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॥ ॐ परमात्मने नमः ॥
॥ श्रीअग्निपुराणम् ॥
सप्तमोऽध्यायः ॥ रामायणेऽरण्यकाण्डवर्णनम् -
अरण्यकाण्डकी संक्षिप्त कथा - नारद उवाच - रामो वशिष्ठं मातॄश्च नत्वाऽत्रिं च प्रणम्य सः । अनसूयां च तत्पत्नीं शरभङ्गं सुतीक्ष्णकम् ॥ १ ॥ अगस्त्यभ्रातरं नत्वा अगस्त्यं तत्प्रसादतः । धनुःखड्गं च सम्प्राप्य दण्डकारण्यमागतः ॥ २ ॥ जनस्थाने पञ्चवट्यां स्थितो गोदावरीतटे । तत्र सूर्पणखाऽऽयाता भक्षितुं तान् भयङ्करी ॥ ३ ॥ रामं सुरूपं दृष्ट्वा सा कामिनी वाक्यमब्रवीत् ॥ ४ ॥ नारदजी कहते है - मुने ! श्रीरामचन्द्रजीने महर्षि वसिष्ठ तथा माताओंको प्रणाम करके उन सबको भरतके साथ विदा कर दिया । तत्पश्चात् महर्षि अत्रि तथा उनकी पत्नी अनसूयाको, शरभङ्गमुनिको, सुतीक्ष्णको तथा अगस्त्यजीके भ्राता अग्निजिह्व मुनिको प्रणाम करते हुए श्रीरामचन्द्रजीने अगस्त्यमुनिके आश्रमपर जा उनके चरणोमें मस्तक झुकाया और मुनिकी कृपासे दिव्य धनुष एवं दिव्य खड्ग प्राप्त करके वे दण्डकारण्यमें आये । वहाँ जनस्थानके भीतर पञ्चवटी नामक स्थानमें गोदावरीके तटपर रहने लगे । एक दिन शूर्पणखा नामवाली भयंकर राक्षसी राम, लक्ष्मण और सीताको खा जानेके लिये पञ्चवटीमें आयी; किंतु श्रीरामचन्द्रजीका अत्यन्त मनोहर रूप देखकर वह कामके अधीन हो गयी और बोली ॥ १-४ ॥ शूर्पणखोवाच कस्त्वं कस्मात्समायातो भर्ता मे भव चार्थितः । एतौ च भक्षयिष्यामि इत्युक्त्वा तं समुद्यता ॥ ५ ॥ शूर्पणखाने कहा - तुम कौन हो ? कहाँसे आये हो ? मेरी प्रार्थनासे अब तुम मेरे पति हो जाओ । यदि मेरे साथ तुम्हारा सम्बन्ध होनेमें ये दोनो सीता और लक्ष्मण बाधक हैं तो मैं इन दोनोको अभी खाये लेती हूँ ॥ ५ ॥ तस्या नासां च कर्णौ च रामोक्तो लक्ष्मणोऽच्छिनत् रक्तं क्षरन्ती प्रययौ खरं भ्रातरमब्रवीत् ॥ ६ ॥ मरिष्यामि विनासाऽहं खर जीवामि वै तदा । रामस्य जाया सीताऽस्ति तस्यासील्लक्ष्मणोऽनुजः ॥ ७ ॥ तेषां यद्रुधिरं कोष्णं पाययिष्यसि मां यदि । खरस्तथेति तामुक्त्वा चतुर्दशसहस्रकैः ॥ ८ ॥ रक्षसां दूषणेनागादथ त्रिशिरसा सह । रामं रामोऽपि युयुधे शरैर्विव्याध राक्षसान् ॥ ९ ॥ हस्त्यश्वरथपादातं बलं निन्ये यमक्षयम् । त्रिशीर्षाणं खरं रौद्रं युध्यन्तं चैव दूषणम् ॥ १० ॥ ययौ सूर्पणखा लङ्कां रावणाग्रेऽपतद्भुवि । अब्रवीद्रावणं क्रुद्धा न त्वं राजा न रक्षकः ॥ ११ ॥ खरादिहन्तू रामस्य सीतां भार्यां हरस्व च । रामलक्ष्मणरक्तस्य पानाज्जीवामि नान्यथा ॥ १२ ॥ ऐसा कहकर वह उन्हें खा जानेको तैयार हो गयी । तत्र श्रीरामचन्द्रजीके कहनेसे लक्ष्मणने शूर्पणखाकी नाक और दोनो कान भी काट लिये । कटे हुए अङ्गोसे रक्तकी धारा बहाती हुई शूर्पणखा अपने भाई खरके पास गयी और इस प्रकार बोली - 'खर । मेरी नाक कट गयी । इस अपमानके बाद मैं जीवित नहीं रह सकती । अब तो मेरा जीवन तभी रह सकता है, जब कि तुम मुझे रामका, उनकी पत्नी सीताका तथा उनके छोटे भाई लक्ष्मणका गरम - गरम रक्त पिलाओ ।' खरने उसको 'बहुत अच्छा' कहकर शान्त किया और दूषण तथा त्रिशिराके साथ चौदह हजार राक्षसोंकी सेना ले श्रीरामचन्द्रजीपर चढाई की । श्रीरामने भी उन सबका सामना किया और अपने बाणोंसे राक्षसोंको बींधना आरम्भ किया । शत्रुओंकी हाथी, घोडे, रथ और पैदलसहित समस्त चतुरङ्गिणी सेनाको उन्होने यमलोक पहुँचा दिया तथा अपने साथ युद्ध करनेवाले भयंकर राक्षस खर, दूषण एवं त्रिशिराको भी मौतके घाट उतार दिया । अब शूर्पणखा लङ्कामें गयी और रावणके सामने जा पृथ्वीपर गिर पडी । उसने क्रोधमें भरकर रावणसे कहा - 'अरे ! तू राजा और रक्षक कहलानेयोग्य नहीं है । खर आदि समस्त राक्षसोंका संहार करनेवाले रामकी पत्नी सीताको हर ले । मैं राम और लक्ष्मणका रक्त पीकर ही जीवित रहूँगी; अन्यथा नहीं ' ॥ ६-१२ ॥ तथेत्याह च तच्छ्रुत्वा मारीचं प्राह वै व्रज । स्वर्णचित्रमृगो भूत्वा रामलक्ष्मणकर्षकः ॥ १३ ॥ सीताग्रे तां हरिष्यामि अन्यथा मरणं तव । मारीचो रावणं प्राह रामो मृत्युर्धनुर्धरः ॥ १४ ॥ रावणादपि मर्तव्यं मर्तव्यं राघवादपि । अवश्यं यदि मर्तव्यं वरं रामो न रावणः ॥ १५ ॥ इति मत्वा मृगो भूत्वा सीताग्रे व्यचरन्मुहुः । सीतया प्रेरितो रामः शरेणाथावधीच्च तम् ॥ १६ ॥ म्रियमाणो मृगः प्राह हा सीते लक्ष्मणेति च । सौमित्रिः सीतयोक्तोऽथ विरुद्धं राममागतः ॥ १७ ॥ रावणोप्यहरत्सीतां हत्वा गृध्रं जटायुषम् । जटायुषा स भिन्नाङ्गो अङ्केनादाय जानकीम् ॥ १८ ॥ गतो लङ्कामशोकाख्ये धारयामास चाब्रवीत् ॥ १९ ॥ शूर्पणखाकी बात सुनकर रावणने कहा - 'अच्छा, ऐसा ही होगा ।' फिर उसने मारीचसे कहा - 'तुम स्वर्णमय विचित्र मृगका रूप धारण करके सीताके सामने जाओ और राम तथा लक्ष्मणको अपने पीछे आश्रमसे दूर हटा ले जाओ । मैं सीताका हरण करूँगा । यदि मेरी बात न मानोगे, तो तुम्हारी मृत्यु निश्चित है ।' मारीचने रावणसे कहा - 'रावण ! धनुर्धर राम साक्षात् मृत्यु हैं ।' फिर उसने मन ही मन सोचा 'यदि नहीं जाऊँगा, तो रावणके हाथसे मरना होगा और जाऊँगा तो श्रीरामके हाथसे । इस प्रकार यदि मरना अनिवार्य है तो इसके लिये श्रीराम ही श्रेष्ठ हैं, रावण नहीं; [ क्योकि श्रीरामके हाथसे मृत्यु होनेपर मेरी मुक्ति हो जायगी ।]' ऐसा विचारकर वह मृगरूप धारण करके सीताके सामने बारंबार आने जाने लगा । तब सीताजीकी प्रेरणासे श्रीरामने [ दूरतक उसका पीछा करके] उसे अपने बाणसे मार डाला । मरते समय उस मृगने 'हा सीते ! हा लक्ष्मण !' कहकर पुकार लगायी । उस समय सीताके कहनेसे लक्ष्मण अपनी इच्छाके विरुद्ध श्रीरामचन्द्रजीके पास गये । इसी बीचमें रावणने भी मौका पाकर सीताको हर लिया । मार्गमें जाते समय उसने गृध्रराज जटायुका वध किया । जटायुने भी उसके रथको नष्ट कर डाला था । रथ न रहनेपर रावणने सीताको कंधेपर बिठा लिया और उन्हें लङ्कामें ले जाकर अशोकवाटिकामें रखा । वहाँ सीतासे बोला - 'तुम मेरी पटरानी बन जाओ । फिर राक्षसियोंकी ओर देखकर कहा - ' निशाचरियो ! इसकी रखवाली करो' ॥ १३-१९ १/२ ॥ रावण उवाच भव भार्या ममाग्र्या त्वं राक्षस्यो रक्ष्यतामियम् । रामो हत्वाऽथ मारीचं दृष्ट्वा लक्ष्मणमब्रवीत् ॥ २० ॥ श्रीराम उवाच मायामृगोऽसौ सौमित्रे यथा त्वमिह चागतः । तथा सीता हृता नूनं नापश्यत्स गतोऽथ ताम् ॥ २१ ॥ शुशोच विललापार्तो मां त्यक्त्वा क्व गताऽसि वै । लक्ष्मणाश्वासितो रामो मार्गयामास जानकीम् ॥ २२ ॥ दृष्ट्वा जटायुस्तं प्राह रावणो हृतवांश्च ताम् । मृतोऽथ संस्कृतस्तेन कबन्धं चावधीत्ततः ॥ २३ ॥ शापमुक्तोऽब्रवीद्रामं स त्वं सुग्रीवमाव्रज ॥ २४ ॥ उधर श्रीरामचन्द्रजी जब मारीचको मारकर लौटे, तो लक्ष्मणको आते देख बोले - ' सुमित्रानन्दन ! वह मृग तो मायामय था, वास्तवमें वह एक राक्षस था; किंतु तुम जो इस समय यहाँ आ गये, इससे जान पडता है, निश्चय ही कोई सीताको हर ले गया ।' श्रीरामचन्द्रजी आश्रमपर गये; किंतु वहां सीता नहीं दिखायी दी । उस समय वे आर्त होकर शोक और विलाप करने लगे - 'हा प्रिये जानकी ! तू मुझे छोडकर कहाँ चली गयी ?' लक्ष्मणने श्रीरामको सान्त्वना दी । तब वे वनमें घूम घूम सीताकी खोज करने लगे । इसी समय इनकी जटायुसे भेट हुई । जटायुने यह कहकर कि 'सीताको रावण हर ले गया है' प्राण त्याग दिया । तब श्रीरघुनाथजीने अपने हाथसे जटायुका दाहसंस्कार किया । इसके बाद इन्होंने कबन्धका वध किया । कबन्धने शापमुक्त होनेपर श्रीरामचन्द्रजीसे कहा - 'आप सुग्रीवसे मिलिये' ॥ २० - २४ ॥ इति आदिमहापुराणे आग्नेये रामायणे आरण्यककाण्डवर्णनं नाम सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥ इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'रामायण- कथाके अन्तर्गत अरण्यकाण्डकी कथाका वर्णन - विषयक' सातवा अध्याय पूरा हुआ ॥ ७ ॥ हरिः ॐ तत्सत् |