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॥ ॐ परमात्मने नमः ॥

॥ श्रीअग्निपुराणम् ॥

पञ्चविंशोऽध्यायः ॥

वासुदेवादिमन्त्राणां लक्षणानि -
वासुदेव, संकर्षण आदिके मन्त्रोंका निर्देश तथा एक व्यूहसे लेकर द्वादश व्यूहतकके व्यूहोंका एवं पञ्चविंश और षड्विंश व्यूहका वर्णन -


नारद उवाच -
वासुदेवादिमन्त्राणां पूज्यानां लक्षणं वदे ।
वासुदेवः सङ्कर्षणः प्रद्युम्नश्चानिरुद्धकः ॥ १ ॥
नमो भगवते चादौ अ आ अं अः स्वबीजकाः ।
ओङ्काराद्या नमोन्ताश्च नमो नारायणस्ततः ॥ २ ॥
ॐ तत् सत् ब्रह्मणे चैव ॐ नमो विष्णवे नमः ।
ॐ क्षौं ॐ नमो भगवते नरसिंहाय वै नमः ॥ ३ ॥
ॐ भूर्नमो भगवते वराहाय नराधिपाः ।
जवारुणहरिद्राभा नीलश्यामललोहिताः ॥ ४ ॥
मेघाग्निमधुपिङ्गाभा वल्लभा नव नायकाः ।
अङ्गानि स्वरवीजानां स्वनामान्तैः यथाक्रमम् ॥ ५ ॥
हृदयादीनि कल्पेत विभक्तैस्तन्त्रवेदिभिः ।
नारदजी कहते हैं-ऋषियो ! अब मैं वासुदेव आदिके आराधनीय मन्त्रोंका लक्षण बता रहा हूँ । वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध-इन चार व्यूह-मूर्तियों के नामके आदिमें ॐ, फिर क्रमशः 'अ आ अं अः' ये चार बीज तथा 'नमो भगवते' पद जोड़ने चाहिये और अन्तमें 'नमः' पदको जोड़ देना चाहिये । ऐसा करनेसे इनके पृथक्-पृथक् चार मन्त्र बन जाते हैं । इसके बाद नारायण-मन्त्र है, जिसका स्वरूप है-'ॐ नमो नारायणाय । ','ॐ तत्सद् ब्रह्मणे ॐनमः । -यह ब्रह्ममन्त्र है । 'ॐ विष्णवे नमः । '-यह विष्णुमन्त्र है । 'ॐ नौं ॐ नमो भगवते नरसिंहाय नमः । 'यह नरसिंहमन्त्र है । 'ॐ भूनमो भगवते वराहाय । 'यह भगवान् वराहका मन्त्र है । ये सभी मन्त्रराज हैं । उपर्युक्त नौ मन्त्रोंके वासुदेव आदि नौ नायक हैं, जो उपासकोंके वल्लभ (इष्टदेवता) है । इनकी अङ्‌ग-कान्ति क्रमशः जवाकुसुमके सदृश अरुण, हल्दीके समान पीली, नीली, श्यामल, लोहित, मेष-सदृश, अग्नितुल्य तथा मधुके समान पिङ्‌गल है । तन्त्रवेत्ता पुरुषोंको स्वरके बीजोंद्वारा क्रमशः पृथक्-पृथक् 'हृदय' आदि अङ्‌गोंकी कल्पना करनी चाहिये । उन बीजोंके अन्तमें अङ्‌गोंके नाम रहने चाहिये-(यथा-'ॐ आं हृदयाय नमः । ॐई शिरसे स्वाहा । ॐ ॐ शिखायै वषट् । ' इत्यादि) ॥ १-५.५ ॥

व्यञ्जनादीनि बीजानि तेषां लक्षणमन्यथा ॥ ६ ॥
दीर्घस्वरैस्तु भिन्नानि नमोऽन्तान्तस्थितानि तु ।
अङ्गानि ह्रस्वयुक्तानि उपाङ्गानीति वर्ण्यते ॥ ७ ॥
विभक्तनामवर्णान्तस्थितानि बीजमुत्तमम् ।
दीर्घैः ह्रस्वैश्च संयुक्तं साङ्गोपाङ्गंस्वरैः क्रमात् ॥ ८ ॥
व्यञ्जनानां क्रमो ह्येष हृदयादिप्रक्लृप्तये ।
स्वबीजेन स्वनामान्तैः विभक्तान्यङ्गनामभिः ॥ ९ ॥
युक्तानि हृदयादीनि द्वादशान्तानि पञ्चतः ।
आरभ्य कल्पयित्वा तु जपेत् सिद्ध्यनुरूपतः ॥ १० ॥
हृदयञ्च शिरश्चूडा कवचं नेत्रमस्त्रकम् ।
षडङ्गानि तु बीजानां मूलस्य द्वादशाङ्गकम् ॥ ११ ॥
हृच्छिरश्च शिखा वर्म चास्त्रनेत्रान्तथोदरम् ।
प्रष्टबाहूरुजानूंश्च जङ्घा पादौ क्रमान्न्यसेत् ॥ १२ ॥
कं टं पं शं वैनतेयः खं ठं फं षं गदामनुः ।
गं डं बं सं पुष्ठिमन्त्रो घं ढं भं हं श्रियै नमः ॥ १३ ॥
वं शं मं क्षं पाञ्चजन्यं छं तं पं कौस्तुभाय च ।
जं खं वं सुदर्शनाय श्रीवत्साय सं वं दं चं लम् ॥ १४ ॥
जिनके आदिमें व्यञ्जन अक्षर होते हैं, उनके लक्षण अन्य प्रकारके हैं । दीर्घ स्वरोंके संयोगसे उनके भिन्न-भिन्न रूप होते हैं । उनके अन्तमें अङ्‌गोंके नाम होते हैं और उन अङ्‌ग-नामोंके अन्तमें 'नमः' आदि पद जुड़े होते हैं । (यथा'क्लां हृदयाय नमः । क्लीं शिरसे स्वाहा । ' इत्यादि । ) ह्रस्व स्वरोंसे युक्त बीजवाले अङ्‌ग 'उपाङ्‌ग' कहलाते हैं । देवताके नाम-सम्बन्धी अक्षरोंको पृथक्-पृथक् करके, उनमेंसे प्रत्येकके अन्तमें बिन्द्वात्मक बीजका योग करके उनसे अङ्‌गन्यास करना भी उत्तम माना गया है । अथवा नामके आदि अक्षरको दीर्घ स्वरों एवं हस्व स्वरोंसे युक्त करके अङ्‌ग-उपाङ्‌गकी कल्पना करे और उनके द्वारा क्रमशः न्यास करे । हृदय आदि अङ्‌गोंकी कल्पनाके लिये व्यञ्जनोंका यही क्रम है । देवताके मन्त्रका जो अपना स्वर-बीज है, उसके अन्तमें उसका अपना नाम देकर अङ्‌गसम्बन्धी नामोंद्वारा पृथक्-पृथक वाक्यरचना करके उससे युक्त हृदयादि द्वादश अङ्‌गोंकी कल्पना करे । पाँचसे लेकर बारह अङ्‌गोंतकके न्यासवाक्यकी कल्पना करके सिद्धिके अनुरूप उनका जप करे । हृदय, सिर, शिखा, कवच, नेत्र और अस्त्र-ये छ: अङ्‌ग हैं । मूलमन्त्रके बीजोंका इन अङ्‌गोंमें न्यास करना चाहिये । बारह अङ्‌ग ये हैंहृदय, सिर, शिखा, हाथ, नेत्र, उदर, पीठ, बाहु, ऊरु, जानु, जङ्‌घा और पैर । इनमें क्रमशः न्यास करना चाहिये । कं टं पं शं वैनतेयाय नमः । यह गरुडसम्बन्धी बीजमन्त्र है । 'खं ठं फं षं गदायै नमः । '-यह गदा-मन्त्र है । 'गं डं वं सं पुष्टयै नमः । '-यह पुष्टिदेवी-सम्बन्धी मन्त्र है । 'घं टं भं हं श्रियै नमः । -यह श्रीमन्त्र है । 'चं णं मं क्षं'-यह पाञ्चजन्य (शङ्‌ख) का मन्त्र है । 'छं तं पं कौस्तभाय नमः । '-यह कौस्तभ-मन्त्र है । 'जं खं वं सुदर्शनाय नमः । '-यह सुदर्शनचक्रका मन्त्र है । 'सं वं दं लं श्रीवत्साय नमः । '-यह श्रीवत्स-मन्त्र है ॥ ६-१४ ॥

ॐ धं वं वनमालायै महानन्ताय वै नमः ।
निर्बीजपदमन्त्राणां पदैः अङ्गानि कल्पयेत् ॥ १५ ॥
जात्यन्तैः नामसंयुक्तेर्हृदयादीनि पञ्चधा ।
प्रणवं हृदयादीनि ततः प्रोक्तानि पञ्चधा ॥ १६ ॥
प्रणवं हृदयं पूर्वं परायेति शिरः शिखा ।
नाम्नात्मना तु कवचं अस्त्रं नामान्तकं भवेत् ॥ १७ ॥
ॐ परास्त्रादिस्वनामात्मा चतुर्थ्यन्तो नमोन्तकः ।
एकव्यूहादिषड्‌विंशव्यूहात्तस्यात्मनो मनुः ॥ १८ ॥
कनिष्टादिकराग्रेषु प्रकृतिं देहकेर्चयेत् ।
पराय पुरुषात्मा स्यात् प्रकृत्यात्मा द्विरूपकः ॥ १९ ॥
ॐ परायाग्न्यात्मने चैव वाय्वर्कौ च द्विरूपकः ।
अग्निं त्रिमूर्तौ विन्यस्य व्यापकं करदेहयोः ॥ २० ॥
'ॐ वं वनमालायै नमः । '-यह वनमालाका और 'ॐ पं० पद्मनाभाय नमः । '-यह पद्म या पद्मनाभका मन्त्र है । बीजरहित पदवाले मन्त्रोंका अङ्‌गन्यास उनके पदोंद्वारा ही करना चाहिये । नामसंयुक्त जात्यन्त* पदोंद्वारा हृदय आदि पाँच अङ्‌गोंमें पृथक्-पृथक् न्यास करे । पहले प्रणवका उच्चारण, फिर हृदय आदि पूर्वोक्त पाँचों अङ्‌गोंके नाम; क्रम यह है । (उदाहरणके लिये यों समझना चाहिये-'ॐ हृदयाय नमः । ' इत्यादि । ) पहले प्रणव तथा हृदय-मन्त्रका उच्चारण करे । (अर्थात्'ॐ हृदयाय नमः' कहकर हृदयका स्पर्श करे । ) फिर 'पराय शिरसे स्वाहा' बोलकर मस्तकका स्पर्श करे । तत्पश्चात् इष्टदेवका नाम लेकर शिखाको छूये । अर्थात् 'वासुदेवाय शिखायै वषट् । 'बोलकर शिखाका स्पर्श करे । इसके बाद 'आत्मने कवचाय हुम् । '-बोलकर कवच न्यास करे । पुनः देवताका नाम लेकर, अर्थात् 'वासुदेवाय अस्त्राय फट् । '-बोलकर अस्त्र-न्यासकी क्रिया पूरी करे । आदिमें 'ॐकारादि' जो नामात्मक पद है, उसके अन्तमें 'नमः' पद जोड़ दे और उस नामात्मक पदको चतुर्थ्यन्त करके बोले । एक व्यूहसे लेकर षड्विंश व्यूहतकके लिये यह समान मन्त्र है । कनिष्ठासे लेकर सभी अङ्गुलियों में हाथके अग्रभागमें प्रकृतिका अपने शरीरमें ही पूजन करे । 'पराय' पदसे एकमात्र परम पुरुष परमात्माका बोध होता है । वही एकसे दो हो जाता है, अर्थात् प्रकृति और पुरुष-दो व्यूहोंमें अभिव्यक्त होता है । ॐ परायाग्यात्मने नमः । यह व्यापक-मन्त्र है । वसु, अर्क (सूर्य) और अग्नि-ये त्रिव्यूहात्मक मूर्तियाँ हैं-इन तीनोंमें अग्निका न्यास करके हाथ और सम्पूर्ण शरीरमें व्यापक-न्यास करे ॥ १५-२० ॥

वाय्वर्कौ करशाखासु सव्येतरकरद्वये ।
हृदि मूर्तो तनावेष त्रिव्यूहे तुर्यरूपके ॥ २१ ॥
ऋग्वेदं व्यापकं हस्ते अङ्गुलीषु यजुर्न्यसेत् ।
तलद्वयेथर्वरूपं शिरोहृच्चरणान्तकः ॥ २२ ॥
आकाशं व्यापकं न्यस्य करे देहे तु पूर्ववत् ।
अङ्गुलीषु च वाय्वादि शिरोहृद्‌गुह्यपादके ॥ २३ ॥
वायुर्ज्योतिर्जलं पृथ्वी पञ्चव्यूहः समीरितः ।
मनः श्रोत्रन्त्वग्दृग्जिह्वा घ्राणं षड्व्यूह ईरितः ॥ २४ ॥
व्यापकं मानसं न्यस्य ततोङ्गुष्ठादितः क्रमात् ।
मूर्धास्यहृद्‌गुह्यपत्सु कथितः करुणात्मकः ॥ २५ ॥
आदिमूर्तिस्तु सर्वत्र व्यापको जीवसञ्ज्ञितः ।
भूर्भुवः स्वर्महर्जनस्तपः स्त्यञ्च सप्तधा ॥ २६ ॥
करे देहे न्यसेदाद्यमङ्गुष्ठादिक्रमेण तु ।
तलसंस्थः सप्तमश्च लोकेशो देहके क्रमात् ॥ २७ ॥
देहे शिरोललाटास्यहृद्‌गुह्याङ्‌घ्रिषु संस्थितः ।
अग्निष्टोमस्तथोक्थस्तु षोडशी वाजपेयकः ॥ २८ ॥
वायु और अर्कका क्रमशः दायें और बायें दोनों हाथोंकी अंगुलियोंमें न्यास करे तथा हृदयमें मूर्तिमान् अग्निका चिन्तन करे । त्रिव्यूह-चिन्तनका यही क्रम है । चतुर्व्यहमें चारों वेदोंका न्यास होता है । ऋग्वेदका सम्पूर्ण देह तथा हाथमें व्यापकन्यास करना चाहिये । अङ्गुलियोंमें यजुर्वेदका, हथेलियोंमें अथर्ववेदका तथा हृदय और चरणोंमें शीर्षस्थानीय सामवेदका न्यास करे । पञ्चव्यूहमें पहले आकाशका पूर्ववत् शरीर और हाथमें व्यापक-न्यास करे । फिर अँगुलियोंमें भी आकाशका न्यास करके वायु, ज्योति, जल और पृथ्वीका क्रमशः मस्तक, हृदय, गुहा और चरण-इन अङ्‌गोंमें न्यास करे । आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी-इन पाँच तत्त्वोंको 'पशव्यूह' कहा गया है । मन, श्रवण, त्वचा, नेत्र, रसना और नासिका-इन छ: इन्द्रियोंको षड्व्यूहकी संज्ञा दी गयी है । मनका व्यापक-न्यास करके शेष पाँचका अष्ठ आदिके क्रमसे पाँचों अंगुलियोंमें तथा सिर, मुख, हृदय, गुह्य और चरण-इन पाँच अङ्‌गोंमें भी न्यास करे । यह 'करणात्मक व्यूहका न्यास' कहा गया है । आदिमूर्ति जीव सर्वत्र व्यापक है । भूर्लोक, भुवर्लोक, स्वर्लोक, महर्लोक, जनलोक, तपोलोक और सत्यलोक-ये सात लोक 'सप्तव्यूह' कहे गये हैं । इनमेंसे प्रथम भूर्लोकका हाथ एवं सम्पूर्ण शरीरमें न्यास करे । भुवर्लोक आदि पाँच लोकोंका अङ्‌गष्ठ आदिके क्रमसे पाँचों अङ्गुलियोंमें तथा सातवें सत्यलोकका हथेलीमें न्यास करे । इस प्रकार यह लोकात्मक सप्त व्यूह है, जिसका पूर्वोक्त क्रमसे शरीरमें न्यास किया जाता है । अब यज्ञात्मक सप्तव्यूहका परिचय दिया जाता है । सप्तयज्ञस्वरूप यज्ञपुरुष परमात्मदेव श्रीहरि सम्पूर्ण शरीर एवं सिर, ललाट, मुख, हृदय, गुह्य और चरणमें स्थित हैं, अर्थात् उन अङ्‌गोंमें उनका न्यास करना चाहिये । वे यज्ञ इस प्रकार हैं-अग्निष्टोम, उक्थ्य, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र और आप्तोर्याम-ये छः यज्ञ तथा सातवें यज्ञात्मा-इन सात रूपोंको 'यज्ञमय सप्तव्यूह' कहा गया है ॥ २१-२८ ॥

अतिरात्राप्तोर्यामश्च यज्ञात्मा सप्तरूपकः ।
धीरहं मनः शब्दश्च स्पर्शरूपरसास्ततः ॥ २९ ॥
गन्धो बुद्धिर्व्यापकं तु करे देहे न्यसेत् क्रमात् ।
न्यसेदन्त्यौ च तलयोः के ललाटे मुखे हृदि ॥ ३० ॥
नाभौ गुह्ये च पादे च अष्टव्यूहः पुमान् स्मृतः ।
वीजो बुद्धिरहङ्कारो मनः शब्दो गुणोऽनिलः ॥ ३१ ॥
रूपं रसो नवात्मायं जीव अङ्गुष्ठकद्वये ।
तर्जन्यादिक्रमाच्छेषं यावद्वामप्रदेशिनीम् ॥ ३२ ॥
देहे शिरोललाटास्यहृन्नाभिगुह्यजानुषु ।
पादयोश्च दशात्मायं इन्द्रो व्यापी समास्थितः ॥ ३३ ॥
बुद्धि, अहंकार, मन, शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध-ये आठ तत्त्व अष्टव्यूहरूप हैं । इनमेंसे बुद्धितत्त्वका हाथ और शरीरमें व्यापकन्यास करे । फिर उपर्युक्त आठों तत्त्वोंका क्रमश: चरणोंके तलवों, मस्तक, ललाट, मुख, हृदय, नाभि, गुह्य देश और पैर-इन आठ अङ्‌गोंमें न्यास करना चाहिये । इन सबको 'अष्टव्यूहात्मक पुरुष' कहा गया है । जीव, बुद्धि, अहंकार, मन, शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध-गुण-इनका समुदाय 'नवव्यूह' है । इनमेंसे जीवका दोनों हाथोंके अंगूठोंमें न्यास करे और शेष आठ तत्त्वोंका क्रमशः दाहिने हाथकी तर्जनीसे लेकर बायें हाथकी तर्जनीतक आठ अंगुलियोंमें न्यास करे । सम्पूर्ण देह, सिर, ललाट, मुख, हृदय, नाभि, गुह्य, जानु और पाद-इन नौ स्थानोंमें उपर्युक्त नौ तत्त्वोंका न्यास करके इन्द्रका पूर्ववत् व्यापक-न्यास किया जाय तो यही 'दशव्यूहात्मक न्यास' हो जाता है ॥ २९-३३ ॥

अङ्गुष्ठकद्वये वह्निस्तर्जन्यादौ परेषु च ।
शिरोललाटवक्त्रेषु हृन्नाभीगुह्यजानुषु ॥ ३४ ॥
पादयोरेकदशात्मा मनः श्रोत्रं त्वगेव च ।
चक्षुर्जिह्वा तथा घ्राणं वाक्पाण्यङ्‌घ्रिश्च पायुकः ॥ ३५ ॥
उपस्थं मानसो व्यापी श्रोत्रमङ्गुष्ठकद्वये ।
तर्जन्यादिक्रमादष्टौ अतिरिक्तं तलद्वये ॥ ३६ ॥
उत्तमाङ्गुलललाटास्य हृन्नाभावथ गुह्यके ।
उरुयुग्मे तथा जङ्घे गुल्फपादेषु च क्रमात् ॥ ३७ ॥
विष्णुर्मधुहरश्चैव त्रिविक्रमकवामनौ ।
श्रीधरोऽथ हृषीकेशः पद्मनाभस्तथैव च ॥ ३८ ॥
दामोदरः केशवश्च नारायणस्ततः परः ।
माधवश्चाथ गोविन्दो विष्णुं वै व्यापकं न्यसेत् ॥ ३९ ॥
दोनों अङ्‌गष्ठोंमें, तलद्वयमें, तर्जनी आदि आठ अंगुलियोंमें तथा सिर, ललाट, मुख, हृदय, नाभि, गुह्य (उपस्थ और गुदा), जानुद्वय और पादद्वय-इन ग्यारह अङ्‌गोंमें ग्यारह इन्द्रियात्मक तत्त्वोंका जो न्यास किया जाता है, उसे 'एकादशव्यूह-न्यास' कहा गया है । वे ग्यारह तत्त्व इस प्रकार हैं-मन, श्रवण, त्वचा, नेत्र, जिह्वा, नासिका, वाक्, हाथ, पैर, गुदा और उपस्थ । मनका व्यापक-न्यास करे । अङ्‌गष्ठद्वयमें श्रवणेन्द्रियका न्यास करके शेष त्वचा आदि आठ तत्त्वोंका तर्जनी आदि आठ अंगुलियोंमें न्यास करना चाहिये । शेष जो ग्यारहवाँ तत्त्व (उपस्थ) है, उसका तलद्वयमें न्यास करे । मस्तक, ललाट, मुख, हृदय, नाभि, चरण, गुह्य, ऊरुद्वय, जका, गुल्फ और पैर-इन ग्यारह अङ्‌गोंमें भी पूर्वोक्त ग्यारह तत्त्वोंका क्रमशः न्यास करे । विष्णु, मधुसूदन, त्रिविक्रम, वामन, श्रीधर, हृषीकेश, पद्मनाभ, दामोदर, केशव, नारायण, माधव और गोविन्द-यह 'द्वादशात्मक व्यूह' है । इनमेंसे विष्णुका तो व्यापक-न्यास करे और शेष भगवन्नामोंका अङ्‌गुष्ठ आदि दस अंगुलियों एवं करतलमें न्यास करके, फिर पादतल, दक्षिण पाद, दक्षिण जानु, दक्षिण कटि, सिर, शिखा, वक्ष, वाम कटि, मुख, वाम जानु और वाम पादादिमें भी न्यास करना चाहिये ॥ ३४-३९ ॥

अङ्गुष्ठादौ तले द्वौ च पादे जानुनि वै कटौ ।
शिरःशिखरकट्याञ्च जानुपादादिषु न्यसेत् ॥ ४० ॥
द्वादशात्मा पञ्चविंशः षड्‌विंशव्यूहकस्तथा ।
पुरुषो धीरहङ्कारो मनश्चित्तञ्च शब्दकः ॥ ४१ ॥
तथा स्पर्शो रसो रूपं गन्धः श्रोत्रं त्वचस्तथा ।
चक्षुर्जिह्वा नासिका च वाक्पाण्यङ्‌घ्रिश्च पायवः ॥ ४२ ॥
उपस्थो भूर्जलन्तेजो वायुराकाशमेव च ।
पुरुषं व्यापकं न्यस्य अङ्गुष्ठादौ दश न्यसेत् ॥ ४३ ॥
शेषान् हस्ततले न्यस्य शिरस्यथ ललाटके ।
मुखहृन्नाभिगुह्योरुजान्वङ्घ्री करणोद्‌गतौ ॥ ४४ ॥
पादे जान्वोरुपस्थे च हृदये मूर्ध्नि च क्रमात् ।
परश्च पुरुषात्मादौ षड्‌विंशे पूर्ववत्परम् ॥ ४५ ॥
सञ्चिन्त्य मण्डलैके तु प्रकृतिं पूजयेद्‌बुधः ।
पूर्वयाम्याप्यसौम्येषु हृदयादीनि पूजयेत् ॥ ४६ ॥
अस्त्रमग्न्यादिकोणेषु वैनतेयादि पूर्ववत् ।
दिक्पालांश्च विधिस्त्वन्यः त्रिव्यूहेग्निश्च मध्यतः ॥ ४७ ॥
पूर्वादिदिग्बलावसो-राज्यादिभिरलङ्कृतः ।
कर्णिकायां नाभसश्च मानसः कर्णिकास्थितः ॥ ४८ ॥
यह द्वादशव्यूह हुआ । अब पञ्चविंश एवं षड्विंश व्यूहका परिचय दिया जाता है । पुरुष, बुद्धि, अहंकार, मन, चित्त, शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गन्ध, श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, जिला, नासिका, वाक्, हाथ, पैर, गुदा, उपस्थ, भूमि, जल, तेज, वायु और आकाश -ये पचीस तत्त्व हैं । इनमेंसे पुरुषका सर्वाङ्‌गमें व्यापक-न्यास करके, दसका अङ्‌गष्ठ आदिमें न्यास करे । शेषका करतल, सिर, ललाट, मुख, हृदय, नाभि, गुह्य, ऊरु, जानु, पैर, उपस्थ, हृदय और मूर्धामें क्रमशः न्यास करे । इन्हींमें सर्वप्रथम परमपुरुष परमात्माको सम्मिलित करके उनका पूर्ववत् व्यापक-न्यास कर दिया जाय तो षड्विंश व्यूहका न्यास सम्पन्न हो जाता है । विद्वान् पुरुषको चाहिये कि अष्टदल कमलचक्रमें प्रकृतिका चिन्तन करके उसका पूजन करे । उस कमलके पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दलोंमें हृदय आदि चार अङ्‌गका न्यास करे । अग्निकोण आदिके दलोंमें अस्त्र एवं वैनतेय (गरुड) आदिको पूर्ववत् स्थापित करे । इसी तरह पूर्वादि दिशाओंमें इन्द्रादि दिक्पालोंका चिन्तन करे । इन सबके ध्यान-पूजनकी विधि एक-सी है । (सूर्य, सोम और अग्निरूप) त्रिव्यूहमें अग्निका स्थान मध्यमें है । पूर्वादि दिशाओंके दलोंमें जिनका आवास है, उन देवताओंके साथ कमलकी कर्णिकामें नाभस (आकाशकी भाँति व्यापक आत्मा) तथा मानस (अन्तरात्मा) विराजमान हैं । ४०-४८ ॥

विश्वरूपं सर्वस्थित्यै यजेद् राज्यजयाय च ।
सर्वव्यूहैः समायुक्तं अङ्गैः अपि च पञ्चभिः ॥ ४९ ॥
गरुडाद्यैस्तथेन्द्राद्यैः सर्वान् कामानवाप्नुयात् ।
विश्वक्सेनं यजेन्नाम्ना वै बीजं व्योमसंस्थितम् ॥ ५० ॥
साधकको चाहिये कि वह सम्पूर्ण मनोरथोंकी सिद्धिके लिये तथा राज्यपर विजय पानेके लिये विश्वरूप (परमात्मा)-का यजन करे । सम्पूर्ण व्यूहों, हृदय आदि पाँचों अङ्‌गों, गरुड आदि तथा इन्द्र आदि दिक्पालोंके साथ ही उन श्रीहरिकी पूजाका विधान है । ऐसा करनेवाला उपासक सम्पूर्ण कामनाओंको प्राप्त कर सकता है । अन्तमें विष्वक्सेनकी नाम-मन्त्रसे पूजा करे । नामके साथ 'रौं' बीज लगा ले, अर्थात् 'रौं विष्वक्सेनाय नमः । ' बोलकर उनके लिये पूजनोपचार अर्पित करे ॥ ४९-५० ॥

इति आदिमहापुराणे आग्नेये
वासुदेवादिमंत्रलक्षणवर्णनं नाम पञ्चविंशोऽध्यायः ॥ २५ ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'वासुदेवादि मन्त्रोंके लक्षण तथा न्यास]-का वर्णन' नामक पचीसौं अध्याय पूरा हुआ ॥ २५ ॥



हरिः ॐ तत्सत्


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