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॥ विष्णुपुराणम् ॥ प्रथमः अंशः ॥ द्वितीयोऽध्यायः ॥ पराशर उवाच
अविकाराय शुद्धाय नित्याय परमात्मने । सदैकरूपरूपाय विष्णवे सर्वजिष्णवे ॥ १ ॥ नमो हिरण्यगर्भाय हरये शंकराय च । वासुदेवाय ताराय सर्गस्थित्यन्तकारिणे ॥ २ ॥ श्रीपराशरजी बोले-जो ब्रह्मा, विष्णु और शंकररूपसे जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और संहारके कारण हैं तथा अपने भक्तोंको संसार-सागरसे तारनेवाले हैं, उन विकाररहित, शुद्ध, अविनाशी, परमात्मा, सर्वदा एकरस, सर्वविजयी भगवान् वासुदेव विष्णुको नमस्कार है ॥ १-२ ॥ एकानेकस्वरूपाय स्थूलसूक्ष्मात्मने नमः ।
अव्यक्तव्यक्तरूपाय विष्णवे मुक्तिहेतवे ॥ ३ ॥ जो एक होकर भी नाना रूपवाले हैं, स्थूलसूक्ष्ममय हैं, अव्यक्त (कारण) एवं व्यक्त (कार्य) रूप हैं तथा [अपने अनन्य भक्तोंकी] मुक्तिके कारण हैं, [उन श्रीविष्णुभगवान्को नमस्कार है] ॥ ३ ॥ सर्गस्थितिविनाशानां जगतो यो जगन्मयः ।
मूलभूतो नमस्तस्मै विष्णवे परमात्मने ॥ ४ ॥ जो विश्वरूप प्रभु विश्वकी उत्पत्ति, स्थिति और संहारके मूल-कारण हैं, उन परमात्मा विष्णुभगवान्को नमस्कार है ॥ ४ ॥ आधारभूतं विश्वस्याप्यणीयांसमणीयसाम् ।
प्रणम्य सर्वभूतस्थमच्युतं पुरुषोत्तमम् ॥ ५ ॥ ज्ञानस्वरूपमत्यन्तनिर्मलं परमार्थतः । तमेवार्थस्वरूपेण भ्रान्तिदर्शनतः स्थितम् ॥ ६ ॥ विष्णुं ग्रसिष्णुं विश्वस्य स्थितिसर्गे तथा प्रभुम् । प्रणम्य जगताम् ईशमजमक्षयमव्ययम् ॥ ७ ॥ कथयामि यथापूर्वं दक्षाद्यैर्मुनिसत्तमैः । पृष्टः प्रोवाच भगवानब्जयोनिः पितामहः ॥ ८ ॥ जो विश्वके अधिष्ठान हैं, अतिसूक्ष्मसे भी सूक्ष्म हैं, सर्व प्राणियों में स्थित पुरुषोत्तम और अविनाशी हैं, जो परमार्थतः (वास्तवमें) अति निर्मल ज्ञानस्वरूप हैं, किन्तु अज्ञानवश नाना पदार्थरूपसे प्रतीत होते हैं, तथा जो [कालस्वरूपसे] जगत्की उत्पत्ति और स्थितिमें समर्थ एवं उसका संहार करनेवाले हैं, उन जगदीश्वर, अजन्मा, अक्षय और अव्यय भगवान् विष्णुको प्रणाम करके तुम्हें वह सारा प्रसंग क्रमशः सुनाता हूँ जो दक्ष आदि मुनिश्रेष्ठोंके पूछनेपर पितामह भगवान् ब्रह्माजीने उनसे कहा था ॥ ५-८ ॥ तैश्चोक्तं पुरुकुत्साय भूभुजे नर्मदातटे ।
सारस्वताय तेनापि मम सारस्वतेन च ॥ ९ ॥ वह प्रसंग दक्ष आदि मुनियोंने नर्मदा-तटपर राजा पुरुकुत्सको सुनाया था तथा पुरुकुत्सने सारस्वतसे और सारस्वतने मुझसे कहा था ॥ ९ ॥ परः पराणां परमः परमात्मात्मसंस्थितः ।
