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॥ श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः ॥

॥ श्रीवाल्मीकिरामायणम् ॥

बालकाण्डम्

॥ सप्तदशः सर्गः ॥


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ब्रह्मणः प्रेरणया देवादिभिः विभिन्न वानरयूथपतीनां उत्पादनम् -
ब्रह्माजीकी प्रेरणासे देवता आदिके द्वारा विभिन्न वानरयूथपतियोंकी उत्पत्ति -


पुत्रत्वं तु गते विष्णौ राज्ञस्तस्य महात्मनः ।
उवाच देवताः सर्वाः स्वयंभूः भगवानिदम् ॥ १ ॥
जब भगवान् विष्णु महामनस्वी राजा दशरथके पुत्रभावको प्राप्त हो गये, तब भगवान् ब्रह्माजीने सम्पूर्ण देवताओंसे इस प्रकार कहा ॥ १ ॥

सत्यसंधस्य वीरस्य सर्वेषां नो हितैषिणः ।
विष्णोः सहायान् बलिनः सृजध्वं कामरूपिणः ॥ २ ॥
मायाविदश्च शूरांश्च वायुवेगसमान् जवे ।
नयज्ञान् बुद्धिसंपन्नान् विष्णुतुल्यपराक्रमान् ॥ ३ ॥
असंहार्यान् उपायज्ञान् दिव्यसंहननान्वितान् ।
सर्वास्त्रगुणसंपन्नान् अमृत प्राशनानिव ॥ ४ ॥
'देवगण ! भगवान् विष्णु सत्यप्रतिज्ञ, वीर और हम सब लोगोंके हितैषी हैं । तुमलोग उनके सहायकरूपसे ऐसे पुत्रोंकी सृष्टि करो, जो बलवान्, इच्छानुसार रूप धारण करनेमें समर्थ, माया जाननेवाले, शूरवीर, वायुके समान वेगशाली, नीतिज्ञ, बुद्धिमान, विष्णुतुल्य पराक्रमी, किसीसे परास्त न होनेवाले, तरह-तरहके उपायोंके जानकार, दिव्य शरीरधारी तथा अमृतभोजी देवताओंके समान सब प्रकारकी अस्त्रविद्याके गुणोंसे सम्पन्न हों ॥ २-४ ॥

अप्सरस्सु च मुख्यासु गंधर्वीणां तनूषु च ।
यक्षपन्‍नगकन्यासु ऋक्षविद्याधरीषु च ॥ ५ ॥
किन्‍नरीणां ग गात्रेषु वानरीणां तनूषु च ।
सृजध्वं हरिरूपेण पुत्रान् तुल्यपराक्रमान् ॥ ६ ॥
'प्रधान-प्रधान अप्सराओं, गन्धवोंकी स्त्रियों, यक्ष और नागोंकी कन्याओं, रीछोंकी स्त्रियों, विद्याधरियों, किन्नरियों तथा वानरियोंके गर्भसे वानररूपमें अपने ही तुल्य पराक्रमी पुत्र उत्पन्न करो ॥ ५-६ ॥

पूर्वमेव मया सृष्टो जांबवान् ऋक्षपुङ्‍गवः ।
जृंभमाणस्य सहसा मम वक्त्राद् अजायत ॥ ७ ॥
'मैंने पहलेसे ही ऋक्षराज जाम्बवान्की सृष्टि कर रखी है । एक बार मैं अँभाई ले रहा था, उसी समय वह सहसा मेरे मुँहसे प्रकट हो गया' ॥ ७ ॥

ते तथोक्ता भगवता तत् प्रतिश्रुत्य शासनम् ।
जनयां आसुरेवं ते पुत्रान् वानररूपिणः ॥ ८ ॥
भगवान् ब्रह्माके ऐसा कहनेपर देवताओंने उनकी आज्ञा स्वीकार की और वानररूपमें अनेकानेक पुत्र उत्पन्न किये ॥ ८ ॥

ऋषयश्च महात्मानः सिद्धविद्याधरोरगाः ।
चारणाश्च सुतान् वीरान् ससृजुर्वनचारिणः ॥ ९ ॥
महात्मा, ऋषि, सिद्ध, विद्याधर, नाग और चारणोंने भी वनमें विचरनेवाले वानर-भालुओंके रूपमें वीर पुत्रोंको जन्म दिया ॥ ९ ॥

