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॥ ॐ परमात्मने नमः ॥

॥ श्रीअग्निपुराणम् ॥

विंशोऽध्यायः ॥

जगत्‌सर्गवर्णनम् -
सर्गका वर्णन -


अग्निरुवाच -
प्रथमो महतः सर्गो विज्ञेयो ब्रह्मणस्तु सः ।
तन्मात्राणां द्वितीयस्तु भूतसर्गो हि स स्मृतः ॥ १ ॥
वैकारिकस्तृतीयस्तु सर्ग ऐन्द्रियकः स्मृतः ।
इत्येष प्राकृतः सर्गः सम्भूतो बुद्धिपूर्वकः ॥ २ ॥
मुख्यः सर्गश्चतुर्थस्तु मुख्या वै स्थावराः स्मृताः ।
तिर्यक्स्रोतास्तु यः प्रोक्तस्तैर्यग्योन्यस्ततः स्मृतः ॥ ३ ॥
ततोद्‌र्ध्वस्रोतसां षष्ठो देवसर्गस्तु स स्मृतः ।
ततोऽर्वाक्स्रोतसां सर्गः सप्तमः स तु मानुषः ॥ ४ ॥
अष्टमोऽनुग्रहः सर्गः सात्विकस्तामसश्च यः ।
पञ्चैते वैकृताः सर्गाः प्राकृताश्च त्रयः स्मृताः ॥ ५ ॥
प्राकृतो वैकृतश्चैव कौमारो नवमस्तथा ।
ब्रह्मतो नव सर्गास्तु जगतो मूलहेतवः ॥ ६ ॥
ख्यात्याद्या दक्षकन्यास्तु भृग्वाद्या उपयेमिरे ।
नित्यो नैमित्तकः सर्गस्त्रिधा प्रकथितो जनैः ॥ ७ ॥
प्राकृता दैनन्दिनी स्यादन्तरप्रलयादनु ।
जायते यत्रानुदिनं मित्यसर्गो हि सम्मतः ॥ ८ ॥
अग्निदेव कहते हैं-मुने ! (प्रकृतिसे) पहले महत्तत्त्वकी सृष्टि हुई, इसे ब्राह्मसर्ग समझना चाहिये । दूसरी तन्मात्राओंकी सृष्टि हुई, इसे भूतसर्ग कहा गया है । तीसरी वैकारिक सष्टि है, इसे ऐन्द्रियकसर्ग कहते हैं । इस प्रकार यह बुद्धिपूर्वक प्रकट हुआ प्राकृतसर्ग तीन प्रकारका है । चौथे प्रकारकी सृष्टिको 'मुख्यसर्ग' कहते हैं । 'मुख्य' नाम है-स्थावरों (वृक्ष-पर्वत आदि)का । जो 'तिर्यक्स्रोता' कहा गया है, अर्थात् जिससे पशु-पक्षियोंकी उत्पत्ति हुई है, वह तैर्यग्योन्य-सर्ग पाँचवाँ है । ऊर्ध्व स्रोताओंकी सृष्टिको देव-सर्ग कहते हैं, यह छठा सर्ग है । इसके पश्चात् अक्स्रिोताओंकी सृष्टि हुई-यही सातवाँ मानव-सर्ग है । आठवाँ अनुग्रह-सर्ग है, जो सात्त्विक और तामस भी है । ये अन्तवाले पाँच वैकृतसर्ग' हैं और आरम्भके तीन 'प्राकृतसर्ग' कहे गये हैं । प्राकृत और वैकृत सर्ग तथा नवें प्रकारका कौमार-सर्ग-ये कुल नौ सर्ग ब्रह्माजीसे प्रकट हुए, जो इस जगत्‌के मूल कारण हैं । ख्याति आदि दक्ष-कन्याओंसे भृगु आदि महर्षियोंने ब्याह किया । कुछ लोग नित्य, नैमित्तिक और प्राकृतइस भेदसे तीन प्रकारकी सृष्टि मानते हैं । जो प्रतिदिन होनेवाले अवान्तर-प्रलयसे प्रतिदिन जन्म लेते रहते हैं, वह 'नित्यसर्ग' कहा गया है ॥ १-८ ॥

देवौ धाताविधातारौ भृगोः ख्यातिरसूयत ।
श्रियञ्च पत्‍नी विष्णोर्या स्तुता शक्रेण वृद्धये ॥ ९ ॥
धातुर्विधार्तुर्द्वौ पुत्रौ क्रमात् प्राणो मृकण्डुकः ।
मार्कण्डेयो मृकण्डोश्च जज्ञे वेदशिरास्ततः ॥ १० ॥
पौर्णमासश्च सम्भूत्यां मरीचेरभवत् सुतः ।
स्मृत्यामङ्‌गिरसः पुत्राः सिनीवाली कुहूस्तथा ॥ ११ ॥
राकाश्चानुमतिश्चात्रेरनसूयाप्यजीजनत् ।
सोमं दुर्वाससं पुत्रं दत्तात्रेयञ्च योगिनम् ॥ १२ ॥
प्रीत्यां पुलस्त्यभार्यायां दत्तोलिस्तत्सुतोऽभवत् ।
क्षमायां पुलहाज्जाताः सहिष्णुः कर्मपादिकाः ॥ १३ ॥
सन्नत्याञ्च क्रतोरासन् बालिखिल्या महौजसः ।
अङ्गुष्ठपर्वमात्रास्ते ये हि षष्टिसहस्रिणः ॥ १४ ॥
उर्जायाञ्च वशिष्ठाच्च राजा गात्रोर्ध्वबाहुकः ।
सवनश्चालघुः शुक्रः सुतपाः सप्त चर्षयः ॥ १५ ॥
भृगुसे उनकी पत्नी ख्यातिने धाता-विधाता नामक दो देवताओंको जन्म दिया तथा लक्ष्मी नामकी कन्या भी उत्पन्न की, जो भगवान् विष्णुकी पत्नी हुईं । इन्द्रने अपने अभ्युदयके लिये इन्हींका स्तवन किया था । धाता और विधाताके क्रमशः प्राण और मृकण्डु नामक दो पुत्र हुए । मृकण्डुसे मार्कण्डेयका जन्म हुआ । उनसे वेदशिरा उत्पन्न हुए । मरीचिके सम्भूतिके गर्भसे पौर्णमास नामक पुत्र हुआ और अङ्‌गिराके स्मृतिके गर्भसे अनेक पुत्र तथा सिनीवाली, कुहू, राका और अनुमति नामक चार कन्याएँ हुईं । अत्रिके अंशसे अनसूयाने सोम, दुर्वासा और दत्तात्रेय नामक पुत्रोंको जन्म दिया । इनमें दत्तात्रेय महान् योगी थे । पुलस्त्य मुनिकी पत्नी प्रीतिके गर्भसे दत्तोलि नामक पुत्र उत्पन्न हुआ । पुलहसे क्षमाके गर्भसे सहिष्णु एवं सर्वपादिकका* जन्म हुआ । क्रतुके सन्नतिसे बालखिल्य नामक साठ हजार पुत्र उत्पन्न हुए, जो अँगूठेके पोरुओंके बराबर और महान् तेजस्वी थे । वसिष्ठसे ऊर्जाके गर्भसे राजा, गात्र, ऊर्ध्वबाहु, सवन, अनघ, शुक्र और सुतपाये सात ऋषि प्रकट हुए ॥ ९-१५ ॥

पावकः पवमानोभूच्छुचिः स्वाहाग्निजोऽभवत् ।
अग्निस्वात्ता बर्हिषदोऽनग्नयः साग्नयो ह्यजात् ॥ १६ ॥
पितृभ्यश्च स्वधायाञ्च मेना वैधारिणी सुते ।
हिंसाभार्या त्वधर्मस्य तयोर्जज्ञे तथाऽनृतम् ॥ १७ ॥
कन्या च निकृतिस्ताभ्यां भयन्नरकेमेव च ।
माया च वेदना चैव मिथुनन्त्विदमेतयोः ॥ १८ ॥
तयोर्जज्ञेऽथ वै मायां मृत्युं भूतापहारिणम् ।
वेदना च सुतं चापि दुःखं जज्ञेऽथ रौरवात् ॥ १९ ॥
मृत्योर्व्याधिजराशोक-तृष्णाक्रोधाश्च जज्ञिरे ।
ब्रह्मणश्च रुदन् जातो रोदनाद् रुद्रनामकः ॥ २० ॥
भवं शर्वमथेशानं तथा पशुपतिं द्विज ।
भीममुग्रं महादेवमुवाच स पितामहः ॥ २१ ॥
दक्षकोपाच्च तद्‌भार्या देहन्तत्याज सा सती ।
हिमवद्‌दुहिता भूत्वा पत्‍नी शम्भोरभूत् पुनः ॥ २२ ॥
ऋषिभ्यो नारदाद्युक्ताः पूजाः स्नानादिपूर्विकाः ।
स्वायम्भुवाद्यास्ताः कृत्वा विष्ण्वादेर्भुक्तिमुक्तिदाः ॥ २३ ॥
स्वाहा एवं अग्निसे पावक, पवमान और शुचि नामक पुत्र हुए । इसी प्रकार अजसे अग्निष्वात्त, बर्हिषद्, अनग्नि एवं साग्नि पितर हुए । पितरोंसे स्वधाके गर्भसे मेना और वैधारिणी नामक दो कन्याएँ हुईं । अधर्मकी पत्नी हिंसा हुई; उन दोनोंसे अमृत नामक पुत्र और निकृति नामवाली कन्याकी उत्पत्ति हुई । (इन दोनोंने परस्पर विवाह किया और) इनसे भय तथा नरकका जन्म हुआ । क्रमशः माया और वेदना इनकी पत्नियाँ हुईं । इनमेंसे मायाने (भयके सम्पर्कसे) समस्त प्राणियोंके प्राण लेनेवाले मृत्युको जन्म दिया और वेदनाने नरकके संयोगसे दुःख नामक पुत्र उत्पन्न किया । इसके पश्चात् मृत्युसे व्याधि, जरा, शोक, तृष्णा और क्रोधकी उत्पत्ति हुई । ब्रह्माजीसे एक रोता हुआ पुत्र हुआ, जो रुदन करनेके कारण 'रुद्र' नामसे प्रसिद्ध हुआ । तथा हे द्विज ! उन पितामह (ब्रह्माजी)-ने उसे भव, शर्व, ईशान, पशुपति, भीम, उग्र और महादेव आदि नामोंसे पुकारा । रुद्रकी पत्नी सतीने अपने पिता दक्षपर कोप करनेके कारण देहत्याग किया और हिमवान्की कन्या-रूपमें प्रकट होकर पुनः वे शंकरजीकी ही धर्मपत्नी हुईं । किसी समय नारदजीने ऋषियोंके प्रति विष्णु आदि देवताओंकी पूजाका विधान बतलाया था । स्नानादिपूर्वक की जानेवाली उन पूजाओंका विधिवत् अनुष्ठान करके स्वायम्भुव मनु आदिने भोग और मोक्ष-दोनों प्राप्त किये थे ॥ १६-२३ ॥

इति आदिमहापुराणे आग्नेये
जगत्सर्गवर्णनं नाम विंशतितमोऽध्यायः ॥ २० ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'जगत्-सृष्टिका वर्णन' नामक बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २० ॥



हरिः ॐ तत्सत्


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