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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां द्वितीयः सतीखण्डे

सप्तमोऽध्यायः ॥

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संध्याया अरुन्धतीनामप्राप्तीर्वसिष्ठेन सह विवाहश्च
महर्षि मेधातिथिकी यज्ञाग्निमें सन्ध्याद्वारा शरीरत्याग, पुनः अरुन्धतीके रूपमें यज्ञाग्निसे उत्पत्ति एवं वसिष्ठमनिके साथ उसका विवाह


ब्रह्मोवाच
वरं दत्त्वा मुने तस्मिन् शम्भावन्तर्हिते तदा ।
सन्ध्याऽप्यगच्छत्तत्रैव यत्र मेधातिथिर्मुनिः ॥ १ ॥
ब्रह्माजी बोले-इस प्रकार भगवान् सदाशिव जब सन्ध्याको वर प्रदानकर अन्तर्धान हो गये, तब सन्ध्या वहाँ गयी, जहाँ महर्षि मेधातिथि थे ॥ १ ॥

तत्र शम्भोः प्रसादेन न केनाप्युपलक्षिता ।
सस्मार वर्णिनं तं वै स्वोपदेशकरं तपः ॥ २ ॥
वहाँपर भगवान् सदाशिवकी कृपासे उसे किसीने नहीं देखा । उसने उस समय तपस्याके विषयमें उपदेश करनेवाले उन ब्रह्मचारीका स्मरण किया ॥ २ ॥

वसिष्ठेन पुरा सा तु वर्णी भूत्वा महामुने ।
उपदिष्टा तपश्चर्तुं वचनात्परमेष्ठिनः ॥ ३ ॥
हे महामुने ! वे ब्रह्मचारी वसिष्ठ मुनि ही थे, जो ब्रह्माजीकी आज्ञासे ब्रह्मचारीका रूप धारणकर सन्ध्याको तपस्याके सम्बन्धमें उपदेश करने आये थे ॥ ३ ॥

तमेव कृत्वा मनसा तपश्चर्योपदेशकम् ।
पतित्वेन तदा सन्ध्या ब्राह्मणं ब्रह्मचारिणम् ॥ ४ ॥
समिद्धेग्नौ महायज्ञे मुनिभिर्नोपलक्षिता ।
हृष्टा शम्भुप्रसादेन सा विवेश विधेः सुता ॥ ५ ॥
तपश्चर्याका उपदेश करनेवाले उन्हीं ब्रह्मचारी ब्राह्मण [वसिष्ठ] का पतिरूपसे स्मरण करके वह ब्रह्मपुत्री सन्ध्या प्रसन्नमनसे सदाशिवकी कृपासे मुनियोंद्वारा अलक्षित हो उस महायज्ञकी प्रज्वलित अग्निमें प्रवेश कर गयी ॥ ४-५ ॥

तस्याः पुरोडाशमयं शरीरं तत्क्षणात्ततः ।
दग्धं पुरोडाशगन्धं तस्तार यदलक्षितम् ॥ ६ ॥
उसका समस्त शरीर पुरोडाशके समान तत्क्षण ही जलकर राख हो गया, जिससे अलक्षित रूपसे पुरोडाशका गन्ध चारों ओर फैल गया ॥ ६ ॥

वह्निस्तस्याः शरीरं तु दग्ध्वा सूर्यस्य मण्डलम् ।
शुद्धं प्रवेशयामास शम्भोरेवाज्ञया पुनः ॥ ७ ॥
पुनः सदाशिवकी आज्ञासे अग्निने उसके शुद्ध शरीरको भस्मकर सूर्यमण्डलमें प्रविष्ट करा दिया ॥ ७ ॥

सूर्यो त्र्यर्थं विभज्याथ तच्छरीरं तदा रथे ।
स्वकेशं स्थापयामास प्रीतये पितृदेवयोः ॥ ८ ॥
तदनन्तर सूर्यने उसके शरीरको दो भागोंमें विभक्तकर पितरों एवं देवताओंकी प्रसन्नताके लिये अपने रथमें स्थापित कर लिया ॥ ८ ॥

तदूर्ध्वभागस्तस्यास्तु शरीरस्य मुनीश्वर ।
प्रातःसन्ध्याभवत्सा तु अहोरात्रादिमध्यगा ॥ ९ ॥
हे मुनीश्वर ! उसके शरीरका जो ऊपरका भाग था, वही रात्रि तथा दिनके बीच में होनेवाली प्रातःसन्ध्या हुई ॥ ९ ॥

तच्छेषभागस्तस्यास्तु अहोरात्रान्तमध्यगा ॥
सा सायमभवत् सन्ध्या पितृप्रीतिप्रदा सदा ॥ १ ० ॥
जो उसके शरीरका शेष भाग था, वही दिन तथा रात्रिके बीचमें होनेवाली सायंसन्ध्या हुई, जो सदैव ही पितरोंकी प्रसन्नताका कारण होती है ॥ १० ॥

सूर्योदयात्तु प्रथमं यदा स्यादरुणोदयः ।
प्रातःसन्ध्या तदोदेति देवानां प्रीतिकारिणी ॥ ११ ॥
सूर्योदयके पहले जब अरुणोदय होता है, तब देवताओंको प्रसन्न करनेवाली प्रात:सन्ध्याका उदय होता है ॥ ११ ॥

अस्तंगते ततः सूर्ये शोणपद्मनिभे सदा ।
उदेति सायंसन्ध्यापि पितॄणां मोदकारिणी ॥ १२ ॥
जब लाल कमलके समान सूर्य अस्त हो जाता है, तब पितरोंको प्रसन्न करनेवाली सायंसन्ध्याका उदय होता है ॥ १२ ॥

तस्याः प्राणास्तु मनसा शम्भुनाथ दयालुना ।
दिव्येन तु शरीरेण चक्रिरे हि शरीरिणः ॥ १३ ॥
उसके मनसहित प्राणको परम दयालु शिवने शरीरधारियोंके दिव्य शरीरसे निर्मित किया था ॥ १३ ॥

मुनेर्यज्ञावसाने तु सम्प्राप्ते मुनिना तु सा ।
प्राप्ता पुत्री वह्निमध्ये तप्तकाञ्चनसुप्रभा ॥ १४ ॥
जब मेधातिथिका यज्ञ समाप्त हो रहा था, तब उन्हें देदीप्यमान सुवर्णके समान कान्तिवाली वह कन्या यज्ञाग्निमें प्राप्त हुई ॥ १४ ॥

तां जग्राह तदा पुत्रीं मुनिरामोदसंयुतः ।
यज्ञार्थं तां तु संस्नाप्य निजक्रोडे दधौ मुने ॥ १५ ॥
हे मुने ! महामुनि मेधातिथिने यज्ञसे प्राप्त हुई उस कन्याको बड़ी प्रसन्नतासे ग्रहण किया और उसे स्नान कराकर अपनी गोदमें बिठाया ॥ १५ ॥

अरुन्धती तु तस्यास्तु नाम चक्रे महामुनिः ।
शिष्यैः परिवृतस्तत्र महामोदमवाप ह ॥ १६ ॥
उन्होंने उसका नाम अरुन्धती रखा । [उस कन्याको प्राप्तकर] वे शिष्योंके साथ बड़े ही हर्षित हुए ॥ १६ ॥

न रुणद्धि यतो धर्मं सा कस्मादपि कारणात् ।
अतस्त्रिलोके विदितं नाम सम्प्राप तत्स्वयम् ॥ १७ ॥
उसने किसी भी कारणके उपस्थित होनेपर अपने पातिव्रत्यधर्मका परित्याग नहीं किया, इसलिये त्रिलोकीमें उसने स्वयं यह प्रसिद्ध [अरुन्धती] नाम धारण किया ॥ १७ ॥

यज्ञं समाप्य स मुनिः कृतकृत्यभाव-
     मासाद्य सम्मदयुतस्तनयाप्रलम्भात् ।
तस्मिन्निजाश्रमपदे सह शिष्यवर्गै-
     स्तामेव सततमसौ दयिते सुरर्षे ॥ १८ ॥
[ब्रह्माजी बोले-] हे सुरर्षे ! यज्ञ समाप्त करनेके उपरान्त वे मुनि कन्यारूप सम्पत्तिसे युक्त हो अपने शिष्योसहित अत्यन्त कृतकृत्य होकर अपने उस आश्रममें उसका लालन-पालन करने लगे ॥ १८ ॥

