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॥ ॐ परमात्मने नमः ॥
॥ श्रीअग्निपुराणम् ॥
एकविंशोऽध्यायः ॥ विष्ण्वादिदेवतानां सामान्यपूविधाजानम् -
विष्णु आदि देवताओंकी सामान्य पूजाका विधान - नारद उवाच - सामान्यपूजां विष्ण्वादेर्वक्ष्ये मन्त्रांश्च सर्वदान् । समस्तपरिवाराय अच्युताय नमो यजेत् ॥ १ ॥ धात्रे विधात्रे गङ्गायै यमुनायै निधी तथा । द्वारश्रियं वस्तुनवं शक्तिं कूर्म्ममनन्तकम् ॥ २ ॥ पृथिवीं धर्मकं ज्ञानं वैराग्यैश्वर्यमेव च । अधर्मादीन् कन्दनालपद्मकेशरकर्णिकाः ॥ ३ ॥ ऋग्वेदाद्यं कृताद्यञ्च सत्वाद्यर्कादिमण्डलम् । विमलोत्कर्षिणी ज्ञाना क्रिया योगा च ता यजेत् ॥ ४ ॥ प्रह्वीं सत्यां तथेशानानुग्रहासनमूर्तिकाम् । दुर्गां गिरं गणं क्षेत्रं वासुदेवादिकं यजेत् ॥ ५ ॥ हृदयञ्च शिरः शूलं वर्मनेत्रमथास्त्रकम् । शङ्खं चक्रं गदां पद्मं श्रीवत्सं कौस्तुभं यजेत् ॥ ६ ॥ वनमालां श्रियं पुष्टिं गरुडं गुरुमर्चयेत् । इन्द्रमग्निं यमं रक्षो जलं वायुं धनेश्वरम् ॥ ७ ॥ ईशानन्तमजं चास्त्रं वाहनं कुमुदादिकम् । विष्वक्सेनं मण्डलादौ सिद्धिः पूजादिना भवेत् ॥ ८ ॥ नारदजी बोले-अब मैं विष्णु आदि | देवताओंकी सामान्य पूजाका वर्णन करता हूँ तथा समस्त कामनाओंको देनेवाले पूजा-सम्बन्धी मन्त्रोंको भी बतलाता हूँ । भगवान् विष्णुके पूजनमें सर्वप्रथम परिवारसहित भगवान् अच्युतको नमस्कार करके पूजन आरम्भ करे, इसी प्रकार पूजा-मण्डपके द्वारदेशमें क्रमशः दक्षिण-वाम भागमें धाता और विधाताका तथा गङ्गा और यमुनाका भी पूजन करे । फिर शङ्खनिधि और पद्मनिधि-इन दो निधियोंकी, द्वारलक्ष्मीकी, वास्तु-पुरुषकी तथा आधारशक्ति, कूर्म, अनन्त, पृथिवी, धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्यकी पूजा करे । तदनन्तर अधर्म आदिका (अर्थात् अधर्म, अज्ञान, अवैराग्य और अनैश्वर्यका) पूजन करे तथा एक कमलकी भावना करके उसके मूल, नाल, पद्म, केसर और कर्णिकाओंकी पूजा करे । फिर ऋग्वेद आदि चारों वेदोंकी, सत्ययुग आदि युगोंकी, सत्त्व आदि गुणोंकी और सूर्य आदिके मण्डलकी पूजा करे । इसी प्रकार विमला, उत्कर्षिणी, ज्ञाना, क्रिया, योगा आदि जो शक्तियाँ हैं, उनकी पूजा करे तथा प्रही, सत्या, ईशा, अनुग्रहा, निर्मलमूर्ति दुर्गा, सरस्वती, गण (गणेश), क्षेत्रपाल और वासुदेव (संकर्षण, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध) आदिका पूजन करे । इनके बाद हृदय, सिर, चूडा (शिखा), वर्म (कवच), नेत्र आदि अङ्गोंकी, फिर शङ्ख, चक्र, गदा और पहा नामक अस्त्रोंकी, श्रीवत्स, कौस्तुभ एवं वनमालाकी तथा लक्ष्मी, पुष्टि, गरुड़ और गुरुदेवकी पूजा करे । तत्पश्चात् इन्द्र, अग्नि, यम, निर्ऋति, जल (वरुण), वायु, कुबेर, ईशान, ब्रह्मा और अनन्त-इन दिक्पालोंकी, इनके अस्त्रोंकी, कुमुद आदि विष्णुपार्षदों या द्वारपालोंकी और विष्वक्सेनकी आवरण-मण्डल आदिमें पूजा आदि करनेसे सिद्धि प्राप्त होती है ॥ १-८ ॥ शिवपूजाथ सामान्या पूर्वं नन्दिनमर्चयेत् । महाकालं यजेद्गङ्गां यमुनाञ्च गणादिकम् ॥ ९ ॥ गिरं श्रियं गुरुं वास्तुं शक्यादीन् धर्मकादिकं । वामा ज्येष्ठा तथा रौद्री काली कलविकारिणी ॥ १० ॥ बलविकरिणी चापि बलप्रमथिनी क्रमात् । सर्वभूतदमनी च मदनोन्मादिनी शिवा ॥ ११ ॥ हां हुं हां शिवमूर्तये साङ्गवक्त्रं शिवं यजेत् । हौं शिवाय हामित्यादि हामीशानादिवक्त्रकम् ॥ १२ ॥ ह्रीं गौरीं गं गणः शक्रमुखाश्चण्डीहृतादिकाः । अब भगवान् शिवकी सामान्य पूजा बतायी जाती है-इसमें पहले नन्दीका पूजन करना चाहिये, फिर महाकालका । तदनन्तर क्रमश: दुर्गा, यमुना, गण आदिका, वाणी, श्री, गुरु, वास्तुदेव, आधारशक्ति आदि और धर्म आदिका अर्चन करे । फिर वामा, ज्येष्ठा, रौद्री, काली, कलविकरिणी, बलविकरिणी, बलप्रमथिनी, सर्वभूतदमनी तथा कल्याणमयी मनोन्मनी-इन नौ शक्तियोंका क्रमसे पूजन करे । 'हां हं हां शिवमूर्तये नमः । -इस मन्त्रसे हृदयादि अङ्ग और ईशान आदि मुखसहित शिवकी पूजा करे । 'हाँ शिवाय हौं । ' इत्यादिसे केवल शिवकी अर्चना करे और 'हां' इत्यादिसे ईशानादि* पाँच मुखोंकी आराधना करे । 'ह्रीं गौर्यै नमः । ' इससे गौरीका और 'गं गणपतये नमः । ' इस मन्त्रसे गणपतिकी, नाम-मन्त्रोंसे इन्द्र आदि दिक्पालोंकी, चण्डकी और हृदय, सिर आदिकी भी पूजा करे ॥ ९-१२.५ ॥ क्रमात्सूर्यार्चने मन्त्रा दण्डी पूज्यश्च पिङ्गलः ॥ १३ ॥ उच्चैःश्रवाश्चारुणश्च प्रभूतं विमलं यजेत् । साराध्योऽपरमसुखं स्कन्दाद्यं मध्यतो यजेत् ॥ १४ ॥ दीप्ता सूक्ष्मा जया भद्रा विभूतिर्विमला तथा । अमोघा विद्युता चैव पूज्याथ सर्वतोमुखी ॥ १५ ॥ अर्कासनं हि हं खं खं सोल्कायेति च मूर्तिकम् । ह्रां ह्रीं सः सूर्याय नम आं नमो हृदयाय च ॥ १६ ॥ अर्काय शिरसे तद्वदग्नीशासुरवायुगान् । भूर्भुवः स्वरे ज्वालिनि शिखा हुं कवचं स्मृतम् ॥ १७ ॥ भां नेत्रं हस्तथार्कास्त्रं राज्ञी शक्तिश्च निष्कुभा । सोमोऽङ्गारकोऽथ बुधो जीवः शुक्रः शनिः क्रमात् ॥ १८ ॥ राहुः केतुस्तेजश्चण्डः सङ्क्षेपादथ पूजनम् । आसनं मूर्तये मूलं हृदाद्यं परिचारकः ॥ १९ ॥ अब क्रमशः सूर्यकी पूजाके मन्त्र बताये जाते हैं । इसमें नन्दी सर्वप्रथम पूजनीय हैं । फिर क्रमश: पिङ्गल, उच्चैःश्रवा और अरुणकी पूजा करे । तत्पश्चात् प्रभूत, विमल, सोम, दोनों संध्याकाल, परसुख और स्कन्द आदिकी मध्यमें | पूजा करे । इसके बाद दीसा, सूक्ष्मा, जया, भद्रा, विभूति, विमला, अमोघा, विद्युता तथा सर्वतोमुखी-इन नौ शक्तियोंकी पूजा होनी चाहिये । तत्पश्चात् 'ॐ ब्रह्मविष्णुशिवात्मकाय सौराय पीठाय नमः । ' इस मन्त्रसे सूर्यके आसनका स्पर्श और पूजन करे । फिर 'ॐ खं खखोल्काय नमः । ' इस मन्त्रसे सूर्यदेवकी मूर्तिकी उद्भावना करके उसका अर्चन करे । तत्पश्चात् 'ॐ ह्रां ह्रीं सः सूर्याय नमः । ' इस मन्त्रसे सूर्यदेवकी पूजा करे । इसके बाद हृदयादिका पूजन करे-'ॐ आं नमः । ' इससे हृदयकी 'ॐ अर्काय नमः । ' इससे सिरकी पूजा करे । इसी प्रकार अग्नि, ईश और वायुमें अधिष्ठित सूर्यदेवका भी पूजन करे । फिर 'ॐ भूर्भुवः स्वः चालिन्यै शिखायै नमः । ' इससे शिखाकी, 'ॐ हुंकवचाय नमः । ' इससे कवचकी, 'ॐ भां नेत्राभ्यां नमः । ' इससे नेत्रकी और 'ॐ रम् अस्त्रिाय नमः । ' इससे अत्रकी पूजा करे । इसके बाद सूर्यकी शक्ति रानी संज्ञाकी तथा उनसे प्रकट हुई छायादेवीको पूजा करे । फिर चन्द्रमा, मङ्गल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु और केतु-क्रमश: इन ग्रहोंका और सूर्यके प्रचण्ड तेजका पूजन करे । अब संक्षेपसे पूजन बतलाते हैं-देवताके आसन, मूर्ति, मूल, हदय आदि अङ्ग और परिचारक इनकी ही पूजा होती है ॥ १३-१९ ॥ विष्ण्वासनं विष्णुर्मूर्ते रां श्रीं श्रीं श्रीधरो हरिः । ह्रीं सर्वमूर्तिमन्त्रोऽयमिति त्रैलोक्यमोहनः ॥ २० ॥ ह्रीं हृषीकेशः क्लीं विष्णुः स्वरैः दीर्घैः हृदादिकम् । समस्तैः पञ्चमी पूजा सङ्ग्रामादौ जयादिदा ॥ २१ ॥ चक्रं गदां क्रमाच्छङ्खं मुषलं खड्गशार्ङ्गकम् । पाशाङ्कुशौ च श्रीवत्सं कौस्तुभं वनमालया ॥ २२ ॥ श्रीं श्रीर्महालक्ष्मीतार्क्ष्यो गुरुरिन्द्रादयोऽर्चनम् । सरस्वत्यासनं मूर्तिरौं ह्रीं दधी सरस्वती ॥ २३ ॥ हृदाद्या लक्ष्मीर्मेधा च कलातुष्टिश्च पुष्टिका । गौरी प्रभामती दुर्गा गणो गुरुश्च क्षेत्रपः ॥ २४ ॥ भगवान् विष्णुके आसनका पूजन 'ॐ श्रीं श्रीं श्रीधरो हरिः ह्रीं । ' इस मन्त्रसे करना चाहिये । इसी मन्त्रसे भगवान् विष्णुकी मूर्तिका भी पूजन करे । यह सर्वमूर्तिमन्त्र है । इसीको त्रैलोक्यमोहन मन्त्र भी कहते हैं । भगवान्के पूजनमें 'ॐ क्लीं हृषीकेशाय नमः । ' 'ॐ हुं विष्णवे नमः । इन मन्त्रोंका उपयोग करे । सम्पूर्ण दीर्घ स्वरोंके द्वारा हृदय आदिकी पूजा करे; जैसे-'ॐ आं हृदयाय नमः । ' इससे हृदयकी, 'ॐई शिरसे नमः । ' इससे सिरकी, 'ॐ ऊं शिखायै नमः । ' | इससे शिखाकी, 'ॐ एं कवचाय नमः । ' इससे कवचकी, 'ॐ ऐं नेत्राभ्यां नमः । ' इससे नेत्रोंकी और 'ॐ औं अस्त्राय नमः । ' इससे अस्त्रकी पूजा करे । पाँचवी अर्थात् परिचारकोंकी पूजा संग्राम आदिमें विजय आदि देनेवाली है । परिचारकोंमें चक्र, गदा, शङ्ख, मुसल, खड्ग, शार्ङ्गधनुष, पाश, अंकुश, श्रीवत्स, कौस्तुभ, वनमाला, 'श्रीं' इस बीजसे युक्त श्री-महालक्ष्मी, गरुड, गुरुदेव और इन्द्रादि देवताओंका पूजन किया जाता है । (इनके पूजनमें प्रणवसहित नामके आदि अक्षरमें अनुस्वार लगाकर चतुर्थी विभक्तियुक्त नामके अन्तमें 'नमः' जोड़ना चाहिये । जैसे 'ॐ चं चक्राय नमः । ' 'ॐ गं गदायै नमः । ' इत्यादि) सरस्वतीके आसनकी पूजामें 'ॐ ऐं देव्यै सरस्वत्यै नमः । ' इस मन्त्रका उपयोग करे और उनकी मूर्तिके पूजनमें 'ॐ ह्रीं देव्यै सरस्वत्यै नमः । ' इस मन्त्रसे काम ले । हृदय आदिके लिये पूर्ववत् मन्त्र हैं । सरस्वतीके परिचारकोंमें लक्ष्मी, मेधा, कला, तुष्टि, पुष्टि, गौरी, प्रभा, मति, दुर्गा, गण, गुरु और क्षेत्रपालकी पूजा करे ॥ २०-२४ ॥ तथा गं गणपतये च ह्रीं गौर्यै च श्रीं श्रियै । ह्रीं त्वरितायै ह्रीं सौ त्रिपुरा चतुर्थ्यन्तनमोऽन्तकाः ॥ २५ ॥ प्रणवाद्याश्च नामाद्यमक्षरं बिन्दुसंयुतम् । ॐ युतं वा सर्वमन्त्रपूजनाज्जपतः स्मृताः ॥ २६ ॥ होमात्तिलघृताद्यैश्च धर्मकामार्थमोक्षदाः । पूजामन्त्रान् पठेद्यस्तु भुक्तभोगो दिवं व्रजेत् ॥ २७ ॥ तथा 'ॐ गं गणपतये नमः । '- इस मन्त्रसे गणेशकी, 'ॐ ह्रीं गौर्यै नमः । ' इस मन्त्रसे गौरीकी, 'ॐ श्रीं श्रियै नमः । ' इससे श्रीकी, 'ॐ ह्रीं त्वरितायै नमः । ' इस मन्त्रसे त्वरिताकी, 'ॐ ऐं क्लीं सौं त्रिपुरायै नमः । ' इस मन्त्रसे त्रिपुराकी पूजा करे । इस प्रकार 'त्रिपुरा' शब्द भी चतुर्थी विभक्त्यन्त हो और अन्त में 'नमः' शब्दका प्रयोग हो । जिन देवताओंके लिये कोई विशेष मन्त्र नहीं बतलाया गया है, उनके नामके आदिमें प्रणव लगावे । नामके आदि अक्षरमें अनुस्वार लगाकर उसे बीजके रूपमें रखे तथा पूर्ववत् नामके अन्तमें चतुर्थी विभक्ति और 'नमः' शब्द जोड़ ले । पूजन और जपमें प्रायः सभी मन्त्र 'ॐकारयुक्त बताये गये हैं । अन्तमें तिल और घी आदिसे होम करे । इस प्रकार ये देवता और मन्त्र धर्म, काम, अर्थ और मोक्ष-चारों पुरुषार्थ देनेवाले हैं । जो पूजाके इन मन्त्रोंका पाठ करेगा, वह समस्त भोगोंका उपभोग कर अन्तमें देवलोकको प्राप्त होगा ॥ २५-२७ ॥ इति आदिमहापुराणे आग्नेये विष्ण्वादिदेवतासामान्यपूजाविधानवर्णनं नाम एकविंशतितमोऽध्यायः ॥ २१ ॥ इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें "विष्णु आदि देवताओंकी सामान्य पूजाके विधानका वर्णन' नामक इकीसवां अध्याय पूरा हुआ ॥ २१ ॥ हरिः ॐ तत्सत् |