रूपवर्णादिनिर्देशविशेषणविवर्जितः ॥ १० ॥ अपक्षयविनाशाभ्यां परिणामर्द्धिजन्मभिः । वर्जितः शक्यते वक्तुं यः सदास्तीति केवलम् ॥ ११ ॥ सर्वत्रासौ समस्तं च वसत्यत्रेति वै यतः । ततः स वासुदेवेति विद्वद्भिः परिपठ्यते ॥ १२ ॥ तद्ब्रह्म परमं नित्यमजमक्षयमव्ययम् । एकस्वरूपं च सदा हेयाभावाच्च निर्मलम् ॥ १३ ॥ 'जो पर (प्रकृति)से भी पर, परमश्रेष्ठ, अन्तरात्मामें स्थित परमात्मा, रूप, वर्ण, नाम और विशेषण आदिसे रहित है; जिसमें जन्म, वृद्धि, परिणाम, क्षय और नाश–इन छ: विकारोंका सर्वथा अभाव है; जिसको सर्वदा केवल 'है' इतना ही कह सकते हैं, तथा जिनके लिये यह प्रसिद्ध है कि 'वे सर्वत्र हैं और उनमें समस्त विश्व बसा हुआ है इसलिये ही विद्वान् जिसको वासुदेव कहते हैं' वही नित्य, अजन्मा, अक्षय, अव्यय, एकरस और हेय गुणोंके अभावके कारण निर्मल परब्रह्म है ॥ १०–१३ ॥ तदेव सर्वमेवैतद्व्यक्ताव्यक्तस्वरूपवत् ।
तथा पुरुषरूपेण कालरूपेण च स्थितम् ॥ १४ ॥ वही इन सब व्यक्त (कार्य) और अव्यक्त (कारण) जगत्के रूपसे, तथा इसके साक्षी पुरुष और महाकारण कालके रूपसे स्थित है ॥ १४ ॥ परस्य ब्रह्मणो रूपं पुरुषः प्रथमं द्विज ।
व्यक्ताव्यक्ते तथैवान्ये रूपे कालस्तथापरम् ॥ १५ ॥ हे द्विज ! परब्रह्मका प्रथम रूप पुरुष है, अव्यक्त (प्रकृति) और व्यक्त (महदादि) उसके अन्य रूप हैं तथा [सबको क्षोभित करनेवाला होनेसे] काल उसका परमरूप है ॥ १५ ॥ प्रधानपुरुषव्यक्तकालानां परमं हि यत् ।
पश्यन्ति सूरयः शुद्धं तद्विष्णोः परमं पदम् ॥ १६ ॥ इस प्रकार जो प्रधान, पुरुष, व्यक्त और कालइन चारोंसे परे है तथा जिसे पण्डितजन ही देख पाते हैं वही भगवान् विष्णुका परमपद है ॥ १६ ॥ प्रधानपुरुषव्यक्तकालास्तु प्रविभागशः ।
रूपाणि स्थितिसर्गान्तव्यक्तिसद्भावहेतवः ॥ १७ ॥ प्रधान, पुरुष, व्यक्त और काल-ये [भगवान् विष्णुके] रूप पृथक्-पृथक् संसारकी उत्पत्ति, पालन और संहारके प्रकाश तथा उत्पादनमें कारण हैं ॥ १७ ॥ व्यक्तं विष्णुस्तथाव्यक्तं पुरुषः काल एव च ।
क्रीडतो बालस्येव चेष्टां तस्य निशामय ॥ १८ ॥ भगवान् विष्णु जो व्यक्त, अव्यक्त, पुरुष और कालरूपसे स्थित होते हैं, इसे उनकी बालवत् क्रीडा ही समझो ॥ १८ ॥ अव्यक्तं कारणं यत्तत्प्रधानमृषिसत्तमैः ।
प्रोच्यते प्रकृतिः सूक्ष्मा नित्या सदसदात्मिका ॥ १९ ॥ उनमेंसे अव्यक्त कारणको, जो सदसद्रूप (कारण-- शक्तिविशिष्ट) और नित्य (सदा एकरस) है, श्रेष्ठ मुनिजन प्रधान तथा सूक्ष्म प्रकृति कहते हैं ॥ १९ ॥ अक्षयं नान्यदाधारममेयमजरं ध्रुवम् ।
