![]() |
॥ विष्णुपुराणम् ॥ प्रथमः अंशः ॥ अष्टमोऽध्यायः ॥ पराशर उवाचः
कथितस्तामसः सर्गो ब्रह्मणस्ते महामुने । रुद्रसर्गं प्रवक्ष्यामि तन्मे निगदतः शृणु ॥ १ ॥ श्रीपराशरजी बोले-हे महामुने ! मैंने तुमसे ब्रह्माजीके तामस-सर्गका वर्णन किया, अब मैं रुद्रसर्गका वर्णन करता हूँ, सो सुनो ॥ १ ॥ कल्पादावात्मनस्तुल्यं सुतं प्रध्यायतस्ततः ।
प्रादुरासीत्प्रभोरङ्के कुमारो नीललोहितः ॥ २ ॥ कल्पके आदिमें अपने समान पुत्र उत्पन्न होनेके लिये चिन्तन करते हुए ब्रह्माजीकी गोदमें नीललोहित वर्णके एक कुमारका प्रादुर्भाव हुआ ॥ २ ॥ रुरोद वै सुस्वरं सोऽथ प्राद्रवद्द्विजसत्तम ।
किं त्वं रोदिषि तं ब्रह्मा रुदन्तं प्रत्युवाच ह ॥ ३ ॥ हे द्विजोत्तम ! जन्मके अनन्तर ही वह जोरजोरसे रोने और इधर-उधर दौड़ने लगा । उसे रोता देख ब्रह्माजीने उससे पूछा- "तू क्यों रोता है ?" ॥ ३ ॥ नाम देहीति तं सोऽथ प्रत्युवाच प्रजापतिः ।
रुद्रस्त्वं देव नाम्नासि मा रोदीर्धैर्यमावह । एवमुक्तः पुनः सोऽथ सप्तकृत्वो रुरोद वै ॥ ४ ॥ उसने कहा-"मेरा नाम रखो । " तब ब्रह्माजी बोले'हे देव ! तेरा नाम रुद्र है, अब तू मत रो, धैर्य धारण कर । ' ऐसा कहनेपर भी वह सात बार और रोया ॥ ४ ॥ ततोऽन्यानि ददौ तस्मै सप्त नामानि स प्रभुः ।
स्थानानि चैषामष्टानां पत्नीः पुत्रांश्च स विभुः ॥ ५ ॥ तब भगवान् ब्रह्माजीने उसके सात नाम और रखे; तथा उन आठोंके स्थान, स्त्री और पुत्र भी निश्चित किये ॥ ५ ॥ भवं शर्वमथेशानं तथा पशुपतिं द्विज ।
भीममुग्रं महादेवमुवाच स पितामहः ॥ ६ ॥ हे द्विज ! प्रजापतिने उसे भव, शर्व, ईशान, पशुपति, भीम, उग्र और महादेव कहकर सम्बोधन किया ॥ ६ ॥ चक्रे नामान्यथैतानि स्थानान्येषां चकार सः ।
सूर्यो जलं मही वायुर्वह्निराकाशमेव च । दीक्षितो ब्राह्मणः सोम इत्येतास्तनवः क्रमात् ॥ ७ ॥ यही उसके नाम रखे और इनके स्थान भी निश्चित किये । सूर्य, जल, पृथिवी, वायु, अग्नि, आकाश, [यज्ञमें] दीक्षित ब्राह्मण और चन्द्रमा-ये क्रमशः उनकी मूर्तियाँ हैं ॥ ७ ॥ सुवर्चला तथैवोषा विकेशी चापरा शिवा ।
स्वाहा दिशस्तथा दीक्षा रोहिणी च यथाक्रमम् ॥ ८ ॥ सूर्यादीनां नरश्रेष्ठ रुद्राद्यैर्नामभिः सह । पत्न्यः स्मृता महाभाग तदपत्यानि मे शृणु ॥ ९ ॥ येषां सूतिप्रसूतिभ्यामिदमापूरितं जगत् ॥ १० ॥ हे द्विज श्रेष्ठ ! रुद्र आदि नामोंके साथ उन सूर्य आदि मूर्तियोंकी क्रमश: सुवर्चला, ऊषा, विकेशी, अपरा, शिवा, स्वाहा, दिशा, दीक्षा और रोहिणी नामकी पत्नियाँ हैं । हे महाभाग ! अब उनके पुत्रोंके नाम सुनो; उन्हींके पुत्र-पौत्रादिकोंसे यह सम्पूर्ण जगत् परिपूर्ण है ॥ ८-१० ॥ शनैश्चरस्तथा शुक्रो लोहिताङ्गो मनोजवः ।
स्कन्दः स्वर्गोऽथ सन्तानो बुधश्चानुक्रमात्सुताः ॥ ११ ॥ शनैश्चर, शुक्र, लोहितांग, मनोजव, स्कन्द, सर्ग, सन्तान और बुध-ये क्रमश: उनके पुत्र हैं ॥ ११ ॥ एवंप्रकारो रुद्रोऽसौ सतीं भार्यामविन्दिताम् ।
उपयेमे दुहितरं दक्षस्यैव प्रजापतेः ॥ १२ ॥ ऐसे भगवान् रुद्रने प्रजापति दक्षकी अनिन्दिता पुत्री सतीको अपनी भार्यारूपसे ग्रहण किया ॥ १२ ॥ दक्षकोपाच्च तत्याज सा सती स्वं कलेवरम् ।
हिमवद्दुहिता साभून्मेनायां द्विजसत्तम ॥ १३ ॥ उपयेमे पुनश्चोमामनन्यां भगवान्हरः ॥ १४ ॥ हे द्विजसत्तम ! उस सतीने दक्षपर कुपित होनेके कारण अपना शरीर त्याग दिया था । फिर वह मेनाके गर्भसे हिमाचलकी पुत्री (उमा) हुई । भगवान् शंकरने उस अनन्यपरायणा उमासे फिर भी विवाह किया ॥ १३-१४ ॥ देवौ धातृविधातारौ भृगोः ख्यातिरसूयत ।
श्रियं च देवदेवस्य पत्नी नारायणस्य या ॥ १५ ॥ भृगुके द्वारा ख्यातिने धाता और विधातानामक दो देवताओंको तथा लक्ष्मीजीको जन्म दिया जो भगवान् विष्णुकी पत्नी हुईं ॥ १५ ॥ मैत्रेय उवाचः
क्षीराब्धौ श्रीः समुत्पन्ना श्रूयतेऽमृतमन्थने । भृगोः ख्यात्यां समुत्पन्नेत्येतदाह कथं भवान् ॥ १६ ॥ श्रीमैत्रेयजी बोले- भगवन् ! सुना जाता है कि लक्ष्मीजी तो अमृत-मन्थनके समय क्षीर-सागरसे उत्पन्न हुई थीं, फिर आप ऐसा कैसे कहते हैं कि वे भृगुके द्वारा ख्यातिसे उत्पन्न हुईं ॥ १६ ॥ पराशर उवाचः
नित्यैवैषा जगन्माता विष्णोः श्रीरनपायिनी । यथा सर्वगतो विष्णुस्तथैवेयं द्विजोत्तम ॥ १७ ॥ श्रीपराशरजी बोले-हे द्विजोत्तम ! भगवान्का कभी संग न छोड़नेवाली जगज्जननी लक्ष्मीजी तो नित्य ही हैं और जिस प्रकार श्रीविष्णुभगवान् सर्वव्यापक हैं वैसे ही ये भी हैं ॥ १७ ॥ अर्थो विष्णुरियं वाणी नीतिरेषा नयो हरिः ।
बोधो विष्णुरियं बुद्धिर्धर्मोऽसौ सत्क्रिया त्वियम् ॥ १८ ॥ विष्णु अर्थ हैं और ये वाणी हैं, हरि नियम हैं और ये नीति हैं, भगवान् विष्णु बोध हैं और ये बुद्धि हैं तथा वे धर्म हैं और ये सत्क्रिया हैं ॥ १८ ॥ स्रष्टा विष्णुरियं सृष्टिः श्रीभूमिर्भूधरो हरिः ।
संतोषो भगवाँल्लक्ष्मीस्तुष्टिर्मैत्रेय शाश्वती ॥ १९ ॥ हे मैत्रेय ! भगवान् जगत्के स्रष्टा हैं और लक्ष्मीजी सृष्टि हैं, श्रीहरि भूधर (पर्वत अथवा राजा) हैं और लक्ष्मीजी भूमि हैं तथा भगवान् सन्तोष हैं और लक्ष्मीजी नित्यतुष्टि हैं ॥ १९ ॥ इच्छा श्रीर्भगवान्कामो यज्ञोऽसौ दक्षिणा तु सा ।
आज्याहुतिरसौ देवी पुरोडाशो जनार्दनः ॥ २० ॥ भगवान् काम हैं और लक्ष्मीजी इच्छा हैं, वे यज्ञ हैं और ये दक्षिणा हैं, श्रीजनार्दन पुरोडाश हैं और देवी लक्ष्मीजी आज्याहुति (घृतकी आहुति) हैं ॥ २० ॥ पत्नीशाला मुने लक्ष्मीः प्राग्वंशो मधुसूदनः ।
चितिर्लक्ष्मीर्हरिर्यूप इध्मा श्रीर्भगवान्कुशः ॥ २१ ॥ हे मुने ! मधुसूदन यजमानगृह हैं और लक्ष्मीजी पत्नीशाला हैं, श्रीहरि यूप हैं और लक्ष्मीजी चिति हैं तथा भगवान् कुशा हैं और लक्ष्मीजी इध्मा हैं ॥ २१ ॥ सामस्वरूपी भगवानुद्गीतिः कमलालया ।
स्वाहा लक्ष्मीर्जगन्नाथो वासुदेवो हुताशनः ॥ २२ ॥ भगवान् सामस्वरूप हैं और श्रीकमलादेवी उद्गीति हैं, जगत्पति भगवान् वासुदेव हुताशन हैं और लक्ष्मीजी स्वाहा हैं ॥ २२ ॥ शङ्करो भगवाञ्छौरिर्गौरी लक्ष्मीर्द्विजोत्तम ।
मैत्रेय केशवः सूर्यस्तत्प्रभा कमलालया ॥ २३ ॥ हे द्विजोत्तम ! भगवान् विष्णु शंकर हैं और श्रीलक्ष्मीजी गौरी हैं तथा हे मैत्रेय ! श्रीकेशव सूर्य हैं और कमलवासिनी श्रीलक्ष्मीजी उनकी प्रभा हैं ॥ २३ ॥ विष्णुः पितृगणः पद्मा स्वधा शाश्वतपुष्टिदा ।
द्यौः श्रीः सर्वात्मको विष्णुरवकाशोऽतिविस्तरः ॥ २४ ॥ श्रीविष्णु पितृगण हैं और श्रीकमला नित्य पुष्टिदायिनी स्वधा हैं, विष्णु अति विस्तीर्ण सर्वात्मक अवकाश हैं और लक्ष्मीजी स्वर्गलोक हैं ॥ २४ ॥ शशाङ्कः श्रीधरः कान्तिः श्रीस्तस्यैवानपायिनी ।
धृतिर्लक्ष्मीर्जगच्चेष्टा वायुः सर्वत्रगो हरिः ॥ २५ ॥ भगवान् श्रीधर चन्द्रमा हैं और श्रीलक्ष्मीजी उनकी अक्षय कान्ति हैं, हरि सर्वगामी वायु हैं और लक्ष्मीजी जगच्चेष्टा (जगत्की गति) और धृति (आधार) हैं ॥ २५ ॥ जलधिर्द्विज गोविन्दस्तद्वेला श्रीर्महामते ।
लक्ष्मीस्वरूपमिन्द्राणी देवेन्द्रो मधुसूदनः ॥ २६ ॥ हे महामुने ! श्रीगोविन्द समुद्र हैं और हे द्विज ! लक्ष्मीजी उसकी तरंग हैं, भगवान् मधुसूदन देवराज इन्द्र हैं और लक्ष्मीजी इन्द्राणी हैं ॥ २६ ॥ यमश्चक्रधरः साक्षाद्धूमोर्णा कमलालया ।
ऋद्धिः श्रीः श्रीधरो देवः स्वयमेव धनेश्वरः ॥ २७ ॥ चक्रपाणि भगवान् यम हैं और श्रीकमला यमपत्नी धूमोर्णा हैं, देवाधिदेव श्रीविष्णु कुबेर हैं और श्रीलक्ष्मीजी साक्षात् ऋद्धि हैं ॥ २७ ॥ गौरी लक्ष्मीर्महाभागा केशवो वरुणः स्वयम् ।
श्रीर्देवसेना विप्रेन्द्र देवसेनापतिर्हरिः ॥ २८ ॥ श्रीकेशव स्वयं वरुण हैं और महाभागा लक्ष्मीजी गौरी हैं, हे द्विजराज ! श्रीहरि देवसेनापति स्वामिकार्तिकेय हैं और श्रीलक्ष्मीजी देवसेना हैं ॥ २८ ॥ अवष्टम्भो गदापाणिः शक्तिर्लक्ष्मीर्द्विजोत्तम ।
काष्ठा लक्ष्मीर्निमेषोऽसौ मुहूर्तोऽसौ कला तु सा ॥ २९ ॥ हे द्विजोत्तम ! भगवान् गदाधर आश्रय हैं और लक्ष्मीजी शक्ति हैं, भगवान् निमेष हैं और लक्ष्मीजी काष्ठा हैं, वे मुहूर्त हैं और ये कला हैं ॥ २९ ॥ ज्योत्स्ना लक्ष्मीः प्रदीपोऽसौ सर्वः सर्वेश्वरो हरिः ।
लताभूता जगन्माता श्रीर्विष्णुर्द्रुमसंज्ञितः ॥ ३० ॥ सर्वेश्वर सर्वरूप श्रीहरि दीपक हैं और श्रीलक्ष्मीजी ज्योति हैं, श्रीविष्णु वृक्षरूप हैं और जगन्माता श्रीलक्ष्मीजी लता हैं ॥ ३० ॥ विभावरी श्रीर्दिवसो देवश्चक्रगदाधरः ।
वरप्रदो वरो विष्णुर्वधूः पद्मवनालया ॥ ३१ ॥ चक्रगदाधरदेव श्रीविष्णु दिन हैं और लक्ष्मीजी रात्रि हैं, वरदायक श्रीहरि वर हैं और पद्मनिवासिनी श्रीलक्ष्मीजी वधू हैं ॥ ३१ ॥ नदस्वरूपी भगवाञ्छ्रीर्नदीरूपसंस्थिता ।
ध्वजश्च पुण्डरीकाक्षः पताका कमलालया ॥ ३२ ॥ भगवान् नद हैं और श्रीजी नदी हैं, कमलनयन भगवान् ध्वजा हैं और कमलालया लक्ष्मीजी पताका हैं ॥ ३२ ॥ तृष्णा लक्ष्मीर्जगन्नाथो लोभो नारायणः परः ।
रतिरागश्च मैत्रेय लक्ष्मीर्गोविन्द एव च ॥ ३३ ॥ जगदीश्वर परमात्मा नारायण लोभ हैं और लक्ष्मीजी तृष्णा हैं तथा हे मैत्रेय ! रति और राग भी साक्षात् श्रीलक्ष्मी और गोविन्दरूप ही हैं ॥ ३३ ॥ किं चाति बहुनोक्तेन सङ्क्षेपेणेदमुच्यते ॥ ३४ ॥
देवतिर्यङ्मनुष्येषु पुन्नामा भगवान्हरिः । स्त्रीनाम्नी श्रीश्च विज्ञेया नानयोर्विद्यते परम् ॥ ३५ ॥ अधिक क्या कहा जाय ? संक्षेपमें, यह कहना चाहिये कि देव, तिर्यक् और मनुष्य आदिमें पुरुषवाची भगवान् हरि हैं और स्त्रीवाची श्रीलक्ष्मीजी, इनके परे और कोई नहीं है ॥ ३४-३५ ॥ इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशेऽष्टमोऽध्यायः
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशे अष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥ |