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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥
श्रीशिवपुराणमाहात्म्यम्
॥ षष्ठोऽध्यायः ॥ [ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ] शिवपुराणश्रवणविधिः
शिवपुराणके श्रवणकी विधि सूत सूत महाप्राज्ञ व्यासशिष्य नमोऽस्तु ते ।
धन्यस्त्वं शैववर्योऽसि वर्णनीयमहद्गुणः ॥ १ ॥ श्रीमच्छिवपुराणस्य श्रवणस्य विधिं वद । येन सर्वं लभेच्छ्रोता सम्पूर्णं फलमुत्तमम् ॥ २ ॥ शौनकजी बोले-हे महाप्राज्ञ ! हे व्यासशिष्य ! हे सूतजी ! आपको नमस्कार है । आप धन्य हैं और शिवभक्तोंमें श्रेष्ठ हैं । आपके महान् गुण वर्णन करनेयोग्य हैं । अब आप कल्याणमय शिवपुराणके श्रवणकी विधि बतलाइये, जिससे सभी श्रोताओंको सम्पूर्ण उत्तम फलकी प्राप्ति हो सके ॥ १-२ ॥ सूत उवाच -
अथ ते सम्प्रवक्ष्यामि सम्पूर्णफलहेतवे । विधिं शिवपुराणस्य शौनक श्रवणे मुने ॥ ३ ॥ सूतजी बोले-हे शौनक । हे मुने ! अब मैं आपको सम्पूर्ण फलकी प्राप्तिके लिये शिवपुराणके श्रवणकी विधि बता रहा हूँ ॥ ३ ॥ दैवज्ञं च समाहूय सन्तोष्य च जनान्वितः ।
मुहूर्तं शोधयेच्छुद्धं निर्विघ्नेन समाप्तये ॥ ४ ॥ वार्ता प्रेष्या प्रयत्नेन देशे देशे च सा शुभा । भविष्यति कथा शैवी आगन्तव्यं शुभार्थिभिः ॥ ५ ॥ [सर्वप्रथम] किसी ज्योतिषीको बुलाकर दानमानसे सन्तुष्ट करके अपने सहयोगी लोगोंके साथ बैठकर बिना किसी विघ्न-बाधाके कथाकी समाप्ति होनेके उद्देश्यसे शुद्ध मुहूर्तका अनुसन्धान कराये । तदनन्तर प्रयत्नपूर्वक देश-देशमें-स्थान-स्थानपर यह शुभ सन्देश भेजे कि हमारे यहाँ शिवपुराणकी कथा होनेवाली है । अपने कल्याणकी इच्छा रखनेवाले लोगोंको [उसे सुननेके लिये] अवश्य पधारना चाहिये ॥ ४-५ ॥ दूरे हरिकथाः केचिद्दूरे शङ्करकीर्तनाः ।
स्त्रियः शूद्रादयो ये च बोधस्तेषां भवेद्यतः ॥ ६ ॥ देशे देशे शाम्भवा ये कीर्तनश्रवणोत्सुकाः । तेषामानयनं कार्यं तत्प्रकारार्थमादरात् ॥ ७ ॥ कुछ लोग भगवान् श्रीहरिकी कथासे बहुत दूर पड़ गये हैं । कितने ही स्त्री, शूद्र आदि भगवान् शंकरके कथा-कीर्तनसे वंचित रहते हैं-उन सबको भी सूचना हो जाय, ऐसा प्रबन्ध करना चाहिये । देशदेशमें जो भगवान् शिवके भक्त हों तथा शिव-कथाके कीर्तन और श्रवणके लिये उत्सुक हों, उन सबको आदरपूर्वक बुलवाना चाहिये ॥ ६-७ ॥ भविष्यति समाजोऽत्र साधूनां परमोत्सवः ।
पारायणे पुराणस्य शैवस्य परमाद्भुतः ॥ ८ ॥ श्रीमच्छिवपुराणाह्वरसपानाय चादरात् । आयान्त्वरं भवन्तश्च कृपया प्रेमतत्पराः ॥ ९ ॥ नावकाशो यदि प्रेम्णागन्तव्यं दिनमेककम् । सर्वथाऽऽगमनं कार्यं दुर्लभा च क्षणस्थितिः ॥ १० ॥ तेषामाह्वानमेवं हि कार्यं सविनयं मुदा । आगतानां च तेषां हि सर्वथा कार्य आदरः ॥ ११ ॥ [उन्हें कहलाना चाहिये कि यहाँ सत्पुरुषोंको आनन्द देनेवाला समाज तथा अति अद्भुत उत्सव होगा, जिसमें शिवपुराणका पारायण होगा । श्रीशिवपुराणकी रसमयी कथाका श्रवण करनेहेतु आपलोग प्रेमपूर्वक शीघ्र पधारनेकी कृपा करें । यदि समयका अभाव हो तो प्रेमपूर्वक एक दिनके लिये भी आइये । आपको निश्चय ही आना चाहिये; क्योंकि इस कथामें क्षणभरके लिये बैठनेका सौभाग्य भी दुर्लभ है । इस प्रकार विनय और प्रसन्नतापूर्वक श्रोताओं को निमन्त्रण देना चाहिये और आये हुए लोगोंका सब प्रकारसे आदर-सत्कार करना चाहिये ॥ ८-११ ॥ शिवालये च तीर्थे वा वने वापि गृहेऽथवा ।
कार्यं शिवपुराणस्य श्रवणस्थलमुत्तमम् ॥ १२ ॥ शिवमन्दिरमें, तीर्थमें, वनप्रान्तमें अथवा घरमें शिवपुराणकी कथा सुननेके लिये उत्तम स्थानका निर्माण करना चाहिये ॥ १२ ॥ कार्यं संशोथनं भूमेर्लेपनं धातुमण्डनम् ।
विचित्रा रचना दिव्या महोत्सवपुरःसरम् ॥ १३ ॥ गृहोपस्करमुद्धृत्य निखिलं तदयोग्यकम् । एकान्ते गृहकोणे चादृश्ये यत्नान्निवेशयेत् ॥ १४ ॥ कथाभूमिको लीपकर शोधन करना चाहिये तथा धातु आदिसे उस स्थानको सुशोभित करना चाहिये । महोत्सवके साथ-साथ वहाँ अद्भत तथा सुन्दर व्यवस्था कर लेनी चाहिये । कथाके लिये अनुपयोगी घरके साज-सामानको हटाकर घरके किसी एकान्त कोनेमें सुरक्षित रख देना चाहिये ॥ १३-१४ ॥ कर्तव्यो मण्डपोऽत्युच्चैः कदलीस्तम्भमण्डितः ।
फलपुष्पादिभिः सम्यग्विष्वग्वैतानराजितः ॥ १५ ॥ चतुर्द्दिक्षु ध्वजारोपः सपताकः सुशोभनः । सुभक्तिः सर्वथा कार्या सर्वानन्दविधायिनी ॥ १६ ॥ केलेके खम्भोंसे सुशोभित एक ऊँचा कथामण्डप तैयार कराये । उसे सब ओर फल-पुष्प आदिसे तथा सुन्दर चैदोवेसे अलंकृत करे और चारों ओर ध्वजा| पताका लगाकर तरह-तरहके सामानोंसे सजाकर सुन्दर शोभासम्पन्न बना दे । भगवान् शिवके प्रति सब प्रकारसे उत्तम भक्ति करनी चाहिये; क्योंकि वही सब तरहसे आनन्दका विधान करनेवाली है ॥ १५-१६ ॥ सङ्कल्प्यमासनं दिव्यं शङ्करस्य परात्मनः ।
वक्तुश्चापि तथा दिव्यमासनं सुखसाधनम् ॥ १७ ॥ परमात्मा भगवान् शंकरके लिये दिव्य आसनका निर्माण करना चाहिये तथा कथा वाचकके लिये भी एक ऐसा दिव्य आसन बनाना चाहिये, जो उनके लिये सुखद हो सके ॥ १७ ॥ श्रोतॄणां कल्पनीयानि सुस्थलानि यथार्हतः ।
अन्येषां च स्थलान्येव साधारणतया मुने ॥ १८ ॥ हे मुने ! [नियमपूर्वक] कथा सुननेवाले श्रोताओंके लिये भी यथायोग्य सुन्दर स्थानोंकी व्यवस्था करनी चाहिये । अन्य लोगोंके लिये भी सामान्यरूपसे स्थान बनाने चाहिये ॥ १८ ॥ विवाहे यादृशं चित्ते तादृशं कार्यमेव हि ।
अन्या चिन्ता विनिर्वार्य्या सर्वा शौनक लौकिकी ॥ १९ ॥ हे शौनकजी ! विवाहोत्सवमें जैसी उल्लासपूर्ण मनःस्थिति होती है, वैसी ही इस कथोत्सवमें रखनी चाहिये । सब प्रकारकी दूसरी लौकिक चिन्ताओंको भूल जाना चाहिये ॥ १९ ॥ उदङ्मुखो भवेद्वक्ता श्रोता प्राग्वदनस्तथा ।
व्युत्क्रमः पादयोर्ज्ञेयो विरोधो नास्ति कश्चन ॥ २० ॥ अथवा पूर्वदिग्ज्ञेया पूज्यपूजकमध्यतः । अथवा सम्मुखं वक्तुः श्रोतॄणामाननं स्मृतम् ॥ २१ ॥ वक्ता उत्तर दिशाकी ओर मुख करे तथा श्रोतागण पूर्व दिशाकी ओर मुख करके पालथी लगाकर बैठे । इस विषयमें भी कोई विरोध नहीं है कि पूज्य पूजकके बीच पूर्व दिशा रहे अथवा वक्ताके सम्मुख श्रोताओंका मुख रहे-ऐसा कहा गया है । २०-२१ ॥ व्यासासनसमारूढो यदा पौराणिको द्विजः ।
असमाप्तौ प्रसङ्गस्य नमस्कुर्यान्न कस्यचित् ॥ २२ ॥ बालो युवाऽथ वृद्धो वा दरिद्रो वाऽपि दुर्बलः । पुराणज्ञः सदा वन्द्यः पूज्यश्च सुकृतार्थिभिः ॥ २३ ॥ पौराणिक वक्ता व्यासासनपर जबतक विराजमान रहें, तबतक प्रसंग-समाप्तिके पूर्व किसीको नमस्कार नहीं करना चाहिये । पुराणका विद्वान् वक्ता चाहे बालक, युवा, वृद्ध, दरिद्र अथवा दुर्बल-जैसा भी । हो, पुण्य चाहनेवालोंके लिये सदा वन्दनीय और पूज्य होता है ॥ २२-२३ ॥ नीचबुद्धिं न कुर्वीत पुराणज्ञे कदाचन ।
यस्य वक्त्रोद्गता वाणी कामधेनुः शरीरिणाम् ॥ २४ ॥ गुरुवत्सन्ति बहवो जन्मतो गुणतश्च वै । परो गुरुः पुराणज्ञस्तेषां मध्ये विशेषतः ॥ २५ ॥ जिसके मुखसे निकली हुई वाणी देहधारियोंके लिये कामधेनुके समान अभीष्ट फल देनेवाली होती है, उस पुराणवेत्ता वक्ताके प्रति तुच्छबुद्धि कभी नहीं करनी चाहिये । संसारमें जन्म तथा गुणोंके कारण बहुत-से गुरु होते हैं, परंतु उन सबमें पुराणोंका ज्ञाता विद्वान् ही परम गुरु माना गया है । २४-२५ ॥ भवकोटिसहस्रेषु भूत्वा भूत्वाऽवसीदताम् ।
यो ददाति परां मुक्तिं कोऽन्यस्तस्मात्परो गुरुः ॥ २६ ॥ करोड़ों योनियोंमें जन्म ले-लेकर दुःख भोगते हुए प्राणियोंको जो मुक्ति प्रदान करता है, उस [पुराणवक्ता]| से बड़ा दूसरा कौन गुरु हो सकता है ? ॥ २६ ॥ पुराणज्ञः शुचिर्दक्षः शान्तो विजितमत्सरः ।
साधुः कारुण्यवान्वाग्मी वदेत्पुण्यकथामिमाम् ॥ २७ ॥ आसूर्योदयमारभ्य सार्द्धद्विप्रहरान्तकम् । कथा शिवपुराणस्य वाच्या सम्यक् सुधीमता ॥ २८ ॥ पुराणवेत्ता पवित्र, दक्ष, शान्त, ईर्ष्यापर विजय पानेवाला, साधु और दयालु होना चाहिये । ऐसा प्रवचनकुशल विद्वान् इस पुण्यमयी कथाको कहे । सूर्योदयसे आरम्भ करके साढ़े तीन पहरतक उत्तम बुद्धिवाले विद्वान् पुरुषको शिवपुराणकी कथा सम्यक् रीतिसे बाँचनी चाहिये ॥ २७-२८ ॥ ये धूर्ता ये च दुर्वृत्ता ये चान्ये विजिगीषवः ।
तेषां कुटिलवृत्तीनामग्रे नैव वदेत्कथाम् ॥ २९ ॥ न दुर्जनसमाकीर्णे न तु दस्युसमावृते । देशे न धूर्तसदने वदेत्पुण्यकथामिमाम् ॥ ३० ॥ जो धूर्त, दुराचारी तथा दूसरेसे विवाद करनेवाले और प्रपंची लोग हैं, उन कुटिलावृत्तिवाले लोगोंके सामने यह कथा नहीं कहनी चाहिये । दुष्टोंसे भरे तथा डाकुओंसे घिरे प्रदेशमें और धूर्त व्यक्तिके घरमें इस पवित्र कथाको नहीं कहना चाहिये ॥ २९-३० ॥ कथाविरामः कर्तव्यो मध्याह्ने हि मुहूर्त्तकम् ।
मलमूत्रोत्सर्जनार्थं तत्कथाकीर्तनान्नरैः ॥ ३१ ॥ मध्याह्नकालमें दो घड़ीतक कथा बन्द रखनी चाहिये, जिससे कथा-कीर्तनसे अवकाश पाकर लोग शौच आदिसे निवृत्त हो सकें ॥ ३१ ॥ वक्त्रा क्षौरं हि सङ्कार्यं दिनादर्वाग्व्रताप्तये ।
कार्यं सङ्क्षेपतो नित्यकर्म सर्वं प्रयत्नतः ॥ ३२ ॥ वक्तुः पार्श्वे सहायार्थमन्यः स्थाप्यस्तथाविधः । पण्डितः संश्यच्छेत्ता लोकबोधनतत्परः ॥ ३३ ॥ कथा प्रारम्भके दिनसे एक दिन पहले व्रत ग्रहण करनेके लिये वक्ताको क्षौर करा लेना चाहिये । जिन दिनों कथा हो रही हो, उन दिनों प्रयत्नपूर्वक प्रात:कालका सारा नित्यकर्म संक्षेपसे ही कर लेना चाहिये । वक्ताके पास उसकी सहायताके लिये एक दूसरा वैसा ही विद्वान् स्थापित करना चाहिये, जो सब प्रकारके संशयोंको निवृत्त करने में समर्थ और लोगोंको समझानेमें कुशल हो ॥ ३२-३३ ॥ कथाविघ्नविनाशार्थं गणनाथं प्रपूजयेत् ।
कथाधीशं शिवं भकथा पुस्तकं च विशेषतः ॥ ३४ ॥ कथां शिवपुराणस्य शृणुयादादरात्सुधीः । श्रोता सुविधिना शुद्धः शुद्धचित्तः प्रसन्नधीः ॥ ३५ ॥ कथामें आनेवाले विघ्नोंकी निवृत्तिके लिये गणेशजीका पूजन करे । कथाके स्वामी भगवान् शिवकी तथा विशेषतः शिवपुराण ग्रन्थकी भक्तिभावसे पूजा करे । तत्पश्चात् उत्तम बुद्धिवाला श्रोता विधिपूर्वक तन-मनसे शुद्ध एवं प्रसन्नचित्त हो आदरपूर्वक शिवपुराणकी कथा सुने ॥ ३४-३५ ॥ अनेककर्मविभ्रान्तः कामादिषड्विकारवान् ।
स्त्रैणः पाखण्डवादी च वक्ता श्रोता न पुण्यभाक् ॥ ३६ ॥ लोकचिन्तां धनागारपुत्रचिन्तां व्युदस्य च । कथाचित्तः शुद्धमतिः स लभेत् फलमुत्तमम् ॥ ३७ ॥ श्रद्धाभक्तिसमायुक्तो नान्यकार्येषु लालसः । वाग्यताः शुचयोऽव्यग्राः श्रोतारः पुण्यभागिनः ॥ ३८ जो वक्ता और श्रोता अनेक प्रकारके कर्मोंमें भटक रहे हों, काम आदि छ: विकारोंसे युक्त हों, स्त्रीमें आसक्ति रखते हों और पाखण्डपूर्ण बातें कहते हों, वे पुण्यके भागी नहीं होते । जो लौकिक चिन्ता तथा धन, गृह एवं पुत्र आदिकी चिन्ताको छोड़कर कथामें मन लगाये रहता है, उस शुद्धबुद्धि पुरुषको उत्तम फलकी प्राप्ति होती है । श्रद्धा और भक्तिसे युक्त, दूसरे कर्मोंमें मन नहीं लगानेवाले, मौन धारण करनेवाले, पवित्र एवं उद्वेगशून्य श्रोता ही पुण्यके भागी होते हैं ॥ ३६-३८ ॥ अभक्ता ये कथां पुण्यां शृण्वन्तीमां नराधमाः ।
तेषां श्रवणजं नास्ति फलं दुःखं भवे भवे ॥ ३९ ॥ असम्पूज्य पुराणं ये यथाशक्त्या ह्युपायनैः । शृण्वन्तीमां कथां मूढाः स्युर्दरिद्रा न पावनाः ॥ ४० ॥ जो नराधम भक्तिरहित होकर इस पुण्यमयी कथाको सुनते हैं, उन्हें श्रवणका कोई फल नहीं होता और वे जन्म-जन्मान्तरमें क्लेश भोगते ही रहते हैं । यथाशक्ति उपचारोंसे इस पुराणकी पूजा किये बिना जो मूढजन इस कथाको सुनते हैं, वे अपवित्र और दरिद्र होते हैं । ३९-४० ॥ कथायां कथ्यमानायां गच्छन्त्यन्यत्र ये नराः ।
भोगान्तरे प्रणश्यन्ति तेषां दारादिसम्पदः ॥ ४१ ॥ सोष्णीषमस्तका ये च शृण्वन्तीमां कथां नराः । तत्पुत्रश्च प्रजायन्ते पापिनः कुलदूषकाः ॥ ४२ ॥ कथा कहे जाते समय बीच में ही जो लोग उठकर अन्यत्र चले जाते हैं, जन्मान्तरमें उनकी स्त्री आदि सम्पत्तियाँ नष्ट हो जाती हैं । जो पुरुष सिरपर पगड़ी आदि धारण करके इस कथाका श्रवण करते हैं, उनके पापी और कुलकलंकी पुत्र उत्पन्न होते हैं । ४१-४२ ॥ ताम्बूलं भक्षयन्तो ये शृण्वन्तीमां कथां नराः ।
स्वविष्ठां खादयन्त्येतान्नरके यमकिङ्कराः ॥ ४३ ॥ ये च तुङ्गासनारूढाः शृण्वन्तीमां कथां नराः । भुक्त्वा ते नरकान्सर्वांस्ततः काका भवन्ति हि ॥ ४४ ॥ जो पुरुष पान चबाते हुए इस कथाको सुनते हैं, उन्हें नरकमें यमदूत उनकी ही विष्ठा खिलाते हैं । जो लोग ऊँचे आसनपर बैठकर इस कथाका श्रवण करते हैं, वे समस्त नरकोंको भोगकर काकयोनिमें जन्म लेते हैं । ४३-४४ ॥ ये वीराद्यासनारूढाः शृण्वन्तीमां कथां शुभाम् ।
भुक्त्वा ते नरकान् सर्वान्विषवृक्षा भवन्ति वै ॥ ४५ ॥ असम्प्रणम्य वक्तारं कथां शृण्वन्ति ये नराः । भुक्त्वा ते नरकान्सर्वान्भवन्त्यर्जुन पादपाः ॥ ४६ ॥ अनातुराः शयाना ये शृण्वन्तीमां कथां नराः । भुक्त्वा ते नरकान्सर्वान्भवन्त्यजगरादयः ॥ ४७ ॥ वक्तुः समासनारूढा ये शृण्वन्ति कथामिमाम् । गुरुतल्पसमं पापं प्राप्यते नारकैः सदा ॥ ४८ ॥ जो लोग वीरासन आदिसे बैठकर इस शुभ कथाको सुनते हैं, वे अनेकों नरकोंको भोगकर विषवृक्षका जन्म पाते हैं । कथा सुनानेवाले पौराणिकको अच्छी प्रकार प्रणाम किये बिना जो लोग कथा सुनते हैं, वे सभी नरकोंको भोगकर अर्जुनवृक्ष बनते हैं । रोगयुक्त न होनेपर भी जो लोग लेटकर यह कथा सुनते हैं, वे सभी नरकोंको भोगकर अन्तमें अजगर आदि योनियोंमें जन्म लेते हैं । वक्ताके समान ऊंचाईवाले आसनपर बैठकर जो इस कथाका श्रवण करते हैं, उन नारकीय लोगोंको गुरुशय्यापर शयन करने-जैसा पाप लगता है ॥ ४५-४८ ॥ ये निन्दन्ति च वक्तारं कथां चेमां सुपावनीम् ।
भवन्ति शुनका भुक्त्वा दुःखं जन्मशतं हि ते ॥ ४९ ॥ कथायां वर्तमानायां दुर्वादं ये वदन्ति हि । भुक्त्वा ते नरकान्घोरान्भवन्ति गर्दभास्ततः ॥ ५० ॥ कदाचिन्नापि शृण्वन्ति कथामेतां सुपावनीम् । भुक्त्वा ते नरकान् घोरान् भवन्ति वनसूकराः ॥ ५१ ॥ कथायां कीर्त्यमानायां विघ्नं कुर्वन्ति ये खलाः । कोट्यब्दं नरकान् भुक्त्वा भवन्ति ग्रामसूकराः ॥ ५२ ॥ जो इस पवित्र कथा तथा वक्ताकी निन्दा करते हैं, वे सौ जन्मोंतक दुःख भोगकर कुत्तेका जन्म पाते हैं । कथा होते समय बीचमें जो गन्दी बातें बोलते हैं, वे घोर नरक भोगनेके बाद गधेका जन्म पाते हैं । जो कभी भी इस परम पवित्र कथाका श्रवण नहीं करते, वे घोर नरक भोगनेके पश्चात् जंगली सूअरका जन्म लेते हैं । जो दुष्ट कथाके बीचमें विघ्न डालते हैं, वे करोड़ों वर्षोंतक नरकयातनाओंको भोगकर गाँवके सूअरका जन्म पाते हैं ॥ ४९-५२ ॥ एवं विचार्य शुद्धात्मा श्रोता वक्तृसुभक्तिमान् ।
कथाश्रवणहेतोर्हि भवेत्प्रीत्योद्यतः सुधीः ॥ ५३ ॥ इसका विचार करके शुद्ध और प्रेमपूर्ण चित्तसे बुद्धिमान् श्रोताको वक्ताके प्रति भक्तिभाव रखकर कथाश्रवणका प्रयत्न करना चाहिये ॥ ५३ ॥ कथाविघ्नविनाशार्थं गणेशं पूजयेत्पुरा ।
नित्यं सम्पाद्य सङ्क्षेपात् प्रायश्चित्तं समाचरेत ॥ ५४ ॥ नवग्रहांश्च सम्पूज्य सर्वतोभद्रदैवतम् । शिवपूजोक्तविधिना पुस्तकं तत्समर्चयेत् ॥ ५५ ॥ सबसे पहले कथाके विघ्नोंका नाश करनेहेतु गणेशजीकी पूजा करनी चाहिये । अपने नित्यकर्मको संक्षेपमें सम्पन्न करके प्रायश्चित्त करना चाहिये । नवग्रह और सर्वतोभद्र देवताओंका पूजन करके शिवपूजाकी बतायी गयी विधिसे शिवपुराणकी पुस्तकका अर्चन करना चाहिये ॥ ५४-५५ ॥ पूजनान्ते महाभक्त्या करौ बद्ध्वा विनीतकः ।
साक्षाच्छिवस्वरूपस्य पुस्तकस्य स्तुतिं चरेत् ॥ ५६ ॥ श्रीमच्छिवपुराणाख्यः प्रत्यक्षस्त्वं महेश्वरः । श्रवणार्थं स्वीकृतोऽसि सन्तुष्टो भव वै मयि ॥ ५७ ॥ मनोरथो मदीयोऽयं कर्तव्यः सफलस्त्वया । निर्विघ्नेन सुसम्पूर्णं कथाश्रवणमस्तु मे ॥ ५८ ॥ भवाब्धिमग्नं दीनं मां समुद्धर भवार्णवात् । कर्मग्राहगृहीताङ्गो दासोऽहं तव शङ्कर ॥ । ५९ ॥ पूजनके अन्तमें विनम्र होकर बड़ी भक्तिके साथ दोनों हाथ जोड़कर साक्षात् शिवस्वरूपिणी पुस्तककी इस प्रकार स्तुति करनी चाहिये-श्रीशिवपुराणके रूपमें आप प्रत्यक्ष सदाशिव हैं; हमने कथा सुननेके लिये आपको अंगीकार किया है । आप हमपर प्रसन्न हों । मेरा जो मनोवांछित हो, उसे आप कृपापूर्वक सम्पन्न करें । मेरा यह कथाश्रवण निर्विघ्नरूपसे सुसम्पन्न हो । कर्मरूपी ग्राहसे ग्रस्त शरीरवाले मुझ दीनका आप संसारसागरसे उद्धार कीजिये । हे शंकर ! मैं आपका दास हूँ ॥ ५६-५९ ॥ एवं शिवपुराणं हि साक्षाच्छिवस्वरूपकम् ।
स्तुत्वा दीनवचः प्रोच्य वक्तुः पूजां समारभेत् ॥ ६० ॥ शिवपूजोक्तविधिना वक्तारं च समर्चयेत् । सपुष्पवस्त्रभूषाभिर्धूपदीपादिनाऽर्चयेत् ॥ ६१ ॥ तदग्रे शुद्धचित्तेन कर्तव्यो नियमस्तदा । आसमाप्ति यथाशक्त्या धारणीयः सुयत्नतः ॥ ६२ ॥ इस प्रकार साक्षात् शिवस्वरूप इस शिवपुराणकी दीनतापूर्वक स्तुति करके वक्ताकी पूजा आरम्भ करनी चाहिये । शिवपूजाकी बतायी गयी विधिसे पुष्प, वस्त्र, अलंकार, धूप-दीपादिसे वक्ताकी पूजा करे । तदनन्तर शुद्धचित्तसे उनके सामने नियम ग्रहण करे और कथासमाप्तिपर्यन्त यथाशक्ति उसका प्रयत्नपूर्वक पालन करे ॥ ६०-६२ ॥ व्यासरूप प्रबोधाग्र्य शिवशास्त्रविशारद ।
एतत्कथाप्रकाशेन मदज्ञानं विनाशय ॥ ६३ ॥ वरणं पञ्चविप्राणां कार्यं वैकस्य भक्तितः । शिवपञ्चार्णमन्त्रस्य जपः कार्यश्च तैः सदा ॥ ६४ ॥ [तत्पश्चात् कथावाचक व्यासकी प्रार्थना करे-] हे व्यासजीके समान ज्ञानीश्रेष्ठ, शिवशास्त्रके मर्मज्ञ ब्राहाणदेवता ! आप इस कथाके प्रकाशसे मेरे अज्ञानान्धकारको दूर करें । भक्तिपूर्वक पाँच अथवा एक ब्राह्मणका वरण करे और उनके द्वारा शिवपंचाक्षर मन्त्र (नमः शिवाय) का जप कराये ॥ ६३-६४ ॥ इत्युक्तस्ते मुने भक्त्या कथाश्रवणसद्विधिः ।
श्रोतॄणां चैव भक्तानां किमन्यच्छ्रोतुमिच्छसि ॥ ६५ ॥ हे मुने । इस प्रकार मैंने भक्त श्रोताओद्वारा भक्तिपूर्वक कथाश्रवणकी उत्तम विधि आपको बता दी; अब आप और क्या सुनना चाहते हैं ? ॥ ६५ ॥ इति श्रीस्कान्दे महापुराणे शिवपुराणमाहाम्ये
श्रवणविधिवर्णनं नाम षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥ इस प्रकार श्रीस्कन्दमहापुराणके अन्तर्गत शिवपुराणमाहात्म्यमें श्रवणविधिवर्णन नामक छठा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ६ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |