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॥ ॐ परमात्मने नमः ॥
॥ श्रीअग्निपुराणम् ॥
षष्ठोऽध्यायः ॥ रामायणेऽयोध्याकाण्डम् -
अयोध्याकाण्डकी संक्षिप्त कथा - नारद उवाच - भरतेऽथ गते रामः पित्रादीनभ्यपूजयत् । राजा दशरथो रामं उवाच शृणु राघव ॥ १ ॥ गुणानुरागाद्राज्ये त्वं प्रजाभिरभिषेचितः । मनसाऽहं प्रभाते ते यौवराज्यं ददामि ह ॥ २ ॥ रात्रौ त्वं सीतया सार्धं संयतः सुव्रतो भव । राज्ञश्च मन्त्रिणश्चाष्टौ सवसिष्ठास्तथा&ब्रुवन् ॥ ३ ॥ दृष्टिर्जयन्तो विजयः सिद्धार्थो राष्ट्रवर्धनः । अशोको धर्मपालश्च सुमन्त्रः सवसिष्ठकः ॥ ४ ॥ पित्रादिवचनं श्रुत्वा तथेत्युक्त्वा स राघवः । स्थितो देवार्चनं कृत्वा कौसल्यायै निवेद्य तत् ॥ ५ ॥ राजोवाच वसिष्ठादीन् रामराज्याभिषेचने । सम्भारान्संभवन्तु स्म इत्युक्त्वा कैकेयीं गतः ॥ ६ ॥ अयोध्यालङ्कृतिं दृष्ट्वा ज्ञात्वा रामाभिषेचनम् । भविष्यतीत्याचचक्षे कैकेयीं मन्थरा सखी ॥ ७ ॥ पादौ गृहीत्वा रामेण कर्षिता साऽपराधतः । तेन वैरेण सा रामं वनवासं च काङ्क्षति ॥ ८ ॥ नारदजी कहते हैं- भरतके ननिहाल चले जानेपर लक्ष्मणसहित श्रीरामचन्द्रजी ही पिता-माता आदिके सेवा-सत्कारमें रहने लगे । एक दिन राजा दशरथने श्रीरामचन्द्रजीसे कहा- 'रघुनन्दन । मेरी बात सुनो । तुम्हारे गुणोंपर अनुरक्त हो प्रजाजनोंने मन-ही-मन तुम्हें राजसिंहासनपर अभिषिक्त कर दिया है - प्रजाकी यह हार्दिक इच्छा है कि तुम युवराज बनो; अतः कल प्रातःकाल में तुम्हें युवराजपद प्रदान कर दूँगा । आज रातमें तुम सीता-सहित उत्तम व्रतका पालन करते हुए संयमपूर्वक रहो ।' राजाके आठ मंत्रियो तथा वसिष्ठजीने भी उनकी इस बातका अनुमोदन किया । उन आठ मन्त्रियोंके नाम इस प्रकार हैं - दृष्टि, जयन्त, विजय, सिद्धार्थ, राज्यवर्धन, अशोक, धर्मपाल तथा सुमन्त्र । इनके अतिरिक्त वसिष्ठजी भी मन्त्रणा देते थे । पिता और मन्त्रियोंकी बातें सुनकर श्रीरघुनाथजीने 'तथास्तु' कहकर उनकी आज्ञा शिरोधार्य की आर माता कौसल्याको यह शुभ समाचार बताकर देवताओंकी पूजा करके वे संयममें स्थित हो गये । उधर महाराज दशरथ वसिष्ठ आदि मन्त्रियोंको यह कहकर कि 'आपलोग श्रीरामचन्द्रके राज्याभिषेककी सामग्री जुटायें, कैकेयीके भवनमें चले गये । कैकेयीके मन्थरा नामक एक दासी थी, जो बडी दुष्टा थी । उसने अयोध्याकी सजावट होती देख, श्रीरामचन्द्रजीके राज्याभिषेककी बात जानकर रानी कैकेयीसे सारा हाल कह सुनाया । एक बार किसी अपराधके कारण श्रीरामचन्द्रजीने मन्थराको उसके पैर पकडकर घसीटा था । उसी वैरके कारण वह सदा यही चाहती थी कि रामका वनवास हो जाय ॥ १-८ ॥ कैकेयि त्वं समुत्तिष्ठ रामराज्याभिषेचनम् । मरणं तव पुत्रस्य मम ते नात्र संशयः ॥ ९ ॥ मन्थरा बोली-कैकेयी ! तुम उठो, रामका राज्याभिषेक होने जा रहा है । यह तुम्हारे पुत्रके लिये, मेरे लिये और तुम्हारे लिये भी मृत्युके समान भयंकर वृत्तान्त है-इसमें कोई संदेह नहीं है ॥ ९ ॥ कुब्जयोक्तं च तच्छ्रुत्वा एकमाभरणं ददौ । उवाच मे यथा रामस्तथा मे भरतः सुतः ॥ १० ॥ उपायं तं न पश्यामि भरतो येन राज्यभाक् । कैकेयीमब्रवीत्क्रुद्धा हारं त्यक्त्वाथ मन्थरा ॥ ११ ॥ मन्थरा कुबडी थी । उसकी बात सुनकर रानी कैकेयीको प्रसन्नता हुई । उन्होंने कुब्जाको एक आभूषण उतारकर दिया और कहा - 'मेरे लिये तो जैसे राम हैं, वैसे ही मेरे पुत्र भरत भी हैं । मुझे ऐसा कोई उपाय नहीं दिखायी देता, जिससे भरतको राज्य मिल सके ।' मंथराने उस हारको फेक दिया और कुपित होकर कैकेयीसे कहा ॥ १०-११ ॥ मन्थरोवाच बालिशे रक्ष भरतमात्मानं मां च राघवात् । भविता राघवो राजा राघवस्य ततः सुताः ॥ १२ ॥ राजवंशस्तु कैकेयि भरतात्परिहास्यते । देवासुरे पुरा युद्धे शम्बरेण हताः सुराः ॥ १३ ॥ रात्रौ भर्ता गतस्तत्र रक्षितो विद्यया त्वया । वरद्वयं तदा प्रादाद्याचेदानीं नृपं च तत् ॥ १४ ॥ रामस्य च वनेवासं नव वर्षाणि पञ्च च । यौवराज्यं च भरते तदिदानीं प्रदास्यति ॥ १५ ॥ मन्थरा बोली - ओ नादान ! तू भरतको, अपनेको और मुझे भी रामसे बचा । कल राम राजा होंगे । फिर रामके पुत्रोंको राज्य मिलेगा । कैकेयी ! अब राजवंश भरतसे दूर हो जायगा । [ मैं भरतको राज्य दिलानेका एक उपाय बताती हूँ ।] पहलेकी बात हे । देवासुर-संग्राममें शम्बरासुरने देवताओंको मार भगाया था । तेरे स्वामी भी उस युद्धमें गये थे । उस समय तूने अपनी विद्यासे रातमें स्वामीकी रक्षा की थी । इसके लिये महाराजने तुम्हें दो वर देनेकी प्रतिज्ञा की थी । इस समय उन्हीं दोनों वरोंको उनसे माँग । एक वरके द्वारा रामका चौदह वर्षोके लिये वनवास और दूसरेके द्वारा भरतका युवराजपदपर अभिषेक माँ ले । राजा इस समय वे दोनो वर दे देंगे ॥ १२-१५ ॥ प्रोत्साहिता कुब्जया सा अनर्थे चार्थदर्शिनी । उवाच सदुपायो मे कथितः स कारयिष्यति ॥ १६ ॥ क्रोधागारं प्रविश्याथ पतिता भुवि मूर्छिता । द्विजादीनर्चयित्वाऽथ राजा दशरथस्तदा ॥ १७ ॥ ददर्श केकयीं रुष्टामुवाच कथमीदृशी । रोगार्ता किं भयोद्विग्ना किमिच्छसि करोमि तत् ॥ १८ ॥ येन रामेण हि विना न जीवामि मुहूर्तकम् । शपामि तेन कुर्यां वै वाञ्छितं तव सुन्दरि ॥ १९ ॥ सत्यं ब्रूहीति सोवाच नृपं मह्यं ददासि चेत् । वरद्वयं पूर्वदत्तं सत्यार्थं देहि मे नृप ॥ २० ॥ चतुर्दश समा रामो वने वसतु संयतः । सम्भारैरेभिरद्यैव भरतोऽत्राभिषेच्यताम् ॥ २१ ॥ विषं पीत्वा मरिष्यामि दास्यसि त्वं न चेन्नृप । तच्छ्रुत्वा मूर्छितो भूमौ वज्राहत इवापतत् ॥ २२ ॥ मुहूर्ताच्चेतनां प्राप्य कैकेयीमिदमब्रवीत् । किं कृतं तव रामेण मया वा पापनिश्चये ॥ २३ ॥ इस प्रकार न्मन्यतके प्रोत्साहन देनेपर कैकेयी अनर्थमें ही अर्थकी सिद्धि देखने लगी और बोली - 'कुब्जे ! तूने बडा अच्छा उपाय बताया है । राजा मेरा मनोरथ अवश्य पूर्ण करेंगे ।' ऐसा कहकर वह कोपभवनमें चली गयी और पृथ्वीपर अचेतसी होकर पडी रही । उधर महाराज दशरथ ब्राह्मण आदिका पूजन करके जब कैकेयीके भवनमें आये तो उसे रोषमें भरी हुई देखा । तब राजाने पूछा - 'सुन्दरी ! तुम्हारी ऐसी दशा क्यों हो रही हैं ? तुम्हें कोई रोग तो नहीं सता रहा है ? अथवा किसी भयसे व्याकुल तो नहीं हो ? बताओ, क्या चाहती हो ? मैं अभी तुम्हारी इच्छा पूर्ण करता हूँ । जिन श्रीरामके बिना मैं क्षणभर भी जीवित नहीं रह सकता, उन्हींकी शपथ खाकर कहता हूँ तुम्हारा मनोरथ अवश्य पूर्ण करूँगा । सच-सच बताओ, क्या चाहती हो ?' कैकेयी बोली-'राजन् । यदि आप मुझे कुछ देना चाहते हों, तो अपने सत्यकी रक्षाके लिये पहलेके दिये हुए दो वरदान देनेकी कृपा करें । मैं चाहती हूँ राम चौदह वर्षोंतक संयमपूर्वक वनमें निवास करे और इन सामग्रियोंके द्वारा आज ही भरतका युवराजपदपर अभिषेक हो जाय । महाराज । यदि ये दोनों वरदान आप मुझे नहीं देंगे तो मैं विष पीकर मर जाऊँगी ।' यह सुनकर राजा दशरथ वज्रसे आहत हुएकी भाँति मूर्च्छित होकर भूमिपर गिर पडे । फिर थोडी देरमें चेत होनेपर उन्होंने कैकेयीसे कहा ॥ १६-२३ ॥ यन्मामेवं ब्रवीषि त्वं सर्वलोकाप्रियङ्करि । केवलं त्वत्प्रियं कृत्वा भविष्यामि सुनिन्दितः ॥ २४ ॥ न त्वं भार्या कालरात्रीर्भरतो नेदृशः सुतः प्रशाधि विधवा राज्यं मृते मयि गते सुते ॥ २५ ॥ दशरथ बोले-पापपूर्ण विचार रखनेवाली कैकेयी ! तू समस्त संसारका अप्रिय करनेवाली है । अरी ! मैने या रामने तेत क्या बिगाडा है, जो तू मुझसे ऐसी जात कहती है ? केवल तुम्हें प्रिय लगनेवाला यह कार्य करके मैं संसारमें भलीभाँति निन्दित हो जाऊँगा । तू मेरी स्त्री नहीं, कालरात्रि है । मेरा पुत्र भरत ऐसा नहीं है । पापिनी ! मेरे पुत्रके चले जानेपर जब मैं मर जाऊँगा तो तू विधवा होकर राज्य करना ॥ २४-२५ ॥ सत्यपाशनिबद्धस्तु राममाहूय चाब्रवीत् । कैकेय्या वञ्चितो राम राज्यं कुरु निगृह्य माम् ॥ २६ ॥ त्वया वने तु वस्तव्यं कैकेयीभरतो नृपः । पितरं चैव कैकेयीं नमस्कृत्य प्रदक्षिणम् ॥ २७ ॥ कृत्वा नत्वा च कौसल्यां समाश्वस्य सलक्ष्मणः सीतया भार्यया सार्धं सरथः ससुमन्त्रकः ॥ २८ ॥ दत्वा दानानि विप्रेभ्यो दीनानाथेभ्य एव सः । मातृभिश्चैव पित्राद्यैः शोकार्तैर्निर्गतः पुरात् ॥ २९ ॥ उषित्वा तमसातीरे रात्रौ पौरान्विहाय च । प्रभाते तमपश्यन्तोऽयोध्यां ते पुनरागताः ॥ ३० ॥ रुदन्राजाऽपि कौसल्यागृहमागात्सुदुःखितः । पौरा जना स्त्रियः सर्वा रुरुदू राजयोषितः ॥ ३१ ॥ रामो रथस्थश्चीराढ्यः शृङ्गवेरपुरं ययौ । गुहेन पूजितस्तत्र इङ्गुदीमूलमाश्रितः ॥ ३२ ॥ लक्ष्मणः स गुहो रात्रौ चक्रतुर्जागरं हि तौ । सुमन्त्रं सरथं त्यक्त्वा प्रातर्नावाऽथ जाह्नवीम् ॥ ३३ ॥ राजा दशरथ सत्यके बंधनमें बँधे थे । उन्द्वोंने श्रीरामचन्द्रजीको बुलाकर कहा - 'बेटा । कैकेयीने मुझे ठग लिया । तुम मुझे कैद करके राज्यको अपने अधिकारमें कर लो । अन्यथा तुम्हें वनमें निवास करना होगा और कैकेयीका पुत्र भरत राजा बनेगा ।' श्रीरामचन्द्रजीने पिता और कैकेयीको प्रणाम करके उनकी प्रदक्षिणा की और कौसल्याके चरणोमें मस्तक झुकाकर उन्हें सांत्वना दी । फिर लक्ष्मण और पत्नी सीताको साथ ले, ब्राह्मणो, दीनों और अनाथोंको दान देकर, सुमन्त्रसहित रथपर बैठकर वे नगरसे बाहर निकले । उस समय माता-पिता आदि शोकसे आतुर हो रहे थे । उस रातमें श्रीरामचन्द्रजीने तमसा नदीके तटपर निवास किया । उनके साथ बहुतसे पुरवासी भी गये थे । उन सबको सोते छोडकर वे आगे बढ गये । प्रातःकाल होनेपर जब श्रीरामचन्द्रजी नहीं दिखायी दिये तो नगरनिवासी निराश होकर पुनः अयोध्या लौट आये । श्रीरामचन्द्रजीके चले जानेसे राजा दशरथ बहुत दुःखी हुए । वे रोते-रोते कैकेयीका महल छोडकर कौसल्याके भवनमें चले आये । उस समय नगरके समस्त स्त्रीपुरुष और रानिवासकी स्त्रियाँ फूट-फूटकर रो रही श्री । श्रीरामचन्द्रजीने चीरवस्त्र धारण कर रखा था । वे रथपर बैठे-बैठे शृङ्गवेरपुर जा पहुँचे । वहां निषादराज गुहने उनका पूजन, स्वागत-सत्कार किया । श्रीरघुनाथजीने इङ्गुदी वृक्षकी जडके निकट विश्राम किया । लक्ष्मण और गुह दोनो रातभर जागकर पहरा देते रहे ॥ २६-३३ ॥ रामलक्ष्मणसीताश्च तीर्त्वा तेऽगुः प्रयागकम् । भरद्वाजं नमस्कृत्य चित्रकूटं गिरिं ययुः ॥ ३४ ॥ वास्तुपूजां तत्र कृत्वा स्थिता मन्दाकिनीतटे । सीतायै दर्शयामास चित्रकूटं च राघवः ॥ ३५ ॥ नखैः विदारयन्तं तां काकं तच्चक्षुराक्षिपत् । ऐषिकास्त्रेण शरणं प्राप्तो देवान्विहाय सः ॥ ३६ ॥ रामे वनं गते राजा षष्ठेऽह्नि निशि चाब्रवीत् । कौसल्यायै कथां पौर्वां यदज्ञानाद्धतः पुरा ॥ ३७ ॥ कौमारे शरयूतीरे यज्ञदत्तकुमारकः । शब्दभेदाच्च कुम्भेन शब्दं कुर्वंश्च तत्पिता ॥ ३८ ॥ शशाप विलपन्मात्रा शोकं कृत्वा रुदन्मुहुः । पुत्रं विना मरिष्यावस्त्वं च शोकान्मरिष्यसि ॥ ३९ ॥ पुत्रं विना स्मरञ्शोकात् कौशल्ये मरणं मम । कथामुक्त्वाथ हा ! रामौक्त्वा राजा दिवङ्गतः ॥ ४० ॥ सुप्तं मत्त्वाथ कौसल्या सुप्ता शोकार्तमेव सा । सुप्रभाते गायनाश्च सूतमागधवन्दिनः ॥ ४१ ॥ प्रबोधका बोधयन्ति न च बुध्यत्यसौ नृपः । कौसल्या तं मृतं ज्ञात्वा हा हताऽऽस्मीति चाब्रवीत् ॥ ४२ ॥ प्रातःकाल श्रीरामने रथसहित सुमन्त्रको विदा कर दिया तथा स्वयं लक्ष्मण और सीताके साथ नावसे गङ्गा पार हो वे प्रयागमें गये । वहाँ उन्होंने महर्षि भरद्वाजको प्रणाम किया और उनकी आज्ञा ले वहांसे चित्रकूटे पर्वतको प्रस्थान किया । चित्रकूट पहुँचकर उन्होने वास्तुपूजा करनेके अनन्तर पर्णकुटी बनाकर मन्दाकिनीके तटपर निवास किया । रघुनाथजीने सीताको चित्रकूट पर्वतका रमणीय दृश्य दिखलाया । इसी समय एक कौएने सीताजीके कोमल श्रीअङ्गमें नखोंसे प्रहार किया । यह देख श्रीरामने उसके ऊपर सींकके अस्त्रका प्रयोग किया । जब वह कौआ देवताओंका आश्रय छोडकर श्रीरामचन्द्रजीकी शरणमें आया, तब उन्होंने उसकी केवल एक आँख नष्ट करके उसे जीवित छोड दिया । श्रीरामचन्द्रजीके वनगमनके पश्चात् छठे दिनकी रातमें राजा दशरथने कौसल्यासे पहलेकी एक घटना सुनायी, जिसमें उनके द्वारा कुमारावस्थामें सरयूके तटपर अनजानमें यज्ञदत्त-पुत्र श्रवणकुमारके मारे जानेका वृत्तान्त था । "श्रवणकुमार पानी लेनेके लिये आया था । उस समय उसके घडेके भरनेसे जो शब्द हो रहा था, उसकी आहट पाकर मेने उसे कोइ, जंगली जन्तु समझा और शब्दवेधी बाणसे उसका वध कर डाला । यह समाचार पाकर उसके पिता और माताको बडा शोक हुआ । वे बारंबार विलाप करने लगे । उस समय श्रवणकुमारके पिताने मुझे शाप देते हुए कहा-' राजन् ! हम दोनो पति-पती पुत्रके बिना शोकातुर होकर प्राणत्याग कर रहे हैं; तुम भी हमारी ही तरह पुत्रवियोगके शोकसे मरोगे; [ तुन्हारे पुत्र मरेगे तो नहीं, किंतु] उस समय तुन्द्वारे पास कोई पुत्र मौजूद न होगा । कौसल्ये ! आज उस शापका मुझे स्मरण हो रहा है । जान पडता है, अब इसी शोकसे मेरी मृत्यु होगी ।" इतनी कथा कहनेके पश्चात् राजाने 'हा राम !' कहकर स्वर्गलोकको प्रयाण किया । कौसल्याने समझा, महाराज शोकसे आतुर हैं; इस समय नींद आ गयी होगी । ऐसा विचार करके वे सो गयीं । प्रातःकाल जगानेवाले सूत, मागध और बन्दीजन सोते हुए महाराजको जगाने लगे; किंतु वे न जगे ॥ ३४-४२ ॥ नरा नार्योऽथ रुरुदुरानीतो भरतस्तदा । वशिष्ठाद्यैः सशत्रुघ्नः शीघ्रं राजगृहात्पुरीम् ॥ ४३ ॥ दृष्ट्वा सशोकां कैकेयीं निन्दयामास दुःखितः । अकीर्तिः पातिता मूर्ध्नि कौसल्यां स प्रशंस्य च ॥ ४४ ॥ पितरन्तैलद्रोणिस्थं संस्कृत्य सरयूतटे । वशिष्ठाद्यैःर्जनैरुक्तो राज्यं कुर्विति सोऽब्रवीत् ॥ ४५ ॥ व्रजामि राममानेतुं रामो राजा मतो बली । शृङ्गवेरं प्रयागश्च भरद्वाजेन भोजितः ॥ ४६ ॥ नमस्कृत्य भरद्वाजं रामं लक्ष्मणमागतः । पिता स्वर्गं गतो राम अयोध्यायां नृपो भव ॥ ४७ ॥ अहं वनं प्रयास्यामि त्वदादेशप्रतीक्षकः । रामः श्रुत्वा जलं दत्वा गृहीत्वा पादुके व्रज ॥ ४८ ॥ राज्यायाहं न यास्यामि सत्याच्चीरजटाधरः । रामोक्तो भरतश्चागान्नन्दिग्रामे स्थितो बली ॥ ४९ ॥ त्यक्त्वायोध्यां पादुके ते पूज्य राज्यमपालयत् ॥ ५० ॥ तब उन्हे मरा हुआ जान रानी कौसल्या 'हाय ! मैं मारी गयी' कहकर पृथ्वीपर गिर पडीं । फिर तो समस्त नर-नारी फूट-फूटकर रोने लगे । तत्पश्चात् महर्षि वसिष्ठने राजाके शवको तैलभरी नौकामें रखवाकर भरतको उनके ननिहालसे तत्काल बुलवाया । भरत और शत्रुघ्न अपने मामाके राजमहलसे निकलकर सुमन्त्र आदिके साथ शीघ्र ही अयोध्यापुरीमें आये । यहाँका समाचार जानकर भरतको बडा दुःख हुआ । कैकेयीको शोक करती देख उसकी कठोर शब्दोमें निन्दा करते हुए बोले-' अरी ! तूने मेरे माथे कलङ्कका टीका लगा दिया-मेरे सिरपर अपयशका भारी बोझ लाद दिया ।' फिर उन्होंने कौसल्याकी प्रशंसा करके तैलपूर्ण नौकामें रखे हुए पिताके शवका सरयूतटपर अन्त्येष्टि- संस्कार किया । तदनन्तर वसिष्ठ आदि गुरुजनोंने कहा - 'भरत ! अब राज्य ग्रहण करो ।' भरत बोले - मैं तो श्रीरामचन्द्रजीको ही राजा मानता हूँ । अब उन्हें यहो लानेके लिये वनमें जाता हूँ ।' ऐसा कहकर वे वहांसे दल-बलसहित चल दिये और शृङ्गवेरपुर होते हुए प्रयाग पहुँचे । वहाँ महर्षि भरद्वाजने उन सबको भोजन कराया । फिर भरद्वाजको नमस्कार करके वे प्रयागसे चले और चित्रकूटमें श्रीराम एवं लक्ष्मणके समीप आ पहुँचे । वहाँ भरतने श्रीरामसे कहा - ' रघुनाथजी ! हमारे पिता महाराज दशरथ स्वर्गवासी हो गये । अब आप अयोध्यामें चलकर राज्य ग्रहण करें । मैं आपकी आज्ञाका पालन करते हुए वनमें जाऊँगा ।' यह सुनकर श्रीरामने पिताका तर्पण किया और भरतसे कहा - 'तुम मेरी चरणपादुका लेकर अयोध्या लौट जाओ । मैं राज्य करनेके लिये नहीं चलूँगा । पिताके सत्यकी रक्षाके लिये चीर एवं जटा धारण करके वनमें ही रहूँगा ।' श्रीरामके ऐसा कहनेपर सदल-बल भरत लौट गये और अयोध्या छोडकर नन्दिग्राममें रहने लगे । वहां भगवान्की चरण-पादुकाओंकी पूजा करते हुए वे राज्यका भली- भाँति पालन करने ॥ ४३-५० ॥ इति आदिमहापुराणे आग्नेये रामायणे अयोध्याकाण्डवर्णनं नाम षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥ इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'रामायण- कथाके अन्तर्गत अयोध्याकाण्डकी कथाका वर्णन' नामक छटा अध्याय पूरा हुआ ॥ ६ ॥ हरिः ॐ तत्सत् |