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॥ ॐ परमात्मने नमः ॥

॥ श्रीअग्निपुराणम् ॥

अष्टाविंशोध्यायः ॥

अभिषेकविधानम् -
आचार्यके अभिषेकका विधान -


नारद उवाच -
अभिषेकं प्रवक्ष्यामि यथाचार्यस्तु पुत्रकः ।
सिद्धिभाक् साधको येन रोगी रोगाद्विमुच्यते ॥ १ ॥
राज्यं राजा सुतं स्त्रीञ्च प्राप्नुयान्मलनाशनम् ।
मूर्तिकुम्भान् सुरत्‍नाढ्यान्मध्यपूर्वादितो न्यसेत् ॥ २ ॥
सहस्रावर्तितान् कुर्यादथवा शतवर्तितान् ।
मण्डपे मण्डले विष्णुं प्राच्यैशान्याञ्च पीठिके ॥ ३ ॥
निवेश्य शकलीकृत्य पुत्रकं साधकादिकम् ।
अभिषेकं समभ्यर्च्य कुर्याद्‌गीतादिपूर्वकम् ॥ ४ ॥
दद्याच्च योगपीठादींस्त्वनुग्राह्यास्त्वया नराः ।
गुरुश्च समयान् ब्रूयाद्‌ गुप्तः शिष्योथ सर्वभाक् ॥ ५ ॥
नारदजी कहते हैं-महर्षियो ! अब मैं आचार्यके अभिषेकका वर्णन करूँगा, जिसे पुत्र अथवा पुत्रोपम श्रद्धालु शिष्य सम्पादित कर सकता है । इस अभिषेकसे साधक सिद्धिका भागी होता है और रोगी रोगसे मुक्त हो जाता है । राजाको राज्य और स्त्रीको पुत्रकी प्राप्ति होती है । इससे अन्त:करणके मलका नाश होता है । मिट्टीके बहुत-से घड़ोंमें उत्तम रत रखकर एक स्थानपर स्थापित करे । पहले एक घड़ा बीचमें रखे फिर उसके चारों ओर घट स्थापित करे । इस तरह एक सहस्र या एक सौ आवृत्तिमें उन सबकी स्थापना करे । फिर मण्डपके भीतर कमलाकार मण्डलमें पूर्व और ईशानकोणके मध्यभागमें पीठ या सिंहासनपर भगवान् विष्णुको स्थापित करके पुत्र एवं साधक आदिका सकलीकरण करे । तदनन्तर शिष्य या पुत्र भगवत्पूजनपूर्वक गुरुकी अर्चना करके उन कलशोंके जलसे उनका अभिषेक करे । उस समय गीत-वाद्यका उत्सव होता रहे । फिर योगपीठ आदि गुरुको अर्पित कर दे और प्रार्थना करे-'गुरुदेव ! आप हम सब मनुष्योंको कृपापूर्वक अनुगृहीत करें । ' गुरु भी उनको समय-दीक्षाके अनुकूल आचारका उपदेश दे । इससे गुरु और साधक भी सम्पूर्णन्मनोरथोंके भागी होते हैं ॥ १-५ ॥

इति आदिमहापुराणे आग्नेये
आचार्याभिषेविधिवर्णनं नाम अष्टाविंशोऽध्यायः
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'आचार्यके अभिषेककी विधिका वर्णन' नामक अट्ठाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २८ ॥



हरिः ॐ तत्सत्


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