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॥ विष्णुपुराणम् ॥ प्रथमः अंशः ॥ षोडशोऽध्यायः ॥ मैत्रेय उवाच
कथितो भवता वंशो मानवानां महामुने । कारणं चास्य जगतो विष्णुरेव सनातनः ॥ १ ॥ श्रीमैत्रेयजी बोले-आपने महात्मा मनुपुत्रोंके वंशोंका वर्णन किया और यह भी बताया कि इस जगत्के सनातन कारण भगवान् विष्णु ही हैं ॥ १ ॥ यत्त्वेतद् भगवानाह प्रह्लादं दैत्यसत्तमम् ।
ददाह नाग्निर्नास्त्रैश्च क्षुण्णस्तत्याज जीवितम् ॥ २ ॥ किन्तु, भगवन् ! आपने जो कहा कि दैत्यश्रेष्ठ प्रह्लादजीको न तो अग्निने ही भस्म किया और न उन्होंने अस्त्र-शस्त्रोंसे आघात किये जानेपर ही अपने प्राणोंको छोड़ा ॥ २ ॥ जगाम वसुधा क्षोभं यत्राब्धिसलिले स्थिते ।
पाशैर्बद्धे विचलति विक्षिप्ताङ्गैः समाहता ॥ ३ ॥ तथा पाशबद्ध होकर समुद्रके जलमें पड़े रहनेपर उनके हिलते-डुलते हुए अंगोंसे आहत होकर पृथिवी डगमगाने लगी ॥ ३ ॥ शैलैराक्रान्तदेहोऽपि न ममार च यः पुरा ।
त्वयैवातीव माहात्म्यं कथितं यस्य धीमतः ॥ ४ ॥ और शरीरपर पत्थरोंकी बौछार पड़नेपर भी वे नहीं मरे । इस प्रकार जिन महाबुद्धिमान्का आपने बहुत ही महात्म्य वर्णन किया है ॥ ४ ॥ तस्य प्रभावमतुलं विष्णोर्भक्तिमतो मुने ।
श्रोतुमिच्छामि यस्यैतच्चरितं दीप्ततेजसः ॥ ५ ॥ हे मुने ! जिन अति तेजस्वी माहात्माके ऐसे चरित्र हैं, मैं उन परम विष्णुभक्तका अतुलित प्रभाव सुनना चाहता हूँ ॥ ५ ॥ किंनिमित्तमसौ शस्त्रैर्विक्षतो दितिजैर्मुने ।
किमर्थं चाब्धिसलिले निक्षिप्तो धर्मतत्परः ॥ ६ ॥ हे मुनिवर ! वे तो बड़े ही धर्मपरायण थे; फिर दैत्योंने उन्हें क्यों अस्त्र-शस्त्रोंसे पीड़ित किया और क्यों समुद्रके जलमें डाला ? ॥ ६ ॥ आक्रान्तः पर्वतैः कस्मात् द्दष्टश्चैव महोरगैः ।
क्षिप्तः किमद्रिशिखरात्किं वा पावकसञ्चये ॥ ७ ॥ उन्होंने किसलिये उन्हें पर्वतोंसे दबाया ? किस कारण साँसे इंसाया ? क्यों पर्वतशिखरसे गिराया और क्यों अग्निमें डलवाया ? ॥ ७ ॥ दिग्दन्तिनां दन्तभूमिं स च कस्मान्निरूपितः ।
संशोषकोऽनिलश्चास्य प्रयुक्तः किं महासुरैः ॥ ८ ॥ उन महादैत्योंने उन्हें दिग्गजोंके दाँतोंसे क्यों रुधवाया और क्यों सर्व शोषक वायुको उनके लिये नियुक्त किया ? ॥ ८ ॥ कृत्यां च दैत्यगुरवो युयुजुस्ते तु किं मुने ।
शम्बरश्चापि मायानां सहस्रं किं प्रयुक्तवान् ॥ ९ ॥ हे मुने ! उनपर दैत्यगुरुओंने किसलिये कृत्याका प्रयोग किया और शम्बरासुरने क्यों अपनी सहस्रों मायाओंका वार किया ? ॥ ९ ॥ हालाहलं विषमहो दैत्यसूदैर्महात्मनः ।
कस्माद्दत्तं विनाशाय यज् जीर्णं तेन धीमता ॥ १० ॥ उन महात्माको मारनेके लिये दैत्यराजके रसोइयोंने, जिसे वे महाबुद्धिमान पचा गये थे ऐसा हलाहल विष क्यों दिया ? ॥ १० ॥ एतत्सर्वं महाभाग प्रह्लादस्य महात्मनः ।
चरितं श्रोतुमिच्छामि महामाहात्म्यसूचकम् ॥ ११ ॥ हे महाभाग ! महात्मा प्रह्लादका यह सम्पूर्ण चरित्र, जो उनके महान् माहात्म्यका सूचक है, मैं सुनना चाहता हूँ ॥ ११ ॥ न हि कौतूहलं तत्र यद्दैत्यैर्न हतो हि सः ।
अनन्यमनसो विष्णौ कः समर्थो निपातने ॥ १२ ॥ यदि दैत्यगण उन्हें नहीं मार सके तो इसका मुझे कोई आश्चर्य नहीं है, क्योंकि जिसका मन अनन्यभावसे भगवान् विष्णुमें लगा हुआ है उसको भला कौन मार सकता है ? ॥ १२ ॥ तस्मिन् धर्मपरे नित्यं केशवाराधनोद्यते ।
स्ववंशप्रभवैर्दैत्यैः कर्तुं द्वेषोऽतिदुष्करः ॥ १३ ॥ [ आश्चर्य तो इसीका है कि ] जो नित्यधर्मपरायण और भगवदाराधनामें तत्पर रहते थे, उनसे उनके ही कुलमें उत्पन्न हुए दैत्योंने ऐसा अति दुष्कर द्वेष किया ! [ क्योंकि ऐसे समदर्शी और धर्मभीरु पुरुषोंसे तो किसीका भी द्वेष होना अत्यन्त कठिन है ] ॥ १३ ॥ धर्मात्मनि महाभागे विष्णुभक्ते विमत्सरे ।
दैतेयैः प्रहृतं कस्मात्तन्ममाख्यातुमर्हसि ॥ १४ ॥ उन धर्मात्मा, महाभाग, मत्सरहीन विष्णु-भक्तको दैत्योंने किस कारणसे इतना कष्ट दिया, सो आप मुझसे कहिये ॥ १४ ॥ प्रहरन्ति महात्मानो विपक्षे अपि नेदृशे ।
गुणैस्समन्विते साधौ किं पुनर्यः स्वपक्षजः ॥ १५ ॥ महात्मालोग तो ऐसे गुण-सम्पन्न साधु पुरुषोंके विपक्षी होनेपर भी उनपर किसी प्रकारका प्रहार नहीं करते, फिर स्वपक्षमें होनेपर तो कहना ही क्या है ? ॥ १५ ॥ तदेतत् कथ्यतां सर्वं विस्तरान्मुनिपुङ्गव ।
दैत्येश्वरस्य चरितं श्रोतुमिच्छाम्यशेषतः ॥ १६ ॥ इसलिये हे मुनिश्रेष्ठ ! यह सम्पूर्ण वृत्तान्त विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये । मैं उन दैत्यराजका सम्पूर्ण चरित्र सुनना चाहता हूँ ॥ १६ ॥ इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशे षोडशोऽध्यायः
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशे षोडशोऽध्यायः ॥ १६ ॥ |