी चिकित्सा आदिका वर्णन करते हुए आयुर्वेदका ज्ञान कराया गया है, जो मृतको भी प्राण-प्रदाता है । अनिष्ट निवारण मन्त्रोंके प्रयोगोंद्वारा भी होता है, अतः मन्त्र-तन्त्रकी परिभाषा और भेद-प्रभेद बताकर शिव, सूर्य, गणपति, लक्ष्मी, गौरी आदि देवी-देवताओंके अनेक मन्त्र और मण्डल बताये गये हैं, जिनको सिद्ध करके प्रयोग करनेसे विष-शमन, बालग्रह आदिका निवारण होता है ।

समाजमे उसका बडा आदर होता है, जिसकी वाणीमें रस है, जिसमे अभिव्यक्तिकी कुशलता है और जिसमे प्रस्तुतीकरणकी क्षमता है । अतः अग्निपुराणमे काव्य-मीमांसाका अतिविस्तृत वर्णन है । काव्याङ्ग, नाटक-निरूपण, रस- भेद, शब्दालंकार, अर्थालंकार, शब्द-गुण आदि शास्त्रीय विषयोंकी सूक्ष्म विवेचना है । यह इसीलिये कि- अपारे काव्यसंसारे कविरेव प्रजापतिः । ( अग्नि- ३३९.१०) लोक-परलोक और परमार्थके सर्वोपयोगी स्थूल-सूक्ष्य विषयोंके वर्णनका यही उद्देश्य है कि मानव सुखी, शान्त, समृद्ध एवं स्वस्थ जीवन व्यतीत करते हुए परम तत्त्वको प्राप्त करे । जीवनमें अर्थ और काम दोनों हों, पर वे हों धर्मके द्वारा नियन्त्रित । जीवन धर्मनिष्ठ हो और अन्तमें मोक्षकी प्राप्ति हो । धर्मशास्त्रका उपदेश देते हुए बताया गया है कि 'धर्म वही है, जिससे भोग और मोक्ष, दोनों प्राप्त हो सके । वैदिक कर्म दो प्रकारका है - एक 'प्रवृत्त' और दूसरा 'निवृत्त' । कामनायुक्त कर्मको 'प्रवृत्तकर्म' कहते हैं । ज्ञानपूर्वक निष्कामभावसे जो कर्म किया जाता है, उसका नाम 'निवृत्तकर्म' है । वेदाभ्यास, तप, ज्ञान, इन्द्रियसंयम, अहिंसा तथा गुरुसेवा - ये परम उत्तम कर्म निःश्रेयस (मोक्षरूप कल्याण) के साधक हैं । इन सबमें भी सबसे उत्तम आत्मज्ञान है ।' ( अग्नि० १६२.३-७)

'भुक्ति' से भी महत्त्वपूर्ण 'मुक्ति' है, जिससे जीवात्मा सभी प्रकारके बन्धनोंसे मुक्त होकर परमात्मस्वरूप हो जाता है । 'ज्ञान' वही है, जो ब्रह्मको प्रकाशित करे और 'योग' वही है, जिससे चित्त ब्रह्मसे संयुक्त हो जाय । 'ब्रह्मप्रकाशकं ज्ञानं योगस्तत्रैकचित्तता ।' ( अग्नि० २७२.१) । अतः भगवान् अग्निदेवने यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि, अर्थात् अष्टाङ्गयोगका वर्णन किया, जिससे आत्मा परमात्मचैतन्यरूप हो जाय । परमात्म चैतन्यकी प्राप्ति ही परम प्राप्तव्य हे । इसीकी प्राप्तिके दो प्रधान मार्ग - ज्ञाननिष्ठा और कर्मनिष्ठाका प्रतिपादन करनेवाली श्रीमद्‌भगवद्‌गीताका संक्षेपमे कथन करनेके उपरान्त यमगीताका भी वर्णन किया गया है ।

वस्तुतः शरीरसे आत्मा पृथक् है । नेत्र, मन, बुद्धि आदि आत्मा नहीं हैं । आत्मा इनका नहीं, ये आत्माके हैं । जीवात्मा परमात्माका सनातन अंश है । ब्रह्मत्वकी प्राप्तिमे ही जीवनकी परम सफलता है । इसके लिये ज्ञानयोग श्रेष्ठ साधन है । साधनाके द्वारा जीव जगत्के स्थूल-सूक्ष्म बन्धनोंसे मुक्त होकर ब्रह्मत्वकी प्राप्ति करता है । साधकको 'शरीरभाव' से अतीत होना आवश्यक है । अपवादकी बात दूसरी है । अन्यथा सभीको अभ्यास करना ही पडता है । इसीलिये पूजा, व्रत, तप, वैराग्य और देवाराधनका विधान है । आत्मोत्कर्षके लिये सभीको अपने अपने स्तरके अनुकूल साधनपथ चुनना चाहिये । सभीका स्तर एक नहीं, अतः सभीका अधिकार भी समान नहीं । देवोपासनासे भी परमतत्त्वकी प्राप्ति हो सकती है । देवोपासकोंका जो 'विष्णु' है, वही याज्ञिकोंका 'यज्ञपुरुष' है और वही ज्ञानियोंका 'मूर्तिमान् ज्ञान' है । जीवात्मा किसी पथका आश्रय ले, अन्तिम उद्देश्य यही है कि आत्मा और परमात्माका एकत्व प्रकाशित हो जाय । सच्चा श्रेय तो सदा परमार्थमे ही निहित रहता है । परमार्थकी दृष्टिसे तो आत्मा और परमात्माका नित्य अभिन्नत्व है । अग्निपुराणमे श्रीसूतजीने कहा है - भगवान् विष्णु ही सारसे भी सार तत्त्व हैं । वे सृष्टि और पालन आदिके कर्ता और सर्वत्र व्यापक हैं ।' 'वह विष्णुस्वरूप ब्रह्म मैं ही हूँ' - इस प्रकार उन्हें जान लेनेपर सर्वज्ञता प्राप्त हो जाती है । '

ऐसे वेदसम्मत, सर्वविद्यायुक्त और ब्रह्मस्वरूप अग्निपुराणका जो पठण, श्रवण, अध्ययन और मनन करता है उसे भोग और मोक्ष दोनोंकी ही प्राप्ति होती है - सारात्सारो हि भगवान् विष्णुः सर्गादिकृद्विभुः । ब्रह्माहमस्मि तं ज्ञात्वा सर्वज्ञत्वं प्रजायते ॥ ( अग्नि० १.४)



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