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॥ विष्णुपुराणम् ॥ प्रथमः अंशः ॥ चतुर्दशोऽध्यायः ॥ पराशर उवाच
पृथोः पुत्रौ महावीर्यौ जज्ञातेऽन्तर्द्धिवादिनौ । शिखण्ड्इनी हविर्धानमन्तर्धानाद्व्यजायत ॥ १ ॥ श्रीपराशरजी बोले-हे मैत्रेय ! पृथुके अन्तर्धान और वादी नामक दो धर्मज्ञ पुत्र हुए; उनमेंसे अन्तर्धानसे उसकी पत्नी शिखण्डिनीने हविर्धानको उत्पन्न किया ॥ १ ॥ हविर्धानात् षडाग्नेयी धिषणाजनयत्सुतान् ।
प्राचीनबर्हिषं शुक्रं गयं कृष्णं वृजाजिनौ ॥ २ ॥ हविर्धानसे अग्निकुलीना धिषणाने प्राचीनबर्हि, शुक्र, गय, कृष्ण, वृज और अजिन-ये छ: पुत्र उत्पन्न किये ॥ २ ॥ प्राचीनबर्हिर्भगवान्महानासीत्प्रजापतिः ।
हविर्धानिर्महाभाग येन संवर्धिताः प्रजाः ॥ ३ ॥ हे महाभाग ! हविर्धानसे उत्पन्न हुए भगवान् प्राचीनबर्हि एक महान् प्रजापति थे, जिन्होंने यज्ञके द्वारा अपनी प्रजाकी बहुत वृद्धि की ॥ ३ ॥ प्राचीनाग्राः कुशास्तस्य पृथिव्यां विश्रुता मुने ।
प्राचीनबर्हिरभवत्ख्यातो भुवि महाबलः ॥ ४ ॥ हे मुने ! उनके समयमें [ यज्ञानुष्ठानकी अधिकताके कारण ] प्राचीनाग्र कुश समस्त पृथिवीमें फैले हुए थे, इसलिये वे महाबली 'प्राचीनबर्हि' नामसे विख्यात हुए ॥ ४ ॥ समुद्रतनयायां तु कृतदारो महीपतिः ।
महतस्तपसः पारे सवर्णायां महीपतेः ॥ ५ ॥ हे महामते ! उन महीपतिने महान् तपस्याके अनन्तर समुद्रकी पुत्री सवर्णासे विवाह किया ॥ ५ ॥ सवर्णाधत्त सामुद्री दश प्राचीनबर्हिषः ।
सर्वे प्रचेतसो नाम धनुर्वेदस्य पारगाः ॥ ६ ॥ उस समुद्रकन्या सवर्णाके प्राचीनबर्हिसे दस पत्र हए । वे प्रचेतानामक सभी पुत्र धनुर्विद्याके पारगामी थे ॥ ६ ॥ अपृथग्धर्मचरणास्तेऽतप्यन्त महत्तपः ।
दश वर्षसहस्राणि समुद्रसलिलेशयाः ॥ ७ ॥ उन्होंने समुद्रके जलमें रहकर दस हजार वर्षतक समान धर्मका आचरण करते हुए घोर तपस्या की ॥ ७ ॥ मैत्रेय उवाच
यदर्थं ते महात्मानस्तपस्तेपुर्महामुने । प्रचेतसः समुद्राम्भस्येतदाख्यातुमर्हसि ॥ ८ ॥ श्रीमैत्रेयजी बोले-हे महामुने ! उन महात्मा प्रचेताओंने जिस लिये समुद्रके जलमें तपस्या की थी सो आप कहिये ॥ ८ ॥ पराशर उवाच
पित्रा प्रचेतसः प्रोक्ताः प्रजार्थममितात्मना । प्रजापतिनियुक्तेन बहुमानपुरःसरम् ॥ ९ ॥ श्रीपराशरजी कहने लगे-हे मैत्रेय ! एक बार प्रजापतिकी प्रेरणासे प्रचेताओंके महात्मा पिता प्राचीनबर्हिने उनसे अति सम्मानपूर्वक सन्तानोत्पत्तिके लिये इस प्रकार कहा ॥ ९ ॥ प्राचीनबर्हिरुवाच
ब्रह्मणा देवदेवेन समादिष्टोऽस्म्यहं सुताः । प्रजाः संवर्धनीयास्ते मया चोक्तं तथेति तत् ॥ १० ॥ प्राचीनबर्हि बोले-हे पुत्रो ! देवाधिदेव ब्रह्माजीने मुझे आज्ञा दी है कि तुम प्रजाकी वृद्धि करो' और मैंने भी उनसे बहुत अच्छा' कह दिया है ॥ १० ॥ तन्मम प्रीतये पुत्राः प्रजावृद्धिमतन्द्रिताः ।
कुरुध्वं माननीया च सम्यगाज्ञा प्रजापतेः ॥ ११ ॥ अत: हे पुत्रगण ! तुम भी मेरी प्रसन्नताके लिये सावधानतापूर्वक प्रजाकी वृद्धि करो, क्योंकि प्रजापतिकी आज्ञा तुमको भी सर्वथा माननीय है ॥ ११ ॥ पराशर उवाच
ततस्ते तत्पितुः श्रुत्वा वचनं नृपनन्दनाः । तथेत्युक्त्वा च तं भूयः पप्रच्छुः पितरं मुने ॥ १२ ॥ श्रीपराशरजी बोले-हे मुने ! उन राजकुमारोंने पिताके ये वचन सुनकर उनसे 'जो आज्ञा' ऐसा कहकर फिर पूछा ॥ १२ ॥ प्रचेतस ऊचुः
येन तात प्रजावृद्धौ समर्थाः कर्मणा वयम् । भवेम तत् समस्तं नः कर्म व्याख्यातुमर्हसि ॥ १३ ॥ प्रचेता बोले-हे तात ! जिस कर्मसे हम प्रजावृद्धिमें समर्थ हो सकें उसकी आप हमसे भली प्रकार व्याख्या कीजिये ॥ १३ ॥ पितोवाच
आराध्य वरदं विष्णुमिष्टप्राप्तिमसंशयम् । समेति नान्यथा मर्त्यः किमन्यत्कथयामि वः ॥ १४ ॥ पिताने कहा-वरदायक भगवान् विष्णुकी आराधना करनेसे ही मनुष्यको निःसन्देह इष्ट वस्तुकी प्राप्ति होती है और किसी उपायसे नहीं । इसके सिवा और मैं तुमसे क्या कहूँ ॥ १४ ॥ तस्मात् प्रजाविवृद्ध्यर्थं सर्वभूतप्रभुं हरिम् ।
आराधयत गोविन्दं यदि सिद्धिमभीप्सथ ॥ १५ ॥ इसलिये यदि तुम सफलता चाहते हो तो प्रजा-वृद्धिके लिये सर्वभूतोंके स्वामी श्रीहरि गोविन्दकी उपासना करो ॥ १५ ॥ धर्ममर्थं च कामं च मोक्षं चान्विच्छतां सदा ।
आराधनीयो भगवाननादिपुरुषोत्तमः ॥ १६ ॥ धर्म, अर्थ, काम या मोक्षकी इच्छावालोंको सदा अनादि पुरुषोत्तम भगवान् विष्णुकी ही आराधना करनी चाहिये ॥ १६ ॥ यस्मिन्नाराधिते सर्गं चकारादौ प्रजापतिः ।
तमाराध्याच्युतं वृद्धिः प्रजानां वो भविष्यति ॥ १७ ॥ कल्पके आरम्भमें जिनकी उपासना करके प्रजापतिने संसारकी रचना की है, तुम उन अच्युतकी ही आराधना करो । इससे तुम्हारी सन्तानकी वृद्धि होगी ॥ १७ ॥ पराशर उवाच
इत्येवमुक्तास्ते पित्रा पुत्राः प्रचेतसो दश । मग्नाः पयोधिसलिले तपस्तेपुः समाहिताः ॥ १८ ॥ श्रीपराशरजी बोले-पिताकी ऐसी आज्ञा होनेपर प्रचेता नामक दसों पुत्रोंने समुद्रके जलमें डूबे रहकर सावधानतापूर्वक तप करना आरम्भ कर दिया ॥ १८ ॥ दश वर्षसहस्राणि न्यस्तचित्ता जगत्पतौ ।
नारायणे मुनिश्रेष्ठ सर्वलोकपरायणे ॥ १९ ॥ तत्रैव ते स्थिता देवमेकाग्रमनसो हरिम् । तुष्टुवुर्यस्स्तुतः कामान् स्तोतुरिष्टान्प्रयच्छति ॥ २० ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! सर्वलोकाश्रय जगत्पति श्रीनारायणमें चित्त लगाये हुए उन्होंने दस हजार वर्षतक वहीं (जलमें ही) स्थित रहकर देवाधिदेव श्रीहरिकी एकाग्र-चित्तसे स्तुति की, जो अपनी स्तुति की जानेपर स्तुति करनेवालोंकी सभी कामनाएँ सफल कर देते हैं । १९-२० ॥ मैत्रेय उवाच
स्तवं प्रचेतसो विष्णोः समुद्राम्भसि संस्थिताः । चक्रुस्तन्मे मुनिश्रेष्ठ सुपुण्यं वक्तुमर्हसि ॥ २१ ॥ श्रीमैत्रेयजी बोले-हे मुनिश्रेष्ठ ! समुद्रके जलमें स्थित रहकर प्रचेताओंने भगवान् विष्णुकी जो अति पवित्र स्तुति की थी वह कृपया मुझसे कहिये ॥ २१ ॥ पराशर उवाच
शृणु मैत्रेय गोविन्दं यथापूर्वं प्रचेतसः । तुष्टुवुस्तन्मयीभूताः समुद्रसलिलेशयाः ॥ २२ ॥ श्रीपराशरजी बोले-हे मैत्रेय ! पूर्वकालमें समुद्रमें स्थित रहकर प्रचेताओंने तन्मयभावसे श्रीगोविन्दकी जो स्तुति की, वह सुनो ॥ २२ ॥ प्रचेतस ऊचुः
नताः स्म सर्ववचसां प्रतिष्ठा यत्र शाश्वती । तमाद्यन्तमशेषस्य जगतः परमं प्रभुम् ॥ २३ ॥ प्रचेताओंने कहा-जिनमें सम्पूर्ण वाक्योंकी नित्यप्रतिष्ठा है [ अर्थात् जो सम्पूर्ण वाक्योंके एकमात्र प्रतिपाद्य हैं] तथा जो जगत्की उत्पत्ति और प्रलयके कारण हैं उन निखिल-जगन्नायक परमप्रभुको हम नमस्कार करते हैं ॥ २३ ॥ ज्योतिराद्यमनौपम्यमण्वनन्तमपारवत् ।
योनिभूतमशेषस्य स्थावरस्य चरस्य च ॥ २४ ॥ यस्याहः प्रथमं रूपमरूपस्य तथा निशा । संध्या च परमेशस्य तस्मै कालात्मने नमः ॥ २५ ॥ जो आद्य ज्योतिस्स्वरूप, अनुपम, अणु, अनन्त, अपार और समस्त चराचरके कारण हैं, तथा जिन रूपहीन परमेश्वरके दिन, रात्रि और सन्ध्या ही प्रथम रूप हैं, उन कालस्वरूप भगवान्को नमस्कार है ॥ २४-२५ ॥ भुज्यतेऽनुदिनं देवैः पितृभिश्च सुधात्मकः ।
जीवभूतः समस्तस्य तस्मै सोमात्मने नमः ॥ २६ ॥ समस्त प्राणियोंके जीवनरूप जिनके अमृतमय स्वरूपको देव और पितृगण नित्यप्रति भोगते हैं-उन सोमस्वरूप प्रभुको नमस्कार है ॥ २६ ॥ यस्तमांस्यत्ति तीव्रात्मा स्वभाभिर्भासयन्नभः ।
घर्मशीताम्भसां योनिस्तस्मै सूर्यात्मने नमः ॥ २७ ॥ जो तीक्ष्णस्वरूप अपने तेजसे आकाशमण्डलको प्रकाशित करते हुए अन्धकारको भक्षण कर जाते हैं तथा जो घाम, शीत और जलके उद्गमस्थान हैं उन सूर्यस्वरूप [नारायण]-को नमस्कार है ॥ २७ ॥ काठिन्यवान् यो बिभर्ति जगदेतदशेषतः ।
शब्दादिसंश्रयो व्यापी तस्मै भूम्यात्मने नमः ॥ २८ ॥ जो कठिनतायुक्त होकर इस सम्पूर्ण संसारको धारण करते हैं और शब्द आदि पाँचों विषयोंके आधार तथा व्यापक हैं, उन भूमिरूप भगवान्को नमस्कार है ॥ २८ ॥ यद्योनिभूतं जगतो बीजं यत्सर्वदेहिनाम् ।
तत्तोयरूपमीशस्य नमामो हरिमेधसः ॥ २९ ॥ जो संसारका योनिरूप है और समस्त देहधारियोंका बीज है, भगवान् हरिके उस जलस्वरूपको हम नमस्कार करते हैं ॥ २९ ॥ यो मुखं सर्वदेवानां हव्यभुक् कव्यभुक् तथा ।
पितॄणां च नमस्तस्मै विष्णवे पावकात्मने ॥ ३० ॥ जो समस्त देवताओंका हव्यभुक् और पितृगणका कव्यभुक् मुख है, उस अग्निस्वरूप विष्णुभगवान्को नमस्कार है ॥ ३० ॥ पञ्चधावस्थितो देहे यश्चेष्टां कुरुतेऽनिशम् ।
आकाशयोनिर्भगवांस्तस्मै वाय्वात्मने नमः ॥ ३१ ॥ जो प्राण, अपान आदि पाँच प्रकारसे देहमें स्थित होकर दिन-रात चेष्टा करता रहता है तथा जिसकी योनि आकाश है, उस वायुरूप भगवान्को नमस्कार है ॥ ३१ ॥ अवकाशमशेषाणां भूतानां यः प्रयच्छति ।
अनन्तमूर्तिमाञ्छुद्धस्तस्मै व्योमात्मने नमः ॥ ३२ ॥ जो समस्त भूतोंको अवकाश देता है उस अनन्तमूर्ति और परम शुद्ध आकाशस्वरूप प्रभुको नमस्कार है ॥ ३२ ॥ समस्तेन्द्रियवर्गस्य यः सदा स्थानमुत्तमम् ।
तस्मै शब्दादिरूपाय नमः कृष्णाय वेधसे ॥ ३३ ॥ समस्त इन्द्रिय-सृष्टिके जो उत्तम स्थान हैं उन शब्द-स्पर्शादिरूप विधाता श्रीकृष्णचन्द्रको नमस्कार है ॥ ३३ ॥ गृह्णाति विषयान्नित्यमिन्द्रियात्मा क्षराक्षरः ।
यस्तस्मै ज्ञानमूलाय नताः स्म हरिमेधसे ॥ ३४ ॥ जो क्षर और अक्षर इन्द्रियरूपसे नित्य विषयोंको ग्रहण करते हैं उन ज्ञानमूल हरिको नमस्कार है ॥ ३४ ॥ गृहीतानिन्द्रियैरर्थानात्मने यः प्रयच्छति ।
अन्तःकरणभूताय तस्मै विश्वात्मने नमः ॥ ३५ ॥ इन्द्रियोंके द्वारा ग्रहण किये विषयोंको जो आत्माके सम्मुख उपस्थित करता है उस अन्तःकरणरूप विश्वात्माको नमस्कार है ॥ ३५ ॥ यस्मिन्ननन्ते सकलं विश्वं यस्मात्तथोद्गतम् ।
लयस्थानं च यस्तस्मै नमः प्रकृतिधर्मिणे ॥ ३६ ॥ जिस अनन्तमें सकल विश्व स्थित है, जिससे वह उत्पन्न हुआ है और जो उसके लयका भी स्थान है उस प्रकृतिस्वरूप परमात्माको नमस्कार है ॥ ३६ ॥ शुद्धः सँल्लक्ष्यते भ्रान्त्या गुणवानिव योऽगुणः ।
तमात्मरूपिणं देवं नताः स्म पुरुषोत्तमम् ॥ ३७ ॥ जो शुद्ध और निर्गुण होकर भी भ्रमवश गुणयुक्त-से दिखायी देते हैं उन आत्मस्वरूप पुरुषोत्तमदेवको हम नमस्कार करते हैं ॥ ३७ ॥ अविकारमजं शुद्धं निर्गुणं यन्निरञ्जनम् ।
नताः स्म तत्परं ब्रह्म विष्णोर्यत्परमं पदम् ॥ ३८ ॥ जो अविकारी, अजन्मा, शुद्ध, निर्गुण, निर्मल और श्रीविष्णुका परमपद है उस ब्रह्मस्वरूपको हम नमस्कार करते हैं ॥ ३८ ॥ अदीर्घह्रस्वमस्थूलमनण्वश्यामलोहितम् ।
अस्नेहच्छायमतनुमसक्तमसमीरणम् ॥ ३९ ॥ जो न लम्बा है, न पतला है, न मोटा है, न छोटा है और न काला है, न लाल है; जो स्नेह (द्रव), कान्ति तथा शरीरसे रहित एवं अनासक्त और अशरीरी (जीवसे भिन्न) है ॥ ३९ ॥ अनाकाशमसंस्पर्शमगन्धमरसं च यत् ।
अचक्षुःश्रोत्रमचलमवाक्पाणिममानसम् ॥ ४० ॥ जो अवकाश स्पर्श, गन्ध और रससे रहित तथा आँख-कान-विहीन, अचल एवं जिह्वा, हाथ और मनसे रहित है । ॥ ४० ॥ अनामगोत्रमसुखमतेजस्कमहेतुकम् ।
अभयं भ्रान्तिरहितमनिद्रमजरामरम् ॥ ४१ ॥ जो नाम, गोत्र, सुख और तेजसे शून्य तथा कारणहीन है; जिसमें भय, भ्रान्ति, निद्रा, जरा और मरण-इन (अवस्थाओं)-का अभाव है ॥ ४१ ॥ अरजोऽशब्दममृतमप्लुतं यदसंवृतम् ।
पूर्वापरे न वै यस्मिंस्तद्विष्णोः परमं पदम् ॥ ४२ ॥ जो अरज (रजोगुणरहित), अशब्द, अमृत, अप्लुत (गतिशून्य) और असंवृत (अनाच्छादित) है एवं जिसमें पूर्वापर व्यवहारकी गति नहीं है वही भगवान् विष्णुका परमपद है ॥ ४२ ॥ परमेशत्वगुणवत्सर्वभूतमसंश्रयम् ।
नताः स्म तत् पदं विष्णोर्जिह्वादृग्गोचरं न यत् ॥ ४३ ॥ जिसका ईशन (शासन) ही परमगुण है, जो सर्वरूप और अनाधार है तथा जिह्वा और दृष्टिका अविषय है, भगवान् विष्णुके उस परमपदको हम नमस्कार करते हैं । ४३ ॥ पराशर उवाच
एवं प्रचेतसो विष्णुं स्तुवन्तस्तत्समाधयः । दश वर्षसहस्राणि तपश्चेरुर्महार्णवे ॥ ४४ ॥ श्रीपराशरजी बोले-इस प्रकार श्रीविष्णुभगवान्में समाधिस्थ होकर प्रचेताओंने महासागरमें रहकर उनकी स्तुति करते हुए दस हजार वर्षतक तपस्या की ॥ ४४ ॥ ततः प्रसन्नो भगवांस्तेषामन्तर्जले हरिः ।
ददौ दर्शनमुन्निद्रनीलोत्पलदलच्छविः ॥ ४५ ॥ तब भगवान् श्रीहरिने प्रसन्न होकर उन्हें खिले हुए नील कमलकी-सी आभायुक्त दिव्य छविसे जलके भीतर ही दर्शन दिया ॥ ४५ ॥ पतत्रिराजमारूढमवलोक्य प्रचेतसः ।
प्रणिपेतुः शिरोभिस्तं भक्तिभारावनामितैः ॥ ४६ ॥ प्रचेताओंने पक्षिराज गरुड़पर चढ़े हुए श्रीहरिको देखकर उन्हें भक्तिभावके भारसे झुके हुए मस्तकोंद्वारा प्रणाम किया ॥ ४६ ॥ ततस्तानाह भगवान् व्रियतामीप्सितो वरः ।
प्रसादसुमुखोऽहं वो वरदः समुपस्थितः ॥ ४७ ॥ तब भगवान्ने उनसे कहा-"मैं तुमसे प्रसन्न होकर तुम्हें वर देनेके लिये आया हूँ, तुम अपना अभीष्ट वर माँगो" ॥ ४७ ॥ ततस्तमूचुर्वरदं प्रणिपत्य प्रचेतसः ।
यथा पित्रा समादिष्टं प्रजानां वृद्धिकारणम् ॥ ४८ ॥ तब प्रचेताओंने वरदायक श्रीहरिको प्रणाम कर, जिस प्रकार उनके पिताने उन्हें प्रजा-वृद्धिके लिये आज्ञा दी थी वह सब उनसे निवेदन की ॥ ४८ ॥ स चापि देवस्तं दत्त्वा यथाभिलषितं वरम् ।
अन्तर्धानं जगामाशु ते च निश्चक्रमुर्जलात् ॥ ४९ ॥ तदनन्तर, भगवान् उन्हें अभीष्ट वर देकर अन्तर्धान हो गये और वे जलसे बाहर निकल आये ॥ ४९ ॥ इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशे चतुर्दशोऽध्यायः
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशे चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥ |