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॥ ॐ परमात्मने नमः ॥

॥ श्रीअग्निपुराणम् ॥

चतुर्दशोऽध्यायः ॥

भारताख्याने कुरुपाण्डवसङ्ग्रामवर्णनम् -
कौरव और पाण्डवोंका युद्ध तथा उसका परिणाम -


अग्निरुवाच -
यौधिष्ठिरी दौर्योधनी कुरुक्षेत्रं ययौ चमूः ।
भीष्मद्रोणादिकान् दृष्ट्वा नायुध्यत गुरूनिति ॥ १ ॥
पार्थं ह्युवाच भगवान्नशोच्या भीष्ममुख्यकाः ।
शरीराणि विनाशीनि न शरीरी विनश्यति ॥ २ ॥
अयमात्मा परं ब्रह्म अहं ब्रह्मस्मि विद्धि तम् ।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो योगी राजधर्मं प्रपालय ॥ ३ ॥
कृष्णोक्तोथार्जुनोऽयुध्यद् रथस्थो वाद्यशब्दवान् ।
भीष्मः सेनापतिरभूदादौ दौर्योधने बले ॥ ४ ॥
पाण्डवानां शिखण्डी च तयोर्युद्धं बभूव ह ।
धार्तराष्ट्राः पाण्डवांश्च जघ्नुर्युद्धे सभीष्मकाः ॥ ५ ॥
धार्तराष्ट्रान् शिखण्ड्याद्याः पाण्डवा जघ्नुराहवे ।
देवासुरसमं युद्धं कुरुपाण्दवसेनयोः ॥ ६ ॥
बभूव स्वस्थदेवानां पश्यतां प्रीतिवर्धनम् ।
भीष्मोऽस्त्रैः पाण्डवं सैन्यं दशाहोभिर्न्यपातयत् ॥ ७ ॥
अग्निदेव कहते हैं- युधिष्ठिर और दुर्योधनकी सेनाएँ कुरुक्षेत्रके मैदानमें जा डटीं । अपने विपक्षमें पितामह भीष्म तथा आचार्य द्रोण आदि गुरुजनोंको देखकर अर्जुन युद्धसे विरत हो गये, तब भगवान् श्रीकृष्णने उनसे कहा-"पार्थ ! भीष्म आदि गुरुजन शोकके योग्य नहीं हैं । मनुष्यका शरीर विनाशशील है; किंतु आत्माका कभी नाश नहीं होता । यह आत्मा ही परब्रह्म है । 'मैं ब्रह्म हूँ'इस प्रकार तुम उस आत्माको समझो । कार्यकी सिद्धि और असिद्धिमें समानभावसे रहकर कर्मयोगका आश्रय ले क्षात्रधर्मका पालन करो । " श्रीकृष्णके ऐसा कहनेपर अर्जुन रथारूढ़ हो युद्ध में प्रवृत्त हुए । उन्होंने शङ्‌खध्वनि की । दुर्योधनकी सेनामें सबसे पहले पितामह भीष्म सेनापति हुए । पाण्डवोंके सेनापति शिखण्डी थे । इन दोनोंमें भारी युद्ध छिड़ गया । भीष्मसहित कौरवपक्षके योद्धा उस युद्ध में पाण्डव-पक्षके सैनिकोंपर प्रहार करने लगे और शिखण्डी आदि पाण्डव-पक्षके वीर कौरव-सैनिकोंको अपने बाणोंका निशाना बनाने लगे । कौरव और पाण्डव-सेनाका वह युद्ध, देवासुर-संग्रामके समान जान पड़ता था । आकाशमें खड़े होकर देखनेवाले देवताओंको वह युद्ध बड़ा आनन्ददायक प्रतीत हो रहा था । भीष्मने दस दिनोंतक युद्ध करके पाण्डवोंकी अधिकांश सेनाको अपने बाणोंसे मार गिराया ॥ १-७ ॥

दशमे ह्यर्जुनो बाणैः भीष्मं वीरं ववर्ष ह ।
शिखण्डी द्रुपदोक्तोऽस्त्रैः ववर्ष जलदो यथा ॥ ८ ॥
हस्त्यश्वरथपादातं अन्योन्यास्त्रनिपातितम् ।
भीष्मः स्वच्छन्दमृत्युश्च युद्धमार्गं प्रदर्श्य च ॥ ९ ॥
वसूक्तो वसुलोकाय शरशय्यागतः स्थितः ।
उत्तरायणमीक्षंश्च ध्यायन् विष्णुं स्तवन् स्थितः ॥ १० ॥
दुर्योधने तु शोकार्ते द्रोणः सेनापतिस्त्वभूत् ।
पाण्डवे हर्षिते सैन्ये धृष्टद्युम्नश्चमूपतिः ॥ ११ ॥
तयोर्युद्धं बभूवोग्रं यमराष्ट्रविवर्धनम् ।
विराटद्रुपदाद्याश्च निमग्ना द्रोणसागरे ॥ १२ ॥
दौर्योधनी महासेना हस्त्यश्वरथपत्तिनी ।
धृष्टद्युम्नाधिपतिता द्रोणः काल इवाबभौ ॥ १३ ॥
हतोश्वत्थामा चेत्युक्ते द्रोणः शस्त्राणि चात्यजत् ।
धृष्टद्युम्नशराक्रान्तः पतितः सः महीतले ॥ १४ ॥
दसवें दिन अर्जुनने वीरवर भीष्मपर बाणोंकी बड़ी भारी वृष्टि की । इधर द्रुपदकी प्रेरणासे शिखण्डीने भी पानी बरसानेवाले मेघकी भाँति भीष्मपर बाणोंकी झड़ी लगा दी । दोनों ओरके हाथीसवार, घुड़सवार, रथी और पैदल एकदूसरेके बाणोंसे मारे गये । भीष्मकी मृत्यु उनकी इच्छाके अधीन थी । उन्होंने युद्धका मार्ग दिखाकर वसु-देवताके कहनेपर वसुलोकमें जानेकी तैयारी की और बाणशय्यापर सो रहे । वे उत्तरायणकी प्रतीक्षामें भगवान् विष्णुका ध्यान और स्तवन करते हुए समय व्यतीत करने लगे । भीष्मके बाण-शय्यापर गिर जानेके बाद जब दुर्योधन शोकसे व्याकुल हो उठा, तब आचार्य द्रोणने सेनापतित्वका भार ग्रहण किया । उधर हर्ष मनाती हुई पाण्डवोंकी सेनामें धृष्टद्युम्न सेनापति हुए । उन दोनोंमें बड़ा भयंकर युद्ध हुआ, जो यमलोककी आबादीको बढ़ानेवाला था । विराट और द्रुपद आदि राजा द्रोणरूपी समुद्रमें डूब गये । हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सैनिकोंसे युक्त दुर्योधनकी विशाल वाहिनी धृष्टद्युम्नके हाथसे मारी जाने लगी । उस समय द्रोण कालके समान जान पड़ते थे । इतनेहीमें उनके कानोंमें यह आवाज आयी कि 'अश्वत्थामा मारा गया । इतना सुनते ही आचार्य द्रोणने अस्त्र-शस्त्र त्याग दिये । ऐसे समयमें धृष्टद्युम्नके बाणोंसे आहत होकर वे पृथ्वीपर गिर पड़े ॥ ८-१४ ॥

पञ्चमेऽहनि दुर्धर्षः सर्वक्षत्रं प्रमथ्य च ।
दुर्योधने तु शोकार्ते कर्णः सेनापतिस्त्वभूत् ॥ १५ ॥
अर्जुनः पाण्डवानाञ्च तयोर्युद्धं बभूव ह ।
शस्त्राशस्त्रि महारौद्रं देवासुररणोपमम् ॥ १६ ॥
कर्णार्जुनाख्ये सङ्ग्रामे कर्णोऽरीनवधीच्छरैः ।
द्वितीयेऽहनि कर्णस्तु अर्जुनेन निपातितः ॥ १७ ॥
द्रोण बड़े ही दुर्धर्ष थे । वे सम्पूर्ण क्षत्रियोंका विनाश करके पाँचवें दिन मारे गये । दुर्योधन पुनः शोकसे आतुर हो उठा । उस समय कर्ण उसकी सेनाका कर्णधार हुआ । पाण्डव-सेनाका आधिपत्य अर्जुनको मिला । कर्ण और अर्जुनमें भाँति-भाँतिके अस्त्र-शस्त्रोंकी मार-काटसे युक्त महाभयानक युद्ध हुआ, जो देवासुर-संग्रामको भी मात करनेवाला था । कर्ण और अर्जुनके संग्राममें कर्णने अपने बाणोंसे शत्रु-पक्षके बहुत-से वीरोंका संहार कर डाला; किंतु दूसरे दिन अर्जुनने उसे मार गिराया ॥ १५-१७ ॥

शल्यो दिनार्धं युयुधे ह्यवधीत्तं युधिष्ठिरः ।
युयुधे भीमसेनेन हतसैन्यः सुयोधनः ॥ १८ ॥
बहून् हत्वा नरादींश्च भीमसेनमथाब्रवीत् ।
गदया प्रहरन्तं तु भीमस्तं तु व्यपातयत् ॥ १९ ॥
गदयान्यानुजांस्तस्य तस्मिन्नष्टादेशेहनि ।
रात्रौ सुषुप्तञ्च बलं पाण्डवानां न्यपातयत् ॥ २० ॥
अक्षौहिणीप्रमाणन्तु अश्वत्थामा महाबलः ।
द्रौपदेयान् सपाञ्चालान् धृष्टद्युम्नञ्च सोऽवधीत् ॥ २१ ॥
पुत्रहीनां द्रौपदीं तां रुदन्तीमर्जुनस्ततः ।
शिरोमणिं तु जग्राह ऐषिकास्त्रेण तस्य च ॥ २२ ॥
तदनन्तर राजा शल्य कौरव-सेनाके सेनापति हुए; किंतु वे युद्ध में आधे दिनतक ही टिक सके । दोपहर होते-होते राजा युधिष्ठिरने उन्हें मार गिराया । दुर्योधनकी प्रायः सारी सेना युद्ध में मारी गयी थी । अन्ततोगत्वा उसका भीमसेनके साथ युद्ध हुआ । उसने पाण्डव-पक्षके पैदल आदि बहुत-से सैनिकोंका वध करके भीमसेनपर धावा किया । उस समय गदासे प्रहार करते हुए दुर्योधनको भीमसेनने मौतके घाट उतार दिया । दुर्योधनके अन्य छोटे भाई भी भीमसेनके ही हाथसे मारे गये थे । महाभारत-संग्रामके उस अठारहवें दिन रात्रिकालमें महाबली अश्वत्थामाने पाण्डवोंकी सोयी हुई एक अक्षौहिणी सेनाको सदाके लिये सुला दिया । उसने द्रौपदीके पाँचों पुत्रों, उसके पाञ्चालदेशीय बन्धुओं तथा धृष्टद्युम्नको भी जीवित नहीं छोड़ा । द्रौपदी पुत्रहीन होकर रोने-बिलखने लगी । तब अर्जुनने सींकके अस्त्रसे अश्वत्थामाको परास्त करके उसके मस्तककी मणि निकाल ली । [उसे मारा जाता देख द्रौपदीने ही अनुनय-विनय करके उसके प्राण बचाये । ] ॥ १८-२२ ॥

अश्वत्थामास्त्रनिर्दग्धं जीवयामास वै हरिः ।
उत्तरायास्ततो गर्भं स परीक्षिदभून्नृपः ॥ २३ ॥
कृतवर्मा कृपो द्रौणिस्त्रयो मुक्तास्ततो रणात् ।
पाण्डवाः सात्यकिः कृष्णः सप्त मुक्ता न चापरे ॥ २४ ॥
स्त्रियश्चार्ताः समाश्वास्य भीमाद्यैः स युधिष्ठिरः ।
संस्कृत्य प्रहतान् वीरान् दत्तोदकधनादिकः ॥ २५ ॥
भीष्माच्छान्तनवाच्छ्रुत्वा धर्मान् सर्वांश्च शान्तिदान् ।
राजधर्मान् मोक्षधर्मान् दानधर्मान् नृपोऽभवत् ॥ २६ ॥
अश्वमेधे ददौ दानं ब्राह्मणेभ्योऽरिमर्दनः ।
श्रुत्वार्जुनान्मौषलेयं यादवानाञ्च सङ्क्षयम् ।
राज्ये परीक्षितं स्थाप्य सानुजः स्वर्गमाप्तवान् ॥ २७ ॥
इतनेपर भी दुष्ट अश्वत्थामाने उत्तराके गर्भको नष्ट करनेके लिये उसपर अस्त्रका प्रयोग किया । वह गर्भ उसके अस्त्रसे प्रायः दग्ध हो गया था; किंतु भगवान् श्रीकृष्णने उसको पुनः जीवन-दान दिया । उत्तराका वही गर्भस्थ शिशु आगे चलकर राजा परीक्षित्के नामसे विख्यात हुआ । कृतवर्मा, कृपाचार्य तथा अश्वत्थामा-ये तीन कौरवपक्षीय वीर उस संग्रामसे जीवित बचे । दूसरी ओर पाँच पाण्डव, सात्यकि तथा भगवान् श्रीकृष्ण-ये सात ही जीवित रह सके; दूसरे कोई नहीं बचे । उस समय सब ओर अनाथा स्त्रियोंका आर्तनाद व्याप्त हो रहा था । भीमसेन आदि भाइयोंके साथ जाकर युधिष्ठिरने उन्हें सान्त्वना दी तथा रणभूमिमें मारे गये सभी वीरोंका दाह-संस्कार करके उनके लिये जलाञ्जलि दे धन आदिका दान किया । तत्पश्चात् कुरुक्षेत्रमें शरशय्यापर आसीन शान्तनुनन्दन भीष्मके पास जाकर युधिष्ठिरने उनसे समस्त शान्तिदायक धर्म, राजधर्म (आपद्धर्म), मोक्षधर्म तथा दानधर्मकी बातें सुनीं । फिर वे राजसिंहासनपर आसीन हुए । इसके बाद उन शत्रुमर्दन राजाने अश्वमेध-यज्ञ करके उसमें ब्राह्मणोंको बहुत धन दान किया । तदनन्तर द्वारकासे लौटे हुए अर्जुनके मुखसे मूसलकाण्डके कारण प्राप्त हुए शापसे पारस्परिक युद्धद्वारा यादवोंके संहारका समाचार सुनकर युधिष्ठिरने परीक्षित्को राजासनपर बिठाया और स्वयं भाइयोंके साथ महाप्रस्थान कर स्वर्गलोकको चले गये ॥ २३-२७ ॥ **

इति आदिमहापुराणे आग्नेये
महाभारताख्यानं नाम चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'भीष्मपर्वसे लेकर अन्ततककी महाभारत-कथाका संक्षेपसे वर्णन' नामक चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १४ ॥

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[ * * यद्यपि इस अध्यायके अन्ततक महाभारतकी पूरी कथा समाप्त हुई-सी जान पड़ती है, तथापि आश्रमवासिक पर्वसे लेकर स्वर्गारोहण पर्वतकका वृत्तान्त कछ विस्तारसे कहना शेष रह गया है; इसलिये अगले (पंद्रहवें) अध्यायमें उसे पूरा किया गया है । ]



हरिः ॐ तत्सत्


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