शब्दस्पर्शविहीनं तद्रूपादिभिरसंहितम् ॥ २० ॥ वह क्षयरहित है, उसका कोई अन्य आधार भी नहीं है तथा अप्रमेय, अजर, निश्चल शब्द-स्पर्शादिशून्य और रूपादिरहित है ॥ २० ॥ त्रिगुणं तज्जगद्योनिरनादिप्रभवाव्ययम् ।
तेनाग्रे सर्वमेवासीद्व्याप्तं वै प्रलयादनु ॥ २१ ॥ वह त्रिगुणमय और जगत्का कारण है तथा स्वयं अनादि एवं उत्पत्ति और लयसे रहित है । यह सम्पूर्ण प्रपंच प्रलयकालसे लेकर सृष्टिके आदितक उसीसे व्याप्त था ॥ २१ ॥ वेदवादविदो विद्वन् नियता ब्रह्मवादिनः ।
पठन्ति चैतमेवार्थं प्रधानप्रतिपादकम् ॥ २२ ॥ हे विद्वन् ! श्रुतिके मर्मको जाननेवाले, श्रुतिपरायण ब्रह्मवेत्ता महात्मागण इसी अर्थको लक्ष्य करके प्रधानके प्रतिपादक इस (निम्नलिखित) श्लोकको कहा करते हैं- ॥ २२ ॥ नाहो न रात्रिर्न नभो न भूमि-
र्नासीत्तमोज्योतिरभूच्च चान्यत् । श्रोत्रादिबुद्ध्यानुपलभ्यमेकं प्राधानिकं ब्रह्म पुमांस्तदासीत् ॥ २३ ॥ 'उस समय(प्रलयकालमें)न दिन था, न रात्रि थी, न आकाश था, न पृथिवी थी, न अन्धकार था, न प्रकाश था और न इनके अतिरिक्त कुछ और ही था । बस, श्रोत्रादि इन्द्रियों और बुद्धि आदिका अविषय एक प्रधान ब्रह्म और पुरुष ही था' ॥ २३ ॥ विष्णोः स्वरूपात्परतो हि ते द्वे
रूपे प्रधानं पुरुषश्च विप्र । तस्यैव तेऽन्येन धृते वियुक्ते रूपान्तरं तद्द्विज कालसंज्ञम् ॥ २४ ॥ हे विप्र ! विष्णुके परम (उपाधिरहित) स्वरूपसे प्रधान और पुरुष-ये दो रूप हुए; उसी (विष्णु)-के जिस अन्य रूपके द्वारा वे दोनों [सृष्टि और प्रलयकालमें] संयुक्त और वियुक्त होते हैं, उस रूपान्तरका ही नाम 'काल' है ॥ २४ ॥ प्रकृतौ च स्थितं व्यक्तमतीतप्रलये तु यत् ।
तस्मात् प्राकृतसंज्ञोऽयमुच्यते प्रतिसञ्चरः ॥ २५ ॥ बीते हुए प्रलयकालमें यह व्यक्त प्रपंच प्रकृतिमें लीन था, इसलिये प्रपंचके इस प्रलयको प्राकृत प्रलय कहते हैं ॥ २५ ॥ अनादिर्भगवान्कालो नान्तोऽस्य द्विज विद्यते ।
अव्युच्छिन्नास्ततस्त्वेते सर्गस्थित्यन्तसंयमाः ॥ २६ ॥ हे द्विज ! कालरूप भगवान् अनादि हैं, इनका अन्त नहीं है इसलिये संसारकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय भी कभी नहीं रुकते [ वे प्रवाहरूपसे निरन्तर होते रहते हैं ] ॥ २६ ॥ गुणसाम्ये ततस्तस्मिन्पृथक्पुंसि व्यवस्थिते ।
