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॥ श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः ॥

॥ श्रीवाल्मीकिरामायणम् ॥

बालकाण्डम्

॥ एकोनत्रिंशः सर्गः ॥


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विश्वामित्रेण श्रीरामं प्रति सिद्धाश्रमसम्बन्धिपूर्ववृत्तवर्णनम्, ताभ्यां राघवाभ्यां सह स्वाश्रममुपेत्य विश्वामित्रस्य तत्रत्यैर्मुनिभिः पूजनम् -
विश्वामित्रजीका श्रीरामसे सिद्धाश्रमका पूर्ववृत्तान्त बताना और उन दोनों भाइयोंके साथ अपने आश्रमपर पहुँचकर पूजित होना -


अथ तस्याप्रमेयस्य वचनं परिपृच्छतः ।
विश्वामित्रो महातेजा व्याख्यातुं उपचक्रमे ॥ १ ॥
अपरिमित प्रभावशाली भगवान् श्रीरामका वचन सुनकर महातेजस्वी विश्वामित्रने उनके प्रश्नका उत्तर देना आरम्भ किया— ॥ १ ॥

इह राम महाबाहो विष्णुर्देवनमस्कृतः ।
वर्षाणि सुबहूनीह तथा युगशतानि च ॥ २ ॥
तपश्चरणयोगार्थं उवास सुमहातपाः ।
एष पूर्वाश्रमो राम वामनस्य महात्मनः ॥ ३ ॥
'महाबाहु श्रीराम ! पूर्वकालमें यहाँ देववन्दित भगवान् विष्णुने बहुत वर्षों एवं सौ युगोंतक तपस्याके लिये निवास किया था । उन्होंने यहाँ बहुत बड़ी तपस्या की थी । यह स्थान महात्मा वामनका वामन अवतार धारण करनेको उद्यत हुए श्रीविष्णुका अवतार ग्रहणसे पूर्व आश्रम था ॥ ॥ २-३ ॥

सिद्धाश्रम इति ख्यातः सिद्धो ह्यत्र महातपाः ।
एतस्मिन्नेव काले तु राजा वैरोचनिर्बलिः ॥ ४ ॥
निर्जित्य दैवतगणान् सेन्द्रान् सहमरुद्‍गणान् ।
कारयामास तद् राज्यं त्रिषु लोकेषु विश्रुतः ॥ ५ ॥
'इसकी सिद्धाश्रमके नामसे प्रसिद्धि थी; क्योंकि यहाँ महातपस्वी विष्णुको सिद्धि प्राप्त हुई थी । जब वे तपस्या करते थे, उसी समय विरोचनकुमार राजा बलिने इन्द्र और मरुदणोंसहित समस्त देवताओंको पराजित करके उनका राज्य अपने अधिकारमें कर लिया था । वे तीनों लोकोंमें विख्यात हो गये थे ॥ ४-५ ॥

यज्ञं चकार सुमहान् असुरेन्द्रो महाबलः ।
बलेस्तु यजमानस्य देवाः साग्निपुरोगमाः ।
समागम्य स्वयं चैव विष्णुं ऊचुः इहाश्रमे ॥ ६ ॥
'उन महाबली महान् असुरराजने एक यज्ञका आयोजन किया । उधर बलि यज्ञमें लगे हुए थे, इधर अग्नि आदि देवता स्वयं इस आश्रममें पधारकर भगवान् विष्णुसे बोले— ॥ ६ ॥

बलिर्वैरोचनिर्विष्णो यजते यज्ञमुत्तमम् ।
असमाप्तव्रते तस्मिन् स्वकार्यं अभिपद्यताम् ॥ ७ ॥
"सर्वव्यापी परमेश्वर ! विरोचनकुमार बलि एक उत्तम यज्ञका अनुष्ठान कर रहे हैं । उनका वह यज्ञ-सम्बन्धी नियम पूर्ण होनेसे पहले ही हमें अपना कार्य सिद्ध कर लेना चाहिये ॥ ७ ॥

ये चैनं अभिवर्तंते याचितार इतस्ततः ।
यच्च यत्र यथावच्च सर्वं तेभ्यः प्रयच्छति ॥ ८ ॥
"इस समय जो भी याचक इधर-उधरसे आकर उनके यहाँ याचनाके लिये उपस्थित होते हैं, वे गो, भूमि और सुवर्ण आदि सम्पत्तियोंमेंसे जिस वस्तुको भी लेना चाहते हैं, उनको वे सारी वस्तुएँ राजा बलि यथावत्-रूपसे अर्पित करते हैं ॥ ८ ॥

स त्वं सुरहितार्थाय मायायोगं उपाश्रितः ।
वामनत्वं गतो विष्णो कुरु कल्याणमुत्तमम् ॥ ९ ॥
"अत: विष्णो ! आप देवताओंके हितके लिये अपनी योगमायाका आश्रय ले वामनरूप धारण करके उस यज्ञमें जाइये और हमारा उत्तम कल्याण-साधन कीजिये' ॥ ९ ॥

एतस्मिन् अंतरे राम कश्यपोऽग्निसमप्रभः ।
अदित्या सहितो राम दीप्यमान इवौजसा ॥ १० ॥
देवीसहायो भगवान् दिव्यं वर्षसहस्रकम् ।
व्रतं समाप्य वरदं तुष्टाव मधुसूदनम् ॥ ११ ॥
'श्रीराम ! इसी समय अग्निके समान तेजस्वी महर्षि कश्यप धर्मपन्ती अदितिके साथ अपने तेजसे प्रकाशित होते हुए वहाँ आये । वे एक सहस्र दिव्य वर्षांतक चालू रहनेवाले महान् व्रतको अदितिदेवीके साथ ही समाप्त करके आये थे । उन्होंने वरदायक भगवान् मधुसूदनकी इस प्रकार स्तुति की— ॥ १०-११ ॥

तपोमयं तपोराशिं तपोमूर्तिं तपात्मकम् ।
तपसा त्वां सुतप्तेन पश्यामि पुरुषोत्तमम् ॥ १२ ॥
"भगवन् ! आप तपोमय हैं । तपस्याकी राशि हैं । तप आपका स्वरूप है । आप ज्ञानस्वरूप हैं । मैं भलीभाँति तपस्या करके उसके प्रभावसे आप पुरुषोत्तमका दर्शन कर रहा हूँ ॥ १२ ॥

शरीरे तव पश्यामि जगत् सर्वं इदं प्रभो ।
त्वं अनादिः अनिर्देश्यः त्वामहं शरणं गतः ॥ १३ ॥
"प्रभो ! मैं इस सारे जगत्को आपके शरीरमें स्थित देखता हूँ । आप अनादि हैं । देश, काल और वस्तुकी सीमासे परे होनेके कारण आपका इदमित्थंरूपसे निर्देश नहीं किया जा सकता । मैं आपकी शरणमें आया हूँ ॥ १३ ॥

तमुवाच हरिः प्रीतः कश्यपं गतकल्मषम् ।
वरं वरय भद्रं ते वरार्होऽसि मतो मम ॥ १४ ॥
'कश्यपजीके सारे पाप धुल गये थे । भगवान् श्रीहरिने अत्यन्त प्रसन्न होकर उनसे कहा—'महर्षे ! तुम्हारा कल्याण हो । तुम अपनी इच्छाके अनुसार कोई वर माँगो; क्योंकि तुम मेरे विचारसे वर पानेके योग्य हो ॥ १४ ॥

तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य मारीचः कश्यपोऽब्रवीत् ।
अदित्या देवतानां च मम चैवानुयाचितम् ॥ १५ ॥
वरं वरद सुप्रीतो दातुमर्हसि सुव्रत ।
पुत्रत्वं गच्छ भगवन् अदित्या मम चानघ ॥ १६ ॥
'भगवान्का यह वचन सुनकर मरीचिनन्दन कश्यपने कहा—'उत्तम व्रतका पालन करनेवाले वरदायक परमेश्वर ! सम्पूर्ण देवताओंकी, अदितिकी तथा मेरी भी आपसे एक ही बातके लिये बारम्बार याचना है । आप अत्यन्त प्रसन्न होकर मुझे वह एक ही वर प्रदान करें । भगवन् ! निष्पाप नारायणदेव ! आप मेरे और अदितिके पुत्र हो जायें । १५-१६ ॥

भ्राता भव यवीयांस्त्वं शक्रस्यासुरसूदन ।
शोकार्त्तानां तु देवानां साहाय्यं कर्तुमर्हसि ॥ १७ ॥
"असुरसूदन ! आप इन्द्र के छोटे भाई हों और शोकसे पीड़ित हुए इन देवताओंकी सहायता करें ॥ १७ ॥

अयं सिद्धाश्रमो नाम प्रसादात् ते भविष्यति ।
सिद्धे कर्मणि देवेश उत्तिष्ठ भगवन्नितः ॥ १८ ॥
"देवेश्वर ! भगवन् ! आपकी कृपासे यह स्थान सिद्धाश्रमके नामसे विख्यात होगा । अब आपका तपरूप कार्य सिद्ध हो गया है; अत: यहाँसे उठिये' ॥ १८ ॥

अथ विष्णुर्महातेजा अदित्यां समजायत ।
वामनं रूपमास्थाय वैरोचनिं उपागमत् ॥ १९ ॥
'तदनन्तर महातेजस्वी भगवान् विष्णु अदितिदेवीके गर्भसे प्रकट हुए और वामनरूप धारण करके विरोचनकुमार बलिके पास गये ॥ १९ ॥

त्रीन् पदान् अथ भिक्षित्वा प्रतिगृह्य च मेदिनीम् ।
आक्रम्य लोकाँल्लोकार्थी सर्वलोकहिते रतः ॥ २० ॥
महेंद्राय पुनः प्रादान् नियम्य बलिमोजसा ।
त्रैलोक्यं स महातेजाः चक्रे शक्रवशं पुनः ॥ २१ ॥
'सम्पूर्ण लोकोंके हितमें तत्पर रहनेवाले भगवान् विष्णु बलिके अधिकारसे त्रिलोकीका राज्य ले लेना चाहते थे; अत: उन्होंने तीन पग भूमिके लिये याचना करके उनसे भूमिदान ग्रहण किया और तीनों लोकोंको आक्रान्त करके उन्हें पुन: देवराज इन्द्रको लौटा दिया । महातेजस्वी श्रीहरिने अपनी शक्तिसे बलिका निग्रह करके त्रिलोकीको पुन: इन्द्रके अधीन कर दिया ॥ २०-२१ ॥

तेनैव पूर्वमाक्रांत आश्रमः श्रमनाशनः ।
मया तु भक्त्या तस्यैव वामनस्योपभुज्यते ॥ २२ ॥
'उन्हीं भगवान्ने पूर्वकालमें यहाँ निवास किया था; इसलिये यह आश्रम सब प्रकारके श्रम (दु:ख-शोक) का नाश करनेवाला है । उन्हीं भगवान् वामनमें भक्ति होनेके कारण मैं भी इस स्थानको अपने उपयोगमें लाता हूँ ॥ २२ ॥

एनं आश्रमं आयांति राक्षसा विघ्नकारिणः ।
अत्रैव पुरुषव्याघ्र हंतव्या दुष्टचारिणः ॥ २३ ॥
'इसी आश्रमपर मेरे यज्ञमें विघ्न डालनेवाले राक्षस आते हैं । पुरुषसिंह ! यहीं तुम्हें उन दुराचारियोंका वध करना है ॥ २३ ॥

अद्य गच्छामहे राम सिद्धाश्रमं अनुत्तमम् ।
तदाश्रमपदं तात तवाप्येतद् यथा मम ॥ २४ ॥
'श्रीराम ! अब हमलोग उस परम उत्तम सिद्धाश्रममें पहुंच रहे हैं । तात ! वह आश्रम जैसे मेरा है, वैसे ही तुम्हारा भी है' ॥ २४ ॥

इत्युक्त्वा परमप्रीतो गृह्य रामं सलक्ष्मणम् ।
प्रविशन् आश्रमपदं व्यरोचत महामुनिः ।
शशीव गतनीहारः पुनर्वसुसमन्वितः ॥ २५ ॥
ऐसा कहकर महामुनिने बड़े प्रेमसे श्रीराम और लक्ष्मणके हाथ पकड़ लिये और उन दोनोंके साथ आश्रममें प्रवेश किया । उस समय पुनर्वसु नामक दो नक्षत्रोंके बीचमें स्थित तुषाररहित चन्द्रमाकी भाँति उनकी शोभा हुई ॥ २५ ॥

तं दृष्ट्‍वा मुनयः सर्वे सिद्धाश्रमनिवासिनः ।
उत्पत्योत्पत्य सहसा विश्वामित्रं अपूजयन् ॥ २६ ॥
यथार्हं चक्रिरे पूजां विश्वामित्राय धीमते ।
तथैव राजपुत्राभ्यां अकुर्वन् अतिथिक्रियाम् ॥ २७ ॥
विश्वामित्रजीको आया देख सिद्धाश्रममें रहनेवाले सभी तपस्वी उछलते-कूदते हुए सहसा उनके पास आये और सबने मिलकर उन बुद्धिमान् विश्वामित्रजीकी यथोचित पूजा की । इसी प्रकार उन्होंने उन दोनों राजकुमारोंका भी अतिथि-सत्कार किया ॥ २६-२७ ॥

मुहूर्तं अथ विश्रांतौ राजपुत्रौ अरिंदमौ ।
प्राञ्जली मुनिशार्दूलं ऊचतू रघुनंदनौ ॥ २८ ॥
दो घड़ीतक विश्राम करनेके बाद रघुकुलको आनन्द देनेवाले शत्रुदमन राजकुमार श्रीराम और लक्ष्मण हाथ जोड़कर मुनिवर विश्वामित्रसे बोले— ॥ २८ ॥

अद्यैव दीक्षां प्रविश भद्रं ते मुनिपुङ्‍गव ।
सिद्धाश्रमोऽयं सिद्धः स्यात् सत्यमस्तु वचस्तव ॥ २९ ॥
'मुनिश्रेष्ठ ! आप आज ही यज्ञकी दीक्षा ग्रहण करें । आपका कल्याण हो । यह सिद्धाश्रम वास्तवमें यथानाम तथागुण सिद्ध हो और राक्षसोंके वधके विषयमें आपकी कही हुई बात सच्ची हो ॥ २९ ॥

एवमुक्तो महातेजा विश्वामित्रो महामुनिः ।
प्रविवेश ततो दीक्षां नियतो नियतेंद्रियः ॥ ३० ॥
कुमारौ अपि तां रात्रिं उषित्वा सुसमाहितौ ।
प्रभातकाले चोत्थाय पूर्वां संध्यामुपास्य च ॥ ३१ ॥
प्रशुची परमं जाप्यं समाप्य नियमेन च ।
हुताग्निहोत्रं आसीनं विश्वामित्रं अवंदताम् ॥ ३२ ॥
उनके ऐसा कहनेपर महातेजस्वी महर्षि विश्वामित्र जितेन्द्रियभावसे नियमपूर्वक यज्ञकी दीक्षामें प्रविष्ट हुए । वे दोनों राजकुमार भी सावधानीके साथ रात व्यतीत करके सबेरे उठे और स्नान आदिसे शुद्ध हो प्रात:कालकी संध्योपासना तथा नियमपूर्वक सर्वश्रेष्ठ गायत्रीमन्त्रका जप करने लगे । जप पूरा होनेपर उन्होंने अग्निहोत्र करके बैठे हुए विश्वामित्रजीके चरणोंमें वन्दना की ॥ ३०-३२ ॥

इत्यार्षे श्रीमद् रामायणे वाल्मीकीये
आदिकाव्ये श्रीमद् बालकाण्डे एकोनत्रिंशः सर्गः ॥ २९ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें उनतीसवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ २९ ॥



श्रीसीतारामचंद्रार्पणमस्तु


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