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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥
श्रीशिवपुराणमाहात्म्यम्
॥ चतुर्थोऽध्यायः ॥ [ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ] चंचुलायाः सद्गतिः
चंचुलाकी प्रार्थनासे ब्राह्मणका उसे पूरा शिवपुराण सुनाना और समयानुसार शरीर छोड़कर शिवलोकमें जा चंचुलाका पार्वतीजीकी सखी होना ब्राह्मण उवाच -
दिष्ट्या काले प्रबुद्धासि शिवानुग्रहतो वराम् । इमां शिवपुराणस्य श्रुत्वा वैराग्यवत्कथाम् ॥ १ ॥ मा भैषीर्द्विजपत्नि त्वं शिवस्य शरणं व्रज । शिवानुग्रहतः सर्वं पापं सद्यो विनश्यति ॥ २ ॥ वक्ष्यामि ते परं वस्तु शिवकीर्तिसमन्वितम् । भविष्यति गतिर्येन सर्वदा ते सुखावहा ॥ ३ ॥ ब्राह्मण बोले-सौभाग्यकी बात है कि भगवान् शंकरकी कृपासे शिवपुराणकी इस वैराग्ययुक्त तथा श्रेष्ठ कथाको सुनकर तुम्हें समयपर चेत हो गया है । हे ब्राह्मणपत्नी ! तुम डरो मत, भगवान् शिवकी शरणमें जाओ । शिवकी कृपासे सारा पाप तत्काल नष्ट हो जाता है । मैं तुमसे भगवान् शिवकी कीर्तिकथासे युक्त उस परम वस्तुका वर्णन करूँगा, जिससे तुम्हें सदा सुख देनेवाली उत्तम गति प्राप्त होगी ॥ १-३ ॥ सत्कथाश्रवणादेव जाता ते मतिरीदृशी ।
पश्चात्तापान्विता शुद्धा वैराग्यं विषयेषु च ॥ ४ ॥ पश्चात्तापः पापकृतां पापानां निष्कृतिः परा । सर्वेषां वर्णितं सद्भिः सर्वपापविशोधनम् ॥ ५ ॥ पश्चात्तापेनैव शुद्धिः प्रायश्चित्तं करोति सः । यथोपदिष्टं सद्भिर्हि सर्वपापविशोधनम् ॥ ६ ॥ शिवकी उत्तम कथा सुननेसे ही तुम्हारी बुद्धि इस तरह पश्चात्तापसे युक्त एवं शुद्ध हो गयी है; साथ ही तुम्हारे मनमें विषयोंके प्रति वैराग्य हो गया है । पश्चात्ताप ही पाप करनेवाले पापियोंके लिये सबसे बड़ा प्रायश्चित्त है । सत्पुरुषोंने सबके लिये पश्चात्तापको ही समस्त पापोंका शोधक बताया है । पश्चात्तापसे ही पापोंकी शुद्धि होती है । जो पश्चात्ताप करता है, वही वास्तवमें पापोंका प्रायश्चित्त करता है क्योंकि सत्पुरुषोंने समस्त पापोंकी शुद्धिके लिये जैसे प्रायश्चित्तका उपदेश किया है, वह सब पश्चात्तापसे सम्पन्न हो जाता है ॥ ४-६ ॥ प्रायश्चित्तमधीकृत्य विधिवन्निर्भयः पुमान् ।
स याति सुगतिं प्रायः पश्चात्तापी न संशयः ॥ ७ ॥ एतच्छिवपुराणस्य कथाश्रवणतो यथा । जायते चित्तशुद्धिर्हि न तथान्यैरुपायतः ॥ ८ ॥ जो पुरुष विधिपूर्वक प्रायश्चित्त करके निर्भय हो जाता है, पर अपने कुकर्मके लिये पश्चात्ताप नहीं करता, उसे प्रायः उत्तम गति नहीं प्राप्त होती । परंतु जिसे अपने कुकृत्यपर हार्दिक पश्चात्ताप होता है, वह अवश्य उत्तम गतिका भागी होता है, इसमें संशय नहीं है । इस शिवपुराणकी कथा सुननेसे जैसी चित्तशुद्धि होती है, वैसी दूसरे उपायोंसे नहीं होती ॥ ७-८ ॥ शोध्यमानं दर्पणं हि यथा भवति निर्मलम् ।
तथैतत्कथया चेतो विशुद्धिं यात्यसंशयम् ॥ ९ ॥ विशुद्धे चेतसि शिवो नृणां तिष्ठति साम्बिकः । ततो याति विशुद्धात्मा साम्बशम्भोः परं पदम् ॥ १० ॥ जैसे दर्पण साफ करनेपर निर्मल हो जाता है, उसी प्रकार इस शिवपुराणकी कथासे चित्त अत्यन्त शुद्ध हो जाता है इसमें संशय नहीं है । मनुष्योंके शुद्ध चित्तमें जगदम्बा पार्वतीसहित भगवान् शिव विराजमान रहते हैं । इससे वह विशुद्धात्मा पुरुष श्रीसाम्बसदाशिवके परम पदको प्राप्त होता है । ९-१० ॥ अतः सर्वस्य वर्गस्यैतत्कथासाधनं मतम् ।
एतदर्थं महादेवो निर्ममे त्वाग्रहादिमाम् ॥ ११ ॥ कथया सिद्ध्यति ध्यानमनया गिरिजापतेः । ध्यानाज्ज्ञानं परं तस्मात्कैवल्यं भवति ध्रुवम् ॥ १२ ॥ असिद्धशङ्करध्यानः कथामेव शृणोति यः । स प्राप्यान्यभवे ध्यानं शम्भोर्याति परां गतिम् ॥ १३ ॥ एतत्कथाश्रवणतः कृत्वा ध्यानमुमापतेः । ते पश्चात्तापिनः पापा बहवः सिद्धिमागताः ॥ १४ ॥ इस प्रकार यह कथारूपी साधन सभी प्राणियोंके लिये उपकारी है और इसी कारण महादेवजीने इसको आग्रहपूर्वक प्रकट किया है । इस कथासे भगवान् उमापतिका ध्यान सिद्ध हो जाता है । उस ध्यानसे परम ज्ञान और उससे मोक्षकी प्राप्ति निश्चय ही होती है । भगवान् शंकरके ध्यानमें मान हुए बिना भी यदि कोई इस कथाको मात्र सुनता है, वह दूसरे जन्ममें भगवान्के ध्यानको सिद्धकर परमपदको पा लेता है । इस कथाके अवणसे भगवान् शंकरके ध्यानको प्राप्तकर पश्चात्ताप करनेवाले पापी पुरुष सिद्धिको प्राप्त हो गये हैं ॥ ११-१४ ॥ सर्वेषां श्रेयसां बीजं सत्कथाश्रवणं नृणाम् ।
यथावर्त्मसमाराध्यं भवबन्धगदापहम् ॥ १५ ॥ कथाश्रवणतः शम्भोर्मननाच्च ततो हृदा । निदिध्यासनतश्चैव चित्तशुद्धिर्भवत्यलम् ॥ १६ ॥ अतो भक्तिर्महेशस्य पुत्राभ्यां भवति ध्रुवम् । तदनुग्रहतो दिव्या ततो मुक्तिर्न संशयः ॥ १७ ॥ तद्विहीनः पशुर्ज्ञेयो मायाबन्धनसक्तधीः । संसारबन्धनान्नैव मुक्तो भवति स ध्रुवम् ॥ १८ ॥ इस उत्तम कथाका श्रवण समस्त मनुष्योंके लिये कल्याणका बीज है । अतः यथोचित (शास्त्रोक्त) मार्गसे इसकी आराधना अथवा सेवा करनी चाहिये । यह कथा श्रवण भव-बन्धनरूपी रोगका नाश करनेवाला है । भगवान् शिवकी कथाको सुनकर फिर अपने हृदयमें उसका मनन एवं निदिध्यासन करनेसे पूर्णतया चित्तशुद्धि हो जाती है । चित्तशुद्धि होनेसे महेश्वरको भक्ति अपने दोनों पुत्रों (ज्ञान और वैराग्य) के साथ निश्चय ही प्रकट होती है । तत्पश्चात् महेश्वरके अनुग्रहसे दिव्य मुक्ति प्राप्त होती है, इसमें संशय नहीं है । जो शिवभक्तिसे वंचित है, उसे पशु समझना चाहिये; क्योंकि उसका चित्त मायाके बन्धनमें आसक्त है । वह निश्चय ही संसारबन्धनसे मुक्त नहीं हो पाता ॥ १५-१८ ॥ अतो हि द्विजपत्नि त्वं विषयेभ्यो निवृत्तधीः ।
शृणु शम्भोः कथां चैतां भक्त्या परमपावनीम् ॥ १९ ॥ शृण्वन्त्याः सत्कथामेतां शङ्करस्य परात्मनः । शुद्धिमेष्यति चेतस्ते ततो मुक्तिमवाप्स्यसि ॥ २० ॥ ध्यायतः शिवपादाब्जं चेतसा निर्मलेन वै । एकेन जन्मना मुक्तिः सत्यं सत्यं वदाम्यहम् ॥ २१ ॥ हे ब्राह्मणपत्नी ! इसलिये तुम विषयोंसे मनको हटा लो और भक्तिभावसे भगवान् शंकरकी इस परम पावन कथाको सुनो । परमात्मा शंकरकी इस कथाको सुननेसे तुम्हारे चित्तकी शुद्धि होगी और उससे तुम्हें मोक्षकी प्राप्ति हो जायगी । निर्मल चित्तसे भगवान् शिवके चरणारविन्दोंका चिन्तन करनेवालेकी एक ही जन्ममें मुक्ति हो जाती है-यह मैं तुमसे सत्य-सत्य कहता हूँ ॥ १९-२१ ॥ सूत उवाच -
इत्युक्त्वा स द्विजवरो वरः शैवः कृपार्द्रधीः । तूष्णीं बभूव शुद्धात्मा शिवध्यानपरायणः ॥ २२ ॥ सूतजी बोले-शौनक ! इतना कहकर वे श्रेष्ठ शिवभक्त ब्राह्मण मौन हो गये । उनका हृदय करुणासे आई हो गया था । वे शुद्धचित्त महात्मा भगवान् शिवके ध्यानमें मग्न हो गये ॥ २२ ॥ अथ बिन्दुगपत्नी सा चञ्चुलाह्वा प्रसन्नधीः ।
इत्युक्ता तेन विप्रेण समासीद्बाष्पलोचना ॥ २३ ॥ पपातारं द्विजेन्द्रस्य पादयोस्तस्य हृष्टधीः । चञ्चुला साञ्जलिः सा च कृतार्थास्मीत्यभाषत ॥ २४ ॥ तदनन्तर बिन्दुगकी पत्नी चंचुला मन-ही-मन प्रसन्न हो उठी । ब्राह्मणका उक्त उपदेश सुनकर उसके नेत्रोंमें आनन्दके आँसू छलक आये थे । वह ब्राह्मणपत्नी चंचुला हर्षित हदयसे उन श्रेष्ठ ब्राह्मणके चरणों में गिर पड़ी और हाथ जोड़कर बोली'मैं कृतार्थ हो गयी' ॥ २३-२४ ॥ चञ्चुलोवाच -
अथ सोत्थाय सातङ्का साञ्जलिर्गद्गदाक्षरम् । तमुवाच महाशैवं द्विजं वैराग्ययुक्सुधीः ॥ २५ ॥ तत्पश्चात् उठकर वैराग्ययुक्त तथा उत्तम बुद्धिवाली वह स्त्री, जो अपने पापोंके कारण आतंकित थी, उन महान् शिवभक्त ब्राह्मणसे हाथ जोड़कर गद्गद वाणीमें कहने लगी ॥ २५ ॥ ब्रह्मञ्छैववर स्वामिन्धन्यस्त्वं परमार्थदृक् ।
परोपकारनिरतो वर्णनीयः सुसाधुषु ॥ २६ ॥ उद्धरोद्धर मां साधो पतन्तीं नरकार्णवे । श्रुत्वा यां सुकथां शैवीं पुराणार्थविजृम्भिताम् ॥ २७ ॥ विरक्तधीरहं जाता विषयेभ्यश्च सर्वतः । सुश्रद्धा महती ह्येतत्पुराणश्रवणेऽधुना ॥ २८ ॥ चंचुला बोली-हे ब्रह्मन् ! हे शिवभक्तोंमें श्रेष्ठ ! हे स्वामिन् ! आप धन्य हैं, परमार्थदर्शी हैं और सदा परोपकारमें लगे रहते हैं, इसलिये आप श्रेष्ठ साधु पुरुषोंमें प्रशंसाके योग्य हैं । हे साधो । मैं नरकके समुद्र में गिर रही हूँ । आप मेरा उद्धार कीजिये, उद्धार कीजिये । पौराणिक अर्थतत्त्वसे सम्पन्न जिस सुन्दर शिवपुराणकी कथाको सुनकर मेरे मनमें सम्पूर्ण विषयोंसे वैराग्य उत्पन हो गया, उसी इस शिवपुराणको सुननेके लिये इस समय मेरे मनमें बड़ी श्रद्धा हो रही है ॥ २६-२८ ॥ सूत उवाच -
इत्युक्त्वा साञ्जलिः सा वै सम्प्राप्य तदनुग्रहम् । तत्पुराणं श्रोतुकामाऽतिष्ठत्तत्सेवने रता ॥ २९ ॥ सूतजी बोले-ऐसा कहकर हाथ जोड़ उनका अनुग्रह पाकर चंचुला उस शिवपुराणकी कथाको सुननेकी इच्छा मनमें लिये उन ब्राह्मणदेवताको सेवामें तत्पर हो वहाँ रहने लगी ॥ २९ ॥ अथ शैववरो विप्रस्तस्मिन्नेव स्थले सुधीः ।
सत्कथां श्रावयामास तत्पुराणस्य तां स्त्रियम् ॥ ३० ॥ तदनन्तर शिवभक्तोंमें श्रेष्ठ और शुद्ध बुद्धिवाले उन ब्राह्मणदेवताने उसी स्थानपर उस स्त्रीको शिवपुराणकी उत्तम कथा सुनायी ॥ ३० ॥ इत्थं तस्मिन्महाक्षेत्रे तस्मादेव द्विजोत्तमात् ।
कथां शिवपुराणस्य सा शुश्राव महोत्तमाम् ॥ ३१ ॥ भक्तिज्ञानविरागाणां वर्द्धिनीं मुक्तिदायिनीम् । बभूव सुकृतार्था सा श्रुत्वा तां सत्कथां पराम् ॥ ३२ ॥ इस प्रकार उस [गोकर्ण नामक महाक्षेत्रमें उन्हीं श्रेष्ठ ब्राह्मणसे उसने शिवपुराणकी वह परम उत्तम कथा सुनी, जो भक्ति, ज्ञान और वैराग्यको बढ़ानेवाली तथा मुक्ति देनेवाली है । उस परम उत्तम कथाको सुनकर वह ब्राह्मणपत्नी अत्यन्त कृतार्थ हो गयीं ॥ ३१-३२ ॥ सद्गुरोस्तस्य कृपया शुद्धचित्ता च सा द्रुतम् ।
शिवानुग्रहतः शम्भोः रूपध्यानमवाप ह ॥ ३३ ॥ उन सद्गुरुकी कृपासे उसका चित्त शीघ्र ही शुद्ध हो गया, भगवान् शिवके अनुग्रहसे उसके हदयमें शिवके सगुणरूपका चिन्तन होने लगा ॥ ३३ ॥ इत्थं सद्गुरुमाश्रित्य सा प्राप्तशिवसन्मतिः ।
दध्यौ मुहुर्मुहुः शम्भोश्चिदानन्दमयं वपुः ॥ ३४ ॥ इस प्रकार सद्गुरुका आश्रय लेकर उसने भगवान् शिवमें लगी रहनेवाली उत्तम बुद्धि पाकर शिवके सच्चिदानन्दमय स्वरूपका बारंबार चिन्तन आरम्भ किया ॥ ३४ ॥ स्नात्वा तीर्थजले नित्यं जटावल्कलधारिणी ।
भस्मोद्धूलितसर्वाङ्गी रुद्राक्षकृतभूषणा ॥ ३५ ॥ शिवनामजपासक्ता वाग्यता मितभोजना । गुरूपदिष्टमार्गेण सा शिवं समतोषयत् ॥ ३६ ॥ एवं तस्याचञ्चुलायाः कुर्वन्त्या ध्यानमुत्तमम् । बहुकालो व्यतीयाय शम्भोस्तत्रैव शौनक ॥ ३७ ॥ वह प्रतिदिन तीर्थके जलमें स्नान करके जटा और वल्कल धारण करने लगी तथा समूची देहमें भस्म लगाकर रुद्राक्षके आभूषण धारण करने लगी । वह भगवान् शिवके नामजपमें लगी रहती थी, संयमित वाणी और अल्पाहार करते हुए गुरुके बताये मार्गसे वह शिवजीको प्रसन्न करने लगी । हे शौनक ! इस प्रकार शम्भुका उत्तम ध्यान करते हुए उस चंचुलाका बहुत-सा समय बीत गया ॥ ३५-३७ ॥ अथ कालेन पूर्णेन भक्तित्रिकसमन्विता ।
समुत्ससर्ज देहं स्वमनायासेन चञ्चुला ॥ ३८ ॥ तत्पश्चात् समयके पूर्ण होनेपर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यसे युक्त हुई चंचुलाने अपने शरीरको बिना किसी कष्टके त्याग दिया ॥ ३८ ॥ विमानं द्रुतमायान्तं प्रेषितं त्रिपुरारिणा ।
दिव्यं स्वगणसंयुक्तं नानाशोभासमन्वितम् ॥ ३९ ॥ अथ तत्र समारूढा महेशानुचरैर्वरैः । नीता शिवपुरीं सद्यो ध्वस्तसर्वमला च सा ॥ ४० ॥ दिव्यरूपधरा दिव्या दिव्यावयवशालिनी । चन्द्रार्द्धशेखरा गौरी विलसद्दिव्यभूषणा ॥ ४१ ॥ इतने में ही त्रिपुरशत्रु भगवान् शिवका भेजा हुआ एक दिव्य विमान द्रुत गतिसे वहाँ पहुँचा, जो उनके अपने गणोंसे संयुक्त और भौति भौतिके शोभा साधनोंसे सम्पन्न था । चंचुला उस विमानपर आरूढ़ हुई और भगवान् शिवके श्रेष्ठ पार्षदोंने उसे तत्काल शिवपुरीमें पहुँचा दिया । उसके सारे मल धुल गये थे । वह दिव्यरूपधारिणी दिव्यांगना हो गयी थी । उसके दिव्य अवयव उसकी शोभा बढ़ाते थे । मस्तकपर अर्धचन्द्रका मुकुट धारण किये वह गौरांगी देवी शोभाशाली दिव्य आभूषणोंसे विभूषित थी ॥ ३९-४१ ॥ गत्वा तत्र महादेवं सा ददर्श त्रिलोचनम् ।
विष्णुब्रह्मादिभिर्देवैः सेव्यमानं सनातनम् ॥ ४२ ॥ गणेशभृङ्गिनन्दीशवीरभद्रेश्वरादिभिः । उपास्यमानं सद्भक्त्या कोटिसूर्यसमप्रभम् ॥ ४३ ॥ नीलग्रीवं पञ्चवक्त्रं त्र्यम्बकं चन्द्रशेखरम् । वामाङ्गे बिभ्रतं गौरीं विद्युत्पुञ्जसमप्रभाम् ॥ ४४ ॥ कर्पूरगौरं गौरीशं सर्वालङ्कारधारिणम् । सितभस्मलसद्देहं सितवस्त्रं महोज्जलम् ॥ ४५ ॥ वहाँ पहुँचकर उसने त्रिनेत्रधारी महादेवजीको देखा । ब्रह्मा, विष्णु आदि देवता उन सनातन शिवकी सेवा कर रहे थे । गणेश, भुंगी, नन्दीश, वीरभद्रेश्वर आदि गण उत्तम भक्तिके साथ उनकी उपासना कर रहे थे । उनकी अंगकान्ति करोड़ों सूर्योके समान प्रकाशित हो रही थी । कण्ठमें नील चिरन शोभा पाता था । उनके पाँच मुख थे और प्रत्येक मुखमें तीन-तीन नेत्र थे । मस्तकपर अर्धचन्द्राकार मुकुट शोभा देता था । उन्होंने अपने वामांगमें गौरी देवीको बिठा रखा था, जो विद्युत्-पुंजके समान प्रकाशित थीं । गौरीपति महादेवजीकी कान्ति कपूरके समान गौर थी । उन्होंने सभी अलंकार धारण कर रखे थे, उनका सारा शरीर श्वेत भस्मसे भासित था । शरीरपर श्वेत वस्त्र शोभा पा रहे थे । वे अत्यन्त उज्ज्वल वर्णके थे ॥ ४२-४५ ॥ दृष्ट्वैवं शङ्करं नारी सा मुमोदातिचञ्चुला ।
सुसम्भ्रमान्महाप्रीता प्रणनाम पुनः पुनः ॥ ४६ ॥ साञ्जलिः सा मुदा प्रेम्णा सन्तुष्टा च विनीतका । आनन्दाश्रुजलैर्युक्ता रोमहर्षसमन्विता ॥ ४७ ॥ अथ सा वै करुणया पार्वत्या शङ्करेण च । समानीतोपकण्ठं हि सुदृष्ट्या च विलोकिता ॥ ४८ ॥ पार्वत्या सा कृता प्रीत्या स्वसखी दिव्यरूपिणी । दिव्यसौख्यान्विता तत्र चञ्चुला बिन्दुगप्रिया ॥ ४९ ॥ तस्मिंल्लोके परानन्दघनज्योतिषि शाश्वते । लब्ध्वा निवासमचलं लेभे सुखमनाहतम् ॥ ५० ॥ इस प्रकार परम उज्ज्वल भगवान् शंकरका दर्शन करके वह ब्राह्मणपत्नी चंचुला बहुत प्रसन्न हुई । अत्यन्त प्रीतियुक्त होकर उसने बड़ी उतावलीके साथ भगवान्को बारंबार प्रणाम किया । फिर हाथ |जोड़कर वह बड़े प्रेम, आनन्द और सन्तोषसे युक्त हो विनीतभावसे खड़ी हो गयी । उसके नेत्रोंसे आनन्दाश्रुओंकी अविरल धारा बहने लगी तथा सम्पूर्ण शरीरमें रोमांच हो गया । उस समय भगवती पार्वती और भगवान् |शंकरने उसे बड़ी करुणाके साथ अपने पास बुलाया |और सौम्य दृष्टिसे उसकी ओर देखा । पार्वतीजीने तो दिव्यरूपधारिणी बिन्दुगप्रिया चंचुलाको प्रेमपूर्वक अपनी सखी बना लिया । वह उस परमानन्दघन ज्योतिःस्वरूप सनातनधाममें अविचल निवास पाकर दिव्य सौख्यसे सम्पन्न हो अक्षय सुखका अनुभव करने लगी ॥ ४६-५० ॥ इति श्रीस्कान्दे महापुराणे शिवपुराणमाहात्म्ये
चञ्चुलावैराग्यवर्णनं नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥ इस प्रकार श्रीस्कन्दमहापुराणके अन्तर्गत शिवपुराणमाहात्म्यमें चंचुलासदगतिवर्णन नामक चोथा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |