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॥ श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः ॥

॥ श्रीवाल्मीकिरामायणम् ॥

बालकाण्डम्

॥ चरुर्दशः सर्गः ॥


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दशरथेनाश्वमेधयज्ञस्य साङ्‍गोपाङ्‍गमनुष्ठानम् -
महाराज दशरथके द्वारा अश्वमेध यज्ञका सांगोपांग अनुष्ठान -


अथ संवत्सरे पूर्णे तस्मिन् प्राप्ते तुरङ्‍गमे ।
सरय्वाश्चोत्तरे तीरे राज्ञो यज्ञोऽभ्यवर्तत ॥ १ ॥
इधर वर्ष पूरा होनेपर यज्ञसम्बन्धी अश्व भूमण्डलमें भ्रमण करके लौट अया । फिर सरयू नदीके उत्तर तटपर राजाका यज्ञ आरम्भ हुआ ॥ १ ॥

ऋष्यश्रृङ्‍गं पुरस्कृत्य कर्म चक्रुर्द्विजर्षभाः ।
अश्वमेधे महायज्ञे राज्ञोऽस्य सुमहात्मनः ॥ २ ॥
महामनस्वी राजा दशरथके उस अश्वमेध नामक महायज्ञमें ऋष्यश्रृंगको आगे करके श्रेष्ठ ब्राह्मण यज्ञसम्बन्धी कर्म करने लगे ॥ २ ॥

कर्म कुर्वन्ति विधिवद् याजका वेदपारगाः ।
यथाविधि यथान्यायं परिक्रामंति शास्त्रतः ॥ ३ ॥
यज्ञ करानेवाले सभी ब्राह्मण वेदोंके पारंगत विद्वान् थे; अत: वे न्याय तथा विधिके अनुसार सब कर्मोंका उचित रीतिसे सम्पादन करते थे और शास्त्रके अनुसार किस क्रमसे किस समय कौन-सी क्रिया करनी चाहिये, इसको स्मरण रखते हुए प्रत्येक कर्ममें प्रवृत्त होते थे ॥ ३ ॥

प्रवर्ग्यं शास्त्रतः कृत्वा तथैवोपसदं द्विजाः ।
चक्रुश्च विधिवत्सर्वं अधिकं कर्म शास्त्रतः ॥ ४ ॥
ब्राह्मणोंने प्रवर्य (अश्वमेधके अंगभूत कर्मविशेष) का शास्त्र (विधि, मीमांसा और कल्पसूत्र) के अनुसार सम्पादन करके उपसद नामक इष्टिविशेषका भी शास्त्रके अनुसार ही अनुष्ठान किया । तत्पश्चात् शास्त्रीय उपदेशसे अधिक जो अतिदेशत: प्राप्त कर्म है, उस सबका भी विधिवत् सम्पादन किया ॥ ४ ॥

अभिपूज्य ततो हृष्टाः सर्वे चक्रुर्यथाविधि ।
प्रातःसवनपूर्वाणि कर्माणि मुनिपुङ्‍गवाः ॥ ५ ॥
तदनन्तर तत्तत् कर्मोंके अंगभूत देवताओंका पूजन करके हर्षमें भरे हुए उन सभी मुनिवरोंने विधिपूर्वक प्रातःसवन आदि (अर्थात् प्रातःसवन, माध्यन्दिनसवन तथा तृतीय सवन) कर्म किये ॥ ५ ॥

ऐंद्रश्च विधिवद् दत्तो राजा चाभिष्टुतोऽनघः ।
माध्यंदिनं च सवनं प्रावर्तत यथाक्रमम् ॥ ६ ॥
इन्द्रदेवताको विधिपूर्वक हविष्यका भाग अर्पित किया गया । पापनिवर्तक राजा सोम (सोमलता) का रस निकाला गया । फिर क्रमश: माध्यन्दिनसवनका कार्य प्रारम्भ हुआ ॥ ६ ॥

तृतीयसवनं चैव राज्ञोऽस्य सुमहात्मनः ।
चक्रुस्ते शास्त्रतो दृष्ट्‍वा तथा ब्राह्मणपुङ्‍गवाः ॥ ७ ॥
तत्पश्चात् उन श्रेष्ठ ब्राह्मणोंने शास्त्रसे देख-भालकर मनस्वी राजा दशरथके तृतीय सवनकर्मका भी विधिवत् सम्पादन किया ॥ ७ ॥

आह्वयान् चक्रिरे तत्र शक्रादीन् विबुधोत्तमान् ।
ऋष्यश्रृङ्‌गादयो मंत्रैः शिक्षाक्षरसमन्वितैः ॥ ८ ॥
ऋष्यश्रृंग आदि महर्षियोंने वहाँ अभ्यासकालमें सीखे गये अक्षरोंसे युक्त—स्वर और वर्णसे सम्पन्न मन्त्रोंद्वारा इन्द्र आदि श्रेष्ठ देवताओंका आवाहन किया ॥ ८ ॥

गीतिभिर्मधुरैः स्निग्धैः मंत्राह्वानैः यथार्हतः ।
होतारो ददुरावाह्य हविर्भागान् दिवौकसाम् ॥ ९ ॥
मधुर एवं मनोरम सामगानके लयमें गाये हुए आह्वान-मन्त्रोंद्वारा देवताओंका आवाहन करके होताओंने उन्हें उनके योग्य हविष्यके भाग समर्पित किये ॥ ९ ॥

न चाहुतमभूत् तत्र स्खलितं वापि किञ्चन ।
दृश्यते ब्रह्मवत् सर्वं क्षेमयुक्तं हि चक्रिरे ॥ १० ॥
उस यज्ञमें कोई अयोग्य अथवा विपरीत आहुति नहीं पड़ी । कहीं कोई भूल नहीं हुई अनजानमें भी कोई कर्म छूटने नहीं पाया; क्योंकि वहाँ सारा कर्म मन्त्रोच्चारण-पूर्वक सम्पन्न होता दिखायी देता था । महर्षियोंने सब कर्म क्षेमयुक्त एवं निर्विघ्न परिपूर्ण किये ॥ १० ॥

न तेष्वहःसु श्रांतो वा क्षुधितो वापि दृश्यते ।
नाविद्वान् ब्राह्मणः कश्चित् नाशतानुचरस्तथा ॥ ११ ॥
यज्ञके दिनोंमें कोई भी ऋत्विज् थका-माँदा या भूखा-प्यासा नहीं दिखायी देता था । उसमें कोई भी ब्राह्मण ऐसा नहीं था, जो विद्वान् न हो अथवा जिसके सौसे कम शिष्य या सेवक रहे हों ॥ ११ ॥

ब्राह्मणा भुञ्जते नित्यं नाथवंतश्च भुञ्जते ।
तापसा भुञ्जते चापि श्रमणाश्चैव भुञ्जते ॥ १२ ॥
उस यज्ञमें प्रतिदिन ब्राह्मण भोजन करते थे (क्षत्रिय और वैश्य भी भोजन पाते थे) तथा शूद्रोंको भी भोजन उपलब्ध होता था । तापस और श्रमण भी भोजन करते थे ॥ १२ ॥

वृद्धाश्च व्याधिताश्चैव स्त्रीबालाश्च तथैव च ।
अनिशं भुञ्जमानानां न तृप्तिः उपलभ्यते ॥ १३ ॥
बूढ़े, रोगी, स्त्रियाँ तथा बच्चे भी यथेष्ट भोजन पाते थे । भोजन इतना स्वादिष्ट होता था कि निरन्तर खाते रहनेपर भी किसीका मन नहीं भरता था ॥ १३ ॥

दीयतां दीयतां अन्नं वासांसि विविधानि च ।
इति सञ्चोदितास्तत्र तथा चक्रुरनेकशः ॥ १४ ॥
'अन्न दो, नाना प्रकारके वस्त्र दो' अधिकारियोंकी ऐसी आज्ञा पाकर कार्यकर्ता लोग बारम्बार वैसा ही करते थे । १४ ॥

अन्नकूटाश्च दृश्यंते बहवः पर्वतोपमाः ।
दिवसे दिवसे तत्र सिद्धस्य विधिवत् तदा ॥ १५ ॥
वहाँ प्रतिदिन विधिवत् पके हुए अन्नके बहुत-से पर्वतों-जैसे ढेर दिखायी देते थे ॥ १५ ॥

नानादेशाद् अनुप्राप्ताः पुरुषाः स्त्रीगणास्तथा ।
अन्नपानैः सुविहिताः तस्मिन् यज्ञे महात्मनः ॥ १६ ॥
महामनस्वी राजा दशरथके उस यज्ञमें नाना देशोंसे आये हुए स्त्री-पुरुष अन्न-पानद्वारा भलीभाँति तृप्त किये गये थे ॥ १६ ॥

अन्नं हि विधिवत् स्वादु प्रशंसंति द्विजर्षभाः ।
अहो तृप्ताः स्म भद्रं त इति शुश्राव राघवः ॥ १७ ॥
श्रेष्ठ ब्राह्मण भोजन विधिवत् बनाया गया है । बहुत स्वादिष्ट है'—ऐसा कहकर अन्नकी प्रशंसा करते थे । भोजन करके उठे हुए लोगोंके मुखसे राजा सदा यही सुनते थे कि 'हमलोग खूब तृप्त हुए । आपका कल्याण हो' ॥ १७ ॥

स्वलङ्‍कृताश्च पुरुषा ब्राह्मणान् पर्यवेषयन् ।
उपासन्ते च तानन्ये सुमृष्टमणिकुण्डलाः ॥ १८ ॥
वस्त्र-आभूषणोंसे अलंकृत हुए पुरुष ब्राह्मणोंको भोजन परोसते थे और उन लोगोंकी जो दूसरे लोग सहायता करते थे, उन्होंने भी विशुद्ध मणिमय कुण्डल धारण कर रखे थे ॥ १८ ॥

कर्मान्तरे तदा विप्रा हेतुवादान् बहूनपि ।
प्राहुः सुवाग्मिनो धीराः परस्परजिगीषया ॥ १९ ॥
एक सवन समाप्त करके दूसरे सवनके आरम्भ होनेसे पूर्व जो अवकाश मिलता था, उसमें उत्तम वक्ता धीर ब्राह्मण एक-दूसरेको जीतनेकी इच्छासे बहुतेरे युक्तिवाद उपस्थित करते हुए शास्त्रार्थ करते थे ॥ १९ ॥

दिवसे दिवसे तत्र संस्तरे कुशला द्विजाः ।
सर्वकर्माणि चक्रुस्ते यथाशास्त्रं प्रचोदिताः ॥ २० ॥
उस यज्ञमें नियुक्त हुए कर्मकुशल ब्राह्मण प्रतिदिन शास्त्रके अनुसार सब कार्योंका सम्पादन करते थे ॥ २० ॥

नाषडङ्‍गविदत्रासीत् नाव्रतो नाबहुश्रुतः ।
सदस्यास्तस्य वै राज्ञो नावादकुशला द्विजः ॥ २१ ॥
राजाके उस यज्ञमें कोई भी सदस्य ऐसा नहीं था, जो व्याकरण आदि छहों अंगोंका ज्ञाता न हो, जिसने ब्रह्मचर्यव्रतका पालन न किया हो तथा जो बहुश्रुत न हो । वहाँ कोई ऐसा द्विज नहीं था, जो वाद-विवादमें कुशल न हो ॥ २१ ॥

प्राप्ते यूपोच्छ्रये तस्मिन् षड्बैल्वाः खादिराः तथा ।
तावन्तो बिल्वसहिताः पर्णिनश्च तथा परे ॥ २२ ॥
जब यूप खड़ा करनेका समय आया, तब बेलकी लकड़ीके छ: यूप गाड़े गये । उतने ही खैरके यूप खड़े किये गये तथा पलाशके भी उतने ही यूप थे, जो बिल्वनिर्मित यूपोंके साथ खड़े किये गये थे ॥ २२ ॥

श्लेष्मातकमयोदिष्टो देवदारुमयस्तथा ।
द्वावेव तत्र विहितौ बाहुव्यस्तपरिग्रहौ ॥ २३ ॥
बहेड़ेके वृक्षका एक यूप अश्वमेध यज्ञके लिये विहित है । देवदारुके बने हुए यूपका भी विधान है; परंतु उसकी संख्या न एक है न छः । देवदारुके दो ही यूप विहित हैं । दोनों बाँहें फैला देनेपर जितनी दूरी होती है, उतनी ही दूरपर वे दोनों स्थापित किये गये थे ॥ २३ ॥

कारिताः सर्व एवैते शास्त्रज्ञैः यज्ञकोविदैः ।
शोभार्थं तस्य यज्ञस्य काञ्चनालङ्‍कृता भवन् ॥ २४ ॥
यज्ञकुशल शास्त्रज्ञ ब्राह्मणोंने ही इन सब यूपोंका निर्माण कराया था । उस यज्ञकी शोभा बढ़ानेके लिये उन सबमें सोना जड़ा गया था ॥ २४ ॥

एकविंशति यूपास्ते एकविंशत्यरत्‍नयः ।
वासोभिः एकविंशद्‌भिः एकैकं समलङ्‍कृताः ॥ २५ ॥
पूर्वोक्त इक्कीस यूप इक्कीस-इक्कीस अरन्ति' (पाँच सौ चार अङ्गुल) ऊँचे बनाये गये थे । उन सबको पृथक्-पृथक् इक्कीस कपड़ोंसे अलंकृत किया गया था ॥ २५ ॥

विन्यस्ता विधिवत्सर्वे शिल्पिभिः सुकृता दृढाः ।
अष्टास्रयः सर्व एव श्लक्ष्णरूपसमन्विताः ॥ २६ ॥
कारीगरोंद्वारा अच्छी तरह बनाये गये वे सभी सुदृढ़ यूप विधिपूर्वक स्थापित किये गये थे । वे सब-के-सब आठ कोणोंसे सुशोभित थे । उनकी आकृति सुन्दर एवं चिकनी थी ॥ २६ ॥

आच्छादितास्ते वासोभिः पुष्पैर्गन्धैश्च पूजिताः ।
सप्तर्षयो दीप्तिमंतो विराजंते यथा दिवि ॥ २७ ॥
उन्हें वस्त्रोंसे ढक दिया गया था और पुष्प-चन्दनसे उनकी पूजा की गयी थी । जैसे आकाशमें तेजस्वी सप्तर्षियोंकी शोभा होती है, उसी प्रकार यज्ञमण्डपमें वे दीप्तिमान् यूप सुशोभित होते थे ॥ २७ ॥

इष्टकाश्च यथान्यायं कारिताश्च प्रमाणतः ।
चितोऽग्निर्ब्राह्मणैस्तत्र कुशलैः शिल्पकर्मणि ॥ २८ ॥
सूत्रग्रन्थों में बताये अनुसार ठीक मापसे ईंटें तैयार करायी गयी थीं । उन ईंटोंके द्वारा यज्ञसम्बन्धी शिल्पिकर्ममें कुशल ब्राह्मणोंने अग्निका चयन किया था ॥ २८ ॥

स चित्यो राजसिंहस्य सञ्चितः कुशलैर्द्विजैः ।
गरुडो रुक्मपक्षो वै त्रिगुणोऽष्टादशात्मकः ॥ २९ ॥
राजसिंह महाराज दशरथके यज्ञमें चयनद्वारा सम्पादित अग्निकी कर्मकाण्डकुशल ब्राह्मणोंद्वारा शास्त्रविधिके अनुसार स्थापना की गयी । उस अग्निकी आकृति दोनों पंख और पुच्छ फैलाकर नीचे देखते हुए पूर्वाभिमुख खड़े हुए गरुड़की-सी प्रतीत होती थी । सोनेकी ईंटोंसे पंखका निर्माण होनेसे उस गरुड़के पंख सुवर्णमय दिखायी देते थे । प्रकृतअवस्थामें चित्य-अग्निके छ: प्रस्तार होते हैं; किंतु अश्वमेध यज्ञमें उसका प्रस्तार तीनगुना हो जाता है । इसलिये वह गरुडाकृति अग्नेि अठारह प्रस्तारोंसे युक्त थी ॥ २९ ॥

नियुक्तास्तत्र पशवः तत्तद् उद्दिश्य दैवतम् ।
उरगाः पक्षिणश्चैव यथाशास्त्रं प्रचोदिताः ॥ ३० ॥
वहाँ पूर्वोक्त यूपोंमें शास्त्रविहित पशु, सर्प और पक्षी विभिन्न देवताओंके उद्देश्यसे बाँधे गये थे ॥ ३० ॥

शामित्रे तु हयस्तत्र तथा जलचराश्च ये ।
ऋषिभिः सर्वमेवैतत् नियुक्तं शास्त्रतस्तदा ॥ ३१ ॥
शामित्र कर्ममें यज्ञिय अश्व तथा कूर्म आदि जलचर जन्तु जो वहाँ लाये गये थे, ऋषियोंने उन सबको शास्त्रविधिके अनुसार पूर्वोक्त यूपोंमें बाँध दिया ॥ ३१ ॥

पशूनां त्रिशतं तत्र यूपेषु नियतं तदा ।
अश्वरत्‍नोत्तमं तत्र राज्ञो दशरथस्य ह ॥ ३२ ॥
उस समय उन यूपोंमें तीन सौ पशु बैंधे हुए थे तथा राजा दशरथका वह उत्तम अश्वरन्त भी वहीं बाँधा गया था ॥ ३२ ॥

कौसल्या तं हयं तत्र परिचर्य समंततः ।
कृपाणैः विससारैनं त्रिभिः परमया मुदा ॥ ३३ ॥
रानी कौसल्याने वहाँ प्रोक्षण आदिके द्वारा सब ओरसे उस अश्वका संस्कार करके बड़ी प्रसन्नताके साथ तीन तलवारोंसे उसका स्पर्श किया ॥ ३३ ॥

पतत्रिणा तदा सार्धं सुस्थितेन च चेतसा ।
अवसद् रजनीमेकां कौसल्या धर्मकाम्यया ॥ ३४ ॥
तदनन्तर कौसल्या देवीने सुस्थिर चित्तसे धर्मपालनकी इच्छा रखकर उस अश्वके निकट एक रात निवास किया ॥ ३४ ॥

होताध्वर्युः तथोद्‍गाता हस्तेन समयोजयन् ।
महिष्या परिवृत्त्याथ वावातामपरां तथा ॥ ३५ ॥
तत्पश्चात् होता, अध्वर्यु और उद्गाताने राजाकी (क्षत्रियजातीय) महिषी 'कौसल्या', (वैश्यजातीय स्त्री) 'वावाता' तथा (शूद्रजातीय स्त्री) परिवृत्ति' इन सबके हाथसे उस अश्वका स्पर्श करायाः ॥ ३५ ॥

पतत्रिणस्तस्य वपां उधृत्य नियतेंद्रियः ।
ऋत्विक् परमसंपन्नः श्रपयामास शास्त्रतः ॥ ३६ ॥
इसके बाद परम चतुर जितेन्द्रिय ऋत्विक्ने विधिपूर्वक अश्वकन्दके गूदेको निकालकर शास्त्रोक्त रीतिसे पकाया ॥ ३६ ॥

धूमगंधं वपायास्तु जिघ्रति स्म नराधिपः ।
यथाकालं यथान्यायं निर्णुदन् पापमात्मनः ॥ ३७ ॥
तत्पश्चात् उस गूदेकी आहुति दी गयी । राजा दशरथने अपने पापको दूर करनेके लिये ठीक समयपर आकर विधिपूर्वक उसके धूएँको गन्धको सूंघा ॥ ३७ ॥

हयस्य यानि चाङ्‍गानि तानि सर्वाणि ब्राह्मणाः ।
अग्नौ प्रास्यंति विधिवत् समंत्राः षोडशर्त्विजः ॥ ३८ ॥
उस अश्वमेध यज्ञके अंगभूत जो-जो हवनीय पदार्थ थे, उन सबको लेकर समस्त सोलह ऋत्विज् ब्राह्मण अग्निमें विधिवत् आहुति देने लगे ॥ ३८ ॥

प्लक्षशाखासु यज्ञानां अन्येषां क्रियते हविः ।
अश्वमेधस्य यज्ञस्य वैतसो भाग इष्यते ॥ ३९ ॥
अश्वमेधके अतिरिक्त अन्य यज्ञोंमें जो हवि दी जाती है, वह पाकरकी शाखाओंमें रखकर दी जाती है; परंतु अश्वमेध यज्ञका हविष्य बेंतकी चटाईमें रखकर देनेका नियम है ॥ ३९ ॥

त्र्यहोऽश्वमेधः सङ्‍ख्यातः कल्पसूत्रेण ब्राह्मणैः ।
चतुष्टोममहस्तस्य प्रथमं परिकल्पितम् ॥ ४० ॥
उक्थ्यं द्वितीयं सङ्‍ख्यातं अतिरात्रं तथोत्तरम् ।
कारितास्तत्र बहवो विहिताः शास्त्रदर्शनात् ॥ ४१ ॥
कल्पसूत्र और ब्राह्मणग्रन्थोंके द्वारा अश्वमेधके तीन सवनीय दिन बताये गये हैं । उनमें से प्रथम दिन जो सवन होता है, उसे चतुष्टोम ('अग्निष्टोम') कहा गया है । द्वितीय दिवस साध्य सवनको 'उक्थ्य' नाम दिया गया है तथा तीसरे दिन जिस सवनका अनुष्ठान होता है, उसे 'अतिरात्र' कहते हैं । उसमें शास्त्रीय दृष्टिसे विहित बहुत-से दूसरेदूसरे क्रतु भी सम्पन्न किये गये ॥ ४०-४१ ॥

ज्योतिष्टोम् आयुषी चैवं अतिरात्रौ विनिर्मितौ ।
अभिजित् विश्वजित् चैवं आप्तोर्यामो महाक्रतुः ॥ ४२ ॥
ज्योतिष्टोम, आयुष्टोम यज्ञ, दो बार अतिरात्र यज्ञ, पाँचवाँ अभिजित, छठा विश्वजित् तथा सातवें-आठवें आप्तोर्याम—ये सब-के-सब महाक्रतु माने गये हैं, जो अश्वमेधके उत्तर कालमें सम्पादित हुए ॥ ४२ ॥

प्राचीं होत्रे ददौ राजा दिशं स्वकुलवर्धनः ।
अध्वर्यवे प्रतीचीं तु ब्रह्मणे दक्षिणां दिशम् ॥ ४३ ॥
अपने कुलकी वृद्धि करनेवाले राजा दशरथने यज्ञ पूर्ण होनेपर होताको दक्षिणारूपमें अयोध्यासे पूर्व दिशाका सारा राज्य सौंप दिया, अध्वर्युको पश्चिम दिशा तथा ब्रह्माको दक्षिण दिशाका राज्य दे दिया ॥ ४३ ॥

उद्‍गात्रे वै तथोदीचीं दक्षिणैषा विनिर्मिता ।
हयमेधे महायज्ञे स्वयंभूविहिते पुरा ॥ ४४ ॥
इसी तरह उदाताको उत्तर दिशाकी सारी भूमि दे दी । पूर्वकालमें भगवान् ब्रह्माजीने जिसका अनुष्ठान किया था, उस अश्वमेध नामक महायज्ञमें ऐसीही दक्षिणाका विधान किया गया है ॥ ४४ ॥

क्रतुं समाप्य तु तथा न्यायतः पुरुषर्षभः ।
ऋत्विग्भ्यो हि ददौ राजा धरां तां कुलवर्धनः ॥ ४५ ॥
इस प्रकार विधिपूर्वक यज्ञ समाप्त करके अपने कुलकी वृद्धि करनेवाले पुरुषशिरोमणि राजा दशरथने ऋत्विजोंको सारी पृथ्वी दान कर दी ॥ ४५ ॥

एवं दत्त्वा प्रहृष्टोऽभूत् श्रीमान् इक्ष्वाकुनंदनः ।
ऋत्विजस्त्वब्रुवन् सर्वे राजानं गतकिल्बिषम् ॥ ४६ ॥
यों दान देकर इक्ष्वाकुकुलनन्दन श्रीमान् महाराज दशरथके हर्षकी सीमा न रही, परंतु समस्त ऋत्विज् उन निष्पाप नरेशसे इस प्रकार बोले- ॥ ४६ ॥

भवानेव महीं कृत्स्नां एको रक्षितुमर्हति ।
न भूम्या कार्यमस्माकं न हि शक्ताः स्म पालने ॥ ४७ ॥
'महाराज ! अकेले आप ही इस सम्पूर्ण पृथ्वीकी रक्षा करनेमें समर्थ हैं । हममें इसके पालनकी शक्ति नहीं है; अत: भूमिसे हमारा कोई प्रयोजन नहीं है ॥ ४७ ॥

रताः स्वाध्यायकरणे वयं नित्यं हि भूमिप ।
निष्क्रयं किञ्चिदेवेह प्रयच्छतु भवानिति ॥ ४८ ॥
'भूमिपाल ! हम तो सदा वेदोंके स्वाध्यायमें ही लगे रहते हैं (इस भूमिका पालन हमसे नहीं हो सकता); अत: आप हमें यहाँ इस भूमिका कुछ निष्क्रय (मूल्य) ही दे दें ॥ ४८ ॥

मणिरत्‍नं सुवर्णं वा गावो यद्वा समुद्यतम् ।
तत्प्रयच्छ नृपश्रेष्ठ धरण्या न प्रयोजनम् ॥ ४९ ॥
'नृपश्रेष्ठ ! मणि, रन्त, सुवर्ण, गौ अथवा जो भी वस्तु यहाँ उपस्थित हो, वही हमें दक्षिणारूपसे दे दीजिये । इस धरतीसे हमें कोई प्रयोजन नहीं है' ॥ ४९ ॥

एवमुक्तो नरपतिः ब्राह्मणैर्वेदपारगैः ।
गवां शतसहस्राणि दश तेभ्यो ददौ नृपः ॥ ५० ॥
दशकोटिं सुवर्णस्य रजतस्य चतुर्गुणम् ।
वेदोंके पारगामी विद्वान् ब्राह्मणोंके ऐसा कहनेपर राजाने उन्हें दस लाख गौएँ प्रदान की । दस करोड़ स्वर्णमुद्रा तथा उससे चौगुनी रजतमुद्रा अर्पित की ॥ ५० १/२ ॥

ऋत्विजस्तु ततः सर्वे प्रददुः सहिता वसु ॥ ५१ ॥
ऋष्यश्रृङ्‍गाय मुनये वसिष्ठाय च धीमते ।
तब उस समस्त ऋत्विजोंने एक साथ होकर वह सारा धन मुनिवर ऋष्यश्रृंग तथा बुद्धिमान् वसिष्ठको सौंप दिया ॥ ५१ १/२ ॥

ततस्ते न्यायतः कृत्वा प्रविभागं द्विजोत्तमाः ॥ ५२ ॥
सुप्रीतमनसः सर्वे प्रत्यूचुर्मुदिता भृशम् ।
तदनन्तर उन दोनों महर्षियोंके सहयोगसे उस धनका न्यायपूर्वक बँटवारा करके वे सभी श्रेष्ठ ब्राह्मण मन-हीमन बड़े प्रसन्न हुए और बोले महाराज ! इस दक्षिणासे हमलोग बहुत संतुष्ट हैं ॥ ५२ १/२ ॥

ततः प्रसर्पकेभ्यस्तु हिरण्यं सुसमाहितः ॥ ५३ ॥
जांबूनदं कोटिसङ्‍ख्यं ब्राह्मणेभ्यो ददौ तदा ।
इसके बाद एकाग्रचित्त होकर राजा दशरथने अभ्यागत ब्राह्मणोंको एक करोड़ जाम्बूनद सुवर्णकी मुद्राएँ बाँटीं ॥ ५३ १/२ ॥

दरिद्राय द्विजायाथ हस्ताभरणमुत्तमम् ॥ ५४ ॥
कस्मैचिद् याचमानाय ददौ राघवनंदनः ।
सारा धन दे देनेके बाद जब कुछ नहीं बच रहा, तब] एक दरिद्र ब्राह्मणने आकर राजासे धनकी याचना की । उस समय उन रघुकुलनन्दन नरेशने उसे अपने हाथका उत्तम आभूषण उतारकर दे दिया ॥ ५४ १/२ ॥

ततः प्रीतेषु विधिवत् द्विजेषु द्विजवत्सलः ॥ ५५ ॥
प्रणामं अकरोत् तेषां हर्षव्याकुलितेन्द्रियः ।
तत्पश्चात् जब सभी ब्राह्मण विधिवत् संतुष्ट हो गये, उस समय उनपर स्नेह रखनेवाले नरेशने उन सबको प्रणाम किया । प्रणाम करते समय उनकी सारी इन्द्रियाँ हर्षसे विह्वल हो रही थीं ॥ ५५ १/२ ॥

तस्याशिषोऽथ विविदा ब्राह्मणैः समुदाहृताः ॥ ५६ ॥
उदारस्य नृवीरस्य धरण्यां पतितस्य च ।
पृथ्वीपर पड़े हुए उन उदार नरवीरको ब्राह्मणोंने नाना प्रकारके आशीर्वाद दिये ॥ ५६ १/२ ॥

ततः प्रीतमना राजा प्राप्य यज्ञं अनुत्तमम् ॥ ५७ ॥
पापापहं स्वर्नयनं दुस्तरं पार्थिवर्षभैः ।
तदनन्तर उस परम उत्तम यज्ञका पुण्यफल पाकर राजा दशरथके मनमें बड़ी प्रसन्नता हुई । वह यज्ञ उनके सब पापोंका नाश करनेवाला तथा उन्हें स्वर्गलोकमें पहुँचानेवाला था । साधारण राजाओंके लिये उस यज्ञको आदिसे अन्ततक पूर्ण कर लेना बहुत ही कठिन था ॥ ५७ १/२ ॥

ततोऽब्रवीद् ऋष्यश्रृङ्‍गं राजा दशरथस्तदा ॥ ५८ ॥
कुलस्य वर्धनं त्वं तु कर्तुमर्हसि सुव्रत ।
यज्ञ समाप्त होनेपर राजा दशरथने ऋष्यश्रृंगसे कहा—'उत्तम व्रतका पालन करनेवाले मुनीश्वर ! अब जो कर्म मेरी कुलपरम्पराको बढ़ानेवाला हो, उसका सम्पादन आपको करना चाहिये ॥ ५८ १/२ ॥

तथेति च स राजानं उवाच द्विजसत्तमः ।
भविष्यन्ति सुता राजन् चत्वारस्ते कुलोद्वहाः ॥ ५९ ॥
तब द्विजश्रेष्ठ ऋष्यश्रृंग 'तथास्तु' कहकर राजासे बोले—'राजन् ! आपके चार पुत्र होंगे, जो इस कुलके भारको वहन करने में समर्थ होंगे' ॥ ५९ ॥

न तस्य वाक्यं मधुरं निशम्य
    प्रणम्य तस्मै प्रयतो नृपेंद्रः ।
जगाम हर्षं परमं महात्मा
    तं ऋष्यश्रृङ्‌गं पुनरप्युवाच ॥ ६० ॥
उनका यह मधुर वचन सुनकर मन और इन्द्रियोंको संयममें रखनेवाले महामना महाराज दशरथ उन्हें प्रणाम करके बड़े हर्षको प्राप्त हुए तथा उन्होंने ऋष्यश्रृंगको पुन: पुत्रप्राप्ति करानेवाले कर्मका अनुष्ठान करनेके लिये प्रेरित किया ॥ ६० ॥

इत्यार्षे श्रीमद् रामायणे वाल्मीकीये
आदिकाव्ये श्रीमद् बालकाण्डे चतुर्दशः सर्गः ॥ १४ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें चौदहवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ १४ ॥



श्रीसीतारामचंद्रार्पणमस्तु


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