कालस्वरूपं तद्विष्णोर्मैत्रेय परिवर्तते ॥ २७ ॥ हे मैत्रेय ! प्रलयकालमें प्रधान (प्रकृति)-के साम्यावस्थामें स्थित हो जानेपर और पुरुषके प्रकृतिसे पृथक् स्थित हो जानेपर विष्णुभगवान्का कालरूप [ इन दोनोंको धारण करनेके लिये ] प्रवृत्त होता है । ॥ २७ ॥ ततस्तत् परमं ब्रह्म परमात्मा जगन्मयः ।
सर्वगः सर्वभूतेशः सर्वात्मा परमेश्वरः ॥ २८ ॥ प्रधानपुरुषौ चापि प्रविश्यात्मेच्छया हरिः । क्षोभयामास सम्प्राप्ते सर्गकाले व्ययाव्ययौ ॥ २९ ॥ तदनन्तर [ सर्गकाल उपस्थित होनेपर ] उन परब्रह्म परमात्मा विश्वरूप सर्वव्यापी सर्वभूतेश्वर सर्वात्मा परमेश्वरने अपनी इच्छासे विकारी प्रधान और अविकारी पुरुषमें प्रविष्ट होकर उनको क्षोभित किया ॥ २८-२९ ॥ यथा सन्निधिमात्रेण गन्धः क्षोभाय जायते ।
मनसो नोपकर्तृत्वात्तथासौ परमेश्वरः ॥ ३० ॥ जिस प्रकार क्रियाशील न होनेपर भी गन्ध अपनी सन्निधिमात्रसे ही मनको क्षुभित कर देता है उसी प्रकार परमेश्वर अपनी सन्निधिमात्रसे ही प्रधान और पुरुषको प्रेरित करते हैं ॥ ३० ॥ स एव क्षोभको ब्रह्मन् क्षोभ्यश्च पुरुषोत्तमः ।
स सङ्कोचविकासाभ्यां प्रधानत्वेऽपि च स्थितः ॥ ३१ ॥ हे ब्रह्मन् ! वह पुरुषोत्तम ही इनको क्षोभित करनेवाले हैं और वे ही क्षुब्ध होते हैं तथा संकोच (साम्य) और विकास (क्षोभ) युक्त प्रधानरूपसे भी वे ही स्थित हैं ॥ ३१ ॥ विकासाणुस्वरूपैश्च ब्रह्मरूपादिभिस्तथा ।
व्यक्तस्वरूपश्च तथा विष्णुः सर्वेश्वरेश्वरः ॥ ३२ ॥ ब्रह्मादि समस्त ईश्वरोंके ईश्वर वे विष्णु ही समष्टि-व्यष्टिरूप, ब्रह्मादि जीवरूप तथा महत्तत्त्वरूपसे स्थित हैं ॥ ३२ ॥ गुणसाम्यात्ततस्तस्मात्क्षेत्रज्ञाधिष्ठितान्मुने ।
गुणव्यञ्जनसंभूतिः सर्गकाले द्विजोत्तम ॥ ३३ ॥ हे द्विजश्रेष्ठ ! सर्गकालके प्राप्त होनेपर गुणोंकी साम्यावस्थारूप प्रधान जब विष्णुके क्षेत्रज्ञरूपसे अधिष्ठित हुआ तो उससे महत्तत्त्वकी उत्पत्ति हुई ॥ ३३ ॥ प्रधानतत्त्वमुद्भूतं महान्तं तत्समावृणोत् ।
सात्त्विको राजसश्चैव तामसश्च त्रिधा महान् ॥ ३४ ॥ प्रधानतत्त्वेन समं त्वचा बीजमिवावृतम् । वैकारिकस्तैजसश्च भूतादिश्चैव तामसः ॥ ३५ ॥ त्रिविधोऽयमहङ्कारो महत्तत्त्वादजायत । भूतेन्द्रियाणां हेतुस्स त्रिगुणत्वान्महामुने । यथा प्रधानेन महान्महता स तथावृतः ॥ ३६ ॥ उत्पन्न हुए महान्को प्रधानतत्त्वने आवृत किया; महत्तत्त्व सात्त्विक, राजस और तामस भेदसे तीन प्रकारका है । किन्तु जिस प्रकार बीज छिलकेसे समभावसे ढंका रहता है वैसे ही यह त्रिविध महत्तत्त्व प्रधान-तत्त्वसे सब ओर व्याप्त है । फिर त्रिविध महत्तत्त्वसे ही वैकारिक (सात्त्विक) तैजस (राजस) और तामस भूतादि तीन प्रकारका अहंकार उत्पन्न हुआ । हे महामुने ! वह त्रिगुणात्मक होनेसे भूत और इन्द्रिय आदिका कारण है और प्रधानसे जैसे महत्तत्त्व व्याप्त है, वैसे ही महत्तत्त्वसे वह (अहंकार) व्याप्त है ॥ ३४-३६ ॥ भूतादिस्तु विकुर्वाणः शब्दतन्मात्रकं ततः ।
ससर्ज शब्दतन्मात्रादाकाशं शब्दलक्षणम् ॥ ३७ ॥ भूतादि नामक तामस अहंकारने विकृत होकर शब्द-तन्मात्रा और उससे शब्द-गुणवाले आकाशकी रचना की ॥ ३७ ॥ शब्दमात्रं तथाकाशं भूतादिः स समावृणोत् ।
आकाशस्तु विकुर्वाणः स्पर्शमात्रं ससर्ज ह ॥ ३८ ॥ उस भूतादि तामस अहंकारने शब्दतन्मात्रारूप आकाशको व्याप्त किया । फिर [शब्दतन्मात्रारूप] आकाशने विकृत होकर स्पर्श-तन्मात्राको रचा ॥ ३८ ॥ बलवानभवद्वायुस्तस्य स्पर्शो गुणो मतः ।
आकाशं शब्दमात्रं तु स्पर्शमात्रं समावृणोत् ॥ ३९ ॥ उस (स्पर्श-तन्मात्रा)-से बलवान् वायु हुआ, उसका गुण स्पर्श माना गया है । शब्द-तन्मात्रारूप आकाशने स्पर्श-तन्मात्रावाले वायुको आवत किया है ॥ ३९ ॥ ततो वायुर्विकुर्वाणो रूपमात्रं ससर्ज ह ।
ज्योतिर् उत्पद्यते वायोस्तद्रूपगुणमुच्यते ॥ ४० ॥ फिर [स्पर्श-तन्मात्रारूप] वायुने विकृत होकर रूप-तन्मात्राकी सृष्टि की । (रूप-तन्मात्रायुक्त) वायुसे तेज उत्पन्न हुआ है, उसका गुण रूप कहा जाता है ॥ ४० ॥ स्पर्शमात्रं तु वै वायू रूपमात्रं समावृणोत् ।
ज्योतिश्चापि विकुर्वाणं रसमात्रं ससर्ज ह ॥ ४१ ॥ स्पर्श-तन्मात्रारूप वायुने रूप-तन्मात्रावाले तेजको आवृत किया । फिर [रूप-तन्मात्रामय] तेजने भी विकृत होकर रस-तन्मात्राकी रचना की ॥ ४१ ॥ संभवन्ति ततोऽम्भांसि रसाधाराणि तानि च ।
रसमात्राणि चाम्भांसि रूपमात्रं समावृणोत् ॥ ४२ ॥ उस (रस-तन्मात्रारूप)-से रस-गुणवाला जल हुआ । रस-तन्मात्रावाले जलको रूप-तन्मात्रामय तेजने आवृत किया ॥ ४२ ॥ विकुर्वाणानि चाम्भांसि गन्धमात्रं ससर्जिरे ।
संघातो जायते तस्मात्तस्य गन्धो गुणो मतः ॥ ४३ ॥ [रस-तन्मात्रारूप] जलने विकारको प्राप्त होकर गन्ध-तन्मात्राकी सृष्टि की, उससे पृथिवी उत्पन्न हुई है जिसका गुण गन्ध माना जाता है ॥ ४३ ॥ तस्मिंस्तस्मिंस्तु तन्मात्रा तेन तन्मात्रता स्मृता ॥ ४४ ॥
उन-उन आकाशादि भूतोंमें तन्मात्रा है [अर्थात् केवल उनके गुण शब्दादि ही हैं, इसलिये वे तन्मात्रा (गुणरूप) ही कहे गये हैं ॥ ४४ ॥ तन्मात्राण्यविशेषाणि अविशेषास्ततो हि ते ॥ ४५ ॥
तन्मात्राओंमें विशेष भाव नहीं है इसलिये उनकी अविशेष संज्ञा है ॥ ४५ ॥ न शान्ता नापि घोरास्ते न मूढाश्चाविशेषिणः ।
भूततन्मात्रसर्गोऽयमहङ्कारात्तु तामसात् ॥ ४६ ॥ वे अविशेष तन्मात्राएँ शान्त, घोर अथवा मूढ़ नहीं हैं [अर्थात् उनका सुख-दुःख या मोहरूपसे अनुभव नहीं हो सकता] इस प्रकार तामस अहंकारसे यह भूत-तन्मात्रारूप सर्ग हुआ है ॥ ४६ ॥ तैजसानीन्द्रियाण्याहुर्देवा वैकारिका दश ।
एकादशं मनश्चात्र देवा वैकारिकाः स्मृताः ॥ ४७ ॥ दस इन्द्रियाँ तैजस अर्थात् राजस अहंकारसे और उनके अधिष्ठाता देवता वैकारिक अर्थात् सात्त्विक अहंकारसे उत्पन्न हुए कहे जाते हैं । इस प्रकार इन्द्रियोंके अधिष्ठाता दस देवता और ग्यारहवाँ मन वैकारिक (सात्त्विक) हैं ॥ ४७ ॥ त्वक् चक्षुर्नासिका जिह्वा श्रोत्रमत्र च पञ्चमम् ।
शब्दादीनामवाप्त्यर्थं बुद्धियुक्तानि वै द्विज ॥ ४८ ॥ हे द्विज ! त्वक्, चक्षु, नासिका, जिह्वा और श्रोत्रये पाँचों बुद्धिकी सहायतासे शब्दादि विषयोंको ग्रहण करनेवाली पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं ॥ ४८ ॥ पायूपस्थौ करौ पादौ वाक् च मैत्रेय पञ्चमी ।
विसर्गशिल्पगत्युक्ति कर्म तेषां च कथ्यते ॥ ४९ ॥ हे मैत्रेय ! पायु (गुदा), उपस्थ (लिंग), हस्त, पाद और वाक्-ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं । इनके कर्म [मल-मूत्रका] त्याग, शिल्प, गति और वचन बतलाये जाते हैं ॥ ४९ ॥ आकाशवायुतेजांसि सलिलं पृथिवी तथा ।
शब्दादिभिर्गुणैर्ब्रह्मन्संयुक्तान्युत्तरोत्तरैः ॥ ५० ॥ आकाश, वायु, तेज, जल और पृथिवी-ये पाँचों भूत उत्तरोत्तर (क्रमश:) शब्दस्पर्श आदि पाँच गुणोंसे युक्त हैं ॥ ५० ॥ शान्ता घोराश्च मूढाश्च विशेषास्तेन ते स्मृताः ॥ ५१ ॥
ये पाँचों भूत शान्त घोर और मूढ हैं [अर्थात् सुख, दुःख और मोहयुक्त हैं] अतः ये विशेष कहलाते हैं ॥ ५१ ॥ नानावीर्याः पृथग्भूतास्ततस्ते संहतिं विना ।
नाशक्नुवन्प्रजाः स्रष्टुमसमागम्य कृत्स्नशः ॥ ५२ ॥ इन भूतोंमें पृथक्-पृथक् नाना शक्तियाँ हैं । अतः वे परस्पर पूर्णतया मिले बिना संसारकी रचना नहीं कर सके ॥ ५२ ॥ समेत्यान्योन्यसंयोगं परस्परसमाश्रयाः ।
एकसंघातलक्ष्याश्च सम्प्राप्यैक्यमशेषतः ॥ ५३ ॥ पुरुषाधिष्ठितत्वाच्च अव्यक्तानुग्रहेण च । महदाद्या विशेषान्ता ह्यण्डमुत्पादयन्ति ते ॥ ५४ ॥ इसलिये एक-दूसरेके आश्रय रहनेवाले और एक ही संघातकी उत्पत्तिके लक्ष्यवाले महत्तत्त्वसे लेकर विशेषपर्यन्त प्रकृतिके इन सभी विकारोंने पुरुषसे अधिष्ठित होनेके कारण परस्पर मिलकर सर्वथा एक होकर प्रधान-तत्त्वके अनुग्रहसे अण्डकी उत्पत्ति की ॥ ५३-५४ ॥ तत् क्रमेण विवृद्धं तु जलबुद्बुदवत् समम् ।
भूतेभ्योऽण्डं महाबुद्धे बृहत्तदुदकेशयम् । प्राकृतं ब्रह्मरूपस्य विष्णोः स्थानमनुत्तमम् ॥ ५५ ॥ हे महाबुद्धे ! जलके बुलबुलेके समान क्रमशः भूतोंसे बढ़ा हुआ वह गोलाकार और जलपर स्थित महान् अण्ड ब्रह्म (हिरण्यगर्भ) रूप विष्णुका अति उत्तम प्राकृत आधार हुआ ॥ ५५ ॥ तत्राव्यक्तस्वरूपोऽसौ व्यक्तरूपी जगत्पतिः ।
विष्णुर्ब्रह्मस्वरूपेण स्वयमेव व्यवस्थितः ॥ ५६ ॥ उसमें वे अव्यक्त-स्वरूप जगत्पति विष्णु व्यक्त हिरण्यगर्भरूपसे स्वयं ही विराजमान हुए ॥ ५६ ॥ मेरुरुल्बमभूत्तस्य जरायुश्च महीधराः ।
गर्भोदकं समुद्राश्च तस्यासन्सुमहात्मनः ॥ ५७ ॥ उन महात्मा हिरण्यगर्भका सुमेरु उल्ब (गर्भको ढंकनेवाली झिल्ली), अन्य पर्वत, जरायु (गर्भाशय) तथा समुद्र गर्भाशयस्थ रस था ॥ ५७ ॥ साद्रिद्वीपसमुद्राश्च सज्योतिर् लोकसङ्ग्रहः ।
तस्मिन्नण्डेऽभवद्विप्र सदेवासुरमानुषः ॥ ५८ ॥ हे विप्र ! उस अण्डमें ही पर्वत और द्वीपादिके सहित समुद्र, ग्रह-गणके सहित सम्पूर्ण लोक तथा देव, असुर और मनुष्य आदि विविध प्राणिवर्ग प्रकट हुए ॥ ५८ ॥ वारिवह्न्यनिलाकाशैस्ततो भूतादिना बहिः ।
वृतं दशगुणैरण्डं भूतादिर्महता तथा ॥ ५९ ॥ वह अण्ड पूर्व-पूर्वकी अपेक्षा दस-दस-गुण अधिक जल, अग्नि, वायु, आकाश और भूतादि अर्थात् तामस-अहंकारसे आवृत है तथा भूतादि महत्तत्त्वसे घिरा हुआ है । ॥ ५९ ॥ अव्यक्तेनावृतो ब्रह्मंस्तैः सर्वैः सहितो महान् ।
एभिरावरणैरण्डं सप्तभिः प्राकृतैर् वृतम् । नालिकेरफलस्यान्तर्बीजं बाह्यदलैरिव ॥ ६० ॥ और इन सबके सहित वह महत्तत्त्व भी अव्यक्त प्रधानसे आवृत है । इस प्रकार जैसे नारियलके फलका भीतरी बीज बाहरसे कितने ही छिलकोंसे ढंका रहता है वैसे ही यह अण्ड इन सात प्राकृत आवरणोंसे घिरा हुआ है ॥ ६० ॥ जुषन् रजोगुणं तत्र स्वयं विश्वेश्वरो हरिः ।
ब्रह्मा भूत्वास्य जगतो विसृष्टौ सम्प्रवर्तते ॥ ६१ ॥ उसमें स्थित हुए स्वयं विश्वेश्वर भगवान् विष्णु ब्रह्मा होकर रजोगुणका आश्रय लेकर इस संसारकी रचनामें प्रवृत्त होते हैं ॥ ६१ ॥ सृष्टं च पात्यनुयुगं यावत्कल्पविकल्पना ।
सत्त्वभृद्भगवान्विष्णुरप्रमेयपराक्रमः ॥ ६२ ॥ तथा रचना हो जानेपर सत्त्वगुण-विशिष्ट अतुल पराक्रमी भगवान् विष्णु उसका कल्पान्तपर्यन्त युग-युगमें पालन करते हैं ॥ ६२ ॥ तमौद्रेकी च कल्पान्ते रुद्ररूपी जनार्दनः ।
मैत्रेयाखिलभूतानि भक्षयत्यतिदारुणः ॥ ६३ ॥ हे मैत्रेय ! फिर कल्पका अन्त होनेपर अति दारुण तमःप्रधान रुद्ररूप धारण कर वे जनार्दन विष्णु ही समस्त भूतोंका भक्षण कर लेते हैं ॥ ६३ ॥ संभक्षयित्वा भूतानि जगत्येकार्णवीकृते ।
नागपर्यङ्कशयने शेतेऽसौ परमेश्वरः ॥ ६४ ॥ इस प्रकार समस्त भूतोंका भक्षण कर संसारको जलमय करके वे परमेश्वर शेषशय्यापर शयन करते हैं ॥ ६४ ॥ प्रबुद्धश्च पुनः सृष्टिं करोति ब्रह्मरूपधृक् ॥ ६५ ॥
जागनेपर ब्रह्मरूप होकर वे फिर जगत्की रचना करते हैं ॥ ६५ ॥ सृष्टिस्थित्यन्तकरणाद्ब्रह्मविष्णुशिवात्मिकाम् ।
स संज्ञां याति भगवानेक एव जनार्दनः ॥ ६६ ॥ वह एक ही भगवान् जनार्दन जगत्की सृष्टि, स्थिति और संहारके लिये ब्रह्मा, विष्णु और शिव इन तीन संज्ञाओंको धारण करते हैं ॥ ६६ ॥ स्रष्टा सृजति चात्मानं विष्णुः पाल्यं च पाति च ।
उपसंहरते चान्ते संहर्ता च स्वयं प्रभुः ॥ ६७ ॥ वे प्रभु विष्णु स्रष्टा (ब्रह्मा) होकर अपनी ही सृष्टि करते हैं, पालक विष्णु होकर पाल्यरूप अपना ही पालन करते हैं और अन्तमें स्वयं ही संहारक (शिव) तथा स्वयं ही उपसंहृत (लीन) होते हैं ॥ ६७ ॥ पृथिव्यापस्तथा तेजो वायुराकाशमेव च ।
सर्वेन्द्रियान्तःकरणं पुरुषाख्यं हि यज्जगत् ॥ ६८ ॥ स एव सर्वभूतात्मा विश्वरूपो यतोऽव्ययः । सर्गादिकं तु तस्यैव भूतस्थमुपकारकम् ॥ ६९ ॥ पृथिवी, जल, तेज, वायु और आकाश तथा समस्त इन्द्रियाँ और अन्तःकरण आदि जितना जगत् है सब पुरुषरूप है और क्योंकि वह अव्यय विष्णु ही विश्वरूप और सब भूतोंके अन्तरात्मा हैं, इसलिये ब्रह्मादि प्राणियोंमें स्थित सर्गादिक भी उन्हींके उपकारक हैं । [ अर्थात् जिस प्रकार ऋत्विजोंद्वारा किया हुआ हवन यजमानका उपकारक होता है, उसी तरह परमात्माके रचे हुए समस्त प्राणियोंद्वारा होनेवाली सृष्टि भी उन्हींकी उपकारक है ] ॥ ६८-६९ ॥ स एव सृज्यः स च सर्गकर्ता
स एव पात्यत्ति च पाल्यते च । ब्रह्माद्यवस्थाभिरशेषमूर्ति- र्विष्णुर्वरिष्ठो वरदो वरेण्यः ॥ ७० ॥ वे सर्वस्वरूप, श्रेष्ठ, वरदायक और वरेण्य (प्रार्थनाके योग्य) भगवान् विष्णु ही ब्रह्मा आदि अवस्थाओंद्वारा रचनेवाले हैं, वे ही रचे जाते हैं, वे ही पालते हैं, वे ही पालित होते हैं तथा वे ही संहार करते हैं [और स्वयं ही संहृत होते हैं ] ॥ ७० ॥ इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशे द्वितीयोऽध्यायः
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशे द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥ |