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॥ ॐ परमात्मने नमः ॥
॥ श्रीअग्निपुराणम् ॥
अष्टदशोऽध्यायः ॥ स्वायम्भुववंशवर्णनम् -
स्वायम्भुव मनुके वंशका वर्णन - अग्निरुवाच - प्रियव्रतोत्तानपादौ मनोः स्वायम्भुवात् सुतौ । अजीजनत्स तां कन्यां शतरूपां तपोऽन्विताम् ॥ १ ॥ काम्यां कर्दमभार्यातः सम्राट् कुक्षिर्विराट् प्रभुः । सुरुच्यामुत्तमो जज्ञे पुत्र उत्तानपादतः ॥ २ ॥ सुनीत्यां तु ध्रुवः पुत्रस्तपस्तेपे स कीर्तये । ध्रुवो वर्षसहस्राणि त्रीणि दिव्यानि हे मुने ॥ ३ ॥ तस्मै प्रीतो हरिः प्रादान् मुन्यग्रे स्थानकं स्थिरम् । श्लोकं पपाठ ह्युशना वृद्धिं दृष्ट्वा स तस्य च ॥ ४ ॥ अहोऽस्य तपसो वीर्यमहो श्रुतमहोऽद्भुतम् । यमद्य पुरतः कृत्वा ध्रुवं सप्तर्षयः स्थिताः ॥ ५ ॥ तस्मात् शिष्टिञ्च भव्यञ्च ध्रुवाच्छम्भुर्व्यजायत । शिष्टेराधत्त सुच्छाया पञ्च पुत्रानकल्मषान् ॥ ६ ॥ रिपुं रिपुञ्जयं रिप्रं वृकलं वृकतेजसम् । रिपोराधत्त बृहती चाक्षुषं सर्वतेजसम् ॥ ७ ॥ अग्निदेव कहते हैं-मुने ! स्वायम्भुव मनुसे उनकी तपस्विनी भार्या शतरूपाने प्रियव्रत और उत्तानपाद नामक दो पुत्र और एक सुन्दरी कन्या उत्पन्न की । वह कमनीया कन्या (देवहूति) कर्दम ऋषिकी भार्या हुई । राजा प्रियव्रतसे सम्राट कुक्षि और विराट नामक सामर्थ्यशाली पुत्र उत्पन्न हुए । उत्तानपादसे सुरुचिके गर्भसे उत्तमनामक पुत्र उत्पन्न हुआ और सुनीतिके गर्भसे ध्रुवका जन्म हुआ । हे मुने ! कुमार ध्रुवने सुन्दर कीर्ति बढ़ानेके लिये तीन* हजार दिव्य वर्षोंतक तप किया । उसपर प्रसन्न होकर भगवान् विष्णुने उसे सप्तर्षियोंके आगे स्थिर स्थान (ध्रुवपद) दिया । ध्रुवके इस अभ्युदयको देखकर शुक्राचार्यने उनके सुयशका सूचक यह श्लोक पढ़ा-'अहो ! इस ध्रुवकी तपस्याका कितना प्रभाव है, इसका शास्त्र-ज्ञान कितना अद्भुत है, जिसे आज सप्तर्षि भी आगे करके स्थित हैं । ' उस ध्रुवसे उनकी पत्नी शम्भुने श्लिष्टि और भव्य नामक पुत्र उत्पन्न किये । श्लिष्टिसे उसकी पत्नी सुच्छायाने क्रमशः रिपु, रिपुंजय, पुष्य, वृकल और वृकतेजा-इन पाँच निष्पाप पुत्रोंको अपने गर्भ में धारण किया । रिपुके वीर्यसे बृहतीने चाक्षुष और सर्वतेजाको अपने गर्भमें स्थान दिया ॥ १-७ ॥ अजीजनत् पुष्करिण्यां वीरिण्यां चाक्षुषो मनुम् । मनोरजायन्त दश नड्वलायां सुतोत्तमाः ॥ ८ ॥ ऊरुः पुरुः शतद्युम्नस्तपस्वी सत्यवाक्कविः । अग्निष्टुरतिरात्रश्च सुद्युम्नश्चाभिमन्युकः ॥ ९ ॥ ऊरोरजनयत् पुत्रान् षडग्नेयी महाप्रभान् । अङ्गं सुमनसं स्वातिं क्रतुमङ्गिरसङ्गयम् ॥ १० ॥ अङ्गात् सुनीथापत्यं वै वेणमेकं व्यजायत । अरक्षकः पापरतः स हतो मुनिभिः कुशैः ॥ ११ ॥ प्रजार्थमृषयोथास्य ममन्थुर्दक्षिणं करम् । वेणस्य मथितो पाणौ सम्बभूव पृथुः नृपः ॥ १२ ॥ तं दृष्ट्वा मुनयः प्राहुः एष वै मुदिताः प्रजाः । करिष्यति महातेजा यशश्च प्राप्स्यते महत् ॥ १३ ॥ स धन्वी कवची जातः तेजसा निर्दहन्निव । पृथुर्वैण्यः प्रजाः सर्वा ररक्ष क्षेत्रपूर्वजः ॥ १४ ॥ चाक्षुषने वीरण प्रजापतिकी कन्या पुष्करिणीके गर्भसे मनुको जन्म दिया । मनुसे नड्वलाके गर्भसे दस उत्तम पुत्र उत्पन्न हुए । [उनके नाम ये हैं-] ऊरु, पूरु, शतद्युम्न, तपस्वी, सत्यवाक्, कवि, अग्निष्टुत्, अतिरात्र, सुद्युम्न और अभिमन्यु । ऊरुके अंशसे आग्नेयीने अङ्ग, सुमना, स्वाति, क्रतु, अङ्गिरा और गय नामक महान् तेजस्वी छः पुत्र उत्पन्न किये । अङ्गसे सुनीथाने एक ही संतान वेनको जन्म दिया । वह प्रजाओंकी रक्षा न करके सदा पापमें ही लगा रहता था । उसे मुनियोंने कुशोंसे मार डाला । तदनन्तर ऋषियोंने संतानके लिये वेनके दायें हाथका मन्थन किया । हाथका मन्थन होनेपर राजा पृथु प्रकट हुए । उन्हें देखकर मुनियोंने कहा–'ये महान् तेजस्वी राजा अवश्य ही समस्त प्रजाको आनन्दित करेंगे तथा महान् यश प्राप्त करेंगे । ' क्षत्रियवंशके पूर्वज वेनकुमार राजा पृथु अपने तेजसे सबको दग्ध करते हुए-से धनुष और कवच धारण किये हुए ही प्रकट हुए थे; वे सम्पूर्ण प्रजाकी रक्षा करने लगे ॥ ८-१४ ॥ राजसूयाभिषिक्तानामाद्यः स पृथिवीपतिः । तस्माच्चैव समुत्पन्नौ निपुणौ सूतमागधौ ॥ १५ ॥ तत्स्तोत्रञ्चक्रतुर्वीरौ राजाभूत् जनरञ्जनात् । दुग्धा गौस्तेन शस्यार्थं प्रजानां जीवनाय च ॥ १६ ॥ सह देवैः मुनिगणैः गन्धर्वैः साप्सरोगणैः । पितृभिर्दानवैः सर्पैः वीरुद्भिः पर्वतैः जनैः ॥ १७ ॥ तेषु तेषु च पात्रेषु दुह्यमाना वसुन्धरा । प्रादाद्यथेप्सितं क्षीरं तेन प्राणानधारयत् ॥ १८ ॥ पृथोः पुत्रौ तु धर्मज्ञौ जज्ञातेऽन्तर्द्विपालिनौ । शिखण्डी हविर्धानं अन्तर्धानात् व्यजायत ॥ १९ ॥ हविर्धानात् षडाग्नेयी धीषणाजनयत् सुतान् । प्राचीनबर्हिषं शुक्रं गयं कृष्णं व्रजाजिनौ ॥ २० ॥ प्राचीनाग्राः कुशास्तस्य पृथिव्यां यजतो यतः । प्राचीनबर्हिर्भगवान् महानासीत्प्रजापतिः ॥ २१ ॥ राजसूय यज्ञमें दीक्षित होनेवाले नरेशोंमें वे सबसे पहले भूपाल थे । उनसे दो पुत्र उत्पन्न हुए । स्तुतिकर्ममें निपुण अद्भुतकर्मा सूत और मागधोंने उनका स्तवन किया । वे प्रजाओंका रञ्जन करनेके कारण 'राजा' नामसे विख्यात हुए । उन्होंने प्रजाओंकी जीवन-रक्षाके निमित्त अन्नकी उपज बढ़ानेके लिये गोरूपधारिणी पृथ्वीका दोहन किया । उस समय एक साथ ही देवता, मुनिवृन्द, गन्धर्व, अप्सरागण, पितर, दानव, सर्प, लता, पर्वत और मनुष्यों आदिके द्वारा अपने-अपने विभिन्न पात्रोंमें दुही जानेवाली पृथिवीने सबको इच्छानुसार दूध दिया, जिससे सबने प्राण धारण किये । पृथुके जो दो धर्मज्ञ पुत्र उत्पन्न हुए, उनके नाम थे अन्तर्धि और पालित । अन्तर्धान (अन्तर्धि)-के अंशसे उनकी शिखण्डिनी नामवाली पत्नीने 'हविर्धान' को जन्म दिया । अग्निकुमारी धिषणाने हविर्धानके अंशसे छः पुत्रोंको उत्पन्न किया । उनके नाम ये हैं-प्राचीनबर्हिष्, शुक्र, गय, कृष्ण, व्रज और अजिन । राजा प्राचीनबर्हिष् प्रायः यज्ञमें ही लगे रहते थे, जिससे उस समय पृथिवीपर दूर-दूरतक पूर्वाग्र कुश फैल गये थे । इससे वे ऐश्वर्यशाली राजा 'प्राचीनबर्हिष्' नामसे विख्यात हुए । वे एक महान् प्रजापति थे ॥ १५-२१ ॥ सवर्णाऽधत्त सामुद्री दश प्राचीनबर्हिषः । सर्वे प्रचेतसो नाम धनुर्वेदस्य पारगाः ॥ २२ ॥ अपृथग्धर्मचरणाः ते तप्यन्त महत्तपः । दशवर्षसहस्राणि समुद्रसलिलेशयाः ॥ २३ ॥ प्रजापतित्वं सम्प्राप्य तुष्टा विष्णोश्च निर्गताः । भूः खं व्याप्तं हि तरुभिः तांस्तरूनदहंश्च ते ॥ २४ ॥ मुखजाग्निमरुद्भ्यां च दृष्ट्वा चाथ द्रुमक्षयम् । उपगम्याब्रवीदेतान् राजा सोमः प्रजापतीन् ॥ २५ ॥ कोपं यच्छत दास्यन्ति कन्यां वो मारिषां वराम् । तपस्विनो मुनेः कण्डोः प्रम्लोचायां ममैव च ॥ २६ ॥ भविष्यं जानता सृष्टा भार्या वोऽस्तु कुलङ्करी । अस्यामुत्पत्स्यते दक्षः प्रजाः संवर्धयिष्यति ॥ २७ ॥ प्राचीनबर्हिष्से उनकी पत्नी समुद्र-कन्या सवर्णाने दस पुत्रोंको अपने गर्भमें धारण किया । वे सभी 'प्रचेता'नामसे प्रसिद्ध हुए और सब-के-सब धनुर्वेदमें पारंगत थे । वे एक समान धर्मका आचरण करते हुए समुद्रके जलमें रहकर दस हजार वर्षांतक महान् तपमें लगे रहे । अन्तमें भगवान् विष्णुसे प्रजापति होनेका वरदान पाकर वे संतुष्ट हो जलसे बाहर निकले । उस समय प्रायः समस्त भूमण्डल और आकाश बड़े-बड़े सघन वृक्षोंसे व्याप्त हो गया था । यह देख उन्होंने अपने मुखसे प्रकट अग्नि और वायुके द्वारा सब वृक्षोंको जला दिया । तब वृक्षोंका यह संहार देख राजा सोम इन प्रचेताओंके पास जाकर बोले "आपलोग अपना कोप शान्त करें; ये वृक्षगण आपको एक 'मारिषा' नामवाली सुन्दरी कन्या अर्पण करेंगे । यह कन्या तपस्वी मुनि कण्डुके अंशसे प्रम्लोचा अप्सराके गर्भसे [स्वेदबिन्दुके रूपमें] प्रकट हुई है । मैंने ही भविष्यकी बातें जानकर इसे कन्यारूपमें उत्पन्न कर पालापोसा है । इसके गर्भसे दक्ष उत्पन्न होंगे, जो प्रजाकी वृद्धि करेंगे" ॥ २२-२७ ॥ प्रचेतसस्तां जगृहुर्दक्षोस्याञ्च ततोऽभवत् । अचरांश्च चरांश्चैव द्विपदोथ चतुष्पदः ॥ २८ ॥ स सृष्ट्वा मनसा दक्षः पश्चादसृजत स्त्रियः । ददौ स दश धर्माय कश्यपाय त्रयोदश ॥ २९ ॥ सप्ताविंशति सोमाय चतस्त्रोऽरिष्टनेमिने । द्वे चैव बहुपुत्राय द्वे चैवाङ्गिरसे अदात् ॥ ३० ॥ तासु देवाश्च नागाद्या मैथुनान्मनसा पुरा । धर्मसर्ग प्रवक्ष्यामि दशपत्नीषु धर्मतः ॥ ३१ ॥ विश्वेदेवास्तु विश्वायाः साध्यान् साध्या व्यजायत । मरुत्त्वया मरुत्त्वन्तो वसोस्तु वसवोऽभवन् ॥ ३२ ॥ भानोस्तु भानवः पुत्रा मुहूर्तास्तु मुहूर्तजाः । सम्बाया धर्मतो घोषो नागवीथी च यामिजा ॥ ३३ ॥ पृथिवीविषयं सर्वमरुन्धत्यां व्यजायत । सङ्कल्पायास्तु सङ्कल्पा इन्दोः नक्षत्रतः सुताः ॥ ३४ ॥ प्रचेताओंने उस कन्याको ग्रहण किया । तत्पश्चात् उसके गर्भसे दक्ष उत्पन्न हुए । दक्षने चर, अचर, द्विपद और चतुष्पद आदि प्राणियोंकी मानसिक सृष्टि करके अन्तमें बहुत-सी स्त्रियोंको उत्पन्न किया । उनमेंसे दसको तो उन्होंने धर्मराजके अर्पण किया और तेरह कन्याएँ कश्यपको दी । सत्ताईस कन्याएँ चन्द्रमाको, चार अरिष्टनेमिको, दो बहुपुत्रको और दो कन्याएँ अङ्गिराको दी । पूर्वकालमें मानसिक संकल्पसे सृष्टि होती थी । उसके बाद उन दक्ष-कन्याओंसे मैथुनद्वारा देवता और नाग आदि प्रकट हुए । अब मैं धर्मराजसे उनकी दस पत्नियोंके गर्भसे जो संतानें हुईं, उस धर्मसर्गका वर्णन करूँगा । विश्वा नामवाली पत्नीसे विश्वेदेव प्रकट हुए । साध्याने साध्योंको जन्म दिया । मरुत्वतीसे मरुत्वान् और वसुसे वसुगण प्रकट हुए । भानुसे भानु और मुहूर्तासे मुहूर्त नामक पुत्र उत्पन्न हुए । धर्मराजके द्वारा लम्बासे घोष नामक पुत्र हुआ और यामि नामक पत्नीसे नागवीथी नामवाली कन्या उत्पन्न हुई । पृथिवीका सम्पूर्ण विषय भी मरुत्वतीसे ही प्रकट हुआ । संकल्पाके गर्भसे संकल्पोंकी सृष्टि हुई । चन्द्रमासे उनकी नक्षत्ररूपिणी पत्नियोंके गर्भसे आठ पुत्र हुए ॥ २८-३४ ॥ आपो ध्रुवञ्च सोमश्च धरश्चैवानिलोनलः । प्रत्यूषश्च प्रभावश्च वसवोऽष्टौ च नामतः ॥ ३५ ॥ आपस्य पुत्रो वैतण्ड्यः श्रमः शान्तो मुनिस्तथा । ध्रुवस्य कालो लोकान्तो वर्चाः सोमस्य वै सुतः ॥ ३६ ॥ धरस्य पुत्रो द्रविणो हुतहव्यवहस्तथा । मनोहरायाः शिशिरः प्राणोऽथ रमणस्तथा ॥ ३७ ॥ पुरोजवोऽनिलस्यासीदविज्ञातोऽनलस्य च । अग्निपुत्रः कुमारश्च शरस्तम्बे व्यजायत ॥ ३८ ॥ तस्य शाखो विशाखश्च नैगमेयश्च पृष्टजः । कृत्तिकातः कार्त्तिकेयो यतिः सनत्कुमारकः ॥ ३९ ॥ प्रत्यूषाद्देवलो जज्ञे विश्वकर्मा प्रभावतः । कर्ता शिल्पसहस्राणां त्रिदशानाञ्च वर्धकिः ॥ ४० ॥ मनुष्याश्चोप्जीवन्ति शिल्पं वै भूषणादिकम् । सुरभी कश्यपाद् रुद्रान् एकादश विजज्ञुषी ॥ ४१ ॥ महादेवप्रसादेन तपसा भाविता सती । अजैकपादहिर्बुध्न्यस्त्वष्टा रुद्राश्च सत्तम ॥ ४२ ॥ त्वष्टुश्चैवात्मजः श्रीमान्विश्वरूपो महायशाः । हरश्च बहुरूपश्च त्र्यम्बकश्चापराजितः ॥ ४३ ॥ वृषाकपिश्च शम्भुश्च कपर्दी रैवतस्तथा । मृगव्याधस्य सर्पश्च कपाली दश चैककः । रुद्राणां च शतं लक्षं यैः व्याप्तं सचराचरम् ॥ ४४ ॥ उनके नाम ये हैं-आप, ध्रुव, सोम, धर, अनिल, अनल, प्रत्यूष और प्रभास-ये आठ वसु हैं । आपके वैतण्ड्य, श्रम, शान्त और मुनि नामक पुत्र हुए । ध्रुवका पुत्र लोकान्तकारी काल हुआ और सोमका पुत्र वर्चा हुआ । धरकी पत्नी मनोहराके गर्भसे द्रविण, हुतहव्यवह, शिशिर, प्राण और रमण उत्पन्न हुए । अनिलका पुत्र पुरोजव और अनल (अग्नि)-का अविज्ञात था । अग्निका पुत्र कुमार हुआ, जो सरकंडोंकी ढेरीपर उत्पन्न हुआ । उसके पीछे शाख, विशाख और नैगमेय नामक पुत्र हुए । कुमार कृत्तिकाके गर्भसे उत्पन्न होनेके कारण 'कार्तिकेय' कहलाये तथा कृत्तिकाके दूसरे पुत्र सनत्कुमार नामक यति हुए । प्रत्यूषसे देवलका जन्म हुआ और प्रभाससे विश्वकर्माका । ये विश्वकर्मा देवताओंके बढ़ई थे और हजारों प्रकारकी शिल्पकारीका काम करते थे । उनके ही निर्माण किये हुए शिल्प और भूषण आदिके सहारे आज भी मनुष्य अपनी जीविका चलाते हैं । सुरभीने कश्यपजीके अंशसे ग्यारह रुद्रोंको उत्पन्न किया तथा हे साधुश्रेष्ठ ! सतीने अपनी तपस्या एवं महादेवजीके अनुग्रहसे सम्भावित होकर चार पुत्र उत्पन्न किये । उनके नाम हैं-अजैकपाद, अहिर्बुध्य, त्वष्टा और रुद्र । त्वष्टाके पुत्र महायशस्वी श्रीमान् विश्वरूप हुए । हर, बहुरूप, त्र्यम्बक, अपराजित, वृषाकपि, शम्भु, कपर्दी, रैवत, मृगव्याध, सर्प और कपाली-ये ग्यारह रुद्र प्रधान हैं । यों तो सैकड़ों-लाखों रुद्र हैं, जिनसे यह चराचर जगत् व्याप्त है ॥ ३५-४४ ॥ इति आदिमाहापुराणे आग्नेये स्वायंभुवमनुवंशवर्णनं नाम अष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ॥ इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'वैवस्वत मनुके वंशका वर्णन' नामक अठारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १८ ॥ हरिः ॐ तत्सत् |