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॥ श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः ॥

॥ श्रीवाल्मीकिरामायणम् ॥

बालकाण्डम्

॥ एकोनविंशः सर्गः ॥


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यज्ञरक्षणाय रामं मे देहीति विश्वामित्रवचः श्रुत्वा दशरथस्य दुःखं मोहश्च -
विश्वामित्रके मुखसे श्रीरामको साथ ले जानेकी माँग सुनकर राजा दशरथका दुःखित एवं मूर्छित होना -


तच्छ्रुत्वा राजसिंहस्य वाक्यं अद्‍भुतविस्तरम् ।
हृष्टरोमा महातेजा विश्वामित्रोऽभ्यभाषत ॥ १ ॥
नृपश्रेष्ठ महाराज दशरथका यह अद्भुत विस्तारसे युक्त वचन सुनकर महातेजस्वी विश्वामित्र पुलकित हो उठे और इस प्रकार बोले ॥ १ ॥

सदृशं राजशार्दूल तवैतद्‍भुवि नान्यतः ।
महावंशप्रसूतस्य वसिष्ठव्यपदेशिनः ॥ २ ॥
राजसिंह ! ये बातें आपके ही योग्य हैं । इस पृथ्वीपर दूसरेके मुखसे ऐसे उदार वचन निकलनेकी सम्भावना नहीं है । क्यों न हो, आप महान् कुलमें उत्पन्न हैं और वसिष्ठ-जैसे ब्रह्मर्षि आपके उपदेशक हैं ॥ २ ॥

यत्तु मे हृद्‍गतं वाक्यं तस्य कार्यस्य निश्चयम् ।
कुरुष्व राजशार्दूल भव सत्यप्रतिश्रवः ॥ ३ ॥
'अच्छा, अब जो बात मेरे हृदयमें है, उसे सुनिये । नृपश्रेष्ठ ! सुनकर उस कार्यको अवश्य पूर्ण करनेका निश्चय कीजिये । आपने मेरा कार्य सिद्ध करनेकी प्रतिज्ञा की है । इस प्रतिज्ञाको सत्य कर दिखाइये ॥ ३ ॥

अहं नियमं आतिष्ठे सिद्ध्यर्थं पुरुषर्षभ ।
तस्य विघ्नकरौ द्वौ तु राक्षसौ कामरूपिणौ ॥ ४ ॥
'पुरुषप्रवर ! मैं सिद्धिके लिये एक नियमका अनुष्ठान करता हूँ । उसमें इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले दो राक्षस विघ्न डाल रहे हैं ॥ ४ ॥

व्रते मे बहुशश्चीर्णे समाप्त्यां राक्षसाविमौ ।
मारीचश्च सुबाहुश्च वीर्यवंतौ सुशिक्षितौ ॥ ५ ॥
'मेरे इस नियमका अधिकांश कार्य पूर्ण हो चुका है । अब उसकी समाप्तिके समय वे दो राक्षस आ धमके हैं । उनके नाम हैं मारीच और सुबाहु । वे दोनों बलवान् और सुशिक्षित हैं ॥ ५ ॥

समांसरुधिरौघेण वेदिं तां अभ्यवर्षताम् ।
अवधूते तथाभूते तस्मिन् नियमनिश्चये ॥ ६ ॥
कृतश्रमो निरुत्साहः तस्माद् देशादपाक्रमे ।
'उन्होंने मेरी यज्ञवेदीपर रक्त और मांसकी वर्षा कर दी है । इस प्रकार उस समाप्तप्राय नियममें विघ्न पड़ जानेके कारण मेरा परिश्रम व्यर्थ गया और मैं उत्साहहीन होकर उस स्थानसे चला आया ॥ ६ १/२ ॥

न च मे क्रोधं उत्स्रष्टुं बुद्धिर्भवति पार्थिव ॥ ७ ॥
'पृथ्वीनाथ ! उनके ऊपर अपने क्रोधका प्रयोग करूँ- उन्हें शाप दे दूं, ऐसा विचार मेरे मनमें नहीं आता है ॥ ७ ॥

तथाभूता हि सा चर्या न शापस्तत्र मुच्यते ।
स्वपुत्रं राजशार्दूल रामं सत्यपराक्रमम् ॥ ८ ॥
काकपक्षधरं शूरं ज्येष्ठं मे दातुमर्हसि ।
'क्योंकि वह नियम ही ऐसा है, जिसको आरम्भ कर देनेपर किसीको शाप नहीं दिया जाता; अत: नृपश्रेष्ठ ! आप अपने काकपच्छधारी, सत्यपराक्रमी, शूरवीर ज्येष्ठ पुत्र श्रीरामको मुझे दे दें ॥ ८ १/२ ॥

शक्तो ह्येष मया गुप्तो दिव्येन स्वेन तेजसा ॥ ९ ॥
राक्षसा ये विकर्तारः तेषामपि विनाशने ।
श्रेयश्चास्मै प्रदास्यामि बहुरूपं न संशयः ॥ १० ॥
ये मुझसे सुरक्षित रहकर अपने दिव्य तेजसे उन विनकारी राक्षसोंका नाश करने में समर्थ हैं । मैं इन्हें अनेक प्रकारका श्रेय प्रदान करूँगा, इसमें संशय नहीं है । ॥ ९-१० ॥

त्रयाणामपि लोकानां येन ख्यातिं गमिष्यति ।
न च तौ राममासाद्य शक्तौ स्थातुं कथञ्चन ॥ ११ ॥
'उस श्रेयको पाकर ये तीनों लोकोंमें विख्यात होंगे । श्रीरामके सामने आकर वे दोनों राक्षस किसी तरह ठहर नहीं सकते ॥ ११ ॥

न च तौ राघवाद् अन्यो हंतुमुत्सहते पुमान् ।
वीर्योत्सिक्तौ हि तौ पापौ कालपाशवशं गतौ ॥ १२ ॥
रामस्य राजशार्दूल न पर्याप्तौ महात्मनः ।
'इन रघुनन्दनके सिवा दूसरा कोई पुरुष उन राक्षसोंको मारनेका साहस नहीं कर सकता । नृपश्रेष्ठ ! अपने बलका घमण्ड रखनेवाले वे दोनों पापी निशाचर कालपाशके अधीन हो गये हैं; अत: महात्मा श्रीरामके सामने नहीं टिक सकते ॥ १२ १/२ ॥

न च पुत्रगतं स्नेहं कर्तुमर्हसि पार्थिव ॥ १३ ॥
अहं ते प्रतिजानामि हतौ तौ विद्धि राक्षसौ ।
भूपाल ! आप पुत्रविषयक स्नेहको सामने न लाइये । मैं आपसे प्रतिज्ञापूर्वक कहता हूँ कि उन दोनों राक्षसोंको इनके हाथसे मरा हुआ ही समझिये ॥ १३ १/२ ॥

अहं वेद्मि महात्मानं रामं सत्यपराक्रमम् ॥ १४ ॥
वसिष्ठोऽपि महातेजा ये चेमे तपसि स्थिताः ।
"सत्यपराक्रमी महात्मा श्रीराम क्या हैं यह मैं जानता हूँ । महातेजस्वी वसिष्ठजी तथा ये अन्य तपस्वी भी जानते हैं ॥ १४ १/२ ॥

यदि ते धर्मलाभं च यशश्च परमं भुवि ॥ १५ ॥
स्थिरमिच्छसि राजेंद्र रामं मे दातुमर्हसि ।
'राजेन्द्र ! यदि आप इस भूमण्डलमें धर्म-लाभ और उत्तम यशको स्थिर रखना चाहते हों तो श्रीरामको मुझे दे दीजिये ॥ १५ १/२ ॥

यद्यभ्यनुज्ञां काकुत्स्थ ददते तव मंत्रिणः ॥ १६ ॥
वसिष्ठप्रमुखाः सर्वे राघवं मे विसर्जय ।
'ककुत्स्थनन्दन ! यदि वसिष्ठ आदि आपके सभी मन्त्री आपको अनुमति दें तो आप श्रीरामको मेरे साथ विदा कर दीजिये ॥ १६ १/२ ॥

अभिप्रेतं असंसक्तं आत्मजं दातुमर्हसि ॥ १७ ॥
दशरात्रं हि यज्ञस्य रामं राजीवलोचनम् ।
'मुझे रामको ले जाना अभीष्ट है । ये भी बड़े होनेके कारण अब आसक्तिरहित हो गये हैं; अत: आप यज्ञके अवशिष्ट दस दिनोंके लिये अपने पुत्र कमलनयन श्रीरामको मुझे दे दीजिये ॥ १७ १/२ ॥

नात्येति कालो यज्ञस्य यथाऽयं मम राघव ॥ १८ ॥
तथा कुरुष्व भद्रं ते मा च शोके मनः कृथाः ।
'रघुनन्दन ! आप ऐसा कीजिये जिससे मेरे यज्ञका समय व्यतीत न हो जाय । आपका कल्याण हो । आप अपने मनको शोक और चिन्तामें न डालिये' ॥ १८ १/२ ॥

इत्येवमुक्त्वा धर्मात्मा धर्मार्थसहितं वचः ॥ १९ ॥
विरराम महातेजा विश्वामित्रो महामुनिः ।
यह धर्म और अर्थसे युक्त वचन कहकर धर्मात्मा, महातेजस्वी, परमबुद्धिमान् विश्वामित्रजी चुप हो गये ॥ ॥ १९ १/२ ॥

स तन्निशम्य राजेंद्रो विश्वामित्रवचः शुभम् ॥ २० ॥
शोकेन महताविष्ट चचाल च मुमोह च ।
विश्वामित्रका यह शुभ वचन सुनकर महाराज दशरथको पुत्र-वियोगकी आशङ्कासे महान् दुःख हुआ । वे उससे पीड़ित हो सहसा काँप उठे और बेहोश हो गये ॥ २० १/२ ॥

लब्धसंज्ञस्तदोत्थाय व्यषीदत भयान्वितः ॥ २१ ॥
इति हृदयमनोविदारणं
    मुनिवचनं तदतीव शुश्रुवान् ।
नरपतिरभवन् महान् महात्मा
    व्यथितमनाः प्रचचाल चासनात् ॥ २२ ॥
थोड़ी देर बाद जब उन्हें होश हुआ, तब वे भयभीत हो विषाद करने लगे । विश्वामित्र मुनिका वचन राजाके हृदय और मनको विदीर्ण करनेवाला था । उसे सुनकर उनके मनमें बड़ी व्यथा हुई । वे महामनस्वी महाराज अपने आसनसे विचलित हो मूर्छित हो गये ॥ २१-२२ ॥

इत्यार्षे श्रीमद् रामायणे वाल्मीकीये
आदिकाव्ये श्रीमद् बालकाण्डे एकोनविंशः सर्गः ॥ १९ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें उन्नीसवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ १९ ॥



श्रीसीतारामचंद्रार्पणमस्तु


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