अथ सा ववृधे देवी तस्मिन्मुनिवराश्रमे ।
चन्द्रभागानदीतीरे तापसाऽरण्यसञ्ज्ञके ॥ १९ ॥
उसके बाद वह कन्या चन्द्रभागा नदीके तटपर श्रेष्ठ मुनिके तापसारण्य नामक आत्रममें बढ़ने लगी ॥ १९ ॥

सम्प्राप्ते पञ्चमे वर्षे चन्द्रभागां तदा गुणैः ।
तापसारण्यमपि सा पवित्रमकरोत्सरी ॥ २० ॥
वह सती पाँच वर्षकी अवस्थामें अपने गुणोंसे चन्द्रभागा नदी तथा तापसारण्यको पवित्र करने लगी ॥ २० ॥

विवाहं कारयामासुस्तस्या ब्रह्मसुतेन वै ।
वसिष्ठेन ह्यरुन्धत्या ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः ॥ २१ ॥
ब्रह्मा, विष्णु तथा महेशने ब्रह्मपुत्र बसिष्ठके साथ उस अरुन्धतीका विवाह करवाया ॥ २१ ॥

तद्विवाहे महोत्साहो बभूव सुखवर्द्धनः ।
सर्वे सुराश्च मुनयः सुखमापुः परं मुने ॥ २२ ॥
हे मुने ! उसके विवाहमें सुखदायक महान् उत्सव हुआ, जिससे सभी देवता तथा मुनिगण अत्यन्त प्रसन्न हुए ॥ २२ ॥

ब्रह्मविष्णुमहेशानां करनिःसृततोयतः ।
सप्त नद्यः समुत्पन्नाः शिप्राद्याः सुपवित्रकाः ॥ २३ ॥
[उस विवाहमें] ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश्वरके हाथसे गिरे हुए जलसे शिप्रा आदि सात पवित्र नदियाँ उत्पन्न हुई ॥ २३ ॥

अरुन्धती महासाध्वी साध्वीनां प्रवरोत्तमा ।
वसिष्ठं प्राप्य सा रेजे मेधातिथिसुता मुने ॥ २४ ॥
हे मुने ! साध्वी स्त्रियोंमें सर्वश्रेष्ठ महासाध्वी वह मेधातिथिकी कन्या अरुन्धती वसिष्ठको [पतिरूपमें] प्राप्तकर अत्यन्त शोभित हुई ॥ २४ ॥

यस्याः पुत्राः समुत्पन्नाः श्रेष्ठाः शक्त्यादयः शुभाः ।
वसिष्ठं प्राप्य तं कान्तं संरेजे मुनिसत्तम ॥ २५ ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! उससे शक्ति आदि श्रेष्ठ तथा सुन्दर पुत्र उत्पन्न हुए । इस प्रकार वसिष्ठको पतिरूपमें प्राप्तकर वह शोभा पाने लगी ॥ २५ ॥

एवं सन्ध्याचरित्रं ते कथितं मुनिसत्तम ।
पवित्रं पावनं दिव्यं सर्वकामफलप्रदम् ॥ २६ ॥
हे मुनिसत्तम ! इस प्रकार मैंने सन्ध्याका चरित्र कहा, जो अत्यन्त पवित्र, दिव्य तथा सम्पूर्ण कामनाओंका फल देनेवाला है ॥ २६ ॥

य इदं शृणुयान्नारी पुरुषो वा शुभव्रतः ।
सर्वान्कामानवाप्नोति नात्र कार्या विचारणा ॥ २७ ॥
जो शुभ व्रतवाला पुरुष अथवा नारी इस चरित्रको सुनता है, उसके सभी मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं, इसमें सन्देह नहीं है ॥ २७ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां द्वितीये सतीखण्डे सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके द्वितीय सतीखण्डमें अरुन्धती तथा बसिष्ठके विवाहका वर्णन नामक सातवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ७ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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