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॥ विष्णुपुराणम् ॥

द्वितीयः अंशः

॥ एकादशोऽध्यायः ॥

मैत्रेय उवाच
यदेतद्‍भगवानाह गणः सप्तविधो रवेः ।
मण्डले हिमतापादेः कारणं तन्मया श्रुतम् ॥ १ ॥
श्रीमैत्रेयजी बोले-भगवन् ! आपने जो कहा कि सूर्यमण्डलमें स्थित सातों गण शीत-ग्रीष्म आदिके कारण होते हैं, सो मैंने सुना ॥ १ ॥

व्यापारश्चापिकथितो गन्धर्वोरगरक्षसाम् ।
ऋषीणां वालखिल्यानां तथैवाप्सरसां गुरो ॥ २ ॥
यक्षाणां च रथे भानोर्विष्णुशक्तिधृतात्मनाम् ।
किं चादित्यस्य यत्कर्म तन्नात्रोक्तं त्वया मुने ॥ ३ ॥
हे गुरो ! आपने सूर्यके रथमें स्थित और विष्णु-शक्तिसे प्रभावित गन्धर्व, सर्प, राक्षस, ऋषि, बालखिल्यादि, अप्सरा तथा यक्षोंके तो पृथक्-पृथक् व्यापार बतलाये, किंतु हे मुने ! यह नहीं बतलाया कि सूर्यका कार्य क्या है ? ॥ २-३ ॥

यदि सप्तगणो वारि हिममुष्णं च वर्षति ।
तत्किमत्र रवेर्येन वृष्टिः सूर्यादितीर्यते ॥ ४ ॥
यदि सातों गण ही शीत, ग्रीष्म और वर्षाके करनेवाले हैं तो फिर सूर्यका क्या प्रयोजन है ? और यह कैसे कहा जाता है कि वृष्टि सूर्यसे होती है ? ॥ ४ ॥

विवस्वानुदितो मध्ये यात्यस्तमिति किं जनः ।
ब्रवीत्येतत्समं कर्म यदि सप्तगणस्य तत् ॥ ५ ॥
यदि सातों गणोंका यह वृष्टि आदि कार्य समान ही है तो 'सूर्य उदय हुआ, अब मध्यमें है, अब अस्त होता हैं' ऐसा लोग क्यों कहते हैं ? ॥ ५ ॥

पराशर उवाच
मैत्रेय श्रूयतामेतद्यद्‍भवान्परिपृच्छ्ति ।
यथा सप्तगणोप्येकः प्राधान्येनाधिको रविः ॥ ६ ॥
श्रीपराशरजी बोले-हे मैत्रेय ! जो कुछ तुमने पूछा है उसका उत्तर सुनो, सूर्य सात गणों से ही एक हैं तथापि उनमें प्रधान होनेसे उनकी विशेषता है ॥ ६ ॥

सर्वशक्तिः परा विष्णर्ऋग्यजुःसामसंज्ञिता ।
सैषात्रयी तपत्यंहो जगतश्च हिनस्ति या ॥ ७ ॥
भगवान् विष्णुको जो सर्वशक्तिमयी ऋक्, यजुः, साम नामकी परा शक्ति है वह वेदत्रयी ही सूर्यको ताप प्रदान करती है और [उपासना किये जानेपर संसारके समस्त पापोंको नष्ट कर देती है ॥ ७ ॥

सैष विष्णुः स्थितः स्थित्यां जगतः पालनोद्यतः ।
ऋग्यजुः सामभूतोन्तः सवितुर्द्विजतिष्ठति ॥ ८ ॥
हे द्विज ! जगत्को स्थिति और पालनके लिये वे ऋक्, यजुः और सामरूप विष्णु सूर्यके भीतर निवास करते हैं ॥ ८ ॥

मासि मासि रविर्योयस्तत्र तत्र हि सा परा ।
त्रयीमयी विष्णुशक्तिरवस्थानं करोति वै ॥ ९ ॥
प्रत्येक मासमें जो-जो सूर्य होता है उसी उसीमें वह वेदत्रयीरूपिणी विष्णुकी परा शक्ति निवास करती है ॥ ९ ॥

ऋचः स्तुवन्तिः पूर्वाह्ने मध्याह्नेऽथ यजूंषि वै ।
बृहद्रथन्तरादीनि सामान्यह्नः क्षये रविम् ॥ १० ॥
पूर्वालमें ऋक्, मध्याहनमें बृहद्रथन्तरादि यजुः तथा सायंकालमें सामश्रुतियाँ सूर्यकी स्तुति करती हैं ॥ १० ॥

अङ्‍गमेषा त्रयी विष्णोर्ऋग्यजुः सामसंज्ञिता ।
विष्णुशक्तिरवस्थानं सदादित्ये करोति सा ॥ ११ ॥
यह ऋक् यजुः-सामस्वरूपिणी वेदत्रयी भगवान् विष्णुका ही अंग है । यह विष्णु शक्ति सर्वदा आदित्यमें रहती है ॥ ११ ॥

न केवलं रवेः शक्तिर्वैष्णवी सा त्रयीमयी ।
ब्रह्माथ पुरुषो रुद्रस्त्रयमेतत्त्रयीमयम् ॥ १२ ॥
यह त्रयीमयी वैष्णवी शक्ति केवल सूर्यहीकी अधिष्ठात्री हो, सो नहीं; बल्कि ब्रह्मा, विष्णु और महादेव भी त्रयीमय ही हैं ॥ १२ ॥

सर्गादौ ऋङ्‍मयो ब्रह्मा स्थितौ विष्णुर्यजुर्मयः ।
रुद्रः साममयोऽन्ताय तस्मात्तस्याशुचिर्ध्वनिः ॥ १३ ॥
सर्गके आदिमें ब्रह्मा ऋङ्मय हैं, उसकी स्थितिके समय विष्णु यजुर्मय हैं तथा अन्तकालमें रुद्र साममय हैं । इसीलिये सामगानकी ध्वनि अपवित्र * मानी गयी है ॥ १३ ॥

एवं सा सात्त्विकी शक्तिर्वैष्णवी या त्रयीमयी ।
आत्मसप्तगणस्थं तं भास्वन्तमधितिष्ठति ॥ १४ ॥
इस प्रकार वह त्रयीमयी सात्त्विकी वैष्णवी शक्ति अपने सप्तगणोंमें स्थित आदित्यमें ही [अतिशयरूपसे] अवस्थित होती है ॥ १४ ॥

तया चाधिष्ठितः सोऽपि जाज्वलीति स्वरश्मिभिः ।
तमः समस्तजगतां नाशं नयति चाखिलम् ॥ १५ ॥
उससे अधिष्ठित सूर्यदेव भी अपनी प्रखर रश्मियोंसे अत्यन्त प्रज्वलित होकर संसारके सम्पूर्ण अन्धकारको नष्ट कर देते हैं ॥ १५ ॥

स्तुवन्ति चैनं मुनयो गन्धर्वैर्गीयते पुरः ।
नृत्यन्त्योऽप्सरसो यान्ति तस्य चानु निशाचराः ॥ १६ ॥
वहन्ति पन्नगा यक्षैः क्रियतेऽभीषुसङ्‍ग्रहः ।
वालखिल्यास्तथैवैनं परिवार्य समासते ॥ १७ ॥
टन सूर्यदेवकी मुनिगण स्तुति करते हैं, गन्धर्वगण उनके सम्मुख यशोगान करते हैं । अप्सराएँ नृत्य करती हुई चलती हैं, राक्षस रथके पीछे रहते हैं, सर्पगण रथका साज सजाते हैं और यक्ष घोड़ोंकी बागडोर सँभालते हैं तथा बालखिल्यादि रथको सब ओरसे घेरे रहते हैं ॥ १६-१७ ॥

नोदेता नास्तमेता च कदाचिच्छक्तिरूपधृक् ।
विष्णुर्विष्णोः पृथक् तस्य गणस्सप्तविधोऽप्ययम् ॥ १८ ॥
त्रयीशक्तिरूप भगवान् विष्णुका न कभी उदय होता है और न अस्त [अर्थात् वे स्थायीरूपसे सदा विद्यमान रहते हैं]; ये सात प्रकारके गण तो उनसे पृथक् हैं ॥ १८ ॥

स्तम्भस्थदर्पणस्येव योऽयमासन्नतां गतः ।
छायादर्शनसंयोगं स तं प्राप्नोत्यथात्मनः ॥ १९ ॥
स्तम्भमें लगे हुए दर्पणके निकट जो कोई जाता है उसीको अपनी छाया दिखायी देने लगती है ॥ १९ ॥

एवं सा वैष्णवी शक्तिर्नैवापैति ततो द्विज ।
मासानुमासं भास्वन्तमध्यास्ते तत्र संस्थितम् ॥ २० ॥
हे द्विज ! इसी प्रकार वह वैष्णवी शक्ति सूर्यके रथसे कभी चलायमान नहीं होती और प्रत्येक मासमें पृथक्-पृथक् सूर्यके [परिवर्तित होकर] उसमें स्थित होनेपर वह उसकी अधिष्ठात्री होती है ॥ २० ॥

पितृदेवमनुष्यादीन्स सदाप्याययन्प्रभुः ।
परिवर्तत्यहोरात्रकारणं सविता द्विज ॥ २१ ॥
हे द्विज ! दिन और रात्रिके कारणस्वरूप भगवान् सूर्य पितृगण, देवगण और मनुष्यादिको सदा तृप्त करते घूमते रहते हैं ॥ २१ ॥

सूर्यरश्मिः सुषुम्णा यस्तर्पितस्तेन चन्द्रमाः ।
कृष्णपक्षेऽमरैः शश्वत्पीयते वै सुधामयः ॥ २२ ॥
सूर्यकी जो सुषुम्ना नामकी किरण है उससे शुक्लपक्षमें चन्द्रमाका पोषण होता है और फिर कृष्णपक्षमें उस अमृतमय चन्द्रमाकी एक-एक कलाका देवगण निरन्तर पान करते हैं ॥ २२ ॥

पीतं तं द्विकलं सोमं कृष्णपक्षक्षये द्विज ।
पिबन्ति पितरस्तेषां भास्करात्तर्पण तथा ॥ २३ ॥
हे द्विज ! कृष्णपक्षके क्षय होनेपर [चतुर्दशीके अनन्तर] दो कलायुक्त चन्द्रमाका पितृगण पान करते हैं । इस प्रकार सूर्यद्वारा पितृगणका तर्पण होता है ॥ २३ ॥

आदत्ते रश्मिभिर्यन्तु क्षितिसंस्थं रसं रविः ।
तमुत्सृजति भूतानां पुष्ट्यर्थं सस्यवृद्धये ॥ २४ ॥
सूर्य अपनी किरणोंसे पृथिवीसे जितना जल खींचता है उस सबको प्राणियोंकी पुष्टि और अन्नकी वृद्धिके लिये बरसा देता है ॥ २४ ॥

तेन प्रीणात्यशेषाणि भूतानि भगवान् रविः ।
पितृदेवमनुष्यादीनेवमाप्याययत्यसौ ॥ २५ ॥
उससे भगवान् सूर्य समस्त प्राणियोंको आनन्दित कर देते हैं और इस प्रकार वे देव, मनुष्य और पितृगण आदि सभीका पोषण करते हैं ॥ २५ ॥

पक्षतृप्तिं तु देवानां पितॄणां चैव मासिकीम् ।
शश्वत्तृप्तिं च मर्त्यानां मैत्रेयार्कः प्रयच्छति ॥ २६ ॥
हे मैत्रेय ! इस रीतिसे सूर्यदेव देवताओंकी पाक्षिक, पितृगणकी मासिक तथा मनुष्योंकी नित्यप्रति तृप्ति करते रहते हैं । ॥ २६ ॥

इति श्रीविष्णुमहापुराणे द्वितीयेंश एकादशोऽध्यायः (११)
इति श्रीविष्णुपुराणे द्वितीयेऽशे एकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥



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