वानरेंद्रं महेंद्राभं इंद्रो वालिनमात्मजम् ।
सुग्रीवं जनयामास तपनस्तपतां वरः ॥ १० ॥
देवराज इन्द्रने वानरराज वालीको पुत्ररूपमें उत्पन्न किया, जो महेन्द्र पर्वतके समान विशालकाय और बलिष्ठ था । तपनेवालोंमें श्रेष्ठ भगवान् सूर्यने सुग्रीवको जन्म दिया ॥ १० ॥

बृहस्पतिस्त्वजनयत् तारं नाम महाकपिम् ।
सर्ववानरमुख्यानां बुद्धिमंतं अनुत्तमम् ॥ ११ ॥
बृहस्पतिने तार नामक महाकाय वानरको उत्पन्न किया, जो समस्त वानर सरदारोंमें परम बुद्धिमान् और श्रेष्ठ था ॥ ११ ॥

धनदस्य सुतः श्रीमान् वानरो गंधमादनः ।
विश्वकर्मा त्वजनयन् नलं नाम महाहरिम् ॥ १२ ॥
तेजस्वी वानर गन्धमादन कुबेरका पुत्र था । विश्वकर्माने नल नामक महान् वानरको जन्म दिया ॥ १२ ॥

पावकस्य सुतः श्रीमान् नीलोऽग्निसदृशप्रभः ।
तेजसा यशसा वीर्याद् अत्यरिच्यत वीर्यवान् ॥ १३ ॥
अग्निके समान तेजस्वी श्रीमान् नील साक्षात् अग्निदेवका ही पुत्र था । वह पराक्रमी वानर तेज, यश और बलवीर्यमें सबसे बढ़कर था ॥ १३ ॥

रूपद्रविणसंपन्नौ अश्विनौ रूपसम्मतौ ।
मैंदं च द्विविदं चैव जनयामासतुः स्वयम् ॥ १४ ॥
रूप-वैभवसे सम्पन्न, सुन्दर रूपवाले दोनों अश्विनीकुमारोंने स्वयं ही मैन्द और द्विविदको जन्म दिया था ॥ १४ ॥

वरुणो जनयामास सुषेणं नाम वानरम् ।
शरभं जनयामास पर्जन्यस्तु महाबलः ॥ १५ ॥
वरुणने सुषेण नामक वानरको उत्पन्न किया और महाबली पर्जन्यने शरभको जन्म दिया ॥ १५ ॥

मारुतस्यौरसः श्रीमान् हनुमान् नाम वानरः ।
वज्रसंहननोपेतो वैनतेयसमो जवे ॥ १६ ॥
हनुमान् नामवाले ऐश्वर्यशाली वानर वायुदेवताके औरस पुत्र थे । उनका शरीर वज्रके समान सुदृढ़ था । वे तेज चलनेमें गरुड़के समान थे ॥ १६ ॥

सर्ववानरमुख्येषु बुद्धीमान् बलवानपि ।
ते सृष्टा बहुसाहस्रा दशग्रीववधोद्यताः ॥ १७ ॥
सभी श्रेष्ठ वानरोंमें वे सबसे अधिक बुद्धिमान और बलवान् थे । इस प्रकार कई हजार वानरोंकी उत्पत्ति हुई । वे सभी रावणका वध करनेके लिये उद्यत रहते थे ॥ १७ ॥

अप्रमेयबला वीरा विक्रांताः कामरूपिणः ।
ते गजाचलसङ्‍काशा वपुष्मंतो महाबलाः ॥ १८ ॥
उनके बलकी कोई सीमा नहीं थी । वे वीर, पराक्रमी और इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले थे । गजराजों और पर्वतोंके समान महाकाय तथा महाबली थे ॥ १८ ॥

ऋक्षवानरगोपुच्छाः क्षिप्रमेवाभि जज्ञिरे ।
यस्य देवस्य यद् रूपं वेषो यश्च पराक्रमः ॥ १९ ॥
अजायत समं तेन तस्य तस्य पृथक् पृथक् ।
गोलाङ्‍गूलेषु चोत्पन्‍नाः किंचित् उन्‍नतविक्रमाः ॥ २० ॥
रीछ, वानर तथा गोलांगूल (लंगूर) जातिके वीर शीघ्र ही उत्पन्न हो गये । जिस देवताका जैसा रूप, वेष और पराक्रम था, उससे उसीके समान पृथक्-पृथक् पुत्र उत्पन्न हुआ । लंगूरोंमें जो देवता उत्पन्न हुए, वे देवावस्थाकी अपेक्षा भी कुछ अधिक पराक्रमी थे । १९-२० ॥

ऋक्षीषु च तथा जाता वानराः किन्नरीषु च ।
देवा महर्षिगंधर्वाः तार्क्ष्ययक्षा यशस्विनः ॥ २१ ॥
नागाः किंपुरुषाश्चैव सिद्धविद्याधरोरगाः ।
बहवो जनयामासुः हृष्टास्तत्र सहस्रशः ॥ २२ ॥
कुछ वानर रीछ जातिकी माताओंसे तथा कुछ किन्नरियोंसे उत्पन्न हुए । देवता, महर्षि, गन्धर्व, गरुड़, यशस्वी यक्ष, नाग, किम्पुरुष, सिद्ध, विद्याधर तथा सर्प जातिके बहुसंख्यक व्यक्तियोंने अत्यन्त हर्षमें भरकर सहस्रों पुत्र उत्पन्न किये ॥ २१-२२ ॥

चारणाश्च सुतान् वीरान् ससृजुर्वनचारिणः ।
वानरान् सुमहाकायान् सर्वान् वै वनचारिणः ॥ २३ ॥
देवताओंका गुण गानेवाले वनवासी चारणोंने बहुत-से वीर, विशालकाय वानरपुत्र उत्पन्न किये । वे सब जंगली फल-मूल खानेवाले थे ॥ २३ ॥

अप्सरस्सु च मुख्यासु तथा विद्याधरीषु च ।
नागकन्यासु च तथा गंधर्वीणां तनूषु च ।
कामरूपबलोपेता यथाकामं विचारिणः ॥ २४ ॥
मुख्य-मुख्य अप्सराओं, विद्याधरियों, नागकन्याओं तथा गन्धर्व-पत्नियोंके गर्भसे भी इच्छानुसार रूप और बलसे युक्त तथा स्वेच्छानुसार सर्वत्र विचरण करने में समर्थ वानरपुत्र उत्पन्न हुए ॥ २४ ॥

सिंहशार्दूलसदृशा दर्पेण च बलेन च ।
शिलाप्रहरणाः सर्वे सर्वे पर्वतयोधिनः ॥ २५ ॥
वे दर्प और बलमें सिंह और व्याघ्रोंके समान थे । पत्थरकी चट्टानोंसे प्रहार करते और पर्वत उठाकर लड़ते थे ॥ २५ ॥

नखदंष्ट्रायुधाः सर्वे सर्वे सर्वास्त्रकोविदाः ।
विचालयेयुः शैलेंद्रान् भेदयेयुः स्थिरान् द्रुमान् ॥ २६ ॥
वे सभी नख और दाँतोंसे भी शस्त्रोंका काम लेते थे । उन सबको सब प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंका ज्ञान था । वे पर्वतोंको भी हिला सकते थे और स्थिरभावसे खड़े हुए वृक्षोंको भी तोड़ डालनेकी शक्ति रखते थे ॥ २६ ॥

क्षोभयेयुश्च वेगेन समुद्रं सरितां पतिम् ।
दारयेयुः क्षितिं पद्‍भ्यां आप्लवेयुर्महार्णवान् ॥ २७ ॥
अपने वेगसे सरिताओंके स्वामी समुद्रको भी क्षुब्ध कर सकते थे । उनमें पैरोंसे पृथ्वीको विदीर्ण कर डालनेकी शक्ति थी । वे महासागरोंको भी लाँघ सकते थे ॥ २७ ॥

नभःस्थलं विशेयुश्च गृह्णीयुरपि तोयदान् ।
गृह्णीयुरपि मातङ्‍गान् मत्तान् प्रव्रजतो वने ॥ २८ ॥
वे चाहें तो आकाशमें घुस जायँ, बादलोंको हाथोंसे पकड़ लें तथा वनमें वेगसे चलते हुए मतवाले गजराजोंको भी बन्दी बना लें ॥ २८ ॥

नर्दमानांश्च नादेन पातयेयुर्विहङ्‍गमान् ।
ईदृशानां प्रसूतानि हरीणां कामरूपिणाम् ॥ २९ ॥
शतं शतसहस्राणि यूथपानां महात्मनाम् ।
ते प्रधानेषु यूथेषु हरीणां हरियूथपाः ॥ ३० ॥
घोर शब्द करते हुए आकाशमें उड़नेवाले पक्षियोंको भी वे अपने सिंहनादसे गिरा सकते थे । ऐसे बलशाली और इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले महाकाय वानर यूथपति करोड़ोंकी संख्यामें उत्पन्न हुए थे । वे वानरोंके प्रधान यूथोंके भी यूथपति थे ॥ २९-३० ॥

बभूवुर्यूथपश्रेष्ठान् वीरांश्चाजनयन् हरीन् ।
अन्ये ऋक्षवतः प्रस्थान् उपतस्थुः सहस्रशः ॥ ३१ ॥
उन यूथपतियोंने भी ऐसे वीर वानरोंको उत्पन्न किया था, जो यूथपोंसे भी श्रेष्ठ थे । वे और ही प्रकारके वानर थे —इन प्राकृत वानरोंसे विलक्षण थे । उनमेंसे सहस्रों वानर-यूथपति ऋक्षवान् पर्वतके शिखरोंपर निवास करने लगे ॥ ३१ ॥

अन्ये नानाविधान् शैलान् काननानि च भेजिरे ।
सूर्यपुत्रं च सुग्रीवं शक्रपुत्रं च वालिनम् ॥ ३२ ॥
भ्रातरौ उपतस्थुस्ते सर्वे च एव हरीयूथपाः ।
नलं नीलं हनूमंतं अन्यांश्च हरियूथपान् ॥ ३३ ॥
ते तार्क्ष्यबलसंपन्‍नाः सर्वे युद्धविशारदाः ।
विचरंतोऽर्दयन् सर्वान् सिंहव्याघ्रमहोरगान् ॥ ३४ ॥
दूसरोंने नाना प्रकारके पर्वतों और जंगलोंका आश्रय लिया । इन्द्रकुमार वाली और सूर्यनन्दन सुग्रीव ये दोनों भाई थे । समस्त वानरयूथपति उन दोनों भाइयोंकी सेवामें उपस्थित रहते थे । इसी प्रकार वे नल-नील, हनुमान् तथा अन्य वानर सरदारोंका आश्रय लेते थे । वे सभी गरुड़के समान बलशाली तथा युद्धकी कलामें निपुण थे । वे वनमें विचरते समय सिंह, व्याघ्र और बड़े-बड़े नाग आदि समस्त वनजन्तुओंको रौंद डालते थे ॥ ३२-३४ ॥

महाबलो महाबाहुः वाली विपुलविक्रमः ।
जुगोप भुजवीर्येण ऋक्षगोपुच्छवानरान् ॥ ३५ ॥
महाबाहु वाली महान् बलसे सम्पन्न तथा विशेष पराक्रमी थे । उन्होंने अपने बाहुबलसे रीछों, लंगूरों तथा अन्य वानरोंकी रक्षा की थी ॥ ३५ ॥

तैरियं पृथिवी शूरैः सपर्वतवनार्णवा ।
कीर्णा विविधसंस्थानैः नानाव्यञ्जन लक्षणैः ॥ ३६ ॥
उन सबके शरीर और पार्थक्यसूचक लक्षण नाना प्रकारके थे । वे शूरवीर वानर पर्वत, वन और समुद्रोंसहित समस्त भूमण्डलमें फैल गये ॥ ३६ ॥

तैर्मेघवृंदाचलकूटसंनिभैः
    महाबलैर्वानरयूथपाधिपैः ।
बभूव भूर्भीमशरीररूपैः
    समावृता रामसहायहेतोः ॥ ३७ ॥
वे वानरयूथपति मेघसमूह तथा पर्वतशिखरके समान विशालकाय थे । उनका बल महान् था । उनके शरीर और रूप भयंकर थे । भगवान् श्रीरामकी सहायताके लिये प्रकट हुए उन वानर वीरोंसे यह सारी पृथ्वी भर गयी थी ॥ ३७ ॥

इत्यार्षे श्रीमद् रामायणे वाल्मीकीये
आदिकाव्ये श्रीमद् बालकाण्डे सप्तदशः सर्गः ॥ १७ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें सत्रहवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ १७ ॥



श्रीसीतारामचंद्रार्पणमस्तु


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