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भविष्य महापुराणम् प्रथमं ब्राह्मपर्वम् - प्रथमोऽध्यायः कथाप्रस्तावना
ब्राह्मपर्व का वर्णन - नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् । देवीं सरस्वतीं चैव ततो जयमुदीरयेत् ॥ १ ॥ नारायण, नरोत्तम (मनुष्यों में श्रेष्ठ) तथा वाग्देवी सरस्वती को नमस्कार करके, जय (महाभारत, पुराणादि पवित्र ग्रन्थों के ) आख्यानों का उच्चारण करना चाहिए ॥ १ ॥ जयति पराशरसूनुः सत्यवतीहृदयनन्दनो व्यासः । यस्यास्यकमलगलितं वाङ्मयममृतं जगत्पिबति ॥ २ ॥ सत्यवती के हृदय को हर्षित करने वाले, पराशर के पुत्र व्यासदेव की जय हो, जिनके मुखारविन्द से निकले हुए अमृत (रस) रूपी वाक्यों का समस्त संसार पान करता है ॥ २ ॥ मूकङ्करोति वाचालं पङ्गु लङ्घयते गिरिम् । यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्दमाधवम् ॥ ३ ॥ जिसकी कृपा (दृष्टि) मात्र से ही मूक (गूंगा) पण्डित (शास्त्र-निष्णात होकर प्रवक्ता-वाचाल) हो जाता है और पंगु (लँगड़ा-विकृताङ्ग) पर्वत को लाँघने योग्य (सामर्थ्य से युक्त) हो जाता है, उस परमानन्द स्वरूप माधव (श्रीकृष्ण) की मैं वन्दना करता हूँ ॥ ३ ॥ पाराशर्यवचः सरोजममलं गीतार्थगन्धोत्कटं, नानाख्यानककेसरं हरिकथासम्बोधनाबोधितम् । लोके सज्जनषट्पदैरहरहः पेपीयमानं मुदा, भूयाद्भारतपङ्कजं कलिमलप्रध्वंसि नः श्रेयसे ॥ ४ ॥ इस लोक (संसार) में कलियुग के पापों को विनष्ट करने वाला वह महाभारत रूप कमल हम लोगों (वक्ता-श्रोता) का कल्याण करे जो पराशर-नन्दन व्यास के वचनरूपी सरोवर से उत्पन्न हुआ है । यह जय काव्य अति निर्मल है ! गीता के गंभीर भावों की उत्कृष्ट सुगन्धि से सुवासित और विविध प्रकार के सुन्दर आख्यान-परागों से व्याप्त, भगवान् श्रीकृष्ण की (पावन) कथाओं से विकसित है । उस पर भ्रमर बने सत्पुरुष गूंज-गूंजकर उस (काव्य-पराग) का रसास्वादन करते हैं ॥ ४ ॥ यो गोशतं कनकशृङ्गमयं ददाति, विप्राय वेदविदुषे च बहुश्रुताय । पुण्यां भविष्यसुकथां शृणुयात्समग्रां, पुण्यं समं भवति तस्य च तस्य चैव ॥ ५ ॥ जो व्यक्ति स्वर्ण-मण्डित सींगों से सुसज्जित सौ गौओं को (किसी कर्मकाण्डी वेदज्ञ-बहुश्रुत) ब्राह्मण को दान करता है और जो (कोई दूसरा व्यक्ति इस दान के स्थान पर) भविष्यमहापुराण की कथा का आद्योपान्त श्रवण करता है, उन दोनों को समान पुण्य (फल) प्राप्त होता है । ५ ॥ कृत्वा पुराणानि पराशरात्मजः सर्वाण्यनेकानि सुखावहानि । तत्रात्मसौख्याय भविष्यधर्मान् कलौ युगे भावि लिलेख सर्वम् ॥ ६ ॥ पराशर के पुत्र व्यास ने आनन्ददायिनी (चतुर्वर्गफलदायिनी) कथाओं से युक्त अनेक पुराणों की रचना करने के बाद,स्वान्तःसुखाय कलियुग में घटित होने वाले सभी धर्मों को (इस) भविष्य पुराण में लिखा ॥ ६ ॥ तत्रापि सर्वर्षिवरप्रमुख्यैः पराशराद्यैर्मुनिभिः प्रणीतान् । स्मृत्युक्तधर्मागमसंहितार्थान् व्यासः समासादवदद्भविष्यम् ॥ ७ ॥ और उन सभी ऋषियों में प्रमुख पराशर आदि के द्वारा प्रणीत स्मृतियों में कहे गये धर्म (के स्वरूप), वेद एवं संहिताओं के अर्थ (को ग्रहण करके) व्यास ने भविष्य पुराण की संक्षेप में रचना को ॥ ७ ॥ अल्पायुषो लोकजनान्समीक्ष्य विद्याविहीनान्पशुवत्सुचेष्टान् । तेषां सुखार्थं प्रतिबोधनाय व्यासः पुराणं प्रथितं चकार ॥ ८ ॥ अल्पायु, विद्याहीन, पशु के समान कर्म करने वाले (कर्म में निरत रहने वाले) सांसारिक प्राणियों को (दुःखित) देखकर व्यास जी ने उनको जागरित करने के लिए इस विख्यात भविष्य पुराण की रचना की ॥ ८ ॥ जयति भुवनदीपो भास्करो लोककर्त्ता, जयति च शितिदेहः शार्ङ्गःधन्वा मुरारिः ॥ जयति च शशिमौली रुद्रनामाभिधेयो, जयति च स तु देवो भानुमांश्चित्रभानुः ॥ १ ॥ समस्त भुवनमण्डल को प्रकाशित करने वाले सम्पूर्ण संसार के कर्ता सूर्य देव जयशील हों (सूर्यदेव की जय हो) । श्यामवर्ण, मनोहर शरीरवाले, सींग का धनुष धारण करने दाले, मुरारि (मुर नामक दैत्य का नाश करने वाले भगवान् श्री विष्णु) जयशील हों (विष्णु की जय हो) । रुद्र नामवाले मस्तक पर चन्द्रमा धारण करने वाले, भगवान् शिव जयशील हो (शिव की जय हो) । और देव (अग्नि देव) कांति युक्त एवं विचित्र किरणों वाले अग्नि जयशील हों । (अग्नि की जय हो) ॥ १ ॥ श्रियावृतं तु राजानं शतानीकं महाबलम् । अभिजग्मुर्महात्मानः सर्वे द्रष्टुं महर्षयः ॥ २ ॥ भृगुरत्रिर्वसिष्ठश्च पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः । पराशरस्तथा व्यासः सुमन्तुर्जैमिनिस्तथा ॥ ३ ॥ मुनिः पैलो याज्ञवल्क्यो गौतमस्तु महातपाः । भारद्वाजो मुनिर्धीमांस्तथा नारदपर्वतौ ॥ ४ ॥ वैशम्पायनो महात्मा शौनकश्च महातपाः । दक्षोऽङ्गिरास्तथा गर्गो गालवश्च महातपाः ॥ ५ ॥ महाबलशाली, श्रीसम्पन्न राजा शतानीक को देखने के लिए सभी महर्षिगण उनके समीप गये ।उनमें भृगु, अत्रि, वसिष्ठ, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, पराशर, व्यास, सुमन्तु, जैमिनि, पैल, मुनि याज्ञवल्क्य, महातपस्वी गौतम, परम बुद्धिमान् मुनि भारद्वाज, नारद, पर्वत, महात्मा वैशम्पायन, परम तपस्वी शौनक, दक्ष, अङ्गिरा, गर्ग और महान। तपस्वी गालव थे ॥ २-५ ॥ तानागतानृषीन्दृष्ट्वा शतानीको महीपतिः । विधिवत्पूजयामास अभिगम्य महामतिः ॥ ६ ॥ अपने यहाँ आये हुए इन महर्षियों को देखकर महामति राजा शतानीक ने अगवानी करके (उन सबकी) विधिवत् पूजा की ॥ ६ ॥ पुरोहितं पुरस्कृत्य अर्ध्यं गां स्वागतेन च । पूजयित्वा ततः सर्वान्प्रणम्य शिरसा भृशम् ॥ ७ ॥ अपने पुरोहित को आगे करके अर्घ्य और गौ से स्वागतपूर्वक पूजन करने के उपरान्त राजा ने (उन) सबको नतमस्तक होकर बार-बार प्रणाम किया ॥ ७ ॥ सुखासीनांस्ततो राजा निरातङ्कान् गतक्लमान् । उवाच प्रणतो भूत्वा बाहुमुद्धृत्य दक्षिणम् ॥ ८ ॥ जब महर्षिगण निरातंक एवं मार्ग की थकावट से निवृत्त हो, सुखपूर्वक (अपने अपने) आसनों पर बैठ गये, तब राजा शतानीक ने विनम्र भाव से अपना दाहिना हाथ उठाकर कहा-॥ ८ ॥ इदानीं सफलं जन्म मन्येऽहं भुवि सत्तमाः । आत्मनो द्विजशार्दूला ! तथा कीर्तिर्यशो बलम् ॥ ९ ॥ सज्जनों में श्रेष्ठ, महर्षिगण ! अब इस पृथ्वी पर मैं अपने को सफलजन्मा मानता है । हे ब्राह्मणवृन्दश्रेष्ठ ! हमारे यश एवं बल दोनों सफल हो गये ॥ ९ ॥ धन्योऽहं पुण्यकर्मा च यतो मां द्रष्टुमागताः । येषां स्मरणमात्रेण युष्माकं पूयते नरः ॥ १० ॥ मैं वस्तुतः धन्य एवं पुण्यकर्मा हूँ, क्योंकि मुझे देखने के लिए आप सब का यहाँ (मेरे स्थान पर) शुभागमन हुआ है, जिन आप लोगों के स्मरण मात्र से मनुष्य पवित्र हो जाता है ॥ १० ॥ श्रोतुमिच्छाम्यहं किञ्चिद्धर्मशास्त्रमनुत्तमम् । आनृशंस्यं समाश्रित्य कथयध्वम् महाबलाः ! ॥ ११ ॥ महान् पराक्रमशालियों ! मैं कुछ परमोत्तम धर्मशास्त्र की चर्चा सुनना चाहता है । आप कृपापूर्वक मुझसे कहें ॥ ११ ॥ येनाहं धर्मशास्त्रं तु श्रुत्वा गच्छे परां गतिम् । यथागतो मम पिता श्रुत्वा वै भारतं पुरा ॥ १२ ॥ जिससे उस पवित्र धर्मशास्त्र की कथाओं को सुनकर मैं भी वैसी ही परम गति प्राप्त करूँ, जैसी पहले महाभारत की (पवित्र) कथा को सुन कर मेरे पूज्य पिता जी ने प्राप्त की ॥ १२ ॥ तथोक्तास्तेन राज्ञा वै ब्राह्मणास्ते समन्ततः । समागम्य मिथस्ते तु विमृश्य च भृशम् तदा ॥ १३ ॥ राजा शतानीक के इस प्रकार निवेदन करने पर उन ब्राह्मणों ने आपस । में भलीभाँति विचार कर व्यास को सम्मानपूर्वक (आगे कर) राजा से यह वचन कहा ॥ १३ ॥ पूजयित्वा ततो व्यासमिदं वचनमब्रुवन् । व्यासं प्रसादय विभो ! एष ते कथयिष्यति ॥ १४ ॥ हे सर्वशक्तिमान् ! आप इन्हीं व्यास जी को प्रसन्न करें यही आपसे धर्मशास्त्र की कथा कहेंगे ॥ १४ ॥ तिष्ठत्यस्मिन्महाबाहो ! वयं वक्तुं न शक्नुमः । तिष्ठमाने गुरौ शिष्यः कथं वक्ति महामते ! ॥ १५ ॥ हे महाबाहु ! इनके विद्यमान रहते हम लोग नहीं कह सकते । हे महामते भला गुरु के रहते शिष्य कैसे बोल सकता है ? ॥ १५ ॥ अयं गुरुः सदास्माकं साक्षान्नारायणस्तथा । कृपालुश्च तथा चायं तथा दिव्यविधानवित् ॥ १६ ॥ ये हम सबके सर्वदा से गुरु रहे हैं । साक्षात् नारायण स्वरूप हैं और परम कृपालु हैं तथा दिव्य विधानों का इन्हें अच्छी तरह ज्ञान है ॥ १६ ॥ चतुर्णामपि वर्णानां पावनाय महात्मनाम् । धर्मशास्त्रमनेनोक्तं धर्माद्यैः सुसमन्वितम् ॥ १७ ॥ परम प्रभावशाली चारों वर्गों को पवित्र बनाने के उद्देश्य से धर्मादि (व्रत-नियमादि) से समन्वित धर्मशास्त्र की कथा इन्होंने ही कही है ॥ १७ ॥ बिभेति गहनाच्छास्त्राल्लोको व्याधिरिवौषधात् । भारतस्य च विस्तारो मुनिना व्याहृतः स्वयम् ॥ १८ ॥ कटु ओषधि की तरह लोग कठिन शास्त्रों से डरते रहते हैं, (इसीलिए) मुनिवर व्यास ने स्वयमेव विस्तृत महाभारत की रचना की ॥ १८ ॥ यथा स्वादु च पथ्यं च दद्यास्त्वं भिषगौषधम् । तथा रम्यं च शास्त्रं च भारतं कृतवान्मुनिः ॥ १९ ॥ जिस प्रकार वैद्य रोगी को लाभकारी किन्तु सुस्वादु ओषधि स्वयं देता है, उसी प्रकार मुनि ने परम रमणीय एवं शास्त्रीय विषयों से समन्वित महाभारत की रचना की ॥ १९ ॥ आस्तिक्यारोहसोपानमेतद्भारतमुच्यते । तच्छ्रुत्वा स्वर्गनरकौ लोकः साक्षादवेक्षते ॥ २० ॥ यह महाभारत आस्तिक-भावना पर आरोहण करने की सीढ़ी कही जाती है। इसका श्रवण करके लोग स्वर्ग एवं नरक का प्रत्यक्ष दर्शन करते हैं ॥ २० ॥ देवतातीर्थतपसां भारतादेव निश्चयः । न जन्यते नास्तिकता तस्य मीमांसकैरपि ॥ २१ ॥ देवताओं, तीर्थों एवं तपों का महाभारत से ही निश्चय होता है । उसके श्रवण करने वालों के मन में मीमांसक भी नास्तिकता उत्पन्न नहीं कर सकते ॥ २१ ॥ विष्णौ देवेषु वेदेषु गुरुषु ब्राह्मणेषु च । भक्तिर्भवति कल्याणी भारतादेव धीमताम् ॥ २२ ॥ भगवान् विष्णु अन्यान्य देवगण, गुरुजन वेद एवं ब्राह्मणों में बुद्धिमानों की कल्याणदायिनी भक्ति इसी महाभारत के श्रवण करने से होती है ॥ २२ ॥ धर्मार्थकाममोक्षाणां भरतात्सिद्धिरेव हि । अजिह्मो भारतः पन्था निर्वाणपदगामिनाम् ॥ २३ ॥ मोक्षधर्मार्थकामानां प्रपञ्चो भारते कृतः । अनित्यतापसन्तप्ता भवन्ति तस्य मुक्तये ॥ २४ ॥ विपत्तिं भारताच्छ्रुत्वा वृष्णिपाण्डवसम्पदाम् । दुःखावसानाद्राजेन्द्र ! पुण्यं च संश्रयेद्बुधः ॥ २५ ॥ एवंविधं भारतं वै प्रोक्तं येन महात्मना । सोऽयं नारायणः साक्षात् व्यासरूपी महामुनिः ॥ २६ ॥ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पदार्थों की प्राप्ति भी महाभारत से ही होती है । निर्वाण पद को प्राप्त करने के लिए यह महाभारत ही सरल एवं सीधा उपाय है क्योंकि धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष इन चारों दुर्लभ पदार्थों का विवेचन इसी महाभारत में किया गया है । अनित्य संतापों से संतप्त जनों को महाभारत से मुक्ति प्राप्त होती है । महाभारत से यदुवंशियों एवं पाण्डवों की अतुलनीय समृद्धि एवं विपत्ति का वर्णन सुनकर मनुष्य अपनी घोर विपत्तियों से छुटकारा पा जाता है । अतः विद्वान् इसका पुण्य ग्रहण करें । ऐसे महाभारत को जिस महात्मा ने कहा, वह महामुनि जो नारायण स्वरूप एवं व्यास रूप हैं, यहाँ साक्षात् विराजमान हैं ॥ २३-२६ ॥ स तेषां वचनं श्रुत्वा प्रतापी यो महीपतिः । प्रसादयामास मुनिं व्यासं शास्त्रविशारदम् ॥ २७ ॥ मुनियों के वचन सुन उस प्रतापी महाराज (शतानीक) ने सर्वशास्त्रविशारद, मुनि व्यास जी को प्रसन्न किया ॥ २७ ॥ शतानीक उवाच अञ्जलिः शिरसा ब्रह्मन् ! कृतोऽयं पादयोस्तव । ब्रूहि मे धर्मशास्त्रं ५ तु येना पूततां व्रजे ॥ २८ ॥ शतानीक ने कहा-ब्रह्मन् ! मैं अपनी अंजलि को शिर से लगाकर आपके दोनों चरणों में लगा रहा हूँ, कृपापूर्वक मुझसे धर्मशास्त्र (की कथा) कहें, जिससे मैं पवित्र हो जाऊँ ॥ २८ ॥ समुद्धर भवादस्मात्कीर्तयित्वा कथां शुभाम् । यथा मम पिता पूर्वं कीर्तयित्वा तु भारतम् ॥ २९ ॥ परम कल्याणमयी धार्मिक कथाओं का उपदेश कर आप मुझे भी इस संसार (सागर) से पार करें जैसे पहले महाभारत का वर्णन कर मेरे पूज्य पिता जी को तारा है ॥ २९ ॥ व्यास उवाच तस्यैतद्वचनं श्रुत्वा व्यासो वचनमब्रवीत् । एष शिष्यः सुमन्तुर्मे कथयिष्यति ते प्रभो ! ॥ ३० ॥ व्यास जी बोले-राजा की ऐसी वाणी सुनकर व्यास ने कहा, राजन् ! यह हमारे शिष्य सुमन्तु तुम्हें (उन धार्मिक कथाओं को) सुनायेंगे ॥ ३० ॥ यदिच्छसि महाबाहो ! प्रीतिदं चाद्भुतं शुभम् । श्रव्यं भरतशार्दूल ! सर्वपापभयापहम् ॥ ३१ ॥ यथा वैशम्पायनेन पुरा प्रोक्तं पितुस्तव । महाभारतव्याख्यानं ब्रह्महत्याव्यपोहनम् ॥ ३२ ॥ हे महाबाहु ! भरतवंशियों में श्रेष्ठ ! यदि तुम समस्त पापों एवं भय को दूर करने वाले, प्रीतिदायी, अद्भुतकल्याणप्रद, महाभारत के आख्यानों को सुनना चाहते हो तो, जिस प्रकार पहले वैशम्पायन ने ब्रह्महत्या प्रभृति पापों को दूर करने के लिए तुम्हारे पिता जी को सुनाया था, उसी प्रकार सुमन्तु तुम्हें मुनायेंगे ॥ ३१-३२ ॥ अथ तमृषयः सर्वे राजानमिदमब्रुवन् । साधु प्रोक्तं महाबाहो ! व्यासेनामितबुद्धिना ॥ ३३ ॥ सुमन्तुं पृच्छ राजर्षे ! सर्वशास्त्रविशारदम् । अस्माकमपि राजेन्द्र ! श्रवणे जायते मतिः । अथ व्यासो महातेजाः सुमन्तुमृषिमब्रवीत् ॥ ३४ ॥ व्यास जी के इस कथन के अनन्तर अन्य समस्त ऋषियों ने भी राजा से यह कहा कि-हे महाबाहु ! परम बुद्धिमान् व्यास जी ने बहुत ठीक कहा है । हे राजर्षि ! सभी शास्त्रों में निपुण सुमन्तु जी से आप (इन आख्यानों को) पूछे । हे राजन् ! हम लोगों की भी बुद्धि उसे सुनने को हो रही है ॥ ३३-३४ ॥ कथयास्मै कथास्तात ! याः श्रुत्वा मोदते नृपः । भारतादिकथानां तु यत्रास्य रमते मनः ॥ ३५ ॥ तदनन्तर महान् तेजस्वी व्यास जी ने मुमन्तु ऋषि से कहां-तात ! तुम इन्हें (राजा को) कथा सुनाओ जिन्हें सुनकर इन्हें प्रसन्नता हो और महाभारतादि कथाओं में तो इनका मन विशेष रूप से लगता है ॥ ३५ ॥ असावपि महातेजाः श्रुत्वा भावं महामतेः । व्यासस्य द्विजशार्दूल ! ऋषीणां चापि सर्वशः ॥ ३६ ॥ चकार वक्तुं स मनस्तस्मै राज्ञे महामतिः । व्यासस्य शासनाद्विप्र ! ऋषीणां चैव सर्वशः ॥ ३७ ॥ अथ राजा महातेजा आजमीढो द्विजोत्तमम् । प्रणम्य शिरसात्यर्थं प्रवक्तुमुपचक्रमे ॥ ३८ ॥ द्विजशार्दूल ! परम तेजस्वी सुमन्तु ने परम विद्वान् व्यास जी के भावों एवं ऋषियों की इच्छा को जानकर राजा शतानीक से उन पवित्र कथाओं को कहने का विचार किया । विप्र ! क्योंकि इसके लिए व्यास जी की एवम् अनेक ऋषियों की भी आज्ञा थी । तदनन्तर अजमीढ़ के पुत्र परम तेजस्वी राजा (शतानीक) ने सर्वप्रथम द्विजवर (सुमन्तु) को विशेष रूप से सिर नवाकर कहना प्रारंभ किया ॥ ३६-३८ ॥ शतानीक उवाच पुण्याख्यानं मम ब्रह्मन् ! पावनाय प्रकीर्तय । श्रुत्वा यद्ब्राह्मणश्रेष्ठ ! मुच्येऽहं सर्वपातकात् ॥ ३९ ॥ शतानीक बोले-हे ब्रह्मन् ! मुझे पवित्र करने के उद्देश्य से आप पुण्य कथाएँ कहें जिनको सुनकर मैं समस्त पातकों से दूर हो जाऊँ ॥ ३९ ॥ सुमन्तुरुवाच नानाविधानि शास्त्राणि सन्ति पुष्पानि भारत । यानि श्रुत्वा नरो राजन् ! मुच्यते सर्वकिल्बिषैः ॥ ४० ॥ सुमन्तु ने कहा-भरतकुलोद्भव ! हे राजन् । वैसे तो अनेक प्रकार के पवित्र शास्त्र हैं, जिनके सुनने से मनुष्य सब पापों से छुटकारा पा जाता है ॥ ४० ॥ किमिच्छसि महाबाहो ! श्रोतुं यत्त्वां ब्रवीमि वै । भारतादिकथानां तु यासु धर्मादयः स्थिताः ॥ ४१ ॥ हे महाबाहु ! महाभारत आदि की कथाओं में धर्म आदि कहे गये हैं । आप उनमें से कौन-सा सुनना चाहते हैं, जिसे मैं कहूँ ॥ ४१ ॥ शतानीक उवाच मतानि कानि विप्रेन्द्र १ ! धर्मशास्त्राणि सुव्रत ! । यानि श्रुत्वा नरो विप्र ! मुच्यते सर्वकिल्बिषैः ॥ ४२ ॥ शतानीक बोले-विप्रवर ! उत्तमवती ! वे धर्मशास्त्र कौन से हैं, विप्र, उन्हें सुनकर मनुष्य (अपने) समस्त पापों से छुटकारा पा जाता है ॥ ४२ सुमन्तुरुवाच श्रूयन्तां धर्मशास्त्राणि मनुर्विष्णुर्यमोऽङ्गिराः । वसिष्ठदक्षसंवर्तशातातपपराशराः ॥ ४३ ॥ आपस्तम्बोऽथ उशना कात्यायनबृहस्पती । गौतमःशङ्खलिखितौ हारीतोऽत्रिरथापि वा ॥ ४४ ॥ एतानि धर्मशास्त्राणि श्रुत्वा ज्ञात्वा च भारत ! । वृन्दारकपुरं गत्वा मोदते नात्र संशयः ॥ ४५ ॥ सुमन्तु बोले-राजन् ! उन धर्मशास्त्रों को सुनिये । मनु, विष्णु, यम, अङ्गिरा, वसिष्ठ, दक्ष, संवर्त, शातातप, पराशर, आपस्तम्ब, उशना, कात्यायन, बृहस्पति, गौतम, शंखलिखित, हारीत, अत्रि आदि के रचे हुए धर्मशास्त्र हैं, हे भरतवंशोद्भव ! इन सब धर्मशास्त्रों को सुनकर और जानकर मनुष्य देवताओं के लोक में जाकर आनन्द का अनुभव करता है, इसमें सन्देह नहीं ॥ ४३-४५ ॥ शतानीक उवाच यान्येतानि त्वयोक्तानि धर्मशास्त्राणि सुव्रत ! । नेच्छामि श्रोतुं विप्रेन्द्र ! ३ श्रुतान्येतानि हि द्विज ! ॥ ४६ ॥ शतानीक ने कहा-सुव्रती ! विप्रेन्द्र ! आपने जिन धर्मशास्त्रों की नामावलि अभी कही है इन सब को तो मैं पहले ही सुन चुका हूँ, इन्हें पुनः नहीं सुनना चाहता हूँ ॥ ४६ ॥ त्रयाणामपि वर्णानां प्रोक्तानामपि पण्डितैः । श्रेयसे न तु शूद्राणां तत्र मे वचनं शृणु ॥ ४७ ॥ पण्डितों ने इन सब को तीन ही जातियों के कल्याण के लिए कहा है, शूद्रों के कल्याण की बातें इनमें नहीं हैं, इस विषय में मेरा निवेदन सुनिये ॥ ४७ ॥ चतुर्णामिह वर्णानां श्रेयसे यानि सुव्रत ! । भवन्ति द्विजशार्दूल ! श्रुतानि भुवनत्रये ॥ ४८ ॥ विशेषतश्चतुर्थस्य वर्णस्य द्विजसत्तम ! ॥ ४९ ॥ ब्राह्मणादिषु वर्णेषु त्रिषु वेदाः प्रकल्पिताः । मन्वादीनि च शास्त्राणि तथाङ्गानि समन्ततः ॥ ५० ॥ हे द्विजश्रेष्ठ ! सुव्रती ! त्रिभुवन में जो शास्त्र इस लोक (संसार) में चारो वर्गों के लिए कल्याणदायक कहे गये हैं, विशेषतः चौथे वर्ण (शूद्र) के लिए (मैं) उन्हें सुनना चाहता हूँ । ब्राह्मणादि त्रिवर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) के लिए वेद, वेदाङ्ग, मनु द्वारा प्रणीत धर्मशास्त्र हैं हे द्विजवर ! शूद्र (वेदादि के अनधिकारी होने के कारण) अत्यन्त दीन प्रतीत होते हैं ॥ ४८-५० ॥ शूद्राश्चैव भृशं दीनाः प्रतिभान्ति द्विजप्रभो । धर्मार्थकाममोक्षस्य शस्ताः स्युरवने कथम् ॥ ५१ ॥ आगमेन विहीना हि अहो कष्टं मतं मम् । कश्चैषामागमः प्रोक्तः पुरा द्विजमनीषिभिः । त्रिवर्गप्राप्तये ब्रह्मञ्छ्रेयसे च तथोभयोः ॥ ५२ ॥ वे अपने धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष की रक्षा कैसे करेंगे वे (शूद्रादि) आगम से हीन हैं, यह मेरी समझ से कष्टदायक बात है । इन लोगों के लिए ब्राह्मण विद्वानों ने कौन सा आगम (शास्त्र) प्राचीन काल में बनाया था ? जो इनके (शूद्रों के) त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ, काम) के पाने में सहायक एवं दोनों लोकों (इहलोक-परलोक) में कल्याणकारक हो ॥ ५१-५२ ॥ सुमन्तुरुवाच साधु साधु महाबाहो ! शृणु मे परमं वचः । चतुर्णामपि वर्णानां यानि प्रोक्तानि श्रेयसे ॥ ५३ ॥ सुमन्तु बोले-हे महाबाहु ! बहुत ठीक (आपने पूछा है) । आप मेरी बातों को सुनिये जो चारों वर्णों के कल्याण के लिए कही गयी हैं ॥ ५३ ॥ धर्मशास्त्राणि राजेन्द्र ! शृणु तानि नृपोत्तम । विशेषतश्च शूद्राणां पावनानि मनीषिभिः ॥ ५४ ॥ हे राजेन्द्र ! नृपोत्तम ! जो धर्मशास्त्रादि विद्वानों द्वारा (चारों वर्गों के लिए) विशेषतः शूद्रों के लिए पावन बताये गये हैं, उन्हें सुनिये ॥ ५४ ॥ अष्टादशपुराणानि चरितं राघवस्य च । रामस्य कुरुशार्दूल ! धर्मकामार्थसिद्धये ॥ ५५ ॥ हे कुरुश्रेष्ठ । अठारहों पुराणों में श्रेष्ठ, रघुकुल में उत्पन्न भगवान् श्री रामचन्द्र का चरित्र-वर्णन धर्म, अर्थ एवं काम की सिद्धि के लिए किया गया है ॥ ५५ ॥ तथोक्तं भारतं वीर ! पाराशर्येण धीमता । वेदार्थसकलं योज्य३ धर्मशास्त्राणि च प्रभो ! ॥ ५६ ॥ हे वीर ! इसी प्रकार परम बुद्धिमान् पराशर के पुत्र व्यास जी द्वारा सकल वेदार्थ एवं धर्मशास्त्र के तत्वभूत महाभारत की रचना की गयी है ॥ ५६ ॥ कृपालुना कृतं शास्त्रं चतुर्णामिह श्रेयसे । वर्णानां भवमग्नानां कृतं पोतो ह्यनुत्तमम् ॥ ५७ ॥ अष्टादशपुराणानि अष्टौ व्याकरणानि च । ज्ञात्वा सत्यवतीसूनुश्चक्रे भारतसंहिताम् ॥ ५८ ॥ कृपालु व्यास जी द्वारा इस लोक में चारों वर्गों के कल्याण के लिए एवं (चारों वर्णों को) संसार रूपी सागर में निमग्न होने से बचाने के लिए अत्युत्तम नौका रूप महाभारतसंहिता की अठारहों पुराणों और आठों व्याकरणों को हृदयंगम करके रचना की है ॥ ५७-५८ ॥ यां श्रुत्वा पुरुषो राजन् ! मुच्यते ब्रह्महत्यया । प्रथमं प्रोच्यते ब्राह्मं द्वितीयं चैन्द्रमुच्यते ॥ ५९ ॥ हे राजन् ! जिसे सुनकर मनुष्य ब्रह्महत्या जैसे गम्भीर पाप से छुटकारा पा जाता है । पहला बह्मपुराण एवं दूसरा ऐन्द्र कहा जाता है ॥ ५९ ॥ याम्यं प्रोक्तं ततो रौद्रं वायव्यं वारुणं तथा । सावित्रं च तथा प्रोक्तमष्टमं वैष्णवं तथा ॥ ६० ॥ तत्पश्चात् याम्य, रौद्र, वायव्य, वारण, सावित्र एवं आठवाँ वैष्णव पुराण है ॥ ६० ॥ एतानि व्याकरणानि पुराणानि निबोध मे । ब्राह्मं पाद्मं वैष्णवं च शैवं भागवतं तथा ॥ ६१ ॥ तथान्यन्नारदीयं च मार्कण्डेयं च सप्तमम् । आग्नेयमष्टमं वीर भविष्यं नवमं स्मृतम् ॥ ६२ ॥ दशमं ब्रह्मवैवर्त्तं लैङ्गमेकादशं स्मृतम् । वाराहं द्वादशं प्रोक्तं स्कान्दं चैव त्रयोदशम् ॥ ६३ ॥ चतुर्दशं वामनं च कौर्मं पञ्चदशं स्मृतम् । मात्स्यं च गारुडं चैव ब्रह्माण्डं च ततः परम् ॥ ६४ ॥ एतानि कुरुशार्दूल धर्मशास्त्राणि पण्डितैः । साधारणानि प्रोक्तानि वर्णानां श्रेयसे सदा ॥ ६५ ॥ चतुर्णामिह राजेन्द्र श्रोतुमर्हाणि सुव्रत । किमिच्छसि महाबाहो श्रोतुमेषां नृपोत्तम ॥ ६६ ॥ ये ही आठ व्याकरण कहे गये हैं ॥ (पुराणों) का भी विवरण बतला रहा हूँ, सुनिये । ब्राह्म, पाद्म, वैष्णव, शैव, भागवत, नारदीय, मार्कण्डेय, आग्नेय, भविष्य, ब्रह्मवैवर्त, लैङ्ग, वाराह, स्कान्द, कौम, मात्स्य, गारुड़ और ब्रह्माण्ड हैं । हे कुरुशार्दूल ! पण्डितों ने सभी वर्ण वालों के शाश्वत कल्याण के लिए साधारणतया ये विविध धर्मशास्त्र कहे हैं । हे राजेन्द्र ! ये सभी चारों (वर्णों) के सुनने योग्य हैं । नृपोत्तम ! महाबाहु ! आप इनमें से कौन-सा सुनना चाहते हैं ? ॥ ६१-६६ ॥ शतानीक उवाच भारतं तु श्रुतं विप्र तातस्याङ्कगतेन तु । रामस्य चरितं चापि श्रुतं ब्रह्मन्समन्ततः ॥ ६७ ॥ शतानीक ने कहा-विप्र ! पिता जी की गोद में दैठकर मैं महाभारत की पवित्र कथा का श्रवण कर चुका हूँ, तथा रामचन्द्र जी के चरित को भी आद्योपान्त सुन चुका हूँ ॥ ६७ ॥ पुराणानि च विप्रेन्द्र भविष्यं न तु सुव्रत । पुराणं वद विप्रेन्द्र ! भविष्यं कौतुकं हि मे ॥ ६८ ॥ हे विप्रेन्द्र ! सुव्रत ! (इसी प्रकार) अन्यान्य पुराणों का भी (श्रवण कर चुका हूँ) किन्तु (अभी तक) भविष्य पुराण का श्रवण नहीं कर सका हूँ । हे विप्रेन्द्र ! (इसलिए) आप भविष्यपुराण की कथा कहें, उसके विषय में मुझे बड़ा कौतूहल है ॥ ६८ ॥ सुमन्तुरुवाच साधु साधु महाबाहो साधु पृष्टोऽस्मि ४ मानद । शृणु मे वदतो राजन् पुराणं नवमं महत् ॥ ६९ ॥ सुमन्तु बोले-हे मानव ! हे महाबाहु ! आप ने बहुत ही सुन्दर पूछा । हे राजन् । उस महान् भविष्य पुराण को, जो क्रम से नवम संख्या में है, मैं कह रहा हूँ, सुनिये ॥ ६९ ॥ यच्छ्रुत्वा सर्वपापेभ्यो मुच्यते मानवो नृप । अश्वमेधफलं प्राप्य गच्छेद् भानौ न संशयः ॥ ७० ॥ हे राजन् । जिसको सुनकर मनुष्य समस्त पापकर्मों से मुक्ति पा जाता है । इस भविष्य पुराण का श्रवण करने वाला अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त कर सूर्यलोक में चला जाता है, इसमें सन्देह नहीं ॥ ७० ॥ इदं तु ब्रह्मणा प्रोक्तं धर्मशास्त्रमनुत्तमम् । विदुषा ब्राह्मणेनेदमध्येतव्यं प्रयत्नतः ५ ॥ ७१ ॥ इस परम श्रेष्ठ धर्मशास्त्र को स्वयं ब्रह्मा ने कहा था, विद्वान् ब्राह्मण को इसका प्रयत्नपूर्वक अध्ययन करना चाहिये ॥ ७१ ॥ शिष्येभ्यश्चैव वक्तव्यं चातुर्वर्ण्येभ्य एव हि । अध्येतव्यं न चान्येन ब्राह्मणं क्षत्रियं विना ॥ श्रोतव्यमेव शूद्रेण नाध्येतव्यं कदाचन ६ ॥ ७२ ॥ और उसे इसका अपने चारों वर्गों के शिष्यों को उपदेश करना चाहिये । किन्तु बाह्मण और क्षत्रिय को छोड़कर इसका अध्ययन अन्य वर्ण वालों को नहीं करना चाहिये । शूद्रों को केवल इसका श्रवण करना चाहिये, अध्ययन तो कभी नहीं करना चाहिये ॥ ७२ ॥ देवार्चां पुरतः कृत्वा ब्राह्मणैश्च नृपोत्तम । श्रोतव्यमेव शूद्रैश्च तथान्यैश्च द्विजातिभिः ॥ ७३ ॥ नृपोत्तम ! सर्वप्रथम देवता की पूजा कर ब्राह्मणों से उसका श्रवण करना चाहिये । इसी प्रकार अन्य द्विजातियों से भी शूद्र इसका श्रवण ही कर सकता है ॥ ७३ ॥ श्रौतं स्मार्तं हि वै धर्मं प्रोक्तमस्मिन्नृपोत्तम । तस्माच्छूद्रैर्विना विप्रान्न श्रोतव्यं कथञ्चन । ७४ हे नृपोत्तम ! इस भविष्य पुराण में समस्त श्रौत-स्मार्त धर्मों का उपदेश किया गया है । इसलिए शूद्रों को विप्रों के बिना अन्य किसी प्रकार इसका श्रवण नहीं करना चाहिये ॥ ७४ ॥ इदं शास्त्रमधीयानो ब्राह्मणः संशितव्रतः । मनोवाग्देहजैर्नित्यं कर्मदोषैर्न लिम्पते ॥ ७५ ॥ नियम-व्रत-परायण ब्राह्मण इस शास्त्र (भविष्य पुराण) का अध्ययन कर मानसिक, वाचिक एवं शारीरिक-इन तीनों पाप-कर्मों से उत्पन्न होने वाले दोषों से सर्वदा मुक्ति प्राप्त करता है ॥ ७५ ॥ शृण्वन्ति चापि ये राजन् भक्त्या वै ब्राह्मणादयः । मुच्यन्ते पातकैः सर्वैर्गच्छन्ति च दिवं प्रभो ॥ ७६ ॥ हे राजन् ! जो व्राह्मणादि योनियों में उत्पन्न होने वाले मनुष्य भक्तिपूर्वक इसका श्रवण करते हैं, प्रभो! वे भी अपने समस्त पापों से छूटकर स्वर्गलोक को जाते हैं ॥ ७६ ॥ श्रावयेच्चापि यो विप्रः सर्वान्वर्णान्नृपोत्तम । स गुरुः प्रोच्यते तात वर्णानामिह सर्वशः ॥ ७७ ॥ नृपोत्तम ! जो ब्राह्मण समस्त वर्णों को इसका श्रवण कराता है, हे तात! वह सभी वर्गों का गुरु कहा जाता है ॥ ७७ ॥ स पूज्यः सर्वकालेषु सर्वैर्वर्णैर्नराधिप । पृथिवीं च तथैवेमां कृत्स्नामेकोऽपि सोऽर्हति ॥ ७८ ॥ नराधिप ! वह ब्राह्मण सर्वदा सभी वर्गों का पूज्य माना जाता है । इस परम विस्तृत समस्त पृथ्वी के लिए वह अकेला ही योग्य अधिकारी है ॥ ७८ ॥ इदं स्वस्त्ययनं श्रेष्ठमिदं बुद्धिविवर्धनम् । इदं यशस्यं सततमिदं निःश्रेयसं परम् ॥ ७९ ॥ यह परम कल्याणप्रद, श्रेष्ठ तथा बुद्धि को बढ़ाने वाला है । यह परम यशोदायी एवं शाश्वतिक निःश्रेयस का प्रदाता है ॥ ७९ ॥ अस्मिन्धर्मोऽखिलेनोक्तो गुणदोषौ च कर्मणाम् । चतुर्णामपि वर्णानामाचारश्चापि शाश्वतः ॥ ८० ॥ इसमें सभी धर्मों का उपदेश किया गया है, कर्मों के गुणों एवं दोषों को कहा गया है । चारों वर्गों के सदा से चले आने वाले आचारों का भी विवेचन किया गया है ॥ ८० ॥ आचारः प्रथमो धर्मः श्रुत्युक्तश्च नरोत्तम । तस्मादस्मिन्समायुक्तो नित्यं स्यादात्मवान्द्विजः ॥ ८१ ॥ हे नरोत्तम ! आचार सभी धर्मों में प्रथम माना जाता है, श्रुतियों में इसका उपदेश किया गया है, यही कारण है कि इसमें सर्वदा निष्ठा रखने वाला ब्राह्मण आत्मवान् (मन को वश में करने वाला) होता है ॥ ८१ ॥ आचाराद्विच्युतो विप्रो न वेदफलमश्नुते । आचारेण च संयुक्तः सम्पूर्णफलभाक्स्मृतः ॥ ८२ ॥ आचारों से गिरा हुआ विप्र वेदोक्त फलों का उपभोग नहीं करता और आचार से संयुक्त रहने वाला सम्पूर्ण फलों का अधिकारी कहा जाता है ॥ ८२ ॥ एवमाचारतो दृष्ट्वा धर्मस्य मुनयो गतिम् । सर्वस्य तपसो मूलमाचारं जगृहुः परम् ॥ ८३ ॥ मुनियों ने आचार द्वारा धर्म की गति को देखकर सभी तपस्याओं का परम मूल आचार ही को ठहराया ॥ ८३ ॥ अन्ये च मानवा राजन्नाचारं संश्रिता सदा । एवमस्मिन्पुराणे तु आचारस्य तु कीर्तनम् ॥ ८४ ॥ हे राजन् । इसी कारण से अन्यान्य मानवगण भी सर्वदा आचार का ही अवलम्ब लेते हैं । इस पुराण में उसी आचार का कीर्तन किया गया है ॥ ८४ ॥ वृत्तान्तानि च राजेन्द्र तथा चोक्तानि पण्डितैः । त्रिलोक्यास्तु समुत्पत्तिः संस्कारविधिरुत्तमः ॥ श्रवणं चेतिहासस्य विधानं कथ्यते नृप ॥ ८५ ॥ हे राजेन्द्र ! इसके अतिरिक्त पण्डितों ने उसमें अनेक वृत्तान्तों का वर्णन किया है । तीनों लोकों की उत्पत्ति का वर्णन है, उत्तम संस्कार विधि विस्तार पूर्वक कही गई है । इतिहास के श्रवण का विधान कहा गया है ॥ ८५ ॥ तथास्मिन्कथ्यते राजन्माहात्म्यं वाचकस्य तु । व्रतचर्याश्रमाचाराः स्नातकस्य परो विधिः ॥ ८६ ॥ दारादिगमनं चैव विवाहानां च लक्षणम् । पुंसां च लक्षणं राजन्योषितां चात्र कथ्यते ॥ ८७ ॥ हे राजन् ! इसके अतिरिक्त वाचकों का माहात्म्य बतलाया गया है, विविध प्रकार से व्रतों की विधि, आश्रमों के आचार, स्नातक की क्रियाएँ, स्त्रीगमन, विवाह के लक्षण, पुरुषों के लक्षण तथा स्त्रियों के लक्षण कहे गये हैं ॥ ८६-८७ ॥ महायज्ञविधानं च शास्त्रकल्पं च शाश्वतम् । पृथिव्या लक्षणं तात देवार्चायाः सुलक्षणम् ॥ ८८ ॥ वृत्तीनां लक्षणं चैव स्नातकस्य व्रतानि च । भक्ष्याभक्ष्यं च शौचं च द्रव्याणां शुद्धिरेव च ॥ ८९ ॥ स्त्रीधर्मयोगस्तापस्यं मोक्षः संन्यास एव च । राज्ञश्च धर्मो ह्यखिलः कार्याणां च विनिर्णयः ॥ ९० ॥ हे तात! महान् यज्ञों का विधान, शाश्वतिक शास्त्र-कल्प, पृथ्वी के लक्षण, देवपूजा के लक्षण, जीविकाओं के लक्षण, स्नातकों के नियमादि, भक्ष्य, अभक्ष्य, शौचाचार, द्रव्यों की शुद्धि, स्त्री-धर्म, योग तपस्या, मोक्ष व संन्यास, राजाओं के समस्त धर्ग तथा उनके कार्यों के निर्णय इसमें वर्णित हैं ॥ ८८-९० ॥ माहात्म्यं सवितुश्चात्र तीर्थानां च विशाम्पते । नारायणस्य माहात्म्यं तथा रुद्रस्य कथ्यते ॥ ९१ ॥ महाभाग्यं च विप्राणां माहात्म्यं पुस्तकस्य च । दुर्गादेव्यास्तथा चोक्तं सत्यस्य च महामते ॥ ९२ ॥ विशाम्पते! (हे राजन्! इसके अतिरिक्त) सविताका माहात्म्य, तीर्थों का माहात्म्य, नारायण का माहात्म्य, विप्रों का महाभाग्य, पुस्तक का माहात्म्य .तथा हे महामते ! दुर्गा देवी का माहात्म्य और सत्य का माहात्म्य बतलाया गया है ॥ ९१-९२ ॥ संक्षिप्तं संविधानं च धर्मं स्त्रीपुंसयोरपि । विभागं धर्मद्यूतं च कथकानां च शोधनम् ॥ ९३ ॥ वैश्यशूद्रोपचारं च संकीर्णानां च संभवम् । आपद्धर्मं च वर्णानां प्रायश्चित्तविधिं तथा ॥ ९४ ॥ संध्याविधिं प्रेतशुद्धिं स्नानतर्पणयोर्विधिम् । वैश्वदेवविधिं चापि तथा भोज्यविधिं नृप ॥ ९५ ॥ लक्षणं दन्तकाष्ठस्य चरणव्यूहमुत्तमम् । संसारगमनं चैव त्रिविधं कर्मसम्भवम् ॥ ९६ ॥ नैःश्रेयसं कर्मणां च गुणदोषपरीक्षणम् । दाराणां लक्षणं प्रोक्तं तथा पात्रपरीक्षणम् ॥ ९७ ॥ प्रसूतिं चापि गर्भस्य तथा कर्मफलं नृप । जातिधर्मान्कुलधर्मान्वेदधर्मांश्च पार्थिव ॥ ९८ ॥ स्त्री पुरुषों के धर्म, संक्षिप्त उपाय, धर्मद्यूत, उसका विभाग, कथकों का शोधन, वैश्य और शूद्र वर्णों के उपचार, संकीर्ण (संकर) वर्गों की उत्पत्ति, सभी वर्गों के आपत्तिकालिकधर्म, पाप-कर्मों के प्रायश्चित्तों की विधि, सन्ध्या-विधि,प्रेत-शुद्धि,स्नान और तर्पण की विधि, वैश्वदेव की विधि, भोज्य-विधि, दन्तकाष्ठ का लक्षण, उत्तम चरणव्यूह (व्यास का बनाया हुआ एक विशेष ग्रन्य जिसमें वैदिक शाखाओं का विशेष रूप से वर्णन किया गया है) विविध कर्मों के कारण संसार में जन्म लेने के वृत्तान्त, कर्मों के अनुसार निःश्रेयस् की प्राप्ति, कर्मों के गुणों औरतोषों की परीक्षा, स्त्रियों के लक्षण, पात्रों की परीक्षा गर्भ एवं प्रसूतिका के विषय एवं कर्मफल का वर्णन किया गया है तथा जाति-धर्म, कुल-धर्म एवं वैदिक धमों की चर्चा की गई है ॥ ९३-९८ ॥ वैतानव्रतिकानां च तथासौ प्रोक्तवान्विभुः । ब्रह्मा कुरुकुलश्रेष्ठ शंकराय महात्मने ॥ ९९ ॥ हे कुरुकुलश्रेष्ठ ! तथा वैतानिकों के व्रतों को भगवान् ब्रह्मा ने महात्मा शंकर को बताया था ॥ ९९ ॥ शंकरेण तथा विष्णोः कथितं कुरुनन्दन । विष्णुनापि पुनः प्रोक्तं नारदाय महीपते ॥ १०० ॥ नारदात्प्राप्तवाञ्छक्रः शक्रादपि पराशरः । पराशरात्ततो व्यासो व्यासादपि मया विभो ॥ १०१ ॥ एवं परम्पराप्राप्तं पुराणमिदमुत्तमम् । शृणु त्वमपि राजेन्द्र मत्सकाशात्परं हितम् ॥ १०२ ॥ कुरुनन्दन ! इसके अनन्तर शंकर ने भगवान् विष्णु को इसका उपदेश किया । महीपते ! पुनः भगवान् विष्णु ने नारद के लिए इसका उपदेश किया । नारद से इन्द्र ने प्राप्त किया, इन्द्र से पराशर ने प्राप्त किया । पराशर से व्यास ने और व्यास से मैंने प्राप्त किया । इस परम्परा से मुझे इस उत्तम पुराण की प्राप्ति हुई है । हे राजेन्द्र ! तुम भी मुझसे इस हितकारक उत्तम पुराण को सुनो ॥ १००-१०२ ॥ सर्वाण्येव पुराणानि संज्ञेयानि नरर्षभ । द्वादशैव सहस्राणि प्रोक्तानीह मनीषिभिः ॥ १०३ ॥ पुनर्वृद्धिं गतानीह आख्यानैर्विविधैर्वृष । यथा स्कान्दं तथा चेदं भविष्यं कुरुनन्दन ॥ १०४ ॥ हे नरश्रेष्ठ ! समस्त पुराण को पण्डित लोग बारह सहस्र ही बतलाते हैं, किन्तु पीछे के विविध आख्यानों के मिल जाने से उक्त संख्या में बहुत वृद्धि हो गई है । कुरुनन्दन ! स्कन्दपुराण में जिस प्रकार वृद्धि हुई है उसी प्रकार इस भविष्य (पुराण) में भी वृद्धि हुई है ॥ १०३-१०४ ॥ स्कान्दं शतसहस्रं तु लोकानां ज्ञातमेव हि । भविष्यमेतदृषिणा लक्षार्द्धं संख्यया कृतम् ॥ १०५ ॥ स्कन्दपुराण की श्लोक संख्या एक लाख है । यह बात तो सबको ज्ञात ही है । इस भविष्य पुराण की संख्या ऋषि ने पचास सहस्र निश्चित किया है ॥ १०५ ॥ तच्छ्रुत्वा पुरुषो भक्त्या इदं फलमवाप्नुयात् । ऋद्धिर्वृद्धिस्तथा श्रीश्च भवन्ति तस्य निश्चितम् ॥ १०६ ॥ इस भविष्य पुराण को भक्तिपूर्वकं सुनकर मनुष्य सब प्रकार की ऋद्धि, बृद्धि एवं लक्ष्मी को निश्चित रूप से प्राप्त करता है ॥ १०६ ॥ इति श्रीभविष्ये महापुराणे शतार्द्धसाहस्र्यां संहितायां ब्राह्मे पर्वणि कथाप्रस्तावने प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥ श्री भविष्यमहापुराण के ब्राह्म-पर्व में कथा की प्रस्तावना में प्रथम अध्याय समाप्त ॥ १ ॥ |