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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥ ॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥
विद्येश्वरसंहिता
॥ दशमोऽध्यायः ॥ ब्रह्मविष्णुभ्यां पंचकृत्यमोंकारमंत्रं चोपदिश्य शिवस्यान्तर्धानम् -
सृष्टि, स्थिति आदि पाँच कृत्योंका प्रतिपादन, प्रणव एवं पंचाक्षर-मन्त्रकी महत्ता, ब्रह्मा-विष्णुद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति तथा उनका अन्तर्धान होना ब्रह्मविष्णू ऊचतुः -
सर्गादिपञ्चकृत्यस्य लक्षणं ब्रूहि नौ प्रभो । ब्रह्मा और विष्णु बोले-हे प्रभो । हम दोनोंको सृष्टि आदि पाँच कृत्योंका लक्षण बताइये ॥ १/२ ॥ शिव उवाच -
मत्कृत्यबोधनं गुह्यं कृपया प्रब्रवीमि वाम् ॥ १ ॥ सृष्टिः स्थितिश्च संहारस्तिरोभावोऽप्यनुग्रहः । पञ्चैव मे जगत्कृत्यं नित्यसिद्धमजाच्युतौ ॥ २ ॥ सर्गः संसारसंरम्भस्तत्प्रतिष्ठा स्थितिर्मता । संहारो मर्दनं तस्य तिरोभावस्तदुत्क्रमः ॥ ३ ॥ तन्मोक्षोऽनुग्रहस्तन्मे कृत्यमेवं हि पञ्चकम् । कृत्यमेतद्वहत्यन्यस्तूष्णीं गोपुरबिंबवत् ॥ ४ ॥ शिवजी बोले-मेरे कृत्योंको समझना अत्यन्त गहन है, तथापि मैं कृपापूर्वक तुम दोनोंको उनके विषयमें बता रहा हूँ । हे ब्रह्मा और अच्युत ! सृष्टि, स्थिति,संहार, तिरोभाव और अनुग्रह-ये पाँच ही मेरे जगत्-सम्बन्धी कार्य हैं, जो नित्यसिद्ध हैं । संसारकी रचनाका जो आरम्भ है, वह सर्ग' है । मुझसे पालित होकर सृष्टिका सुस्थिररूपसे रहना ही उसकी स्थिति' कहा गया है । उसका विनाश ही 'संहार' है । प्राणोंका उत्क्रमण ही 'तिरोभाव' है । इन सबसे छुटकारा मिल जाना ही मेरा 'अनुग्रह' है । इस प्रकार मेरे पाँचकृत्य हैं । इन मेरे कर्तव्योंको चुपचाप अन्य पंचभूतादि वहन करते रहते हैं, जैसे जलमें पड़नेवाले गोपुर-बिम्बमें आवागमन होता रहता है ॥ १-४ ॥ सर्गादि यच्चतुःकृत्यं संसारपरिजृम्भणम् ।
पञ्चमं मुक्तिहेतुर्वै नित्यं मयि च सुस्थिरम् ॥ ५ ॥ तदिदं पञ्चभूतेषु दृश्यते मामकैर्जनैः । सृष्टिर्भूमौ स्थितिस्तोये संहारः पावके तथा ॥ ६ ॥ तिरोभावोऽनिले तद्वदनुग्रह इहाम्बरे । सृज्यते धरया सर्वमद्भिः सर्वं प्रवर्धते ॥ ७ ॥ अर्द्यते तेजसा सर्वं वायुना चापनीयते । व्योम्नाऽनुगृह्यते सर्वं ज्ञेयमेवं हि सूरिभिः ॥ ८ ॥ सृष्टि आदि जो चार कृत्य हैं, वे संसारका विस्तार करनेवाले हैं । पाँचवाँ कृत्य अनुग्रह मोक्षका हेतु है । वह सदा मुझमें ही अचल भावसे स्थिर रहता है । मेरे भक्तजन इन पाँचों कृत्योंको पाँचों भूतोंमें देखते हैं । सृष्टि भूतलमें, स्थिति जलमें, संहार अग्निमें, तिरोभाव वायुमें और अनुग्रह आकाशमें स्थित है । पृथ्वीसे सबकी सृष्टि होती है, जलसे सबकी वृद्धि होती है, आग सबको जला देती है, वायु सबको एक स्थानसे दूसरे स्थानको ले जाती है और आकाश सबको अनुगृहीत करता हैयह विद्वान् पुरुषोंको जानना चाहिये ॥ ५-८ ॥ पञ्चकृत्यमिदं वोढुं ममास्ति मुखपञ्चकम् ।
चतुर्दिक्षु चतुर्वक्त्रं तन्मध्ये पञ्चमं मुखम् ॥ ९ ॥ युवाभ्यां तपसा लब्धमेतत्कृत्यद्वयं सुतौ । सृष्टिस्थित्यभीधं भाग्यं मत्तः प्रीतादतिप्रियम् ॥ १० ॥ तथा रुद्रमहेशाभ्यामन्यत्कृत्यद्वयं परम् । अनुग्रहाख्यं केनापि लब्धुं नैव हि शक्यते ॥ ११ ॥ इन पाँच कृत्योंका भार वहन करनेके लिये ही मेरे पाँच मुख हैं । चार दिशाओंमें चार मुख हैं और इनके बीचमें पाँचवाँ मुख है । हे पुत्रो ! तुम दोनोंने तपस्या करके प्रसन्न हुए मुझ परमेश्वरसे भाग्यवश सृष्टि और स्थिति नामक दो कृत्य प्राप्त किये हैं । ये दोनों तुम्हें बहुत प्रिय हैं । इसी प्रकार मेरे विभूतिस्वरूप रुद्र और महेश्वरने दो अन्य उत्तम कृत्य-संहार और तिरोभाव मुझसे प्राप्त किये हैं, परंतु अनुग्रह नामक कृत्य कोई नहीं पा सकता ॥ ९-११ ॥ तत्सर्वं पौर्विकं कर्म युवाभ्यां कालविस्मृतम् ।
न तद्रुद्रमहेशाभ्यां विस्मृतं कर्म तादृशम् ॥ १२ ॥ रूपे वेशे च कृत्ये च वाहने चासने तथा । आयुधादौ च मत्साम्यमस्माभिस्तत्कृते कृतम् ॥ १३ ॥ उन सभी पहलेके कर्मोको तुम दोनोंने समयानुसार भुला दिया । रुद्र और महेश्वर अपने कर्मोको नहीं भूले हैं, इसलिये मैंने उन्हें अपनी समानता प्रदान की है । वे रूप, वेष, कृत्य, वाहन, आसन और आयुध आदिमें मेरे समान ही हैं ॥ १२-१३ ॥ मद्ध्यानविरहाद्वत्सौ मौढ्यं वामेवमागतम् ।
मज्ज्ञाने सति मैवं स्यान्मानं रूपं महेशवत् ॥ १४ ॥ तस्मान्मज्ज्ञानसिद्ध्यर्थं मन्त्रमोङ्कारनामकम् । इतः परं प्रजपतं मामकं मानभञ्जनम् ॥ १५ ॥ हे पुत्रो ! मेरे ध्यानसे शून्य होनेके कारण तुम दोनोंमें मूढ़ता आ गयी है, मेरा ज्ञान रहनेपर महेशके समान अभिमान और स्वरूप नहीं रहता । इसलिये मेरे ज्ञानकी सिद्धिके लिये मेरे ओंकार नामक मन्त्रका तुम दोनों जप करो, यह अभिमानको दूर करनेवाला है ॥ १४-१५ ॥ उपादिशं निजं मन्त्रमोङ्कारमुरुमङ्गलम् ।
