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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

श्रीशिवपुराणमाहात्म्यम्

॥ द्वितीयोऽध्यायः ॥


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देवराजमुक्तिवर्णनम्
शिवपुराणके श्रवणसे देवराजको शिवलोककी प्राप्ति


शौनक उवाच -
सूत सूत महाभाग धन्यस्त्वं परमार्थवित् ।
अद्‌भुतेयं कथा दिव्या श्राविता कृपया हि नः ॥ १ ॥
शौनकजी बोले-हे महाभाग सूतजी ! आप धन्य हैं, परमार्थतत्त्वके ज्ञाता हैं, आपने कृपा करके हमलोगोंको यह बड़ी अद्‌भुत एवं दिव्य कथा सुनायी है ॥ १ ॥

अघौघविध्वंसकरी मनःशुद्धिविधायिनी ।
शिवसन्तोषजननी कथेय नः श्रुताऽद्भुता ॥ २ ॥
हमने यह पापनाशिनी, मनको पवित्र करनेवाली और भगवान् शिवको प्रसन्न करनेवाली अद्‌भुत कथा सुनी ॥ २ ॥

एतत्कथासमानं न भुवि किञ्चित्परात्परम् ।
निश्चयेनेति विज्ञातमस्माभिः कृपया तव ॥ ३ ॥
के के विशुद्ध्यन्त्यनया कथया पापिनः कलौ ।
वद तान्कृपया सूत कृतार्थं भुवनं कुरु ॥ ४ ॥
भूतलपर इस कथाके समान कल्याणका सर्वश्रेष्ठ साधन दूसरा कोई नहीं है, यह बात हमने आज आपकी कृपासे निश्चयपूर्वक समझ ली । हे सूतजी ! कलियुगमें इस कथाके द्वारा कौन-कौन-से पापी शुद्ध होते हैं ? उन्हें कृपापूर्वक बताइये और इस जगत्को कृतार्थ कीजिये ॥ ३-४ ॥

सूत उवाच -
ये मानवाः पापकृतो दुराचाररताः खलाः ।
कामादिनिरता नित्यं तेऽपि शुद्ध्यन्त्यनेन वै ॥ ५ ॥
सूतजी बोले-हे मुने ! जो मनुष्य पापी, दुराचारी, खल तथा काम-क्रोध आदिमें निरन्तर डूबे रहनेवाले हैं, वे भी इस पुराणसे अवश्य शुद्ध हो जाते हैं ॥ ५ ॥

ज्ञानयज्ञः परोऽयं वै भुक्तिमुक्तिप्रदः सदा ।
शोधनः सर्वपापानां शिवसन्तोषकारकः ॥ ६ ॥
तृष्णाकुलाः सत्यहीनाः पितृमातृविदूषकाः ।
दाम्भिका हिंसका ये च तेऽपि शुद्ध्यन्त्यनेन वै ॥ ७ ॥
स्ववर्णाश्रमधर्मेभ्यो वर्जिता मत्सरान्विताः ।
ज्ञानयज्ञेन तेऽनेन सम्पुनन्ति कलावपि ॥ ८ ॥
यह कथा वास्तवमें उत्तम ज्ञानयज्ञ है, जो सदा सांसारिक भोग और मोक्षको देनेवाला है, सभी पापोंको नष्ट करनेवाला है और भगवान् शिवको प्रसन्न करनेवाला है । जो अत्यन्त लालची, सत्यविहीन, अपने माता-पितासे द्वेष करनेवाले, पाखण्डी तथा हिंसक वृत्तिके हैं; वे भी इस ज्ञानयज्ञसे शुद्ध हो जाते हैं । अपने वर्णाश्रमधर्मका पालन न करनेवाले और ईर्ष्याग्रस्त लोग भी कलिकालमें इस ज्ञानयज्ञके द्वारा पवित्र हो जाते हैं ॥ ६-८ ॥

छलच्छद्मकरा ये च ये च क्रूराः सुनिर्दयाः ।
ज्ञानयज्ञेन तेऽनेन सम्पुनन्ति कलावपि ॥ ९ ॥
ब्रह्मस्वपुष्टाः सततं व्यभिचाररताश्च ये ।
ज्ञानयज्ञेन तेऽनेन सम्पुनन्ति कलावपि ॥ १० ॥
सदा पापरता ये च ये शठाश्च दुराशयाः ।
ज्ञानयज्ञेन तेऽनेन सम्पुनन्ति कलावपि ॥ ११ ॥
मलिना दुर्धिर्योऽशान्ता देवताद्रव्यभोजिनः ।
ज्ञानयज्ञेन तेऽनेन सम्पुनन्ति कलावपि ॥ १२ ॥
जो लोग छल-कपट करनेवाले, क्रूर स्वभाववाले और अत्यन्त निर्दयी हैं, कलियुगमें वे भी इस ज्ञानयज्ञसे शुद्ध हो जाते हैं । ब्राह्मणके धनसे पलनेवाले तथा निरन्तर व्यभिचारपरायण जो लोग हैं, वे भी इस ज्ञानयज्ञसे इस कलिकालमें भी पवित्र हो जाते हैं । जो मनुष्य सदा पापकर्मों में लिप्त रहते हैं, शठ हैं और अत्यन्त दूषित विचारवाले हैं, वे कलियुगमें भी इस ज्ञानयज्ञसे निर्मल हो जाते हैं । दुश्चरित्र, दुर्बुद्धि, उद्विग्न चित्तवाले और देवताओंके द्रव्यका उपभोग करनेवाले पापीजन भी कलिकालमें भी इस ज्ञानयज्ञसे पवित्र हो जाते हैं ॥ ९-१२ ॥

पुराणस्यास्य पुण्यं सन्महापातकनाशनम् ।
भुक्तिमुक्तिप्रदं चैव शिवसन्तोषहेतुकम् ॥ १३ ॥
इस पुराणके श्रवणका पुण्य बड़े-बड़े पापोंको नष्ट करता है, सांसारिक भोग तथा मोक्ष प्रदान करता है और भगवान् शंकरको प्रसन्न करता है ॥ १३ ॥

अत्रैवोदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
यस्य श्रवणमात्रेण पापहानिर्भवत्यलम् ॥ १४ ॥
इस सम्बन्धमें मुनिगण इस प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं, जिसके श्रवणमात्रसे पापोंका पूर्णतया नाश हो जाता है ॥ १४ ॥

आसीत्किरातनगरे ब्राह्मणो ज्ञानदुर्बलः ।
दरिद्रो रसविक्रेता देवधर्मपराङ्मुखः ॥ १५ ॥
सन्ध्यास्नानपरिभ्रष्टो वैश्यवृत्तिपरायणः ।
देवराज इति ख्यातो विश्वस्तजनवञ्चकः ॥ १६ ॥
स विप्रान्क्षत्रियान्वैश्याञ्छूद्रांश्चापि तथापरान् ।
हत्वा नानामिषेणैव तत्तद्धनमपाहरत् ॥ १७ ॥
अधर्माद्‌बहुवित्तानि पश्चात्तेनार्जितानि वै ।
न धर्माय धनं तस्य स्वल्पञ्चापीह पापिनः ॥ १८ ॥
पहलेकी बात है-किरातनगरमें एक ब्राह्मण रहता था, जो अज्ञानी, दरिद्र, रस बेचनेवाला तथा वैदिक धर्मसे विमुख था । वह स्नान-सन्ध्या आदि कौसे भ्रष्ट हो गया था और वैश्यवृत्तिमें तत्पर रहता था । उसका नाम था देवराज । वह अपने ऊपर विश्वास करनेवाले लोगोंको ठगा करता था । उसने ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों, शूद्रों तथा दूसरोंको भी अनेक बहानोंसे मारकर उनका धन हड़प लिया था । बादमें उसने अधर्मसे बहुत सारा धन अर्जित कर लिया, परंतु उस पापीका थोड़ा सा भी धन कभी धर्मके काममें नहीं लगा ॥ १५-१८ ॥

एकदैकतडागे स स्नातुं यातो महीसुरः ।
वेश्यां शोभावतीं नाम दृष्ट्‍वा तत्रातिविह्वलः ॥ १९ ॥
स्ववशं धनिनं विप्रं ज्ञात्वा हृष्टाऽथ सुन्दरी ।
वार्तालापेन तच्चित्तं प्रीतिमत्समजायत ॥ २० ॥
स्त्रियं कर्तुं स ताम्मेने पतिं कर्तुं च सा तथा ।
एवं कामवशौ भूत्वा बहुकालं विजह्रतुः ॥ २१ ॥
एक दिन वह ब्राह्मण एक तालाबपर नहाने गया । वहाँ शोभावती नामकी एक वेश्याको देखकर वह अत्यन्त मोहित हो गया । वह सुन्दरी भी उस धनी ब्राह्मणको अपने वशीभूत हुआ जानकर प्रसन्न हुई । आपसमें वार्तालापसे उनमें प्रीति उत्पन्न हो गयी । उस ब्राह्मणने उस वेश्याको पत्नी बनाना तथा उस वेश्याने उसे पति बनाना स्वीकार कर लिया । इस प्रकार कामवश होकर वे दोनों बहुत समयतक विहार करते रहे ॥ १९-२१ ॥

आसने शयने पाने भोजने क्रीडने तथा ।
दम्पतीव सदा द्वौ तु ववृताते परस्परम् ॥ २२ ॥
मात्रा पित्रा तथा पत्‍न्या वारितोऽपि पुनः पुनः ।
नामन्यत वचस्तेषां पापवृत्तिपरायणः ॥ २३ ॥
बैठने, सोने, खाने-पीने तथा क्रीड़ामें वे दोनों निरन्तर पति-पत्नीकी तरह व्यवहार करने लगे । अपने माता-पिता तथा पत्नीके बार-बार रोकनेपर भी पापकृत्यमें संलग्न वह ब्राह्मण उनकी बात नहीं मानता था ॥ २२-२३ ॥

एकदेर्ष्यावशाद्रात्रौ मातरं पितरं वधूम् ।
प्रसुप्तान्न्यवधीद्‌दृष्टो धनन्तेषान्तथाऽहरत् ॥ २४ ॥
आत्मनीनं धनं यच्च पित्रादीनां तथा धनम् ।
वेश्यायै दत्तवान्सर्वं कामी तद्‍गतमानसः ॥ २५ ॥
सोऽभक्ष्यभक्षकः पापी मदिरापानलालसः ।
एकपात्रे सदाऽभौक्षीत्सवेश्यो ब्राह्मणाधमः ॥ २६ ॥
एक दिन रात्रिमें उस दुष्टने ईर्ष्यावश अपने सोये हुए माता-पिता और पत्नीको मार डाला और उनका सारा धन हर लिया । वेश्यामें आसक्त चित्तवाले उस कामीने अपना और पिता आदिका सारा धन उस वेश्याको दे दिया । वह पापी अभक्ष्य-भक्षण तथा मद्यपान करने लगा और वह नीच ब्राह्मण उस वेश्याके साथ एक ही पात्रमें सदा जूठा भोजन करने लगा । २४-२६ ॥

कदाचिद्दैवयोगेन प्रतिष्ठानमुपागतः ।
शिवालयं ददर्शाऽसौ तत्र साधुजनावृतम् ॥ २७ ॥
एक दिन घूमता घामता वह दैवयोगसे प्रतिष्ठानपुर ( सी-प्रयाग) में जा पहुँचा । वहाँ उसने एक शिवालय देखा, जहाँ बहुतसे साधु-महात्मा एकत्र हुए थे ॥ २७ ॥

स्थित्वा तत्र च विप्रोऽसौ ज्वरेणातिप्रपीडितः ।
शुश्राव सततं शैवीं कथां विप्रमुखोद्‌गताम् ॥ २८ ॥
देवराज उस शिवालयमें ठहर गया और वहाँ उस ब्राह्मणको ज्चर आ गया । उस ज्वरसे उसको बड़ी पीड़ा होने लगी । वहाँ एक ब्राह्मणदेवता शिवपुराणकी कथा सुना रहे थे । ज्वरमें पड़ा हुआ देवराज ब्राह्मणके मुखारविन्दसे निकली हुई उस शिवकथाको निरन्तर सुनता रहा ॥ २८ ॥

देवराजश्च मासान्ते ज्वरेणापीडितो मृतः ।
बद्धो यमभटैः पाशैर्नीतो यमपुरम्बलात् ॥ २९ ॥
एक मासके बाद वह ज्वरसे अत्यन्त पीड़ित होकर चल बसा । यमराजके दूत आये और उसे पाशोंसे बाँधकर बलपूर्वक यमपुरीमें ले गये ॥ २९ ॥

तावच्छिवगणाः शुभ्रास्त्रिशूलाञ्चितपाणयः ।
भस्मभासितसर्वाङ्‍गा रुद्राक्षाञ्चितविग्रहाः ॥ ३० ॥
शिवलोकात्समागत्य क्रुद्धा यमपुरीं ययुः ।
ताडयित्वा तु तदूतांस्तर्जयित्वा पुनः पुनः ॥ ३१ ॥
देवराजं समामोच्य विमाने परमाद्‌भुते ।
उपवेश्य यदा दूताः कैलासं गन्तुमुत्सुकाः ॥ ३२ ॥
तदा यमपुरीमध्ये महाकोलाहलोऽभवत् ।
इतनेमें ही शिवलोकसे भगवान् शिक्के पार्षदगण आ गये । उनके गौर अंग कर्पूरके समान उज्ज्वल थे, हाथ त्रिशूलसे सुशोभित हो रहे थे, उनके सम्पूर्ण अंग भस्मसे उदासित थे और रुद्राक्षकी मालाएँ उनके शरीरकी शोभा बढ़ा रही थीं । वे सब-के-सब क्रोध करते हुए यमपुरीमें गये और यमराजके दूतोंको मारपीटकर, बारम्बार धमकाकर उन्होंने देवराजको उनके चंगुलसे छुड़ा लिया और अत्यन्त अद्‌भुत विमानपर बिठाकर जब वे शिवदूत कैलास जानेको उद्यत हुए, उस समय यमपुरीमें बड़ा भारी कोलाहल मच गया ॥ ३०-३२-१/२ ॥

धर्मराजस्तु तं श्रुत्वा स्वालयाद्‍बहिरागमत् ॥ ३३ ॥
दृष्ट्‍वाऽथ चतुरो दूतान्साक्षाद्‌रुद्रानिवापरान् ।
पूजयामास धर्मज्ञो धर्मराजो यथाविथि ॥ ३४ ॥
उस कोलाहलको सुनकर धर्मराज अपने भवनसे बाहर आये । साक्षात् दूसरे रुद्रोंके समान प्रतीत होनेवाले उन चारों दूतोंको देखकर धर्मज्ञ धर्मराजने उनका विधिपूर्वक पूजन किया ॥ ३३-३४ ॥

ज्ञानेन चक्षुषा सर्वं वृत्तान्तं ज्ञातवान्यमः ।
न भयात्पृष्टवान्किञ्चिच्छम्भोर्दूतान्महात्मनः ॥ ३५ ॥
यमने ज्ञानदृष्टिसे देखकर सारा वृत्तान्त जान लिया, उन्होंने भयके कारण भगवान् शिवके उन महात्मा दूतोंसे कोई बात नहीं पूछी ॥ ३५ ॥

पूजिता प्रार्थितास्ते वै कैलासमगमंस्तदा ।
ददुश्शिवाय साम्बाय तं दयावारिराशये ॥ ३६ ॥
यमराजसे पूजित तथा प्रार्थित होकर वे शिवदूत कैलासको चले गये और उन्होंने उस ब्राहाणको दयासागर साम्ब शिवको दे दिया ॥ ३६ ॥

धन्या शिवपुराणस्य कथा परमपावनी ।
यस्याः श्रवणमात्रेण पापीयानपि मुक्तिभाक् ॥ ३७ ॥
सदाशिवमहास्थानं परं धाम परम्पदम् ।
यदाऽऽहुर्वेदविद्वांसः सर्वलोकोपरि स्थितम् ॥ ३८ ॥
ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्रा अन्येऽपि प्राणिनः ।
हिंसिता धनलोभेन बहवो येन पापिना ॥ ३९ ॥
मातृपितृवधूहन्ता वेश्यागामी च मद्यपः ।
देवराजो द्विजस्तत्र गत्वा मुक्तोऽभवत्क्षणात् ॥ ४० ॥
शिवपुराणकी यह परम पवित्र कथा धन्य है, जिसके सुननेसे पापीजन भी मुक्तिके योग्य बन जाते हैं । भगवान् सदाशिवके परमधामको वेदज्ञ सभी लोकोंमें सर्वश्रेष्ठ बताते हैं । ब्राह्मण, अत्रिय, वैश्य, शूद्र तथा अन्य प्राणी; यहाँतक कि जिस पापीने धनके लोभसे अनेक लोगोंकी हत्या की तथा अपने माता-पिता और पत्नीको भी मार डाला; वह वेश्यागामी, शराबी ब्राह्मण देवराज भी इस कथाके प्रभावसे भगवान् शिवके परमधामको प्राप्तकर तत्क्षण मुक्त हो गया ॥ ३७-४० ॥

इति श्रीस्कान्दे महापुराणे शिवपुराणमाहाम्ये
देवराजमुक्तिवर्णनं नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥
इस प्रकार श्रीस्कन्दमहापुराणके अन्तर्गत शिवपुराणमाहात्यमें देवराजमुक्तिवर्णन नामक दूसरा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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