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॥ विष्णुपुराणम् ॥

प्रथमः अंशः

॥ पञ्चमोऽध्यायः ॥

मैत्रेय उवाचः
यथा ससर्ज देवोऽसौ देवर्षिपितृदानवान् ।
मनुष्यतिर्यग्वृक्षादीन्भूव्योमसलिलौकसः ॥ १ ॥
यद्गुणं यत्स्वभावं च यद्‌रूपं च जगद्‌द्विज ।
सर्गादौ सृष्टवान्ब्रह्मा तन्ममाचक्ष्व विस्तरात् ॥ २ ॥
श्रीमैत्रेयजी बोले-हे द्विजराज ! सर्गके आदिमें भगवान् ब्रह्माजीने पृथिवी, आकाश और जल आदिमें रहनेवाले देव, ऋषि, पितृगण, दानव, मनुष्य, तिर्यक् और वृक्षादिको जिस प्रकार रचा तथा जैसे गुण, स्वभाव और रूपवाले जगत्की रचना की वह सब आप मुझसे कहिये ॥ १-२ ॥

पराशर उवाचः
मैत्रेय कथयाम्येतच्छ्रुणुष्व सुसमाहितः ।
यथा ससर्ज देवोऽसौ देवादीनखिलान्विभुः ॥ ३ ॥
श्रीपराशरजी बोले-हे मैत्रेय ! भगवान् विभुने जिस प्रकार इस सर्गकी रचना की वह मैं तुमसे कहता हूँ; सावधान होकर सुनो ॥ ३ ॥

सृष्टिं चिन्तयतस्तस्य कल्पादिषु यथा पुरा ।
अबुद्धिपूर्वकः सर्गः प्रादुर्भूतस्तमोमयः ॥ ४ ॥
सर्गके आदिमें ब्रह्माजीके पूर्ववत् सृष्टिका चिन्तन करनेपर पहले अबुद्धिपूर्वक [अर्थात् पहले-पहल असावधानी हो जानेसे] तमोगुणी सृष्टिका आविर्भाव हुआ ॥ ४ ॥

तमो मोहो महामोहस्तामिस्रो ह्यन्धसंज्ञितः ।
अविद्या पञ्चपर्वैषा प्रादुर्भूता महात्मनः ॥ ५ ॥
उस महात्मासे प्रथम तम (अज्ञान), मोह, महामोह (भोगेच्छा), तामिस्र (क्रोध) और अन्धतामिस्र (अभिनिवेश) नामक पंचपर्वा (पाँच प्रकारकी) अविद्या उत्पन्न हुई ॥ ५ ॥

पञ्चधावस्थितः सर्गो ध्यायतोऽप्रतिबोधवान् ।
बहिरन्तोऽप्रकाशश्च संवृतात्मा नगात्मकः ॥ ६ ॥
उसके ध्यान करनेपर ज्ञानशून्य, बाहर-भीतरसे तमोमय और जड नगादि (वृक्ष-गुल्म-लता-वीरुत्-तृण) रूप पाँच प्रकारका सर्ग हुआ ॥ ६ ॥

मुख्या नगा यतश्चोक्ता मुख्यसर्गस्ततस्त्वयम् ॥ ७ ॥
[वराहजीद्वारा सर्वप्रथम स्थापित होनेके कारण] नगादिको मुख्य कहा गया है, इसलिये यह सर्ग भी मुख्य सर्ग कहलाता है ॥ ७ ॥

तं दृष्ट्‍वाऽसाधकं सर्गममन्यदपरं पुनः ॥ ८ ॥
तस्याभिध्यायतः सर्गं तिर्यक्स्रोताभ्यवर्तत ।
यस्मात्तिर्यक्प्रवृत्तिस्स तिर्यक्स्रोतास्ततः स्मृतः ॥ ९ ॥
उस सृष्टिको पुरुषार्थकी असाधिका देखकर उन्होंने फिर अन्य सर्गके लिये ध्यान किया तो तिर्यक्-स्रोत-सृष्टि उत्पन्न हुई । यह सर्ग [वायुके समान] तिरछा चलनेवाला है इसलिये तिर्यक-स्रोत कहलाता है ॥ ८-९ ॥

