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॥ ॐ परमात्मने नमः ॥

॥ श्रीअग्निपुराणम् ॥

चतुर्विंशोऽध्यायः ॥

कुण्डनिर्माणाद्यग्निकार्यादिकथनम् -
कुण्ड-निर्माण एवं अग्नि-स्थापन-सम्बन्धी कार्य आदिका वर्णन -


नारद उवाच -
अग्निकार्यं प्रवक्ष्यामि येन स्यात्सर्वकामभाक् ।
चतुरभ्यधिकं विंशमङ्गुलं चतुरस्रकम् ॥ १ ॥
सूत्रेण सूत्रयित्वा तु क्षेत्रं तावत् खनेत्समम् ।
खातस्य मेखला कार्याः त्यक्त्वा चैवाङ्गुलद्वयम् ॥ २ ॥
सत्त्वादिसञ्ज्ञाः पूर्वाशा द्वादशाङ्गुलमुच्छ्रिताः ।
अष्टाङ्गुला द्व्यङुलाथ चतुरङ्गुलविस्तृता ॥ ३ ॥
नारदजी कहते हैं-महर्षियो ! अब मैं अग्निसम्बन्धी कार्यका वर्णन करूँगा, जिससे मनुष्य सम्पूर्ण मनोवाञ्छित वस्तुओंका भागी होता है । चौबीस अङ्गुलकी चौकोर भूमिको सूतसे नापकर चिह्न बना दे । फिर उस क्षेत्रको सब ओरसे बराबर खोदे । दो अङ्गुल भूमि चारों ओर छोड़कर खोदे हुए कुण्डकी मेखला बनावे । मेखलाएँ तीन होती हैं, जो 'सत्त्व, रज और तम' नामसे कही गयी हैं । उनका मुख पूर्व, अर्थात् बाह्य दिशाकी ओर रहना चाहिये । मेखलाओंकी अधिकतम ऊँचाई बारह अङ्गुलकी रखे, अर्थात् भीतरकी ओरसे पहली मेखलाकी ऊँचाई बारह अङ्गुल रहनी चाहिये । (उसके बाह्यभागमें दूसरी मेखलाकी ऊँचाई आठ अनलकी और उसके भी बाह्यभागमें तीसरी मेखलाकी ऊँचाई चार अङ्गुलकी रहनी चाहिये । ) इसकी चौड़ाई क्रमशः आठ, दो और चार अङ्गुलकी होती है ॥ १-३ ॥ *

योनिर्दशाङ्गुला रम्या षट्चतुर्द्व्यङ्गुलाग्रगा ।
क्रमान्निम्ना तु कर्तव्या पश्चिमाशाव्यवस्थिता ॥ ४ ॥
अश्वत्थपत्रसदृशी किञ्चित् कुण्डे निवेशिता ।
तुर्याङ्गुलायतं नालं पञ्चदशाङ्गुलायतम् ॥ ५ ॥
मूलन्तु त्र्यङ्गुलं योन्या अग्रं तस्याः षडङ्गुलम् ।
लक्षणञ्चैकहस्तस्य द्विगुणं द्विकरादिषु ॥ ६ ॥
योनि सुन्दर बनायी जाय । उसकी लंबाई दस अङ्गुलकी हो । वह आगे-आगेकी ओर क्रमशः छ:, चार और दो अङ्गुल ऊँची रहे अर्थात् उसका पिछला भाग छः अङ्गुल, उससे आगेका भाग चार अङ्गुल और उससे भी आगेका भाग दो अङ्गुल ऊँचा होना चाहिये । योनिका स्थान कुण्डकी पश्चिम दिशाका मध्यभाग है । उसे आगेकी ओर क्रमशः नीची बनाना चाहिये । उसकी आकृति पीपलके पत्तेकी-सी होनी चाहिये । उसका कुछ भाग कुण्डमें प्रविष्ट रहना चाहिये । योनिका आयाम चार अङ्गुलका रहे और नाल पंद्रह अङ्गुल बड़ा हो । योनिका मूलभाग तीन अङ्गुल और उससे आगेका भाग छः अङ्गुल विस्तृत हो । यह एक हाथ लंबे-चौड़े कुण्डका लक्षण कहा गया है । दो हाथ या तीन हाथके कुण्डमें नियमानुसार सब वस्तुएँ तदनुरूप द्विगुण या त्रिगुण बढ़ जायँगी ॥ ४-६ ॥

एकत्रिमेखलं कुण्डं वर्तुलादि वदाम्यहम् ।
कुण्डार्द्धे तु स्थितं सूत्रं कोणे यदतिरिच्यते ॥ ७ ॥
तदर्धं दिशि संस्थाप्य भ्रामितं वर्तुलं भवेत् ।
कुण्डार्धं कोणभागार्धं दिशिश्चोत्तरतो बहिः ॥ ८ ॥
पूर्वपश्चिमतो यत्‍नाल्लाञ्छयित्वा तु मध्यतः ।
संस्थाप्य भ्रामितं कुण्डमर्धचन्द्रं भवेत् शुभम् ॥ ९ ॥
अब मैं एक या तीन मेखलावाले गोल और अर्धचन्द्राकार आदि कुण्डोंका वर्णन करता हूँ । चौकोर कुण्डके आधे भाग, अर्थात् ठीक बीचोबीचमें सूत रखकर उसे किसी कोणकी सीमातक ले जाय; मध्यभागसे कोणतक ले जाने में सामान्य दिशाओंकी अपेक्षा वह सूत जितना बढ़ जाय, उसके आधे भागको प्रत्येक दिशामें बढ़ाकर स्थापित करे और मध्यस्थानसे उन्हीं बिन्दुओंपर सूतको सब ओर घुमावे तो गोल आकार बन जायगा । कुण्डाईसे बढ़ा हुआ जो कोणभागार्ध है, उसे उत्तर दिशामें बढ़ाये तथा उसी सीधमें पूर्व और पश्चिम दिशामें भी बाहरकी ओर यत्नपूर्वक बढ़ाकर चिह्न कर दे । फिर मध्यस्थानमें सूतका एक सिरा रखकर दूसरा छोर पूर्व दिशावाले चिह्नपर रखे और उसे दक्षिणकी ओरसे घुमाते हुए पश्चिम दिशाके चिह्नतक ले जाय । इससे अर्धचन्द्राकार चिह्न बन जायगा । फिर उस क्षेत्रको खोदनेपर सुन्दर अर्धचन्द्र-कुण्ड तैयार हो जायगा ॥ ७-९ ॥

पद्माकारे दलानि स्युर्मेखलानान्तु वर्तुले ।
बाहुदण्डप्रमाणन्तु होमार्थं कारयेत् स्रुचम् ॥ १० ॥
सप्तपञ्चाङ्गुलं वापि चतुरस्रन्तु कारयेत् ।
त्रिभागेन भवेद्‌गर्तं मध्ये वृत्तं सुशोभनम् ॥ ११ ॥
तिर्यगूर्ध्वं समं खाताद् बहिरर्धन्तु शोधयेत् ।
अङ्गुलस्य चतुर्थांशं शेषार्धार्धं तथान्ततः ॥ १२ ॥
खातस्य मेखलां रम्यां शेषार्धेन तु कारयेत् ।
कण्ठं त्रिभागविस्तारं अङ्गुष्ठकसमायतम् ॥ १३ ॥
सार्धमङ्गुष्ठकं वा स्यात् तदग्रे तु मुखं भवेत् ।
चतुरङ्गुलविस्तारं पञ्चाङ्गुलमथापि वा ॥ १४ ॥
कमलकी आकृतिवाले गोल कुण्डकी मेखलापर दलाकार चिह्न बनाये जायें । होमके लिये एक सुन्दर लुक् तैयार करे, जो अपने बाहुदण्डके बराबर हो । उसके दण्डका मूलभाग चतुरस्त्र हो । उसका माप सात या पाँच अङ्‌गुलका बताया गया है । उस चतुरखके तिहाई भागको खुदवाकर गर्त बनावे । उसके मध्यभागमें उत्तम शोभायमान वृत्त हो । उक्त गर्तको नीचेसे ऊपरतक तथा अगलबगलमें बराबर खुदावे । बाहरका अर्धभाग छीलकर साफ करा दे (उसपर रंदा करा दे) । चारों ओर चौथाई अङ्गुल, जो शेषके आधेका आधा भाग है, भीतरसे भी छीलकर साफ (चिकना) करा दे । शेषार्धभागद्वारा उक्त खातकी सुन्दर मेखला बनवावे । मेखलाके भीतरी भागमें उस खातका कण्ठ तैयार करावे, जिसका सारा विस्तार मेखलाकी तीन चौथाईके बराबर हो । कण्ठकी चौड़ाई एक या डेढ़ अङ्गुलके मापकी हो । उक्त खुक्के अग्रभागमें उसका मुख रहे, जिसका विस्तार चार या पाँच अङ्गुलका हो ॥ १०-१४ ॥

त्रिकं द्व्यङ्गुलकं तत् स्यान्मध्यन्तस्य सुशोभनम् ।
आयामस्तत्समस्तस्य मध्यनिम्नः सुशोभनः ॥ १५ ॥
शुषिरं कण्ठदेशे स्याद्विशेद् यावत् कनीयसी ।
शेषकुण्डन्तु कर्तव्यं यथारुचि विचित्रितम् ॥ १६ ॥
स्रुवन्तु हस्तमात्रं स्याद्दण्डकेन समन्वितं ।
बटुकं द्व्यङ्गुलं वृत्तं कर्तव्यन्तु सुशोभनम् ॥ १७ ॥
गोपदन्तु यथा मग्नमल्पपङ्के तथा भवेत् ।
उपलिप्य लिखेद्‌रेखामङ्गुलां वज्रनासिकाम् ॥ १८ ॥
सौम्याग्रा प्रथमा तस्यां रेखे पूर्वमुखे तयोः ।
मध्ये तिस्रस्तथा कुर्याद्दक्षिणादिक्रमेण तु ॥ १९ ॥
एवमुल्लिख्य चाभ्युक्ष्य प्रणवेन तु मन्त्रवित् ।
विष्टरं कल्पयेत्तेन तस्मिन् शक्तिंतु वैष्णवीम् ॥ २० ॥
मुखका मध्य भाग तीन या दो अङ्गुलका हो । उसे सुन्दर एवं शोभायमान बनाया जाय । उसकी लंबाई भी चौड़ाईके ही बराबर हो । उस मुखका मध्य भाग नीचा और परम सुन्दर होना चाहिये । उक्के कण्ठदेशमें एक ऐसा छेद रहे, जिसमें कनिष्ठिका अङ्गुलि प्रविष्ट हो जाय । कुण्ड (अर्थात् मुक्के मुख) का शेष भाग अपनी रुचिके अनुसार विचित्र शोभासे सम्पन्न किया जाय । खुक्के अतिरिक्त एक सुवा भी आवश्यक है, जिसकी लंबाई दण्डसहित एक हाथकी हो । उसके डंडेको गोल बनाया जाय । उस गोल डंडेकी मोटाई दो अङ्गुलकी हो । उसे खूब सुन्दर बनाना चाहिये । सुवाका मुख-भाग कैसा हो ? यह बताया जाता है । थोड़ी-सी कीचड़में गाय अथवा बछड़ेका पैर पड़नेपर जैसा पदचिह्न उभर आता है, ठीक वैसा ही खुवाका मुख बनाया जाय, अर्थात् उस मुखका मध्य भाग दो भागोंमें विभक्त रहे । उपर्युक्त अग्निकुण्डको गोबरसे लीपकर उसके भीतरकी भूमिपर बीचमें एक अङ्गुल मोटी एक रेखा खींचे, जो दक्षिणसे उत्तरकी ओर गयी हो । उस रेखाको 'वज' की संज्ञा दी गयी है । उस प्रथम उत्तरान रेखापर उसके दक्षिण और उत्तर पार्श्वमें दो पूर्वाग्र रेखाएँ खींचे । इन दोनों रेखाओंके बीचमें पुनः तीन पूर्वाग्र रेखाएँ खींचे । इनमें पहली रेखा दक्षिण भागमें हो और शेष दो क्रमशः उसके उत्तरोत्तर भागमें खींची जायें । मन्त्रज्ञ पुरुष इस प्रकार उल्लेखन (रेखाकरण) करके उस भूमिका अभ्युक्षण (सेचन) करे । फिर प्रणवके उच्चारणपूर्वक भावनाद्वारा एक विष्टर (आसन)-की कल्पना करके उसके ऊपर वैष्णवी शक्तिका आवाहन एवं स्थापन करे ॥ १५-२० ॥

अलं कृत्वा मूर्तिमतीं क्षिपेदग्निं हरिं स्मरन् ।
प्रादेशमात्राः समिधो दत्वा परिसमुह्य तम् ॥ २१ ॥
दर्भैस्त्रिधा परिस्तीर्य पूर्वादौ तत्र पात्रकम् ।
आसादयेदिध्मवह्नी भूमौ च श्रुक्श्रुवद्वयम् ॥ २२ ॥
आज्यस्थाली चरुस्थाली कुशाज्यञ्च प्रणीतया ।
प्रोक्षयित्वा प्रोक्षणीञ्च गृहीत्वापूर्य वारिणा ॥ २३ ॥
पवित्रान्तर्हिते हस्ते परिश्राव्य च तज्जलम् ।
प्राङ्नीत्वा प्रोक्षणीपात्रं ज्योतिरग्रे निधाय च ॥ २४ ॥
तदद्‌भिस्त्रिश्च सम्प्रोक्ष्य इद्ध्मं विन्यस्य चाग्रतः ।
प्रणीतायां सुपुष्पायां विष्णुं ध्यात्वोत्तरेण च ॥ २५ ॥
देवीके स्वरूपका इस प्रकार ध्यान करे-'वे दिव्य रूपवाली हैं और दिव्य वस्त्राभूषणोंसे विभूषित हैं । ' तत्पश्चात् यह चिन्तन करे कि 'देवीको संतुष्ट करनेके लिये अग्निदेवके रूपमें साक्षात् श्रीहरि पधारे हैं । ' साधक (उन दोनोंका पूजन करके शुद्ध कांस्यादि-पात्रमें रखी और ऊपरसे शुद्ध कास्यादि पात्रद्वारा ढकी हुई अग्निको लाकर, क्रव्याद-अंशको अलग करके, ईक्षणादिसे शोधित उस ) अग्निको कुण्डके भीतर स्थापित करे । तत्पश्चात् उस अग्निमें प्रादेशमात्र (अंगठेसे लेकर तर्जनीके अग्रभागके बराबरकी) समिधाएँ देकर कुशोंद्वारा तीन बार परिसमूहन करे । फिर पूर्वादि सभी दिशाओंमें कुशास्तरण करके अग्निकी उत्तर दिशामें पश्चिमसे आरम्भ करके क्रमश: पूर्वादि दिशामें पात्रासादन करे-समिधा, कुशा, सुक्, खुवा, आज्यस्थाली, चरुस्थाली तथा कुशाच्छादित घी, (प्रणीतापात्र, प्रोक्षणीपात्र) आदि वस्तुएँ रखे । इसके बाद प्रणीताको सामने रखकर उसे जलसे भर दे और कुशासे प्रणीताका जल लेकर प्रोक्षणीपात्रका प्रोक्षण करे । तदनन्तर उसे बायें हाथमें लेकर दाहिने हाथमें गृहीत प्रणीताके जलसे भर दे । प्रणीता और हाथके बीचमें पवित्रीका अन्तर रहना चाहिये । प्रोक्षणीमें गिराते समय प्रणीताके जलको भूमिपर नहीं गिरने देना चाहिये । प्रोक्षणी में अग्निदेवका ध्यान करके उसे कुण्डकी योनिके समीप अपने सामने रखे । फिर उस प्रोक्षणीके जलसे आसादित वस्तुओंको तीन बार सींचकर समिधाओंके बोझको खोलकर उसके बन्धनको सरकाकर सामने रखे । प्रणीतापात्रमें पुष्प छोड़कर उसमें भगवान् विष्णुका ध्यान करके उसे अग्निसे उत्तर दिशामें कुशके ऊपर स्थापित कर दे (और अग्नि तथा प्रणीताके मध्य भागमें प्रोक्षणीपात्रको कशापर रख दे) ॥ २१-२५ ॥

आज्यस्थालीमथाज्येन सम्पूर्याग्रे निधाय च ।
सम्प्लवोत्पवनाभ्यान्तु कुर्यादाज्यस्य संस्कृतिम् ॥ २६ ॥
अखण्डिताग्रौ निर्गर्भौ कुशौ प्रादेशमात्रकौ ।
ताभ्यामुत्तानपाणिभ्यां अङ्गुष्ठानामिकेन तु ॥ २७ ॥
आज्यं तयोस्तु सङ्गृह्य द्विर्नीत्वा त्रिरवाङ्‌क्षिपेत् ।
स्रुक्स्रुवौ चापि सङ्गृह्य ताभ्यां प्रक्षिप्य वारिणा ॥ २८ ॥
प्रतप्य दर्भैः सम्मृज्य पुनः प्रक्ष्याल्य चैव हि ।
निष्टप्य स्थापयित्वा तु प्रणवेनैव साधकः ॥ २९ ॥
प्रणवादिनमोऽन्तेन पश्चाद्धोमं समाचरेत् ।
तदनन्तर आज्यस्थालीको घीसे भरकर अपने आगे रखे । फिर उसे आगपर चढ़ाकर सम्प्लवन एवं उत्पवनकी क्रियाद्वारा घीका संस्कार करे । (उसकी विधि इस प्रकार है-) प्रादेशमात्र लंबे दो कुश हाथमें ले । उनके अग्रभाग खण्डित न हुए हों तथा उनके गर्भ में दूसरा कुश अङ्‌कुरित न हुआ हो । दोनों हाथोंको उत्तान रखे और उनके अङ्‌गष्ठ एवं कनिष्ठिका अङ्गुलिसे उन कुशोंको पकड़े रहे । इस तरह उन कुशोद्वारा घीको थोड़ाथोड़ा उठाकर ऊपरकी ओर तीन बार उछाले । प्रचलित तृण आदि लेकर घीको देखे और उसमें कोई अपद्रव्य (खराब वस्तु) हो तो उसे निकाल दे । इसके बाद तृण अग्निमें फेंककर उस घीको आगपरसे उतार ले और सामने रखे । फिर सुक् और सुवाको लेकर उनके द्वारा होमसम्बन्धी कार्य करे । पहले जलसे उनको धो ले । फिर अग्निसे तपाकर सम्मार्जन कुशोंद्वारा उनका मार्जन करे (उन कुशोंके अग्रभागोंद्वारा सुक्सवाके भीतरी भागका तथा मल भागसे उनके बाह्य भागका मार्जन करना चाहिये) । तत्पश्चात् पुन: उन्हें जलसे धोकर आगसे तपावे और अपने दाहिने भागमें स्थापित कर दे । उसके बाद साधक प्रणवसे ही अथवा देवताके नामके आदिमें 'प्रणव' तथा अन्तमें 'नमः' पद लगाकर उसके उच्चारणपूर्वक होम करे ॥ २६-२९.५ ॥

गर्भाधानादिकर्माणि यावदंशव्यवस्थया ॥ ३० ॥
नामान्तं व्रतबन्धान्तं समावर्तावसानकम् ।
अधिकारावसानं वा कर्यादङ्गानुसारतः ॥ ३१ ॥
प्रणवेनोपचारन्तु कुर्यात्सर्वत्र साधकः ।
अङ्गैः होमस्तु कर्तव्यो यथावित्तानुसारतः ॥ ३२ ॥
गर्भाधानन्तु प्रथमं ततः पुंसवनं स्मृतम् ।
सीमन्तोन्नयनं जातकर्म नामान्नप्राशनम् ॥ ३३ ॥
चूडाकृतिं व्रतबन्धं वेदव्रतान्यशेषतः ।
समावर्तनं पत्‍न्या च योगश्चाथाधिकारकः ॥ ३४ ॥
हृदादिक्रमतो ध्यात्वा एकैकं कर्म पूज्य च ।
अष्टावष्टौ तु जुहुयात् प्रतिकर्माहुतीः पुनः ॥ ३५ ॥
हवनसे पहले अग्निके गर्भाधानसे लेकर सम्पूर्ण संस्कार अङ्‌ग-व्यवस्थाके अनुसार सम्पन्न करने चाहिये । मतान्तरके अनुसार नामान्तव्रत, व्रतबन्धान्तवत (यज्ञोपवीतान्त), समावर्तनान्त अथवा यज्ञाधिकारान्त संस्कार अङ्‌गानुसार करने चाहिये । साधक सर्वत्र प्रणवका उच्चारण करते हुए पूजनोपचार अर्पित करे और अपने वैभवके अनुसार प्रत्येक संस्कारके लिये अङ्‌ग-सम्बन्धी मन्त्रोंद्वारा होम करे । पहला गर्भाधान-संस्कार है, दूसरा पुंसवन, तीसरा सीमन्तोन्नयन, चौथा जातकर्म, पाँचवाँ नामकरण, छठा चूडाकरण, सातवाँ व्रतबन्ध (यज्ञोपवीत), आठवाँ वेदारम्भ, नवौं समावर्तन तथा दसवाँ पत्नीसंयोग (विवाह-) संस्कार है, जो यज्ञके लिये अधिकार प्रदान करनेवाला है । क्रमशः एक-एक संस्कार-कर्मका चिन्तन और तदनुरूप पूजन करते हुए हृदय आदि अङ्‌गमन्त्रोंद्वारा प्रति कर्मके लिये आठ-आठ आहुतियाँ अर्पित करे ॥ ३०-३५ ॥

पूर्णाहुतिं ततो दद्यात् स्रुचा मूलेन साधकः ।
वौषडन्तेन मन्त्रेण प्लुतं सुस्वरमुच्चरन् ॥ ३६ ॥
विष्णोर्वह्निन्तु संस्कृत्य श्रपयेद्वैष्णवञ्चरुम् ।
आराध्य स्थण्डिले विष्णुं मन्त्रान् संस्मृत्य संश्रपेत् ॥ ३७ ॥
आसनादिक्रमेणैव साङ्गावरणमुत्तमम् ।
गन्धपुष्पैः समभ्यर्च्य ध्याता देवं सुरोत्तमम् ॥ ३८ ॥
आधायेध्ममथाघारावाज्यावग्नीशसंस्थितौ ।
वायव्यनैर्ऋताशादिप्रवृत्तौ तु यथाक्रमम् ॥ ३९ ॥
आज्यभागौ ततो हुत्वा चक्षुषी दक्षिणोत्तरे ।
मध्येऽथ जुहुयात्सर्वमन्त्रानर्चाक्रमेण तु ॥ ४० ॥
आज्येन तर्पयेन्मूर्तेर्दशांशेनाङ्गहोमकम् ।
शतं सहस्रं वाज्याद्यैः समिद्‌भिर्वा तिलैः सह ॥ ४१ ॥
समाप्यार्चान्तु होमान्तां शुचीन् शिष्यानुपोषितान् ।
आहूयाग्रे निवेश्याथ ह्यस्त्रेण प्रोक्षयेत् पशून् ॥ ४२ ॥
तदनन्तर साधक मूलमन्त्रद्वारा खुवासे पूर्णाहुति दे । उस समय मन्त्रके अन्तमें 'वौषट्' पद लगाकर प्लुतस्वरसे सुस्पष्ट मन्त्रोच्चारण करना चाहिये । इस तरह वैष्णव-अग्निका संस्कार करके उसपर विष्णु-देवताके निमित्त चरु पकावे । वेदीपर भगवान् विष्णुकी स्थापना एवं आराधना करके मन्त्रोंका स्मरण करते हुए उनका पूजन करे । अङ्‌ग और आवरण-देवताओंसहित इष्टदेव श्रीहरिको आसन आदि उपचार अर्पित करते हुए उत्तम रीतिसे उनकी पूजा करनी चाहिये । फिर गन्धपुष्पोंद्वारा अर्चना करके सुरश्रेष्ठ नारायणदेवका ध्यान करनेके अनन्तर अग्निमें समिधाका आधान करे और अग्रीश्वर श्रीहरिके समीप 'आधार' संज्ञक दो घृताहुतियाँ दे । इनमेंसे एकको तो वायव्यकोणमें दे और दूसरीको नैर्ऋत्यकोणमें । यही इनके लिये क्रम है । तत्पश्चात् 'आज्यभाग' नामक दो आहुतियाँ क्रमशः दक्षिण और उत्तर दिशामें दे और उनमें अग्निदेवके दायें-बायें नेत्रकी भावना करे । शेष सब आहुतियोंको इन्हींके बीचमें मन्त्रोच्चारणपूर्वक देना चाहिये । जिस क्रमसे देवताओंकी पूजा की गयी हो, उसी क्रमसे उनके लिये आहुति देनेका विधान है । घीसे इष्टदेवकी मूर्तिको तृप्त करे । इष्टदेव-सम्बन्धी हवन-संख्याकी अपेक्षा दशांशसे अङ्‌ग-देवताओंके लिये होम करे । घृत आदिसे, समिधाओंसे अथवा घृताक्त तिलोंसे सदा यजनीय देवताओंके लिये एक-एक सहस्र या एक-एक शत आहुतियाँ देनी चाहिये । इस प्रकार होमान्त-पूजन समाप्त करके स्नानादिसे शुद्ध हुए शिष्योंको गुरु बुलाकर अपने आगे बिठावे । वे सभी शिष्य उपवासव्रत किये हों । उनमें पाश-बद्ध पशुकी भावना करके उनका प्रोक्षण करे ॥ ३६-४२ ॥

शिष्यानात्मनि संयोज्य अविद्याकर्मबन्धनैः ।
लिङ्गानुवृत्तश्चैतन्यं सह लिङ्गेन पाशितम् ॥ ४३ ॥
ध्यानमार्गेन सम्प्रोक्ष्य वायुबीजेन शोधयेत् ।
ततो दहनबीजेन सृष्टिं ब्रह्माण्डसञ्ज्ञिकाम् ॥ ४४ ॥
निर्दग्धां सकलां ध्यायेद्‌ भस्मकूटनिभस्थिताम् ।
प्लावयेद्वारिणा भस्म संसारं वार्मयं स्मरेताफ्_॥ ४५ ॥
तत्र शक्तिं न्यसेत् पश्चात् पार्थिवीं बीजसञ्ज्ञिकाम् ।
तन्मात्राभिः समस्ताभिः संवृतं पार्थिवं शुभम् ॥ ४६ ॥
अखण्डन्तदुद्‌भवन्ध्यायेत् तदाधारन्तदात्मकम् ।
तन्मध्ये चिन्तयेन्मूर्तिं पौरुषीं प्रणवात्मिकाम् ॥ ४७ ॥
तदनन्तर उन सब शिष्योंको भावनाद्वारा अपने आत्मासे संयुक्त करके अविद्या और कर्मके बन्धनोंसे आबद्ध हो लिङ्‌गशरीरका अनुवर्तन करनेवाले चैतन्य (जीव)-का, जो लिङ्‌गशरीरके साथ बँधा हुआ है, ध्यानमार्गसे साक्षात्कार करके उसका सम्यक् प्रोक्षण करनेके पश्चात् वायुबीज (य)-के द्वारा उसके शरीरका शोषण करे । इसके बाद अग्निबीज (रं) के चिन्तनसे अग्नि प्रकट करके यह भावना करे कि 'ब्रह्माण्ड' संज्ञक सारी सृष्टि दग्ध होकर भस्मकी पर्वताकार राशिके समान स्थित है । तत्पश्चात् भावनाद्वारा ही जलबीज (वं)-के चिन्तनसे अपार जलराशि प्रकट करके उस भस्मराशिको बहा दे और संसार अब वाणीमात्रमें ही शेष रह गया है-ऐसा स्मरण करे । तदनन्तर वहाँ (लं) बीजस्वरूपा भगवानकी पार्थिवी शक्तिका न्यास करे । फिर ध्यानद्वारा देखे कि समस्त तन्मात्राओंसे आवृत शुभ पार्थिव-तत्व विराजमान है । उससे एक अण्ड प्रकट हुआ है, जो उसीके आधारपर स्थित है और वही उसका उपादान भी है । उस अण्डके भीतर प्रणवस्वरूपा मूर्तिका चिन्तन करे ॥ ४३-४७ ॥

लिङ्गं सङ्क्रामयेत्पश्चाद् आत्मस्थं पूर्वसंस्कृतम् ।
विभक्तेन्द्रियसंस्थानं क्रमाद् वृद्धं विचिन्तयेत् ॥ ४८ ॥
ततोण्डमब्दमेकं तु स्थित्वा द्विशकलीकृतम् ।
द्यावापृथिव्यौ शकले तयोर्मध्ये प्रजापतिम् ॥ ४९ ॥
जातं ध्यात्वा पुनः प्रोक्ष्य प्रणवेन तु संश्रितम् ।
मन्त्रात्मकतनुं कृत्वा यथान्यासं पुरोदितम् ॥ ५० ॥
विष्णुर्हस्तं ततो मूर्ध्नि दत्वा ध्यात्वा तु वैष्णवम् ।
एवमेकं बहून् वापि जनित्वा ध्यानयोगतः ॥ ५१ ॥
करौ सङ्गृह्य मूलेन नेत्रे बद्ध्वा तु वाससा ।
नेत्रमन्त्रेण मन्त्री तान् सदनेनाहतेन तु ॥ ५२ ॥
कृतपूजो गुरुः सम्यक् देवदेवस्य तत्त्ववान् ।
शिष्यान् पुष्पाञ्जलिभृतः प्राङ्‌मुखानुपवेशयेत् ॥ ५३ ॥
तदनन्तर अपने आत्मामें स्थित पूर्वसंस्कृत लिङ्‌गशरीरका उस पुरुषमें संक्रमण करावे, अर्थात् यह भावना करे कि वह पुरुष लिङ्‌गशरीरसे युक्त है । उसके उस शरीरमें सभी इन्द्रियोंके आकार पृथक्-पृथक् अभिव्यक्त हैं तथा वह पुरुष क्रमशः बढ़ता और पुष्ट होता जा रहा है । फिर ध्यानमें देखे कि वह अण्ड एक वर्षतक बढ़कर और पुष्ट होकर फूट गया है । उसके दो टुकड़े हो गये हैं । उसमें ऊपरवाला टुकड़ा धुलोक है और नीचेवाला भूलोक । इन दोनोंके बीचमें प्रजापति पुरुषका प्रादुर्भाव हुआ है । इस प्रकार वहाँ उत्पन्न हुए प्रजापतिका ध्यान करके पुनः प्रणवसे उन शिशुरूप प्रजापतिका प्रोक्षण करे । फिर यथास्थान पूर्वोक्त न्यास करके उनके शरीरको मन्त्रमय बना दे । उनके ऊपर विष्णुहस्त रखे और उन्हें वैष्णव माने । इस तरह एक अथवा बहुत-से लोगोंके जन्मका ध्यानद्वारा प्रत्यक्ष करे (शिष्योंके भी नूतन दिव्य जन्मकी भावना करे) । तदनन्तर मूलमन्त्रसे शिष्योंक दोनों हाथ पकड़कर मन्त्रोपदेष्टा गुरु नेत्रमन्त्र (वौषट्)-के उच्चारणपूर्वक नूतन एवं छिद्ररहित वस्त्रसे उनके नेत्रोंको बाँध दे । फिर देवाधिदेव भगवान्‌की यथोचित पूजा सम्पन्न करके तत्त्वज्ञ आचार्य हाथमें पुष्पाञ्जलि धारण करनेवाले उन शिष्योंको अपने पास पूर्वाभिमुख बैठावे ॥ ४८-५३ ॥

अर्चयेयुश्च तेऽप्येवम्प्रसूता गुरुणा हरिम् ।
क्षिप्त्वा पुष्पाञ्जलिं तत्र पुष्पादिभिरनन्तरम् ॥ ५४ ॥
अमन्त्रमर्चनं कृत्वा गुरोः पादार्चनन्ततः ।
विधाय दक्षिणां दद्यात् सर्वस्वं चार्धमेव वा ॥ ५५ ॥
गुरुः संशिक्षयेच्छिष्यान् तैः पूज्यो नामभिर्हरिः ।
विश्वक्सेनं यजेदीशं शङ्खचक्रगदाधरम् ॥ ५६ ॥
तज्जपन्तञ्च तर्जन्या मण्डलस्थं विसर्जयेत् ॥ ५७ ॥
विष्णुनिर्माल्यमखिलं विष्वक्सेनाय चार्पयेत् ।
प्रणीताभिस्तथात्मानमभिषिच्य च कुण्डगम् ॥ ५८ ॥
वह्निमात्मनि संयोज्य विष्वक्सेनं विसर्जयेत् ।
बुभुक्षुः सर्वमाप्नोति मुमुक्षुः लीयते हरौ ॥ ५९ ॥
इस प्रकार गुरुद्वारा दिव्य नूतन जन्म पाकर वे शिष्य भी श्रीहरिको पुष्पाञ्जलि अर्पित करके पुष्प आदि उपचारोंसे उनका पूजन करें । तदनन्तर पुनः वासुदेवकी अर्चना करके वे गुरुके चरणोंका पूजन करें । दक्षिणारूपमें उन्हें अपना सर्वस्व अथवा आधी सम्पत्ति समर्पित कर दें । इसके बाद गुरु शिष्योंको आवश्यक शिक्षा दें और वे (शिष्य) नाम-मन्त्रोंद्वारा श्रीहरिका पूजन करें । फिर मण्डलमें विराजमान शङ्‌ख, चक्र, गदा धारण करनेवाले भगवान् विष्वक्सेनका यजन करें, जो द्वारपालके रूपमें अपनी तर्जनी अङ्गुलिसे लोगोंको तर्जना देते हुए अनुचित क्रियासे रोक रहे हैं । इसके बाद श्रीहरिकी प्रतिमाका विसर्जन करे । भगवान् विष्णुका सारा निर्माल्य विष्वक्सेनको अर्पित कर दे । तदनन्तर प्रणीताके जलसे अपना और अग्निकुण्डका अभिषेक करके वहाँकै अग्निदेवको अपने आत्मामें लीन कर ले । इसके पश्चात् विष्वक्सेनका विसर्जन करे । ऐसा करनेसे भोगकी इच्छा रखनेवाला साधक सम्पूर्ण मनोवाञ्छित वस्तुको पा लेता है और मुमुक्षु पुरुष श्रीहरिमें विलीन होता-सायुज्य मोक्ष प्राप्त करता है ॥ ५४-५९ ॥

इति आदिमहापुराणे आग्नेये
कुण्डनिर्माणाद्यग्निकार्यादिवर्णनं नाम चतुर्विंशोऽध्यायः ॥ २४ ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'कुण्डनिर्माण और अग्नि-स्थापनसम्बन्धी कार्य आदिका वर्णन' विषयक चौबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २४ ॥



हरिः ॐ तत्सत्


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