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॥ ॐ परमात्मने नमः ॥

॥ श्रीअग्निपुराणम् ॥

त्रयोदशोऽध्यायः ॥

भारताख्यानम् -
महाभारतकी संक्षिप्त कथा -


अग्निरुवाच -
भारतं सम्प्रवक्ष्यामि कृष्णमाहात्म्यलक्षणम् ।
भूभारमहरद्विष्णुः निमित्तीकृत्य पाण्डवान् ॥ १ ॥
विष्णुनाभ्यब्जजो ब्रह्मा ब्रह्मपुत्रोऽत्रिरत्रितः ।
सोमः सोमाद्‌बुधस्तस्मादैल आसीत् पुरूरवाः ॥ २ ॥
तस्मादायुस्ततो राजा नहुषोऽतो ययातिकः ।
ततः पुरुस्तस्य वंशे भरतोऽथ नृपः कुरुः ॥ ३ ॥
तद्‌वंशे शान्तनुस्तस्माद्‌भीष्मो गङ्गासुतोऽनुजौ ।
चित्राङ्गदो विचित्रश्च सत्यवयाञ्च शान्तनोः ॥ ४ ॥
स्वर्गं गते शान्तनौ च भीष्मो भार्याविवर्जितः ।
अपालयत् भ्रातृराज्यं बालश्चित्राङ्गदो हतः ॥ ५ ॥
चित्राङ्गदेन द्वे कन्ये काशिराजस्य चाम्बिका ।
अम्बालिका च भीष्मेण आनीते विजितारिणा ॥ ६ ॥
भार्ये विचित्रवीर्यस्य यक्ष्मणा स दिवङ्गतः ।
सत्यवत्या ह्यनुमतादम्बिकायां नृपोभवत् ॥ ७ ॥
धृतराष्ट्रोऽम्बालिकायां पाण्डुश्च व्यासतः सुतः ।
गान्धार्यां धृतराष्ट्राच्च दुर्योधनमुखं शतम् ॥ ८ ॥
अग्निदेव कहते हैं- अब मैं श्रीकृष्णकी महिमाको लक्षित करानेवाला महाभारतका उपाख्यान सुनाता हूँ, जिसमें श्रीहरिने पाण्डवोंको निमित्त बनाकर इस पृथ्वीका भार उतारा था । भगवान् विष्णुके नाभिकमलसे ब्रह्माजी उत्पन्न हुए । ब्रह्माजीसे अत्रि, अत्रिसे चन्द्रमा, चन्द्रमासे बुध और बुधसे इलानन्दन पुरूरवाका जन्म हुआ । पुरूरवासे आयु, आयुसे राजा नहुष और नहुषसे ययाति उत्पन्न हुए । ययातिसे पूरु हुए । पूरुके वंशमें भरत और भरतके कुलमें राजा कुरु हुए । कुरुके वंशमें शान्तनुका जन्म हुआ । शान्तनुसे गङ्‌गानन्दन भीष्म उत्पन्न हुए । उनके दो छोटे भाई और थेचित्राङ्‌गद और विचित्रवीर्य । ये शान्तनुसे सत्यवतीके गर्भसे उत्पन्न हुए थे । शान्तनुके स्वर्गलोक चले जानेपर भीष्मने अविवाहित रहकर अपने भाई विचित्रवीर्यके राज्यका पालन किया । चित्राङ्‌गद बाल्यावस्थामें ही चित्राङ्‌गद नामवाले गन्धर्वके द्वारा मारे गये । फिर भीष्म संग्राममें विपक्षीको परास्त करके काशिराजकी दो कन्याओं-अम्बिका और अम्बालिकाको हर लाये । वे दोनों विचित्रवीर्यकी भार्याएँ हुईं । कुछ कालके बाद राजा विचित्रवीर्य राजयक्ष्मासे ग्रस्त हो स्वर्गवासी हो गये । तब सत्यवतीकी अनुमतिसे व्यासजीके द्वारा अम्बिकाके गर्भसे राजा धृतराष्ट्र और अम्बालिकाके गर्भसे पाण्डु उत्पन्न हुए । धृतराष्ट्रने गान्धारीके गर्भसे सौ पुत्रोंको जन्म दिया, जिनमें दुर्योधन सबसे बड़ा था ॥ १-८ ॥

शतशृङ्गाश्रमपदे भार्यायोगाद् यतो मृतिः ।
ऋषिशापात्ततो धर्मात् कुन्त्यां पाण्डोर्युधिष्ठिरः ॥ ९ ॥
वाताद्‌भीमोऽर्जुनः शक्रान्माद्र्यामश्विकुमारतः ।
नकुलः सहदेवश्च पाण्डुर्माद्रीयुतो मृतः ॥ १० ॥
कर्णः कुन्त्यां हि कन्यायां जातो दुर्योधनाश्रितः ।
कुरुपाण्डवयोर्वैरन्दैवयोगाद्‌बभूव ह ॥ ११ ॥
दुर्योधनो जतुगृहे पाण्डवानदहत् कुधीः ।
दग्धागाराद्विनिष्क्रान्ता मातृपृष्टास्तु पाण्डवाः ॥ १२ ॥
ततस्तु एकचक्रायां ब्राह्मणस्य निवेशने ।
मुनिवेषाः स्थिताः सर्वे निहत्य बकराक्षसम् ॥ १३ ॥
ययौः पाञ्चालविषयं द्रौपद्यास्ते स्वयंवरे ।
सम्प्राप्ता बाहुवेधेन द्रौपदी पञ्चपाण्डवैः ॥ १४ ॥
अर्धराज्यं ततः प्राप्ता ज्ञाता दुर्योधनादिभिः ।
गाण्डीवञ्च धनुर्दिव्यं पावकाद्‌रथमुत्तमम् ॥ १५ ॥
सारथिञ्चार्जुनः सङ्ख्ये कृष्णमक्षय्यशायकान् ।
ब्रह्मास्त्रादींस्तथा द्रोणात्सर्वे शस्त्रविशारदाः ॥ १६ ॥
राजा पाण्डु वनमें रहते थे । वे एक ऋषिके शापवश शतशृङ्‌ग मुनिके आश्रमके पास स्त्रीसमागमके कारण मृत्युको प्राप्त हुए । [पाण्डु शापके ही कारण स्त्री-सम्भोगसे दूर रहते थे,] इसलिये उनकी आज्ञाके अनुसार कुन्तीके गर्भसे धर्मके अंशसे युधिष्ठिरका जन्म हुआ । वायुसे भीम और इन्द्रसे अर्जुन उत्पन्न हुए । पाण्डुकी दूसरी पत्नी माद्रीके गर्भसे अश्विनीकुमारों के अंशसे नकुल-सहदेवका जन्म हुआ । [शापवश] एक दिन माद्रीके साथ सम्भोग होनेसे पाण्डुकी मृत्यु हो गयी और माद्री भी उनके साथ सती हो गयी । जब कुन्तीका विवाह नहीं हुआ था, उसी समय [सूर्यके अंशसे] उनके गर्भसे कर्णका जन्म हुआ था । वह दुर्योधनके आश्रयमें रहता था । दैवयोगसे कौरवों और पाण्डवोंमें वैरकी आग प्रज्वलित हो उठी । दुर्योधन बड़ी खोटी बुद्धिका मनुष्य था । उसने लाक्षाके बने हुए घरमें पाण्डवोंको रखकर आग लगाकर उन्हें जलानेका प्रयत्न किया; किंतु पाँचों पाण्डव अपनी माताके साथ उस जलते हुए घरसे बाहर निकल गये । वहाँसे एकचक्रा नगरीमें जाकर वे मुनिके वेषमें एक ब्राह्मणके घरमें निवास करने लगे । फिर बक नामक राक्षसका वध करके वे पाञ्चाल-राज्यमें, जहाँ द्रौपदीका स्वयंवर होनेवाला था, गये । वहाँ अर्जुनके बाहुबलसे मत्स्यभेद होनेपर पाँचों पाण्डवोंने द्रौपदीको पत्नीरूपमें प्राप्त किया । तत्पश्चात् दुर्योधन आदिको उनके जीवित होनेका पता चलनेपर उन्होंने कौरवोंसे अपना आधा राज्य भी प्राप्त कर लिया । अर्जुनने अग्निदेवसे दिव्य गाण्डीव धनुष और उत्तम रथ प्राप्त किया था । उन्हें युद्ध में भगवान् कृष्ण-जैसे सारथि मिले थे तथा उन्होंने आचार्य द्रोणसे ब्रह्मास्त्र आदि दिव्य आयुध और कभी नष्ट न होनेवाले बाण प्राप्त किये थे । सभी पाण्डव सब प्रकारकी विद्याओंमें प्रवीण थे ॥ ९-१६ ॥

कृष्णेन सोऽर्जुनो वह्निं खाण्डवे समतर्पयत् ।
इन्द्रवृष्टिं वारयंश्च शरवर्षेण पाण्डवः ॥ १७ ॥
जिता दिशः पाण्डवैश्च राज्यञ्चक्रे युधिष्ठिरः ।
बहुस्वर्णं राजसूयं न सेहे तं सुयोधनः ॥ १८ ॥
भ्रात्रा दुःशासनेनोक्तः कर्णेन प्राप्तभूतिना ।
द्यूतकार्ये शकुनिना द्यूतेन स युधिष्ठिरम् ॥ १९ ॥
अजयत्तस्य राज्यञ्च सभास्थो माययाहसत् ।
जितो युधिष्ठिरो भ्रातृयुक्तश्चारण्यकं ययौ ॥ २० ॥
वने द्वादशवर्षाणि प्रतिज्ञातानि सोऽनयत् ।
अष्टाशीतिसहस्राणि भोजयन् पूर्ववत् द्विजान् ॥ २१ ॥
सधौम्यो द्रौपदीषष्ठस्ततः प्रायाद्विराटकम् ।
कङ्को द्विजो ह्यविज्ञातो राजा भीमोथ सूपकृत् ॥ २२ ॥
बृहन्नलार्जुनो भार्या सैरिन्ध्री यमजौ तथा ।
अन्यनाम्ना भीमसेनः कीचकञ्चावधीन्निशि ॥ २३ ॥
द्रौपदीं हर्तुकामं तं अर्जुनश्चाजयत् कुरून् ।
कुर्वतो गोग्रहादींश्च तैः ज्ञाताः पाण्डवा अथ ॥ २४ ॥
सुभद्रा कृष्णभगिनी अर्जुनात् समजीजनत् ।
अभिमन्युन्ददौ तस्मै विराटश्चोत्तरां सुताम् ॥ २५ ॥
पाण्डुकुमार अर्जुनने श्रीकृष्णके साथ खाण्डववनमें इन्द्रके द्वारा की हुई वृष्टिका अपने बाणोंकी [छत्राकार] बाँधसे निवारण करते हुए अग्निको तृप्त किया था । पाण्डवोंने सम्पूर्ण दिशाओंपर विजय पायी । युधिष्ठिर राज्य करने लगे । उन्होंने प्रचुर सुवर्णराशिसे परिपूर्ण राजसूय यज्ञका अनुष्ठान किया । उनका यह वैभव दुर्योधनके लिये असह्य हो उठा । उसने अपने भाई दुःशासन और वैभवप्राप्त सुहृद् कर्णके कहनेसे शकुनिको साथ ले, द्यूत-सभामें जूएमें प्रवृत्त होकर, युधिष्ठिर और उनके राज्यको कपट-छूतके द्वारा हँसतेहँसते जीत लिया । जूएमें परास्त होकर युधिष्ठिर अपने भाइयोंके साथ वनमें चले गये । वहाँ उन्होंने अपनी प्रतिज्ञाके अनुसार बारह वर्ष व्यतीत किये । वे वनमें भी पहलेहीकी भाँति प्रतिदिन बहुसंख्यक ब्राह्मणोंको भोजन कराते थे । [एक दिन उन्होंने] अठासी हजार द्विजोंसहित दुर्वासाको [श्रीकृष्ण-कृपासे] परितृप्त किया । वहाँ उनके साथ उनकी पत्नी द्रौपदी तथा पुरोहित धौम्यजी भी थे । बारहवाँ वर्ष बीतनेपर वे विराटनगरमें गये । वहाँ युधिष्ठिर सबसे अपरिचित रहकर 'कङ्‌क' नामक ब्राह्मणके रूपमें रहने लगे । भीमसेन रसोइया बने थे । अर्जुनने अपना नाम 'बृहन्नला' रखा था । पाण्डवपत्नी द्रौपदी रनिवासमें सैरन्ध्रीके रूपमें रहने लगी । इसी प्रकार नकुल-सहदेवने भी अपने नाम बदल लिये थे । भीमसेनने रात्रिकालमें द्रौपदीका सतीत्व-हरण करनेकी इच्छा रखनेवाले कीचकको मार डाला । तत्पश्चात् कौरव विराटकी गौओंको हरकर ले जाने लगे, तब उन्हें अर्जुनने परास्त किया । उस समय कौरवोंने पाण्डवोंको पहचान लिया । श्रीकृष्णकी बहिन सुभद्राने अर्जुनसे अभिमन्यु नामक पुत्रको उत्पन्न किया था । उसे राजा विराटने अपनी कन्या उत्तरा ब्याह दी ॥ १७–२५ ॥

सप्ताक्षौहिणीश आसीद्धर्मराजो रणाय सः ।
कृष्णो दूतोब्रवीद् गत्वा दुर्योधनममर्षणम् ॥ २६ ॥
एकादशाक्षौहिणीशं नृपं दुर्योधनं तदा ।
युधिष्ठिरायार्धराज्यं देहि ग्रामांश्च पञ्च वा ॥ २७ ॥
युध्यस्व वा वचः श्रुत्वा कृष्णमाह सुयोधनः ।
भूसूच्यग्रं न दास्यामि योत्स्ये सङ्ग्रहणोद्यतः ॥ २८ ॥
विश्वरूपं दर्शयित्वा अधृष्यं विदुरार्चितः ।
प्रागाद्‌युधिष्ठिरं प्राह योधयैनं सुयोधनम् ॥ २९ ॥
धर्मराज युधिष्ठिर सात अक्षौहिणी सेनाके स्वामी होकर कौरवोंके साथ युद्ध करनेको तैयार हुए । पहले भगवान् श्रीकृष्ण परम क्रोधी दुर्योधनके पास दूत बनकर गये । उन्होंने ग्यारह अक्षौहिणी सेनाके स्वामी राजा दुर्योधनसे कहा-'राजन् ! तुम युधिष्ठिरको आधा राज्य दे दो या उन्हें पाँच ही गाँव अर्पित कर दो; नहीं तो उनके साथ युद्ध करो । ' श्रीकृष्णकी बात सुनकर दुर्योधनने कहा'मैं उन्हें सुईकी नोकके बराबर भूमि भी नहीं दूंगा; हाँ, उनसे युद्ध अवश्य करूँगा । ' ऐसा कहकर वह भगवान् श्रीकृष्णको बंदी बनानेके लिये उद्यत हो गया । उस समय राजसभामें भगवान् श्रीकृष्णने अपने परम दुर्धर्ष विश्वरूपका दर्शन कराकर दुर्योधनको भयभीत कर दिया । फिर विदुरने अपने घर ले जाकर भगवानका पूजन और सत्कार किया । तदनन्तर वे युधिष्ठिरके पास लौट गये और बोले-'महाराज ! आप दुर्योधनके साथ युद्ध कीजिये' ॥ २६-२९ ॥

इति आदिमहापुराणे आग्नेये
आदिपर्वादिभारताख्यानं नाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'आदिपर्वसे आरम्भ करके [उद्योगपर्व-पर्यन्त] महाभारतकथाका संक्षिप्त वर्णन' नामक तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १३ ॥



हरिः ॐ तत्सत्


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