पश्वादयस्ते विख्यातास्तमः प्राया ह्यवेदिनः ।
उत्पथग्राहिणश्चैव तेऽज्ञाने ज्ञानमानिनः ॥ १० ॥
अहङ्‌कृता अहम्माना अष्टाविंशद्वधात्मकाः ।
अन्तःप्रकाशास्ते सर्वे आवृताश्च परस्परम् ॥ ११ ॥
ये पशु, पक्षी आदि नामसे प्रसिद्ध हैं और प्रायः तमोमय (अज्ञानी), विवेकरहित अनुचित मार्गका अवलम्बन करनेवाले और विपरीत ज्ञानको ही यथार्थ ज्ञान माननेवाले होते हैं । ये सब अहंकारी, अभिमानी, अट्ठाईस वधोंसे युक्त* आन्तरिक सुख आदिको ही पूर्णतया समझनेवाले और परस्पर एकदूसरेकी प्रवृत्तिको न जाननेवाले होते हैं ॥ १०-११ ॥

तमप्यसाधकं मत्वा ध्यायतोऽन्यस्ततोऽभवत् ।
ऊर्ध्वस्रोतस्तृतीयस्तु सात्त्विकोर्ध्वमवर्तत ॥ १२ ॥
उस सर्गको भी पुरुषार्थका असाधक समझ | पुनः चिन्तन करनेपर एक और सर्ग हुआ। वह ऊवं स्रोतनामक तीसरा सात्त्विक सर्ग ऊपरके लोकोंमें रहने लगा॥१२॥

ते सुखप्रीतिबहुला बहिरन्तस्त्वनावृताः ।
प्रकाशा बहिरन्तश्च ऊर्ध्वस्रोतोद्‌भवाः स्मृताः ॥ १३ ॥
वे ऊर्ध्व-स्रोत सृष्टिमें उत्पन्न हुए प्राणी विषय-सुखके प्रेमी, बाह्य और आन्तरिक दृष्टिसम्पन्न, तथा बाहा और आन्तरिक ज्ञानयुक्त थे॥१३॥

तुष्ट्यात्मनस्तृतीयस्तु देवसर्गस्तु स स्मृतः ।
तस्मिन्सर्गेऽभवत्प्रीतिर्निष्पन्ने ब्रह्मणस्तथा ॥ १४ ॥
यह तीसरा देवसर्ग कहलाता है। इस सर्गके प्रादुर्भूत होनेसे सन्तुष्टचित्त ब्रह्माजीको अति प्रसन्नता हुई ॥१४॥

ततोऽन्यं स तदा दध्यौ साधकं सर्गमुत्तमम् ।
असाधकांस्तु ताञ्ज्ञात्वा मुख्यसर्गादिसम्भवान् ॥ १५ ॥
फिर, इन मुख्य सर्ग आदि तीनों प्रकारकी सृष्टियोंमें उत्पन्न हुए प्राणियोंको पुरुषार्थका असाधक जान उन्होंने एक और उत्तम साधक सर्गके लिये चिन्तन किया॥ १५॥

तथाभिध्यायतस्तस्य सत्याभिध्यायिनस्ततः ।
प्रादुर्भूतस्तदाव्यक्तादर्वाक्स्रोतास्तु साधकः ॥ १६ ॥
उन सत्यसंकल्प ब्रह्माजीके इस प्रकार चिन्तन करनेपर अव्यक्त (प्रकृति)-से पुरुषार्थका साधक अक्स्रिोत नामक सर्ग प्रकट हुआ॥१६॥

यस्मादर्वाग्व्यवर्तन्त ततोऽर्वाक्स्रोतसस्तु ते ।
ते च प्रकाशबहुलास्तमौद्रिक्ता रजोऽधिकाः ॥ १७ ॥
इस सर्गके प्राणी नीचे (पृथिवीपर) रहते हैं इसलिये वे 'अक्स्रिोत' कहलाते हैं। उनमें सत्व, रज और तम तीनोंहीकी अधिकता होती है॥ १७॥

तस्मात्ते दुःखबहुला भूयो भूयश्च कारिणः ।
प्रकाशा बहिरन्तश्च मनुष्याः साधकास्तु ते ॥ १८ ॥
इसलिये वे दुःखबहुल, अत्यन्त क्रियाशील एवं बाह्य-आभ्यन्तर ज्ञानसे युक्त और साधक हैं। इस सर्गके प्राणी मनुष्य हैं॥ १८॥

इत्येते कथिताः सर्गाः षडत्र मुनिसत्तम ।
प्रथमो महतः सर्गो विज्ञेयो ब्रह्मणस्तु सः ॥ १९ ॥
हे मुनिश्रेष्ठ! इस प्रकार अबतक तुमसे छः सर्ग कहे। उनमें महत्तत्त्वको ब्रह्माका पहला सर्ग जानना चाहिये॥ १९॥

तन्मात्राणां द्वितीयश्च भूतसर्गस्तु स स्मृतः ।
वैकारिकस्तृतीयस्तु सर्ग ऐन्द्रियकः स्मृतः ॥ २० ॥
दूसरा सर्ग तन्मात्राओंका है, जिसे भूतसर्ग भी कहते हैं और तीसरा वैकारिक सर्ग है जो ऐन्द्रियिक (इन्द्रिय-सम्बन्धी) कहलाता है॥२०॥

इत्येष प्राकृतः सर्गः सम्भूतो बुद्धिपूर्वकः ।
मुख्यसर्गश्चतुर्थस्तु मुख्या वै स्थावराः स्मृताः ॥ २१ ॥
इस प्रकार बुद्धिपूर्वक उत्पन्न हुआ यह प्राकृत सर्ग हुआ। चौथा मुख्यसर्ग है। पर्वत-वृक्षादि स्थावर ही मुख्य सर्गके अन्तर्गत हैं॥२१॥

तिर्यक्स्रोतास्तु यः प्रोक्तस्तैर्यग्योन्यः स उच्यते ।
तदूर्ध्वस्रोतसां षष्ठो देवसर्गस्तु संस्मृतः ॥ २२ ॥
ततोऽर्वाक्स्रोतसां सर्गः सप्तमः स तु मानुषः ॥ २३ ॥
अष्टमोऽनुग्रहः सर्गः सात्त्विकस्तामसश्च सः ।
पाँचवाँ जो तिर्यक्स्रोत बतलाया उसे तिर्यक (कीट-पतंगादि) योनि भी कहते हैं । फिर छठा सर्ग ऊर्ध्व-स्रोताओंका है जो 'देवसर्ग' कहलाता है । उसके पश्चात् सातवाँ सर्ग अर्वाक्-स्रोताओंका है, वह मनुष्यसर्ग है ॥ २२-२३ ॥

पञ्चैते वैकृताः सर्गाः प्राकृतास्तु त्रयः स्मृताः ॥ २४ ॥
आठवाँ अनुग्रह सर्ग है । वह सात्त्विक और तामसिक है । ये पाँच वैकृत (विकारी) सर्ग हैं और पहले तीन 'प्राकृत सर्ग' कहलाते हैं ॥ २४ ॥

प्राकृतो वैकृतश्चैव कौमारो नवमः स्मृतः ।
इत्येते वै समाख्याता नव सर्गाः प्रजापतेः ॥ २५ ॥
प्राकृता वैकृताश्चैव जगतो मूलहेतवः ।
सृजतो जगदीशस्य किमन्यच्छ्रोतुमिच्छसि ॥ २६ ॥
नवाँ कौमार सर्ग है जो प्राकृत और वैकृत भी है । इस प्रकार सृष्टि रचनामें प्रवृत्त हुए जगदीश्वर प्रजापतिके प्राकृत और वैकृत नामक ये जगत्के मूलभूत नौ सर्ग तुम्हें सुनाये । अब और क्या सुनना चाहते हो ? ॥ २५-२६ ॥

मैत्रेय उवाचः
सङ्‍क्षेपात्कथितः सर्गो देवादीनां मुने त्वया ।
विस्तराच्छ्रोतुमिच्छामि त्वत्तो मुनिवरोत्तम ॥ २७ ॥
श्रीमैत्रेयजी बोले- हे मुने ! आपने इन देवादिकोंके सर्गोंका संक्षेपसे वर्णन किया । अब, हे मुनिश्रेष्ठ ! मैं इन्हें आपके मुखारविन्दसे विस्तारपूर्वक सुनना चाहता हूँ ॥ २७ ॥

पराशर उवाचः
कर्मभिर्भाविताः पूर्वैः कुशलाकुशलैस्तु ताः ।
ख्यात्या तया ह्यनिर्मुक्ताः संहारे ह्युपसंहृताः ॥ २८ ॥
श्रीपराशरजी बोले-हे मैत्रेय ! सम्पूर्ण प्रजा अपने पूर्व-शुभाशुभ कर्मोंसे युक्त है; अतः प्रलयकालमें सबका लय होनेपर भी वह उनके संस्कारोंसे मुक्त नहीं होती ॥ २८ ॥

स्थावरान्ताः सुराद्यास्तु प्रजा ब्रह्मंश्चतुर्विधाः ।
ब्रह्मणः कुर्वतः सृष्टिं जज्ञिरे मानसास्तु ताः ॥ २९ ॥
हे ब्रह्मन् ! ब्रह्माजीके सृष्टि-कर्ममें प्रवृत्त होनेपर देवताओंसे लेकर स्थावरपर्यन्त चार प्रकारकी सृष्टि हुई । वह केवल मनोमयी थी ॥ २९ ॥

ततो देवासुरपितॄन्मनुष्यांश्च चतुष्टयम् ।
सिसृक्षुरम्भांस्येतानि स्वमात्मानमयूयुजत् ॥ ३० ॥
फिर देवता, असुर, पितृगण और मनुष्यइन चारोंकी तथा जलकी सृष्टि करनेकी इच्छासे उन्होंने अपने शरीरका उपयोग किया ॥ ३० ॥

युक्तात्मनस्तमोमात्रा ह्युद्रिक्ताभूत्प्रजापतेः ।
सिसृक्षोर्जघनात्पूर्वमसुरा जज्ञिरे ततः ॥ ३१ ॥
सृष्टिरचनाकी कामनासे प्रजापतिके युक्तचित्त होनेपर तमोगुणकी वृद्धि हुई । अतः सबसे पहले उनकी जंघासे असुर उत्पन्न हुए ॥ ३१ ॥

उत्ससर्ज ततस्तां तु तमोमात्रात्मिकां तनुम् ।
सा तु त्यक्ता ततस्तेन मैत्रेयाभूद्‌विभावरी ॥ ३२ ॥
तब, हे मैत्रेय ! उन्होंने उस तमोमय शरीरको छोड़ दिया, वह छोड़ा हुआ तमोमय शरीर ही रात्रि हुआ ॥ ३२ ॥

सिसृक्षुरन्यदेहस्थः प्रीतिमाप ततः सुराः ।
सत्त्वोद्रिक्ताः समुद्‌भूता मुखतो ब्रह्मणो द्विज ॥ ३३ ॥
फिर अन्य देहमें स्थित होनेपर सृष्टिकी कामनावाले उन प्रजापतिको अति प्रसन्नता हुई, और हे द्विज ! उनके मुखसे सत्त्वप्रधान देवगण उत्पन्न हुए ॥ ३३ ॥

त्यक्ता सापि तनुस्तेन सत्त्वप्रायमभूद्‌दिनम् ।
ततो हि बलिनो रात्रावसुरा देवता दिवा ॥ ३४ ॥
तदनन्तर उस शरीरको भी उन्होंने त्याग दिया । वह त्यागा हुआ शरीर ही सत्त्वस्वरूप दिन हुआ । इसीलिये रात्रिमें असुर बलवान् होते हैं और दिनमें देवगणोंका बल विशेष होता है ॥ ३४ ॥

सत्त्वमात्रात्मिकामेव ततोऽन्यां जगृहे तनुम् ।
पितृवन्मन्यमानस्य पितरस्तस्य जज्ञिरे ॥ ३५ ॥
फिर उन्होंने आंशिक सत्त्वमय अन्य शरीर ग्रहण किया और अपनेको पितृवत् मानते हुए [अपने पार्श्व-भागसे] पितृगणकी रचना की ॥ ३५ ॥

उत्ससर्ज ततस्तां तु सृष्ट‍्वा ततस्तामपि स प्रभुः ।
सा चोत्सृष्टाभवत्संध्या दिननक्तान्तरस्थिता ॥ ३६ ॥
पितृगणकी रचना कर उन्होंने उस शरीरको भी छोड़ दिया । वह त्यागा हुआ शरीर ही दिन और रात्रिके बीचमें स्थित सन्ध्या हुई ॥ ३६ ॥

रजोमात्रात्मिकामन्यां जगृहे स तनुं ततः ।
रजोमात्रोत्कटा जाता मनुष्या द्विजसत्तम ॥ ३७ ॥
तत्पश्चात् उन्होंने आंशिक रजोमय अन्य शरीर धारण किया; हे द्विजश्रेष्ठ ! उससे रजः-प्रधान मनुष्य उत्पन्न हुए ॥ ३७ ॥

तामप्य् आशु स तत्याज तनुं सद्यः प्रजापतिः ।
ज्योत्स्ना समभवत्सापि प्राक्संध्या याऽभिधीयते ॥ ३८ ॥
फिर शीघ्र ही प्रजापतिने उस शरीरको भी त्याग दिया, वही ज्योत्स्ना हुआ, जिसे पूर्व-सन्ध्या अर्थात् प्रात:काल कहते हैं ॥ ३८ ॥

ज्योत्स्नागमे तु बलिनो मनुष्याः पितरस्तथा ।
मैत्रेय संध्यासमये तस्मादेते भवन्ति वै ॥ ३९ ॥
इसीलिये, हे मैत्रेय ! प्रात:काल होनेपर मनुष्य और सायंकालके समय पितर बलवान् होते हैं ॥ ३९ ॥

ज्योत्स्ना रात्र्यहनी संध्या चत्वार्येतानि वै विभोः ।
ब्रह्मणस्तु शरीराणि त्रिगुणोपाश्रयाणि तु ॥ ४० ॥
इस प्रकार रात्रि, दिन, प्रात:काल और सायंकाल ये चारों प्रभु ब्रह्माजीके ही शरीर हैं और तीनों गुणोंके आश्रय हैं ॥ ४० ॥

रजोमात्रात्मिकामेव ततोऽन्यां जगृहे तनुम् ।
ततः क्षुद्‌ब्रह्मणो जाता जज्ञे कामस्तया ततः ॥ ४१ ॥
फिर ब्रह्माजीने एक और रजोमात्रात्मक शरीर धारण किया । उसके द्वारा ब्रह्माजीसे क्षुधा उत्पन्न हुई और क्षुधासे कामकी उत्पत्ति हुई ॥ ४१ ॥

क्षुत्क्षामानन्धकारेऽथ सोऽसृजद्‌भगवांस्ततः ।
विरूपाः श्मश्रुला जातास्तेऽभ्यधावंस्ततः प्रभुम् ॥ ४२ ॥
तब भगवान् प्रजापतिने अन्धकारमें स्थित होकर क्षुधाग्रस्त सृष्टिकी रचना की । उसमें बड़े कुरूप और दाढ़ीमूंछवाले व्यक्ति उत्पन्न हुए । वे स्वयं ब्रह्माजीकी ओर ही [उन्हें भक्षण करनेके लिये] दौड़े ॥ ४२ ॥

मैवं भो रक्ष्यतामेष यैरुक्तं राक्षसास्तु ते ।
ऊचुः खादाम इत्यन्ये ये ते यक्षास्तु जक्षणात् ॥ ४३ ॥
उनमेंसे जिन्होंने यह कहा कि 'ऐसा मत करो, इनकी रक्षा करो' वे 'राक्षस' कहलाये और जिन्होंने कहा 'हम खायेंगे' वे खानेकी वासनावाले होनेसे 'यक्ष' कहे गये ॥ ४३ ॥

अप्रियेण तु तान्दृष्ट्‍वा केशाः शीर्यन्त वेधसः ।
हीनाश्च शिरसो भूयः समारोहन्त तच्छिरः ॥ ४४ ॥
सर्पणात्तेऽभवन् सर्पा हीनत्वादहयः स्मृताः ।
ततः क्रुद्धो जगत्स्रष्टा क्रोधात्मानो विनिर्ममे ।
वर्णेन कपिशेनोग्रभूतास्ते पिशिताशनाः ॥ ४५ ॥
उनकी इस अनिष्ट प्रवृत्तिको देखकर ब्रह्माजीके केश सिरसे गिर गये और फिर पुनः उनके मस्तकपर आरूढ़ हुए । इस प्रकार ऊपर चढ़नेके कारण वे 'सर्प' कहलाये और नीचे गिरनेके कारण 'अहि' कहे गये । तदनन्तर जगत्-रचयिता ब्रह्माजीने क्रोधित होकर क्रोधयुक्त प्राणियोंकी रचना की; वे कपिश (कालापन लिये हुए पीले) वर्णके, अति उग्र स्वभाववाले तथा मांसाहारी हुए ॥ ४४-४५ ॥

गायतोऽङ्‌गात्समुत्पन्ना गन्धर्वास्तस्य तत्क्षणात् ।
पिबन्तो जज्ञिरे वाचं गन्धर्वास्तेन ते द्विज ॥ ४६ ॥
फिर गान करते समय उनके शरीरसे तुरन्त ही गन्धर्व उत्पन्न हुए । हे द्विज ! वे वाणीका उच्चारण करते अर्थात् बोलते हुए उत्पन्न हुए थे, इसलिये 'गन्धर्व' कहलाये ॥ ४६ ॥

एतानि सृष्ट्‍वा भगवान् ब्रह्मा तच्छक्तिचोदितः ।
ततः स्वच्छन्दतोऽन्यानि वयांसि वयसोऽसृजत् ॥ ४७ ॥
इन सबकी रचना करके भगवान् ब्रह्माजीने पक्षियोंको, उनके पूर्व-कर्मोंसे प्रेरित होकर स्वच्छन्दतापूर्वक अपनी आयुसे रचा ॥ ४७ ॥

अवयो वक्षसश्चक्रे मुखतोऽजाः स सृष्टवान् ।
सृष्टवानुदराद्‌गाश्च पार्श्वाभ्यां च प्रजापतिः ॥ ४८ ॥
पद्‌भ्यां चाश्वान्समातङ्‌गान्‍रासभान्गवयान्मृगान् ।
उष्ट्रानश्वतरांश्चैव न्यङ्‌कूनन्याश्च जातयः ॥ ४९ ॥
तदनन्तर अपने वक्षःस्थलसे भेड़, मुखसे बकरी, उदर और पार्श्वभागसे गौ, पैरोंसे घोड़े, हाथी, गधे, वनगाय, मृग, ऊँट, खच्चर और न्यंकु आदि पशुओंकी रचना की ॥ ४८-४९ ॥

ओषध्यः फलमूलिन्यो रोमभ्यस्तस्य जज्ञिरे ।
त्रेतायुगमुखे ब्रह्मा कल्पस्यादौ द्विजोत्तम ।
सृष्ट्‍वा पश्वोषधीः सम्यग्युयोज स तदाध्वरे ॥ ५० ॥
उनके रोमोंसे फल-मूलरूप ओषधियाँ उत्पन्न हुईं । हे द्विजोत्तम ! कल्पके आरम्भमें ही ब्रह्माजीने पशु और ओषधि आदिकी रचना करके फिर त्रेतायुगके आरम्भमें उन्हें यज्ञादि कर्मों में सम्मिलित किया ॥ ५० ॥

गौरजः पुरुषो मेषश्चाश्वाश्वतरगर्दभाः ।
एतान्ग्राम्यान्पशूनाहुरारण्यांश्च निबोध मे ॥ ५१ ॥
श्वापदो द्विखुरो हस्ती वानरः पक्षिपञ्चमाः ।
औदकाः पशवः षष्ठाः सप्तमास्तु सरीसृपाः ॥ ५२ ॥
गौ, बकरी, पुरुष, भेड़, घोड़े, खच्चर और गधे ये सब गाँवोंमें रहनेवाले पशु हैं । जंगली पशु ये हैं-श्वापद (व्याघ्र आदि), दो खुरवाले (वनगाय आदि), हाथी, बन्दर और पाँचवें पक्षी, छठे जलके जीव तथा सातवें सरीसृप आदि ॥ ५१-५२ ॥

गायत्रं च ऋचश्चैव त्रिवृत्साम रथन्तरम् ।
अग्निष्टोमं च यज्ञानां निर्ममे प्रथमान्मुखात् ॥ ५३ ॥
फिर अपने प्रथम (पूर्व) मुखसे ब्रह्माजीने गायत्री, ऋक्, त्रिवृत्सोम रथन्तर और अग्निष्टोम यज्ञोंको निर्मित किया ॥ ५३ ॥

यजूंषि त्रैष्टुभं छन्दः स्तोमं पञ्चदशं तथा ।
बृहत् साम तथोक्थं च दक्षिणादसृजन्मुखात् ॥ ५४ ॥
दक्षिण-मुखसे यजु, त्रैष्टुप्छन्द, पंचदशस्तोम, बृहत्साम तथा उक्थकी रचना की ॥ ५४ ॥

सामानि जगतीछन्दः स्तोमं सप्तदशं तथा ।
वैरूपमतिरात्रं च पश्चिमादसृजन्मुखात् ॥ ५५ ॥
पश्चिम-मुखसे साम, जगतीछन्द, सप्तदशस्तोम, वैरूप और अतिरात्रको उत्पन्न किया ॥ ५५ ॥

एकविंशमथर्वाणमाप्तोर्यामाणमेव च ।
अनुष्टुभं स वैराजमुत्तरादसृजन्मुखात् ॥ ५६ ॥
तथा उत्तरमुखसे उन्होंने एकविंशतिस्तोम, अथर्ववेद, आप्तोर्यामाण, अनुष्टुप्छन्द और वैराजकी सृष्टि की ॥ ५६ ॥

उच्चावचानि भूतानि गात्रेभ्यस्तस्य जज्ञिरे ।
देवासुरपितॄन् सृष्ट्‍वा मनुष्यांश्च प्रजापतिः ॥ ५७ ॥
ततः पुनः ससर्जादौ सङ्‍कल्पस्य पितामहः ।
यक्षान् पिशाचान्गन्धर्वान् तथैवाप्सरसां गणान् ॥ ५८ ॥
नरकिंनररक्षांसि वयःपशुमृगोरगान् ।
अव्ययं च व्ययं चैव यदिदं स्थाणुजङ्‌गमम् ॥ ५९ ॥
तत् ससर्ज तदा ब्रह्मा भगवानादिकृत्प्रभुः ।
तेषां ये यानि कर्माणि प्राक्सृष्ट्यां प्रतिपेदिरे ।
तान्येव प्रतिपद्यन्ते सृज्यमानाः पुनः पुनः ॥ ६० ॥
इस प्रकार उनके शरीरसे समस्त ऊँच-नीच प्राणी उत्पन्न हुए । उन आदिकर्ता प्रजापति भगवान् ब्रह्माजीने देव, असुर, पितृगण और मनुष्योंकी सृष्टि कर तदनन्तर कल्पका आरम्भ होनेपर फिर यक्ष, पिशाच, गन्धर्व, अप्सरागण, मनुष्य, किन्नर, राक्षस, पशु, पक्षी, मृग और सर्प आदि सम्पूर्ण नित्य एवं अनित्य स्थावर-जंगम जगत्की रचना की । उनमेंसे जिनके जैसे-जैसे कर्म पूर्वकल्पोंमें थे पुनः-पुनः सृष्टि होनेपर उनकी उन्हीं में फिर प्रवृत्ति हो जाती है ॥ ५७-६० ॥

हिंस्राहिंस्रे मृदुक्रूरे धर्माधर्मावृतानृते ।
तद्‌भाविताः प्रपद्यन्ते तस्मात्तत्तस्य रोचते ॥ ६१ ॥
उस समय हिंसाअहिंसा, मृदुता-कठोरता, धर्म-अधर्म, सत्य-मिथ्या-ये सब अपनी पूर्व-भावनाके अनुसार उन्हें प्राप्त हो जाते हैं, इसीसे ये उन्हें अच्छे लगने लगते हैं ॥ ६१ ॥

इन्द्रियार्थेषु भूतेषु शरीरेषु च स प्रभुः ।
नानात्वं विनियोगं च धातैवं व्यसृजत्स्वयम् ॥ ६२ ॥
इस प्रकार प्रभु विधाताने ही स्वयं इन्द्रियों के विषय भूत और शरीर आदिमें विभिन्नता और व्यवहारको उत्पन्न किया है ॥ ६२ ॥

नाम रूपं च भूतानां कृत्यानां च प्रपञ्चनम् ।
वेदशब्देभ्य एवादौ देवादीनां चकार सः ॥ ६३ ॥
उन्हींने कल्पके आरम्भमें देवता आदि प्राणियोंके वेदानुसार नाम और रूप तथा कार्यविभागको निश्चित किया है ॥ ६३ ॥

ऋषीणां नामधेयानि यथा वेदश्रुतानि वै ।
यथा नियोगयोग्यानि सर्वेषामपि सोऽकरोत् ॥ ६४ ॥
ऋषियों तथा अन्य प्राणियोंके भी वेदानुकूल नाम और यथायोग्य कर्मोको उन्हींने निर्दिष्ट किया है ॥ ६४ ॥

यथर्तुष्वृतुलिङ्‌गानि नानारूपाणि पर्यये ।
दृश्यन्ते तानि तान्येव तथा भावा युगादिषु ॥ ६५ ॥
जिस प्रकार भिन्नभिन्न ऋतुओंके पुनः-पुनः आनेपर उनके चिह्न और नाम-रूप आदि पूर्ववत् रहते हैं उसी प्रकार युगादिमें भी उनके पूर्व-भाव ही देखे जाते हैं ॥ ६५ ॥

करोत्येवंविधां सृष्टिं कल्पादौ स पुनः पुनः ।
सिसृक्षाशक्तियुक्तोऽसौ सृज्यशक्तिप्रचोदितः ॥ ६६ ॥
सिसृक्षा-शक्ति (सृष्टि-रचनाकी इच्छारूप शक्ति)-से युक्त वे ब्रह्माजी सृज्य-शक्ति (सृष्टिके प्रारब्ध)-की प्रेरणासे कल्पोंके आरम्भमें बारम्बार इसी प्रकार सृष्टिकी रचना किया करते हैं ॥ ६६ ॥

इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशे पञ्चमोऽध्यायः
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशे पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥



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