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॥ ॐ परमात्मने नमः ॥

॥ श्रीअग्निपुराणम् ॥

एकोनत्रिंशोऽध्यायः ॥

मंत्रसाधनविधिः सर्वतोभद्रादिमण्डललक्षणानि च -
मन्त्र-साधन-विधि, सर्वतोभद्रादि मण्डलोंके लक्षण -


नारद उवाच -
साधकः साधयेन्मन्त्रं देवतायतनादिके ।
शुद्धभूमौ गृहे प्रार्च्य मण्डले हरिमीश्वरम् ॥ १ ॥
चतुरस्त्रीकृते क्षेत्रे मण्डलादीनि वै लिखेत् ।
रसबाणाक्षिकोष्ठेषु सर्वतोभद्रमालिखेत् ॥ २ ॥
षट्त्रिंशत्कोष्ठकैः पद्मं पीठं पङ्क्त्या बहिर्भवेत् ।
द्वाभ्यान्तु वीथिका तस्माद् द्वाभ्यां द्वाराणि दिक्षु च ॥ ३ ॥
वर्तुलं भ्रामयित्वा तु पद्मक्षेत्रं पुरोदितम् ।
पद्मार्धे भामयित्वा तु भागं द्वादशमं बहिः ॥ ४ ॥
विभज्य भ्रामयेच्छेषं चतुःक्षेत्रन्तु वर्तुलम् ।
प्रथमं कर्णिकाक्षेत्रं केशराणां द्वितीयकम् ॥ ५ ॥
तृतीयं दलसन्धीनां दलाग्राणां चतुर्थकम् ।
प्रसार्य कोणसूत्राणि कोणदिङ्‌मध्यमन्ततः ॥ ६ ॥
नारदजी कहते हैं-मुनिवरो ! साधकको चाहिये कि वह देव-मन्दिर आदिमें मन्त्रकी साधना करे । घरके भीतर शुद्ध भूमिपर मण्डलमें परमेश्वर श्रीहरिका विशेष पूजन करके चौकोर क्षेत्रमें मण्डल आदिकी रचना करे । दो सौ छप्पन कोष्ठोंमें 'सर्वतोभद्र मण्डल' लिखे । (क्रम यह है कि पूर्वसे पश्चिमकी ओर तथा उत्तरसे दक्षिणकी ओर बराबर सत्रह रेखाएँ खींचे । ऐसा करनेसे दो सौ छप्पन कोष्ठ हो जायेंगे । उनमेंसे बीचके छत्तीस कोष्ठोंको एक करके उनके द्वारा कमल बनावे, अथवा उसे कमलका क्षेत्र निश्चित करे । इस कमलक्षेत्रके बाहर चारों ओरकी एक-एक पंक्तिको मिटाकर उसके द्वारा पीठकी कल्पना करे, अथवा उसे पीठ समझे । फिर पीठसे भी बाहरकी दो-दो पंक्तियोंका मार्जन करके, उनके द्वारा 'वीथी' की कल्पना करे । फिर चारों दिशाओंमें द्वार-निर्माण करे । पूर्वोक्त पद्मक्षेत्रमें सब ओर बाहरके बारहवें भागको छोड़ दे और सर्वमध्य-स्थानपर सूत्र रखकर, पद्म-निर्माणके लिये विभागपूर्वक समान अन्तर रखते हुए, सूत घुमाकर, तीन वृत्त बनावे । इस तरह उस चौकोर क्षेत्रको वर्तुल (गोल) बना दे । इन तीनोंमेंसे प्रथम तो कर्णिकाका क्षेत्र है, दूसरा केसरका क्षेत्र है और तीसरा दल-संधियोंका क्षेत्र है । शेष चौथा अंश दलाग्रभागका स्थान है । कोणसूत्रोंको फैलाकर कोणसे दिशाके मध्यभागतक ले जाय तथा केसरके अग्रभागमें सूत रखकर दलसंधिोंको चिह्नित करे ॥ १-६ ॥

निधाय केशराग्रे तु दलसन्धींस्तु लाञ्छयेत् ।
पातयित्वाथ सूत्राणि तत्र पत्राष्टकं लिखेत् ॥ ७ ॥
दलसन्ध्यन्तरालन्तु मानं मध्ये निधाय तु ।
दलाग्रं भ्रामयेत्तेन तदग्रं तदनन्तरम् ॥ ८ ॥
तदन्तरालं तत्पार्श्वे कृत्वा बाह्यक्रमेण च ।
केशरे तु लिखेद्‍ द्वौ द्वौ दलमध्ये ततः पुनः ॥ ९ ॥
पद्मलक्ष्मैतत्सामान्यं द्विषट्कदलमुच्यते ।
कर्णिकार्धेन मानेन प्राक्संस्थं भ्रामयेत् क्रमात् ॥ १० ॥
तत्पार्श्वे भ्रमयोगेन कुण्डल्यः षड् भवन्ति हि ।
एवं द्वादश मत्स्याः स्युर्द्विषट्कदलकञ्च तैः ॥ ११ ॥
पञ्चपत्राभिसिद्ध्यर्थं मत्स्यं कृत्वैवमब्जकम् ।
व्योमरेखाबहिः पीठन्तत्र कोष्टानि मार्जयेत् ॥ १२ ॥
त्रीणि कोणेषु पादार्थं द्विद्विकान्यपराणि तु ।
चतुर्दिक्षु विलिप्तानि गात्रकाणि भवन्त्युत ॥ १३ ॥
ततः पङ्क्तिद्वयं दिक्षु वीथ्यर्थन्तु विलोपयेत् ।
द्वाराण्याशासु कुर्वीत चत्वारि चतसृष्वपि ॥ १४ ॥
फिर सूत गिराकर अष्टदलोंका निर्माण करे । दलोंके मध्यगत अन्तरालका जो मान है, उसे मध्यमें रखकर उससे दलानको घुमावे । तदनन्तर उसके भी अग्रभागको घुमावे । उनके अन्तरालमानको उनके पार्श्वभागमें रखकर बाह्यक्रमसे एक-एक दलमें दो-दो केसरोंका उल्लेख करे । यह सामान्यतः कमलका चिह्न है । अब द्वादशदल कमलका वर्णन किया जाता है । कर्णिकार्धमानसे पूर्व दिशाकी ओर सूत रखकर क्रमशः सब ओर घुमावे । उसके पार्श्वभागमें भ्रमणयोगसे छः कुण्डलियाँ होंगी और बारह मत्स्यचिह्न बनेंगे । उनके द्वारा द्वादशदल कमल सम्पन्न होगा । पञ्चदल आदिकी सिद्धिके लिये भी इसी प्रकार मत्स्यचिह्नोंसे कमल बनाकर, आकाशरेखासे बाहर जो पीठभाग है, वहाँके कोष्ठोंको मिटा दे । पीठभागके चारों कोणोंमें तीन-तीन कोष्ठकोंको उस पीठके पायोंके रूपमें कल्पित करे । अवशिष्ट जो चारों दिशाओंमें दो-दो जोड़े, अर्थात् चार-चार कोष्ठक हैं, उन सबको मिटा दे । वे पीठके पाटे हैं । पीठके बाहर चारों दिशाओंकी दो-दो पंक्तियोंको वीथी (मार्ग)के लिये सर्वथा लुप्त कर दे (मिटा दे); तदनन्तर चारों दिशाओंमें चार द्वारोंकी कल्पना करे । (वीथीके बाहर जो दो पंक्तियाँ शेष हैं, उनमेंसे भीतरवाली पंक्तिके मध्यवर्ती दो-दो कोष्ठ और बाहरवाली पंक्तिके मध्यवर्ती चार-चार कोष्ठोंको एक करके द्वार बनाने चाहिये । ) ॥ ७-१४ ॥

द्वाराणां पार्श्वतः शोभा अष्टौ कुर्याद्विचक्षणः ।
तत्पार्श्व उपशोभास्तु तावत्यः परिकीर्तिताः ॥ १५ ॥
समीप उपशोभानां कोणास्तु परिकीर्तिताः ।
चतुर्दिक्षु ततो द्वे द्वे चिन्तयेन्मध्यकोष्ठकैः ॥ १६ ॥
चत्वारि बाह्यतो मृज्यादेकैकं पार्श्वयोरपि ।
शोभार्थं पार्श्वयोस्त्रीणि त्रीणि लुम्पेद्‌दलस्य तु ॥ १७ ॥
तद्वद्विपर्यये कुर्यादुपशोभां ततः परम् ।
कोणस्यान्तर्बहिस्त्रीणि चिन्तयेद्‌द्विर्विभेदतः ॥ १८ ॥
द्वारोंके पार्श्वभागोंमें विद्वान् पुरुष आठ शोभास्थानोंकी कल्पना करे और शोभाके पार्श्वभागमें उपशोभा-स्थान बनाये । उपशोभाओंकी संख्या भी उतनी ही बतायी गयी है, जितनी कि शोभाओंकी । उपशोभाओंके समीपके स्थान 'कोण' कहे गये हैं । तदनन्तर चारों दिशाओंमें दो-दो मध्यवर्ती कोष्ठकोंका और उससे बाह्य पंक्तिके चार-चार मध्यवर्ती कोष्ठकोंका द्वारके लिये चिन्तन करे । उन सबको एकत्र करके मिटा दे-इस तरह चार द्वार बन जाते हैं । द्वारके दोनों पाश्ौंमें क्षेत्रकी बाह्य-पंक्तिके एक-एक और भीतरी पंक्तिके तीन-तीन कोष्ठोंको 'शोभा' बनानेके लिये मिटा दे । शोभाके पार्श्वभागमें उसके विपरीत करनेसे, अर्थात् क्षेत्रकी बाह्य-पंक्तिके तीन-तीन और भीतरी पंक्तिके एक-एक कोष्ठको मिटानेसे उपशोभाका निर्माण होता है । तत्पश्चात् कोणके भीतर और बाहरके तीन-तीन कोष्ठोंका भेद मिटाकर-एक करके चिन्तन करें ॥ १५-१८ ॥

एवं षोडशकोष्ठं स्यादेवमन्यत्तु मण्डलम् ।
द्विषट्कभागे षट्त्रिंशत्पदं पद्मन्तु वीथिका ॥ १९ ॥
एका पङ्क्तिः प्राभ्यां तु द्वारशोभादि पूर्ववत् ।
द्वादशाङ्गुलिभिः पद्ममेकहस्ते तु मण्डले ॥ २० ॥
द्विहस्ते हस्तमात्रं स्याद्वृद्ध्या द्वारेण वाचरेत् ।
अपीठञ्चतुरस्रं स्याद्विकरञ्चक्रपङ्‌कजम् ॥ २१ ॥
पद्मार्धं नवभिः प्रोक्तं नाभिस्तु तिसृभिः स्मृता ।
अष्टाभिर्द्वारकान् कुर्यान्नेमिन्तु चतुरङ्गुलैः ॥ २२ ॥
त्रिधा विभज्य च क्षेत्रमन्तर्द्वाभ्यामथाङ्‌कयेत् ।
पञ्चान्तस्वरसिद्ध्यर्थं तेष्वस्फाल्य लिखेदरान् ॥ २३ ॥
इन्दीवरदलाकारानथवा मातुलाङ्‌गवत् ।
पद्मपत्रायतान्वापि लिखेदिच्छानुरूपतः ॥ २४ ॥
भ्रामयित्वा बहिर्नेमावरसन्ध्यन्तरे स्थितः ।
भ्रामयेदरमूलन्तु सन्धिमध्ये व्यवस्थितः ॥ २५ ॥
अरमध्ये स्थितो मधमरणिं भ्रामयेत् समम् ।
एवं सिद्ध्यन्तराः सम्यक् मातुलाङ्‍गनिभाः समाः ॥ २६ ॥
इस प्रकार सोलह-सोलह कोष्ठोंसे बननेवाले दो सौ छप्पन कोष्ठवाले मण्डलका वर्णन हुआ । इसी तरह दूसरे मण्डल भी बन सकते हैं । बारहबारह कोष्ठोंसे (एक सौ चौवालीस) कोष्ठकोंका जो मण्डल बनता है, उसमें भी मध्यवर्ती छत्तीस पदों (कोष्ठों)-का कमल होता है । इसमें वीथी नहीं होती । एक पंक्ति पीठके लिये होती है । शेष दो पंक्तियोंद्वारा पूर्ववत् द्वार और शोभाकी कल्पना होती है । (इसमें उपशोभा नहीं देखी जाती । अवशिष्ट छ: पदोंद्वारा कोणोंकी कल्पना करनी चाहिये । ) एक हाथके मण्डलमें बारह अङ्‌गुलका कमल-क्षेत्र होता है । दो हाथके मण्डलमें कमलका स्थान एक हाथ लंबा-चौड़ा होता है । तदनुसार वृद्धि करके द्वार आदिके साथ मण्डलकी रचना करे । दो हाथका पीठ-रहित चतुरस्त्रमण्डल हो तो उसमें चक्राकार कमल (चक्राब्ज)-का निर्माण करे । नौ अङ्गुलोंका 'पद्मार्ध' कहा गया है । तीन अङ्गुलोंकी 'नाभि' मानी गयी है । आठ अङ्‌गालोंके 'अरे' बनावे और चार अङ्गुलोंकी नेमि' । क्षेत्रके तीन भाग करके, फिर भीतरसे प्रत्येकके दो भाग करे । भीतरके जो पाँच कोष्ठक हैं, उनको अरे या आरे बनानेके लिये आस्फालित (मार्जित) करके उनके ऊपर 'अरे' अङ्‌कित करे । वे अरे इन्दीवरके दलोंकीसी आकृतिवाले हों, अथवा मातुलिङ्‌ग (बिजौरा नीव)-के आकारके हों या कमलदलके समान विस्तृत हों, अथवा अपनी इच्छाके अनुसार उनकी आकृति अङ्‌कित करे । अरोंकी संधियोंके बीचमें सूत रखकर उसे बाहरकी नेमितक ले जाय और चारों ओर घुमावे । अरेके मूलभागको उसके संधिस्थानमें सत रखकर घुमावे तथा अरेके मध्य में सूत्र-स्थापन करके उस मध्यभागके सब ओर समभावसे सूतको घुमावे । इस तरह घुमानेसे मातुलिङ्‌गके समान 'अरे' बन जायेंगे ॥ १९-२६ ॥

विभज्य सप्तधा क्षेत्रं चतुर्दशकरं समम् ।
द्विधा कृते शतं ह्यत्र षण्णवत्यधिकानि तु ॥ २७ ॥
कोष्टकानि चतुर्भिस्तैः मध्ये भद्रं समालिखेत् ।
परितो विसृजेद्‌वीथ्यै तथा दिक्षु समालिखेत् ॥ २८ ॥
कमलानि पुनर्वीथ्यै परितः परिमृज्य तु ।
द्वे द्वे मध्यमकोष्ठे तु ग्रीवार्थं दिक्षु लोपयेत् ॥ २९ ॥
चत्वारि बाह्यतः पश्चात्त्रीणि त्रीणि तु लोपयेत् ।
ग्रीवापार्श्वे बहिस्त्वेका शोभा सा परिकीर्तिता ॥ ३० ॥
विमृज्य बाह्यकोणेषु सप्तान्तस्त्रीणि मार्जयेत् ।
मण्डलं नवभागं स्यान्नवव्यूहं हरिं यजेत् ॥ ३१ ॥
पञ्चविंशतिकव्यूहं मण्डलं विश्वरूपगम् ।
द्वात्रिंशद्धस्तकं क्षेत्रं भक्तं द्वात्रिंशता समम् ॥ ३२ ॥
एवं कृते चतुर्विंशत्यधिकन्तु सहस्रकम् ।
कोष्ठकानां समुद्दिष्टं मध्ये षोडशकोष्ठकैः ॥ ३३ ॥
भद्रकं परिलिख्याथ पार्श्वे पङ्क्तिं विमृज्य तु ।
ततः षोडशभिः कोष्टैः दिक्षु भद्राष्टकं लिखेत् ॥ ३४ ॥
चौदह पदोंके क्षेत्रको सात भागोंमें बाँटकर पुनः दो-दो भागोंमें बाँटे अथवा पूर्वसे पश्चिम तथा उत्तरसे दक्षिणकी ओर पंद्रह-पंद्रह समान रेखाएँ खींचे । ऐसा करनेसे एक सौ छियानबे कोष्ठक सिद्ध होंगे । वे जो कोष्ठक हैं, उनमेंसे बीचके चार कोष्ठोंद्वारा 'भद्रमण्डल' लिखे । उसके चारों ओर वीथीके लिये स्थान छोड़ दे । फिर सम्पूर्ण दिशाओंमें कमल लिखे । उन कमलोंके चारों ओर वीथीके लिये एक-एक कोष्ठका मार्जन कर दे । तत्पश्चात् मध्यके दो-दो कोष्ठ ग्रीवाभागके लिये विलुप्त कर दे । फिर बाहरके जो चार कोष्ठ हैं, उनमेंसे तीन-तीनको सब ओर मिटा दे । बाहरका एक-एक कोष्ठ ग्रीवाके पार्श्वभागमें शेष रहने दे । उसे द्वार-शोभाकी संज्ञा दी गयी है । बाह्य कोणोंमें सातको छोड़कर भीतर-भीतरके तीन-तीन कोष्ठोंका मार्जन कर दे । इसे 'नवनाल' या 'नवनाभ-मण्डल' कहते हैं । उसकी नौ नाभियोंमें नवव्यूहस्वरूप श्रीहरिका पूजन करे । पचीस व्यूहोंका जो मण्डल है, वह विश्वव्यापी है, अथवा सम्पूर्ण रूपोंमें व्याप्त है । बत्तीस हाथ अथवा कोष्ठवाले क्षेत्रको बत्तीससे ही बराबरबराबर विभक्त कर दे; अर्थात् ऊपरसे नीचेको तैंतीस रेखाएँ खींचकर उनपर तैंतीस आड़ी रेखाएँ खींचे । इससे एक हजार चौबीस कोष्ठक बनेंगे । उनमेंसे बीचके सोलह कोष्ठोंद्वारा 'भद्रमण्डल' की रचना करे । फिर चारों ओरकी एक-एक पंक्ति छोड़ दे । तत्पश्चात् आठों दिशाओंमें सोलह कोष्ठकोंद्वारा आठ भद्रमण्डल लिखे । इसे 'भद्राष्टक' की संज्ञा दी गयी है ॥ २७-३४ ॥

ततोपि पङ्क्तिं सम्मृज्य तद्वत् षोडशभद्रकम् ।
लिखित्वा परितः पङ्क्तिं विमृज्याथ प्रकल्पयेत् ॥ ३५ ॥
द्वारद्वादशकं दिक्षु त्रीणि त्रीणि यथाक्रमम् ।
षड्भिः परिलुप्यान्तर्मध्ये चत्वारि पार्श्वयोः ॥ ३६ ॥
चत्वार्यन्तर्बहिर्द्वे तु शोभार्थं परिमृज्य तु ।
उपद्वारप्रसिद्ध्यर्थं त्रीण्यन्तः पञ्च बाह्यतः ॥ ३७ ॥
परिमृज्य तथा शोभां पूर्ववत् परिकल्पयेत् ।
बहिः कोणेषु सप्तान्तस्त्रीणि कोष्ठानि मार्जयेत् ॥ ३८ ॥
पञ्चविंशतिकव्यूहे परं ब्रह्म यजेत् शुभे ।
मध्ये पूर्वादितः पद्मे वासुदेवादयः क्रमात् ॥ ३९ ॥
वराहं पूजयित्वा च पूर्वपद्मे ततः क्रमात् ।
व्यूहान् सम्पूजयेत्तावत् यावत् षड्‌विंशमो भवेत् ॥ ४० ॥
यथोक्तं व्यूहमखिलमेकस्मिन् पङ्‍कजे क्रमात् ।
यष्टव्यमिति यत्‍नेन प्रचेता मन्यतेऽध्वरम् ॥ ४१ ॥
सप्तन्तु मूर्तिभेदेन विभक्तं मन्यतेऽच्युतम् ।
चत्वारिंशत्करं क्षेत्रं ह्युत्तरं विभजेत् क्रमात् ॥ ४२ ॥
एकैकं सप्तधा भूयस्तथैकैकं द्विधा पुनः ।
चतुःषष्ट्युत्तरं सप्तशतान्येकं सहस्रकम् ॥ ४३ ॥
कोष्ठकानां भद्रकञ्च मध्ये षोडशकोष्ठकैः ।
पार्श्वे वीथीं ततश्चाष्टभद्राण्यथ च वीथिका ॥ ४४ ॥
षोडशाब्जान्यथो वीथी चतुर्विंशतिपङ्‌कजम् ।
वीथीपद्मानि द्वात्रिंशत् पङ्क्तिवीथिकजान्यथ ॥ ४५ ॥
चत्वारिंशत्ततो वीथी शेषपङ्क्तित्रयेण च ।
द्वारशोभोपशोभाः स्युर्दिक्षु मध्ये विलोप्य च ॥ ४६ ॥
द्विचतुः षड्द्वारसिद्ध्यै चतुर्दिक्षु विलोपयेत् ।
पञ्च त्रीण्येककं बाह्ये शोभोपद्वारसिद्धये ॥ ४७ ॥
द्वाराणां पार्श्वयोरन्तः षड् वा चत्वारि मध्यतः ।
द्वे द्वे लुम्पेदेवमेव षड् भवन्त्युपशोभिकाः ॥ ४८ ॥
एकस्यां दिशि सङ्ख्याः स्युः चतस्रः प्रिसङ्ख्यया ।
एकैकस्यां दिशि त्रीणि द्वाराण्यपि भवन्त्युत ॥४९॥
पञ्च पञ्च तु कोणेषु पङ्क्तौ पङ्क्तौ क्रमात् मृजेत् ।
कोष्टकानि भवेदेवं मर्त्येष्ट्यं मण्डलं शुभम् ॥५० ॥
उसके बादकी भी एक पंक्ति मिटाकर पुनः पूर्ववत् सोलह भद्रमण्डल लिखे । तदनन्तर सब ओरकी एक-एक पंक्ति मिटाकर प्रत्येक दिशामें तीन-तीनके क्रमसे बारह द्वारोंकी रचना करे । बाहरके छः कोष्ठ मिटाकर बीचके पार्श्वभागोंके चार मिटा दे । फिर भीतरके चार और बाहरके दो कोष्ठ 'शोभा'के लिये मिटावे । इसके बाद उपद्वारकी सिद्धिके लिये भीतरके तीन और बाहरके पाँच कोष्ठोंका मार्जन करे । तत्पश्चात् पूर्ववत् 'शोभा'की कल्पना करे । कोणोंमें बाहरके सात और भीतरके तीन कोष्ठ मिटा दे । इस प्रकार जो पञ्चविंशतिका व्यूहमण्डल तैयार होता है, उसके भीतरकी कमलकर्णिकामें परब्रह्म परमात्माका यजन करे । फिर पूर्वादि दिशाओंके कमलोंमें क्रमश: वासुदेव आदिका पूजन करे । तत्पश्चात् पूर्ववर्ती कमलपर भगवान् वराहका पूजन करके क्रमशः सम्पूर्ण (अर्थात् पचीस) व्यूहोंकी पूजा करे । यह क्रम तबतक चलता रहे, जबतक छब्बीसवें तत्त्व-परमात्माका पूजन न सम्पन्न हो जाय । इस विषयमें प्रचेताका मत यह है कि एक ही मण्डलमें इन सम्पूर्ण कथित व्यूहोंका क्रमशः पूजन-यज्ञ सम्पन्न होना चाहिये । परंतु 'सत्य'का कथन है कि मूर्तिभेदसे भगवान्‌के व्यक्तित्वमें भेद हो जाता है । अतः सबका पृथक्पृथक् पूजन करना उचित है । बयालीस कोष्ठवाले मण्डलको आड़ी रेखाद्वारा क्रमशः विभक्त करे । पहले एक-एकके सात भाग करे; फिर प्रत्येकके तीन-तीन भाग और उसके भी दो-दो भाग करे । इस प्रकार एक हजार सात सौ चौंसठ कोष्ठक बनेंगे । बीचके सोलह कोष्ठोंसे कमल बनावे । पार्श्वभागमें वीथीकी रचना करे । फिर आठ भद्र और वीथी बनावे । तदनन्तर सोलह दलके कमल और वीथीका निर्माण करे । तत्पश्चात् क्रमश: चौबीस दलके कमल, वीथी, बत्तीस दलके कमल, वीथी, चालीस दलके कमल और वीथी बनावे । तदनन्तर शेष तीन पंक्तियोंसे द्वार, शोभा और उपशोभाएँ बनेंगी । सम्पूर्ण दिशाओंके मध्यभागमें द्वारसिद्धिके लिये दो, चार और छः कोष्ठकोंको मिटावे । उसके बाह्यभागमें शोभा तथा उपद्वारकी सिद्धिके लिये पाँच, तीन और एक कोष्ठ मिटावे । द्वारोंके पार्श्वभागोंमें भीतरकी ओर क्रमशः छ: तथा चार कोष्ठ मिटावे और बीचके दो-दो कोष्ठ लुप्त कर दे । इस तरह छ: उपशोभाएं बन जायँगी । एक-एक दिशामें चार-चार शोभाएँ और तीन-तीन द्वार होंगे । कोणोंमें प्रत्येक पंक्तिके पाँच-पाँच कोष्ठ छोड़ दे । वे कोण होंगे । इस तरह रचना करनेपर सुन्दर अभीष्ट मण्डलका निर्माण होता है ॥ ३५-५० ॥

इति आदिमहापुराणे आग्नेये
सर्वतोभद्रादिमण्डललक्षणवर्णनं नाम एकोनत्रिंशोऽध्यायः
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'सर्वतोभद्र आदि मण्डलके लक्षणका वर्णन' नामक उन्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २९ ॥



हरिः ॐ तत्सत्


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