ॐकारो मन्मुखाज्जज्ञे प्रथमं मत्प्रबोधकः ॥ १६ ॥ वाचकोऽयमहं वाच्यो मन्त्रोऽयं हि मदात्मकः । तदनुस्मरणं नित्यं ममानुस्मरणं भवेत् ॥ १७ ॥ पूर्वकालमें मैंने अपने स्वरूपभूत मन्त्रका उपदेश किया है, जो ॐकारके रूपमें प्रसिद्ध है । वह महामंगलकारी मन्त्र है । सबसे पहले मेरे मुखसे ओंकार (ॐ) प्रकट हुआ, जो मेरे स्वरूपका बोध करानेवाला है । ओंकार वाचक है और मैं वाच्य हूँ । यह मन्त्र मेरा स्वरूप ही है । प्रतिदिन ओंकारका निरन्तर स्मरण करनेसे मेरा ही सदा स्मरण होता रहता है ॥ १६-१७ ॥ अकार उत्तरात्पूर्वमुकारः पश्चिमाननात् ।
मकारो दक्षिणमुखाद्बिन्दुः प्राङ्मुखतस्तथा ॥ १८ ॥ नादो मध्यमुखादेवं पञ्चधाऽसौ विजृम्भितः । एकीभूतः पुनस्तद्वदोमित्येकाक्षरोऽभवत् ॥ १९ ॥ नामरूपात्मकं सर्वं वेदभूतकुलद्वयम् । व्याप्तमेतेन मन्त्रेण शिवशक्त्योश्च बोधकः ॥ २० ॥ पहले मेरे उत्तरवर्ती मुखसे अकार, पश्चिम मुखसे उकार, दक्षिण मुखसे मकार, पूर्ववर्ती मुखसे बिन्दु तथा मध्यवर्ती मुखसे नाद उत्पन्न हुआ । इस प्रकार पाँच अवयवोंसे युक्त होकर ओंकारका विस्तार हुआ है । इन सभी अवयवोंसे एकीभूत होकर वह प्रणव ॐ नामक एक अक्षर हो गया । यह नामरूपात्मक सारा जगत् तथा वेद-वर्णित स्त्री-पुरुषवर्गरूप दोनों कुल इस प्रणव-मन्त्रसे व्याप्त हैं । यह मन्त्र शिव और शक्ति दोनोंका बोधक है ॥ १८-२० ॥ अस्मात्पञ्चाक्षरं जज्ञे बोधकं सकलस्य तत् ।
आकारादिक्रमेणैव नकारादि यथाक्रमम् ॥ २१ ॥ अस्मात्पञ्चाक्षराज्जाता मातृकाः पञ्चभेदतः । तस्माच्छिवश्चतुर्वक्त्रात्त्रिपाद्गायत्रिरेव हि ॥ २२ ॥ वेदः सर्वस्ततो जज्ञे ततो वै मन्त्रकोटयः । तत्तन्मन्त्रेण तत्सिद्धिः सर्वसिद्धिरितो भवेत् ॥ २३ ॥ अनेन मन्त्रकन्देन भोगो मोक्षश्च सिद्ध्यति । सकला मन्त्रराजानः साक्षाद्भोगप्रदाः शुभाः ॥ २४ ॥ इसी प्रणवसे पंचाक्षरमन्त्रकी उत्पत्ति हुई है, जो मेरे सकल रूपका बोधक है । वह अकारादि क्रमसे और नकारादि क्रमसे क्रमशः प्रकाशमें आया है । [ॐ नमः शिवाय] इस पंचाक्षरमन्त्रसे मातृकावर्ण प्रकट हुए हैं, जो पाँच भेदवाले हैं । उसीसे शिरोमन्त्र तथा चार मुखोंसे त्रिपदा गायत्रीका प्राकट्य हुआ है । उस गायत्रीसे सम्पूर्ण वेद प्रकट हुए हैं और उन वेदोंसे करोड़ों मन्त्र निकले हैं । उन-उन मन्त्रोंसे भिन्न-भिन्न कार्योंकी सिद्धि होती है, परंतु इस प्रणव एवं पंचाक्षरसे सम्पूर्ण मनोरथोंकी सिद्धि होती है । इस मूलमन्त्रसे भोग और मोक्ष दोनों ही सिद्ध होते हैं । मेरे सकल स्वरूपसे सम्बन्ध रखनेवाले सभी मन्त्रराज साक्षात् भोग प्रदान करनेवाले और शुभकारक हैं ॥ २१-२४ ॥ नन्दिकेश्वर उवाच -
पुनस्तयोस्तत्र तिरः पटं गुरुः प्रकल्प्य मन्त्रं च समादिशत्परम् । निधाय तच्छीर्ष्णि कराम्बुजं शनै- रुदङ्मुखं संस्थितयोः सहाम्बिकः ॥ २५ ॥ नन्दिकेश्वर बोले-तदनन्तर जगदम्बा पार्वतीके साथ बैठे हुए गुरुवर महादेवजीने उत्तराभिमुख बैठे हुए ब्रह्मा और विष्णुको परदा करनेवाले वस्त्रसे आच्छादित करके उनके मस्तकपर अपना करकमल रखकर धीरे-धीरे उच्चारण करके उन्हें उत्तम मन्त्रका उपदेश दिया ॥ २५ ॥ त्रिरुच्चार्याग्रहीन्मन्त्रं यन्त्रतन्त्रोक्तिपूर्वकम् ।
शिष्यौ च तौ दक्षिणायामात्मानं च समर्पयत् ॥ २६ ॥ प्रबद्धहस्तौ किल तौ तदन्तिके तमूचतुर्देववरं जगद्गुरुम् ॥ २७ ॥ यन्त्र-तन्त्रमें बतायी हुई विधिके पालनपूर्वक तीन बार मन्त्रका उच्चारण करके भगवान् शिवने उन दोनों शिष्योंको मन्त्रकी दीक्षा दी । तत्पश्चात् उन शिष्योंने गुरुदक्षिणाके रूपमें अपने-आपको ही समर्पित कर दिया और दोनों हाथ जोड़कर उनके समीप खड़े हो उन देवश्रेष्ठ जगद्गुरुका स्तवन किया ॥ २६-२७ ॥ ब्रह्माच्युतावूचतुः -
नमो निष्कलरूपाय नमो निष्कलतेजसे । नमः सकलनाथाय नमस्ते सकलात्मने ॥ २८ ॥ नमः प्रणववाच्याय नमः प्रणवलिङ्गिने । नमः सृष्ट्यादिकर्त्रे च नमः पञ्चमुखाय ते ॥ २९ ॥ पञ्चब्रह्मस्वरूपाय पञ्चकृत्याय ते नमः । आत्मने ब्रह्मणे तुभ्यमनन्तगुणशक्तये ॥ ३० ॥ सकलाकलरूपाय शम्भवे गुरवे नमः । इति स्तुत्वा गुरुं पद्यैर्ब्रह्माविष्णू च नेमतुः ॥ ३१ ॥ ब्रह्मा और विष्णु बोले-[हे प्रभो !] आप निष्कलरूप हैं; आपको नमस्कार है । आप निष्कल तेजसे प्रकाशित होते हैं; आपको नमस्कार है । आप सबके स्वामी हैं; आपको नमस्कार है । आप सर्वात्माको नमस्कार है अथवा सकल-स्वरूप आप महेश्वरको नमस्कार है । आप प्रणवके वाच्यार्थ हैं; आपको नमस्कार है । |आप प्रणवलिंग-वाले हैं । आपको नमस्कार है । सृष्टि, पालन, संहार, तिरोभाव और अनुग्रह करनेवाले आपको नमस्कार है । आपके पाँच मुख हैं; आपको नमस्कार है । पंचब्रह्मस्वरूप पाँच कृत्यवाले आपको नमस्कार है । आप सबके आत्मा हैं, ब्रह्म हैं, आपके गुण और आपकी शक्तियाँ अनन्त हैं, आपको नमस्कार है । आपके सकल और निष्कल दो रूप हैं । आप सद्गुरु एवं शम्भु हैं, आपको नमस्कार है । इन पद्योंद्वारा अपने गुरु महेश्वरकी स्तुति करके ब्रह्मा और विष्णुने उनके चरणों में प्रणाम किया । २८-३१ ॥ ईश्वर उवाच -
वत्सकौ सर्वतत्त्वं च कथितं दर्शितं च वाम् । जपतं प्रणवं मन्त्रं दिव्यमिष्टं मदात्मकम् ॥ ३२ ॥ ईश्वर बोले-हे वत्सो ! मैंने तुम दोनोंसे सारा तत्त्व कहा और दिखा दिया । तुमदोनों देवीके द्वारा उपदिष्ट प्रणव (ॐ), जो मेरा ही स्वरूप है-का निरन्तर जप करो ॥ ३२ ॥ ज्ञानं च सुस्थिरं भाग्यं सर्वं भवति शाश्वतम् ।
आर्द्रायां च चतुर्दश्यां तज्जप्यं त्वक्षयं भवेत् ॥ ३३ ॥ सूर्यगत्या महार्द्रायामेकं कोटिगुणं भवेत् । मृगशीर्षान्तिमो भागः पुनर्वस्वादिमस्तथा ॥ ३४ ॥ आर्द्रासमः सदा ज्ञेयः पूजाहोमादितर्पणे । दर्शनं तु प्रभाते च प्रातः सङ्गमकालयोः ॥ ३५ ॥ [इसके जपसे] ज्ञान, स्थिर भाग्य-सब कुछ सदाके लिये प्राप्त हो जाता है । आर्द्रा नक्षत्रसे युक्त चतुर्दशीको प्रणवका जप किया जाय तो वह अक्षय फल देनेवाला होता है । सूर्यकी संक्रान्तिसे युक्त महा-आर्द्रा नक्षत्रमें एक बार किया हुआ प्रणवजप कोटिगुने जपका फल देता है । मृगशिरा नक्षत्रका अन्तिम भाग तथा पुनर्वसुका आदिभाग पूजा, होम और तर्पण आदिके लिये सदा आके समान ही होता है-यह जानना चाहिये । मेरा या मेरे लिंगका दर्शन प्रभातकालमें ही प्रातः तथा संगव (मध्याह्नके पूर्व) कालमें करना चाहिये ॥ ३३-३५ ॥ चतुर्दशी तथा ग्राह्या निशीथव्यापिनी भवेत् ।
प्रदोषव्यापिनी चैव परयुक्ता प्रशस्यते ॥ ३६ ॥ लिङ्गवेरं च मे तुल्यं यजतां लिङ्गमुत्तमम् । तस्माल्लिङ्गं परं पूज्यं वेरादपि मुमुक्षुभिः ॥ ३७ ॥ लिङ्गमोङ्कारमन्त्रेण वेरं पञ्चाक्षरेण तु । स्वयमेव हि सद्द्रव्यैः प्रतिष्ठाप्यं परैरपि ॥ ३८ ॥ पूजयेदुपचारैश्च मत्पदं सुलभं भवेत् । इति शास्य तथा शिष्यौ तत्रैवान्तर्हितः शिवः ॥ ३९ ॥ मेरे दर्शन पूजनके लिये चतुर्दशी तिथि निशीथव्यापिनी अथवा प्रदोषव्यापिनी लेनी चाहिये; क्योंकि परवर्तिनी (अमावास्या) तिथिसे संयुक्त चतुर्दशीकी ही प्रशंसा की जाती है । पूजा करनेवालोंके लिये मेरी मूर्ति तथा लिंग दोनों समान हैं, फिर भी मूर्तिकी अपेक्षा लिंगका स्थान श्रेष्ठ है । इसलिये मुमुक्षु पुरुषोंको चाहिये कि वे वेर (मूर्ति)-से भी श्रेष्ठ समझकर लिंगका ही पूजन करें । लिंगका ॐकारमन्त्रसे और वेरका पंचाक्षरमन्त्रसे पूजन करना चाहिये । शिवलिंगकी स्वयं ही स्थापना करके अथवा दूसरोंसे भी स्थापना करवाकर उत्तम द्रव्यमय उपचारोंसे पूजा करनी चाहिये; इससे मेरा पद सुलभ हो जाता है । इस प्रकार उन दोनों शिष्योंको उपदेश देकर भगवान् शिव वहीं अन्तर्धान हो गये ॥ ३६-३९ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे प्रथमायां विद्येश्वरसंहितायां
ओङ्कारोपदेशवर्णनं नाम दशमोऽध्यायः इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत प्रथम विद्येश्वरसंहितामें ओँकारोपदेशका वर्णन नामक दसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १० ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |