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॥ ॐ परमात्मने नमः ॥

॥ श्रीअग्निपुराणम् ॥

सप्तदशोऽध्यायः ॥

जगत्‌सर्गवर्णनम् -
जगत्‌की सृष्टिका वर्णन -


अग्निरुवाच -
जगत्सर्गादिकान् क्रीडान् विष्णोर्वक्ष्येधुना शृणु ।
स्वर्गादिकृत् स सर्गादिः सृष्ट्यादिः सगुणोगुणः ॥ १ ॥
ब्रह्माव्यक्तं सदाग्रेऽभूत् न खं रात्रिदिनादिकम् ।
प्रकृतिं पुरुषं विष्णुः प्रविश्याक्षोभयत्ततः ॥ २ ॥
स्वर्गकाले महत्तत्त्वं अहङ्कारस्ततोऽभवत् ।
वैकारिकस्तैजसश्च भूतादिश्चैव तामसः ॥ ३ ॥
अहङ्काराच्छब्दमात्रं आकाशमभवत्ततः ।
स्पर्शमात्रोऽनिलस्तस्माद् रूपमात्रोऽनलस्ततः ॥ ४ ॥
रसमात्रा आप इतो गन्धमात्रा मही स्मृता ।
अहङ्कारात् तामसात्तु तैजसानीन्द्रियाणि च ॥ ५ ॥
वैकारिका दश देवा मन एकादशेन्द्रियम् ।
ततः स्वयंभूर्भगवान् सिसृक्षुर्विविधाः प्रजाः ॥ ६ ॥
अप एव ससर्जादौ तासु वीर्यमवासृजत् ।
आपो नारा इति प्रोक्ता आपो वै नरसूनवः ॥ ७ ॥
अग्निदेव कहते हैं- ब्रह्मन् ! अब मैं जगत्‌की सृष्टि आदिका, जो श्रीहरिकी लीलामात्र है, वर्णन करूँगा; सुनो । श्रीहरि ही स्वर्ग आदिके रचयिता हैं । सृष्टि और प्रलय आदि उन्हींके स्वरूप हैं । सृष्टिके आदिकारण भी वे ही हैं । वे ही निर्गुण हैं और वे ही सगुण हैं । सबसे पहले सत्स्वरूप अव्यक्त ब्रह्म ही था; उस समय न तो आकाश था और न रात-दिन आदिका ही विभाग था । तदनन्तर सृष्टिकालमें परमपुरुष श्रीविष्णुने प्रकृतिमें प्रवेश करके उसे क्षुब्ध (विकृत) कर दिया । फिर प्रकृतिसे महत्तत्त्व और उससे अहंकार प्रकट हुआ । अहंकार तीन प्रकारका है-वैकारिक (सात्त्विक), तैजस (राजस) और भूतादिरूप तामस । तामस अहंकारसे शब्द-तन्मात्रावाला आकाश उत्पन्न हुआ । आकाशसे स्पर्श-तन्मात्रावाले वायुका प्रादुर्भाव हुआ । वायुसे रूप-तन्मात्रावाला अग्नितत्त्व प्रकट हुआ । अग्निसे रस-तन्मात्रावाले जलकी उत्पत्ति हुई और जलसे गन्ध-तन्मात्रावाली भूमिका प्रादुर्भाव हुआ । यह सब तामस अहंकारसे होनेवाली सृष्टि है । इन्द्रियाँ तैजस अर्थात् राजस अहंकारसे प्रकट हुई हैं । दस इन्द्रियोंके अधिष्ठाता दस देवता और ग्यारहवीं इन्द्रिय मन(-के भी अधिष्ठाता देवता)-ये वैकारिक अर्थात् सात्त्विक अहंकारकी सृष्टि हैं । तत्पश्चात् नाना प्रकारकी प्रजाको उत्पन्न करनेकी इच्छावाले भगवान् स्वयम्भूने सबसे पहले जलकी ही सृष्टि की और उसमें अपनी शक्ति (वीर्य)-का आधान किया । जलको 'नार' कहा गया है; क्योंकि वह नरसे उत्पन्न हुआ है । 'नार' (जल) ही पूर्वकालमें भगवान्‌का 'अयन' (निवास-स्थान) था; इसलिये भगवान्‌को 'नारायण' कहा गया है ॥ १-७ ॥

अयनन्तस्य ताः पूर्ं तेन नारायणः स्मृतः ।
हिरण्यवर्णमभवत् तदण्डमुदकेशयम् ॥ ८ ॥
तस्मिन् जज्ञे स्वयं ब्रह्मा स्वयम्भूरिति नः श्रुतम् ।
हिरण्यगर्भो भगवान् उषित्वा परिवत्सरम् ॥ ९ ॥
तदण्डमकरोत् द्वैधन् दिवं भुवमथापि च ।
तयोः शकलयोर्मध्ये आकाशमसृजत् प्रभुः ॥ १० ॥
अप्सु पारिप्लवां पृथिवीं दिशश्च दशधा दधे ।
तत्र कालं मनो वाचं कामं क्रोधमथो रतिम् ॥ ११ ॥
ससर्ज सृष्टिं तद्‌रूपां स्रष्टुमिच्छन् प्रजापतिः ।
विद्युतोऽशनिमेघांश्च रोहितेन्द्रधनूंषि च ॥ १२ ॥
वयांसि च ससर्जादौ पर्जन्यञ्चाथ वक्त्रतः ।
ऋचो यजूंषि सामानि निर्ममे यज्ञसिद्धये ॥ १३ ॥
साध्यास्त्रैः अयजन्देवान् भूतमुच्चावचं भुजात् ।
सनत्कुमारं रुद्रञ्च ससर्ज क्रोधसम्भवम् ॥ १४ ॥
मरीचिमत्र्यङ्‌गिरसं पुलस्त्यं पुलहं क्रतुम् ।
वसिष्ठं मानसाः सप्त ब्रह्माण इति निश्चिताः ॥ १५ ॥
सप्तैते जनयन्ति स्म प्रजा रुद्राश्च सत्तम ।
द्विधा कृत्वात्मनो देहमर्धेन पुरुषोऽभवत् ।
अर्धेन नारी तस्यां स ब्रह्मा वै चासृजत् प्रजाः ॥ १६ ॥
स्वयम्भू श्रीहरिने जो वीर्य स्थापित किया था, वह जलमें सुवर्णमय अण्डके रूपमें प्रकट हुआ । उसमें साक्षात् स्वयम्भू भगवान् ब्रह्माजी प्रकट हुए, ऐसा हमने सुना है । भगवान् हिरण्यगर्भने एक वर्षतक उस अण्डके भीतर निवास करके उसके दो भाग किये । एकका नाम 'धुलोक' हुआ और दूसरेका 'भूलोक' । उन दोनों अण्डखण्डोंके बीचमें उन्होंने आकाशकी सृष्टि की । जलके ऊपर तैरती हुई पृथ्वीको रखा और दसों दिशाओंके विभाग किये । फिर सृष्टिकी इच्छावाले प्रजापतिने वहाँ काल, मन, वाणी, काम, क्रोध तथा रति आदिकी तत्तद्पसे सृष्टि की । उन्होंने आदिमें विद्युत्, वज्र, मेघ, रोहित इन्द्रधनुष, पक्षियों तथा पर्जन्यका निर्माण किया । तत्पश्चात् यज्ञकी सिद्धिके लिये मुखसे ऋक्, यजु और सामवेदको प्रकट किया । उनके द्वारा साध्यगणोंने देवताओंका यजन किया । फिर ब्रह्माजीने अपनी भुजासे ऊँचे-नीचे (या छोटे-बड़े) भूतोंको उत्पन्न किया, सनत्कुमारकी उत्पत्ति की तथा क्रोधसे प्रकट होनेवाले रुद्रको जन्म दिया । मरीचि, अत्रि, अङ्‌गिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु और वसिष्ठइन सात ब्रह्मपुत्रोंको ब्रह्माजीने निश्चय ही अपने मनसे प्रकट किया । साधुश्रेष्ठ ! ये तथा रुद्रगण प्रजावर्गकी सृष्टि करते हैं । ब्रह्माजीने अपने शरीरके दो भाग किये । आधे भागसे वे पुरुष हुए और आधेसे स्त्री बन गये; फिर उस नारीके गर्भसे उन्होंने प्रजाओंकी सष्टि की । (ये ही स्वायम्भुव मनु तथा शतरूपाके नामसे प्रसिद्ध हुए । इनसे ही मानवीय सृष्टि हुई । ) ॥ ८-१६ ॥

इति आदिमहापुराणे आग्नेये
जगत्सर्गवर्णनं नाम सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७ ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'जगत्‌की सृष्टिका वर्णन' नामक सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १७ ॥



हरिः ॐ तत्सत्


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