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भविष्य महापुराणम् प्रथमं ब्राह्मपर्वम् - द्वितीयोऽध्यायः सृष्टिवर्णनं पुराणानां ब्रह्मपञ्चमास्यादुत्पत्तिवर्णनञ्च
सृष्टि का वर्णन तथा ब्रह्मा के पञ्चम मुख से पुराणों की उत्पत्ति का वर्णन - सुमन्तुरुवाच - शृणुष्वेदं महाबाहो पुराणं पञ्चलक्षणम् । यच्छ्रुत्वा मुच्यते राजन्पुरुषो ब्रह्महत्यया ॥ १ ॥ सुमन्त बोले-राजन् ! महाबाहु ! पाँचों लक्षणों से समन्वित इस (भविष्य) पुराण को सुनिये, जिम सुनकर मनुष्य ब्रह्महत्या से छूट जाता है ॥ १ ॥ पर्वाणि चात्र वै पञ्च कीर्तितानि स्वयम्भुवा । प्रथमं कथ्यते ब्राह्मं द्वितीयं वैष्णवं स्मृतम् ॥ २ ॥ स्वयम्भू ने इसमें पाँच पर्वो की चर्चा की है । इसका पहला पर्व ब्राह्म है, दूसरा वैष्णव है ॥ २ ॥ तृतीयं शैवमाख्यातं चतुर्थं त्वाष्ट्रमुच्यते । पञ्चमं प्रतिसर्गाख्यं सर्वलोकैः सुपूजितम् ॥ ३ ॥ तीसरा शैव है, चौथा त्वाष्ट्र कहा जाता है, पाँचवाँ सभी लोगों द्वारा सुपूजित प्रतिसर्ग नामक पर्व है ॥ ३ ॥ एतानि तात पर्वाणि लक्षणानि निबोध मे । सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च ॥ ४ ॥ वंशानुचरितं चैव पुराणं पञ्चलक्षणम् । चतुर्दशभिर्विद्याभिर्भूषितं कुरुनन्दन ॥ ५ ॥ हे तात (भविष्य महापुराण के) ये पाँच पर्व हैं । उनके लक्षणों को सुनिये । सर्ग (सृष्टिप्रक्रिया) प्रतिसर्ग, (स्वयम्भूकी सृष्टि के अनन्तर दक्ष आदि प्रजापतियों द्वारा की गई सृष्टि) वंश, मन्वन्तर एकहत्तर दिव्य युगों का एक मन्वन्तर होता है एवं वंशों में उत्पन्न होने वाले राजाओं आदि के चरित-ये पाँच पुराणों के लक्षण कहे गये हैं । हे कुरुनन्दन ! यह पुराण चौदहों विद्याओं से विभूषित है ॥ ४-५ ॥ अङ्गानि चतुरो वेदा मीमांसा न्यायविस्तरः । पुराणं धर्मशास्त्रं च विद्या ह्येताश्चतुर्दश ॥ ६ ॥ चारों वेद, वेदों के छहों अंग, मीमांसा, विस्तृत न्याय शास्त्र, पुराण और धर्मशास्त्र-ये चौदह विद्याएँ हैं ॥ ६ ॥ आयुर्वेदो धनुर्वेदो गान्धर्वश्चैव ते त्रयः । अर्थशास्त्रं चतुर्थं तु विद्या ह्यष्टादशैव ताः ॥ ७ ॥ आयुर्वेद, धनुर्वेद, गान्धर्ववेद और अर्थशास्त्र-इन चारों को मिलाकर दे विद्याएँ कुल अठारह होती हैं ॥ ७ ॥ प्रथमं कथ्यते सर्गो भूतानामिह सर्वशः । यच्छ्रुत्वा पापनिर्मुक्तो याति शान्तिमनुत्तमाम् ॥ ८ ॥ इस भविष्यपुराण में सर्वप्रथम समस्त जीवों की सृष्टि का वर्णन किया गया है, जिसे सुनकर मनुष्य पापरहित होकर परम शान्ति प्राप्त करता है ॥ ८ ॥ जगदासीत्पुरा तात तमोभूतमलक्षणम् । अविज्ञेयमतर्क्यं च प्रसुप्तमिव सर्वशः ॥ ९ ॥ चाहे तात ! यह जगत् पहले अन्धकाराच्छन्न था, इसका कोई लक्षण नहीं था, किसी प्रकार भी इसका ज्ञान नहीं हो सकता था, अतर्य एवं चारों ओर से सोये हुए की तरह था ॥ ९ ॥ ततः स भगवानीशो ह्यव्यक्तो व्यञ्जयन्निदम् । महाभूतानि वृत्तौजाः प्रोत्थितस्तमनाशनः ॥ १० ॥ योऽसावतीन्द्रियोऽग्राह्यः सूक्ष्मोऽव्यक्तः सनातनः । सर्वभूतमयोऽचिन्त्यः स एष स्वयमुत्थितः ॥ ११ ॥ तदनन्तर सर्वैश्वर्यशालो, वे भगवान् अव्यक्त रूप से जगत् को व्यक्त करते हुए, महान् भूतों को प्रकट करते हुए तथा अन्धकार-राशि को नष्ट करते हुए उठते हैं । जो इन्द्रिय-समूहों से परे, अग्राह्य, सूक्ष्म अव्यक्त, सनातन (सर्वदाएक रूप में स्थिर रहने वाले) सर्वजीवमय एवं अचिन्त्य कहे जाते हैं, वे उस अवसर पर स्वयं उठ पड़ते हैं ॥ १०-११ ॥ योऽसौ षड्विंशको लोके तथा यः पुरुषोत्तमः । भास्करश्च महाबाहो परं ब्रह्म च कथ्यते ॥ १२ ॥ वे लोक में छब्बीसवें पदार्थ के नाम से विख्यात हैं, उन्हीं की पुरुषोत्तम नाम से प्रसिद्धि है । हे महाबाहु ! वे ही भास्कर एवं परम ब्रह्म भी कहे जाते हैं ॥ १२ ॥ सोऽभिध्याय शरीरात्स्वात्सिसृक्षुर्विविधाः प्रजाः । अत एव ससर्जादौ तासु वीर्यमवासृजत् ॥ १३ ॥ वे भगवान् उस समय अपने शरीर से विविध प्रकार की प्रजाओं की सृष्टि करने की इच्छा से चिन्तन करके सर्वप्रथम जल की सृष्टि करते हैं, और उसमें वीर्य छोड़ते हैं ॥ १३ ॥ यस्मादुत्पद्यते सर्वं सदेवासुरमानुषम् । बीजं शुक्रं तथा रेत उग्रं वीर्यं च कथ्यते ॥ १४ ॥ उसी से समस्त देवताओं, असुरों और मनुष्यों समेत इस जगत् की उत्पत्ति होती है । बीज, शुक्र, रेत, उग्र और वीर्य भी उसी को कहते हैं ॥ १४ ॥ वीर्यस्यैतानि नामानि कथितानि स्वयम्भुवा । तदण्डमभवद्धैमं ज्वालामालाकुलं विभो ॥ १५ ॥ स्वयंभू ने वीर्य के इन उपर्युक्त नामों का वर्णन किया है । विभु ! वह वीर्य ज्वाला-समूह से व्याप्त सुवर्ण के अण्डे के रूप में परिणत हो गया ॥ १५ ॥ यस्मिञ्जज्ञे स्वयं ब्रह्मा सर्वलोकपितामहः । सुरज्येष्ठश्चतुर्वक्त्रः परमेष्ठी पितामहः ॥ १६ ॥ क्षेत्रज्ञः पुरुषो वेधाः शम्भुर्नारायणस्तथा । पर्यायवाचकैः शब्दैरेव ब्रह्मा प्रकीर्त्यते ॥ १७ ॥ जिसमें समस्त लोकों के पितामह भगवान् ब्रह्मा स्वयमेव उत्पन्न हुए । वे पितामह ब्रह्मा समस्तं देवगणों में श्रेष्ठ, चार मुख वाले,परमेष्ठी, क्षेत्रज्ञ, पुरुष,वेधा,शम्भु एवं नारायण-इन पर्यायवाची शब्दोंद्वारापुकारे जाते हैं ॥ १६-१७ ॥ सदा मनीषिभिस्तात विरञ्चिः कञ्जजस्तथा२ । आपो नारा इति प्रोक्ता आपो वै नरसूनवः ॥ १८ ॥ हे तात ! मनीषी लोग उन्हें विरञ्चि,कमलोद्भद आदि नामों से सर्वदा पुकारते हैं । उनके नारायण नाम पड़ने का कारण यह है कि जल शब्द 'नार' और 'नर-पुत्र' दोनों अर्थों में प्रयुक्त होता है ॥ १८ ॥ ता यदस्यायनं पूर्वं तेन नारायणः स्मृतः । अरमित्येव शीघ्राय नियताः कविभिः कृताः ॥ १९ ॥ वह जल (नार) ही सबसे पहले इनका अयन (निवास) रहा है, इसीलिए वे नारायण के नाम से स्मरण किये जाते हैं । कविगण (अरम्) शब्द का शीघ्र अर्थ में प्रयोग करते हैं ॥ १९ ॥ आप एवार्णवीभूत्वा सुशीघ्रास्तेन ता नराः । यत्तत्कारणमव्यक्तं नित्यं सदसदात्मकम् ॥ २० ॥ तद्विसृष्टः स पुरुषो लोके ब्रह्मेति कीर्त्त्यते । एवं स भगवानण्डे तत्त्वमेव निरूप्य वै ॥ २१ ॥ ध्यानमास्थाय राजेन्द्र तदण्डमकरोद्द्विधा । शकलाभ्यां च राजेन्द्र दिवं भूमिं च निर्ममे ॥ २२ ॥ जल ही समुद्र होकर (प्रवाह के रूप में) शीघ्रता से युक्त होता है । अतः उसका नाम 'नार' कहा जाता है । जो सबके कारणभूत, अव्यक्त, नित्य, सत् एवं असत् हैं । उनसे उत्पन्न होकर वह पुरुष लोक में 'ब्रह्मा' नाम से प्रसिद्ध हुआ । इस प्रकार सृष्टि करने का विचार-निश्चित कर भगवान् ने उस सुवर्ण-अंड में समस्त तत्त्वों का विनिश्चय करके और पूर्व रचित सृष्टि के क्रम का ध्यान कर उसको दो भागों में विभक्त कर दिया । हे राजेन्द्र ! अण्ड के उन दोनों भागों से आकाश और पृथ्वी का निर्माण किया ॥ २०-२२ ॥ अन्तर्व्योम दिशश्चाष्टौ वारुणं स्थानमेव हि । ऊर्ध्वं महान्गतो राजन् समन्ताल्लोकभूतये ॥ २३ ॥ फिर अन्तर्वर्ती आकाश, आठों दिशाएँ और समस्त समुद्रों का निर्माण किया । हे राजन् ! इस प्रकार लोककल्याणार्थ उस महान् ने ऊर्ध्वगत होकर इन सब का निर्माण किया ॥ २३ ॥ महतश्चाप्यहंकारस्तस्माच्च त्रिगुणा अपि । त्रिगुणा अतिसूक्ष्मास्तु बुद्धिगम्या हि भारत ॥ २४ ॥ महत्तत्त्व से अहंकार, उससे तीनों गुण (सत्त्व, रजस् और तमस् की भी उत्पत्ति हुई) । हे भारत ! वे तीनों गुण परम सूक्ष्म हैं, केवल बुद्धि द्वारा वे जाने जा सकते हैं ॥ २४ ॥ उत्पत्तिहेतुभूता वै भूतानां महतां नृप । तेषामेव गृहीतानि शनैः पञ्चेन्द्रियाणि तु ॥ २५ ॥ हे नृप ! वे त्रिगुण समस्त महान् भूतों की उत्पत्ति के मूल कारण हैं । उन्हीं के द्वारा पाँचों इन्द्रियाँ शनैः शनैः उत्पन्न हुई हैं ॥ २५ ॥ तथैवावयवाः सूक्ष्माः षण्णामप्यमितौजसाम् ॥ २६ ॥ संनिवेश्यात्ममात्रासु स राजन्भगवान्विभुः । भूतानि निर्ममे तात सर्वाणि विधिपूर्वकम् ॥ २७ ॥ उन परम तेजोमय छहों के अवयव भी उसी प्रकार परम सूक्ष्म हैं । हे राजन् ! परमैश्वर्यशाली भगवान् ने आत्ममात्राओं में सन्निविष्ट होकर समस्त भूतों की विधिपूर्वक सृष्टि की ॥ २६-२७ ॥ यन्मूर्त्यवयवाः सूक्ष्मास्तस्येमान्याश्रयाणि षट् । तस्माच्छरीरमित्याहुस्तस्य मूर्तिं मनीषिणः ॥ २८ ॥ जो मूर्ति के परम सूक्ष्म अवयव हैं, वे ही छह उसके आश्रय कहे जाते हैं । उसी की मूर्ति को मनीषीगण शरीर नाम से बतलाते हैं ॥ २८ ॥ महान्ति तानि भूतानि आविशन्ति ततो विभुम् । कर्मणा सह राजेन्द्र सगुणाश्चापि वै गुणाः ॥ २९ ॥ तेषामिदं तु सप्तानां पुरुषाणां महौजसाम् । सूक्ष्माभ्यो मूर्तिमात्राभ्यः सम्भवत्यव्ययाद्वयम् १ ॥ ३० ॥ भूतादिमहतस्तात येन व्याप्तमिदं जगत् । तस्मादपि महाबाहो पुरुषाः पञ्च एव हि ॥ ३१ ॥ केचिदेवं परां तात सृष्टिमिच्छन्ति पण्डिताः । अन्येऽप्येवं महाबाहो प्रवदन्ति मनीषिणः ॥ ३२ ॥ हे राजेन्द्र ! वे पूर्व जन्म के कर्मों एवं गुणों के साथ महान् भूतगण उस विभु में आविष्ट हो जाते हैं वे तीनों गुण भी उसी में आविष्ट हो जाते हैं । अविनाशी से महान् तेजस्वी उन सातों पुरुषों की सूक्ष्म मूर्ति मात्राओं द्वारा इस विनाशी जगत् की उत्पत्ति होती है । हे तात ! भूतादि महान् से यह जगत् व्याप्त है । हे महाबाहु ! उससे भी ये पाँच पुरुष ही उत्पन्न होते हैं । हे तात ! कुछ पण्डित जन इस प्रकार परम सृष्टि की इच्छा करते हैं । हे महाबाहु ! अन्य पण्डितजन भी ऐसा ही कहते हैं ॥ २९-३२ ॥ योऽसावात्मा परस्तात कल्पादौ सृजते तनुम् । प्रजनश्च महाबाहो सिसृक्षुर्विविधाः प्रजाः ॥ ३३ ॥ हे तात ! जो यह परम आत्मा के नाम से विख्यात हैं वे ही कल्प के प्रारम्भ में स्वयं शरीर धारण करते हैं, हे महाबाहु ! वे ही इस समस्त सृष्टि के उत्पत्तिकर्ता हैं । स्वयं शरीर धारण कर विविध प्रकार की प्रजाओं को उत्पन्न करने की इच्छा से वे ही समस्त जगत् की सृष्टि करते हैं ॥ ३३ ॥ तेन सृष्टः पुद्गलस्तु प्रधानं विशते नृप । प्रधानं क्षोभितं तेन विकारान्युजते बहून् ॥ ३४ ॥ हे राजन् ! उन्हीं के द्वारा सिरजे गये पुद्गल (परमाणु) प्रधान (प्रकृति) प्रवेश करते हैं, उनके द्वारा क्षुब्ध होकर प्रधान अनेक विकारों की सृष्टि करता है ॥ ३४ ॥ उत्पद्यते महांस्तस्मात्ततो भूतादिरेव हि । उत्पद्यते विशालं च भूतादेः कुरुनन्दन ॥ ३५ ॥ जिससे महत् की उत्पत्ति होती है और उसी से (महत् से) आदि भूत की उत्पत्ति होती है । हे कुरुनन्दन ! उन भूतवर्गों से विशाल की उत्पत्ति होती है ॥ ३५ ॥ विशालाच्च हरिस्तात हरेश्चापि वृकास्तथा । वृकैर्मुष्णन्ति च बुधास्तस्मात्सर्वं भवेन्नृप ॥ ३६ ॥ हे तात ! विशाल से हरिऔरहरि सेवकों की उत्पत्ति होती है । उन दुकों द्वारा बुद्धिमान् जन छिपाये जाते हैं ! हे राजन् ! उसी से समस्त जगत की उत्पत्ति होती है ॥ ३६ ॥ तथैषामेव राजेन्द्र प्रादुर्भवति वेगतः । मात्राणां कुरुशार्दूल विबोधस्तदनन्तरम् १ ॥ ३७ ॥ हे राजेन्द्र ! कुश्शार्दूल ! इन्हीं के वेग से मात्राओं के विबोध की उत्पत्ति होती है । उसके अनन्तर मात्राओं का विबोध होता है ॥ ३७ ॥ तस्मादपि हृषीकाणि विविधानि नृपोत्तम । तथेयं सृष्टिराख्याताऽऽराध्यतः कुरुनन्दन ॥ ३८ ॥ नपोत्तम ! तदनन्तर उसी से विविध इन्द्रिय समूहों की उत्पत्ति होती है । हे कुरुनन्दन ! इस प्रकार इस सृष्टि की आराधना द्वारा उत्पत्ति कही जाती है ॥ ३८ ॥ भूयो निबोध राजेन्द्र भूतानामिह विस्तरम् । गुणाधिकानि सर्वाणि भूतानि पृथिवीपते ॥ ३९ ॥ हे राजेन्द्र ! अब भूतों का विस्तार किस प्रकार हुआ-इसे फिर से सुनिये । हे पृथ्वीपति ! उन सब भूत-समूहों में किसी न किसी गुण का प्राधान्य रहता है ॥ ३९ ॥ आकाशमादितः कृत्वा उत्तरोत्तरमेव हि । एकं द्वौ च तथा त्रीणि चत्वारश्चापि पञ्च च ॥ ४० ॥ सर्वप्रथम आकाश की सृष्टि करके उसके उत्तरोत्तर एक, दो, तीन, चार और पाँच भूतों का इस प्रकार निर्माण करते हैं ॥ ४० ॥ ततः स भगवान्ब्रह्मा पद्मासनगतः प्रभुः । सर्वेषां तु स नामानि कर्माणि च पृथक्पृथक् ॥ ४१ ॥ तदनन्तर सर्वेश्वर्यशाली भगवान् ब्रह्मा पद्मासन पर विराजमान होकर सबके नाम एवं काम का पृथक्-पृथक् निर्णय करते हैं ॥ ४१ ॥ वेदशब्देभ्य एवादौ पृथक्संस्थाश्च निर्ममे । कर्मोद्भवानां देवानां सोऽसृजद्देहिनां प्रभुः ॥ ४२ ॥ वेद शब्द से ही सर्वप्रथम सब की अवस्थिति का निर्माण किया । प्रभु ने इस प्रकार पूर्व जन्म के कर्मों के अनुसार शरीरधारण करने वाले देवताओं की सृष्टि की ॥ ४२ ॥ तुषितानां गणं राजन्यज्ञं चैव सनातनम् । दत्त्वा वीर समानेभ्यो गुह्यं ब्रह्म सनातनम् ॥ ४३ ॥ दुदोह यज्ञसिद्धयर्थमृग्यजुः सामलक्षणम् । कालं कालविभक्तीश्च ग्रहानृतूंस्तथा नृप ॥ ४४ ॥ सरितः सागराञ्छैलान्समानि विषमाणि च । कामं क्रोधं तथा वाचं रतिं चापि कुरुद्वह ॥ ४५ ॥ हे राजन् ! तुषितों के गण की उत्पत्ति इस प्रकार हुई । फिर सर्वदा प्रचलित रहने वाले यज्ञों की उत्पत्ति हुई । हे वीर ! तदनन्तर समान शक्ति सम्पन्न सबको परम गोपनीय ब्रह्मज्ञान का दान देकर उन्होंने यज्ञों की सिद्धि के लिए ऋक्, यजु, साम नामक वेदों का दोहन किया, फिर काल, काल के विविध भेदों एवं अवयवों, ग्रहों एवं ऋतुओं, नदियों, सागरों, पर्वतों, समान एवं ऊँच-नीच भूमियों, काम, क्रोध, वचन, रति (प्रेम) आदि का निर्माण किया ॥ ४३-४५ ॥ सृष्टिं ससर्ज राजेन्द्र सिसृक्षुर्विविधाः प्रजाः । धर्माधर्मौ विवेकाय कर्मणां च तथासृजत् ॥ ४ ॥६ हे राजेन्द्र ! इसी प्रकार विविध प्रकार की प्रजाओं की सृष्टि करने की इच्छा से,धर्म, अधर्म के विवेक के लिए कर्मों की सृष्टि की ॥ ४६ ॥ सुखदुःखादिभिर्द्वन्द्वैः प्रजाश्चेमा न्ययोजयत् । अण्व्यो मात्राविनाशिन्यो दशार्धानां तु याः स्मृताः ॥ ४७ ॥ ताभिः सर्वमिदं वीर सम्भवत्यनुपूर्वशः । यत्कृतं तु पुरा कर्म सन्नियुक्तेन वै नृप ॥ ४८ ॥ स तदेव स्वयं भेजे सृज्यमानं पुनः पुनः । हिंस्राहिंस्रे मृदुक्रूरे धर्माधर्मे ऋतानृते ॥ ४९ ॥ यद्यथास्याभवत्सर्गे तत्तस्य स्वयमाविशत् । यथा च लिङ्गान्यृतवः स्वयमेवानुपर्यये ॥ ५० ॥ स्वानि स्वान्यभिपद्यन्ते तथा कर्माणि देहिनः । लोकस्येह विवृद्ध्यर्थं मुखबाहूरुपादतः ॥ ५१ ॥ ब्रह्म क्षत्रं तथा चोभौ वैश्यशूद्रौ नृपोत्तम । मुखानि यानि चत्वारि तेभ्यो वेदा विनिःसृताः ॥ ५२ ॥ और उसके अनन्तर सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों में इन प्रजाओं को उलझा दिया, जो अणु परिमाण तथा अविनाशिनी पञ्च मात्राएँ कही गयी हैं । हे वीर ! उन सबों से इस समस्त जगत् का क्रमिक उद्भव होता है । हे राजन् ! पहले (ईश्वरेच्छा द्वारा) नियुक्त होकर जीव जो कुछ कार्य करता है, उसे ही पुनः-पुनः सिरजे जाते हुए वह स्वयं प्राप्त करता है । हिंस्र-अहिंस्र, मृदु, क्रूर, धर्म, अधर्म, सत्य, असत्य-इनमें से जैसा जिसका प्राक्तन संचित कर्म रहा, वही इस सृष्टि में भी स्वयं आकर आविष्ट हुआ । हे राजन् ! जिस प्रकार ऋतुएँ अपने-अपने चिह्नों को स्वयमेव प्राप्त हो जाती हैं, उसी प्रकार शरीरधारी जीव भी अपने-अपने प्राक्तन कर्मों को स्वयमेव प्राप्त हो जाते हैं । हे नृपोत्तम ! लोक की वृद्धि करने के लिए मुख, बाहु, उरु और पैर से क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों की उत्पत्ति हुई । उनके जो चार मुख थे, उनसे वेदों का प्रादुर्भाव हुआ ॥ ४७-५२ ॥ ऋग्वेदसहिता तात वसिष्ठेन महात्मना । पूर्वान्मुखान्महाबाहो दक्षिणाच्चापि वै शृणु ॥ ५३ ॥ हे तात ! महात्मा वशिष्ठ ने पूर्व दिशा वाले मुख से ऋग्वेद संहिता को प्राप्त किया तथा दाहिने मुख से जो वेद उत्पन्न हुए, उन्हें भी सुनिये ॥ ५३ ॥ यजुर्वेदो महाराज याज्ञवल्क्येन वै सह । सामानि पश्चिमात्तात गौतमश्च महानृषिः ॥ ५४ ॥ अथर्ववेदो राजेन्द्र मुखाच्चाप्युत्तरान्नृप । ऋषिश्चापि तथा राजञ्छौनको लोकपूजितः ॥ ५५ ॥ उस दाहिने मुख से याज्ञवल्क्य ऋषि ने यजुर्वेद को प्राप्त किया । हे तात ! इसी प्रकार पश्चिम वाले मुख से सामवेद को महर्षि गौतम ने प्राप्त किया । हे नृप ! राजेन्द्र ! उनके उत्तर वाले मुख से लोक-पूजित शौनक ऋषि ने अथर्ववेद को प्राप्त किया ॥ ५४-५५ ॥ यत्तन्मुखं महाबाहो पञ्चमं लोकविश्रुतम् । अष्टादशपुराणानि सेतिहासानि भारत ॥ ५६ ॥ निर्गतानि ततस्तस्मान्मुखात्कुरुकुलोद्वह । तथान्याः स्मृतयश्चापि यमाद्या लोकपूजिताः ॥ ५७ ॥ ततः स भगवान्देवो द्विधा देहमकारयत् । द्विधा कृत्वात्मनो देहमर्धेन पुरुषोऽभवत् ॥ ५८ ॥ अर्धेन नारी तस्यां च विराजमसृजत्प्रभुः । तपस्तप्त्वासृजद्यं तु स स्वयं पुरुषो विराट् ॥ ५९ ॥ हे महाबाहु ! भारत ! उनका लोक-विख्यात जो पाँचवाँ मुख था, उससे इतिहास के साथ-साथ अठारहों पुराणों का आविर्भाव हुआ । हे कुरुकुलोद्भव ! इसी प्रकार ब्रह्मा के उस पाँचवें मुख से यम आदि की लोक सम्मानित स्मृतियाँ तथा धर्मशास्त्र प्रकट हुए । तदनन्तर भगवान् ब्रह्मा ने अपने शरीर को दो भागों में विभक्त किया और स्वयं आधे रूप में पुरुषाकार होकर आधे में एक नारी की आकृति उत्पन्न की । हे राजेन्द्र ! उस नारी से प्रभु ने विराट् सृष्टि की । तपस्या करके जिसकी सृष्टि की, वह स्वयं विराट पुरुष ही था ॥ ५६-५९ ॥ स चकार तपो राजन्सिसृक्षुर्विविधाः प्रजाः । पतीन्प्रजानामसृजन्महर्षीनादितो दश ॥ ६० ॥ हे राजन् ! अनेक प्रकार की प्रजाओं की सृष्टि करने की इच्छा से उसने तपस्या की और सर्वप्रथम दम प्रजापति ऋषियों की सृष्टि की ॥ ६० ॥ नारदं च भृगुं तात कं प्रचेतसमेव हि । पुलहं क्रतुं पुलस्त्यं च अत्रिमङ्गिरसं तथा ॥ ६१ ॥ मरीचिं चापि राजेन्द्र योऽसावाद्यः प्रजापतिः । एतांश्चान्यांश्च राजेन्द्र असृजद् भूरितेजसः ॥ ६२ ॥ उनके नाम ये हैं-नारद, भृगु, वसिष्ठ, प्रचेता, पुलह, क्रतु, पुलस्त्य, अत्रि, अंगिरा, और मरीचि । हे राजेन्द्र ! ये मरीचि इन सबों में प्रथम प्रजापति थे । हे राजेन्द्र ! इन उपर्युक्त प्रजापति ऋषियों को तथा इनके अतिरिक्त अन्यान्य बहुतेरे ऋषियों को, जो इन्हीं के समान परम तेजस्वी थे, ब्रह्मा ने उत्पन्न किया ॥ ६१-६२ ॥ अथ देवानृषीन्दैत्यान्सोऽसृजत्कुरुनन्दन । यक्षरक्षः पिशाचांश्च गन्धर्वाप्सरसोऽसुरान् ॥ ६३ ॥ मनुष्याणां पितॄणां च सर्पाणां चैव भारत । नागानां च महाबाहो ससर्ज विविधान्गणान् ॥ ६४ ॥ हे कुरुनन्दन ! इसी प्रकार देवताओं, ऋषियों तथा दैत्यों की सृष्टि की हे भारत ! हे महाबाहो ! फिर यज्ञ, राक्षस, पिशाच, गन्धर्व, अप्सरा, असुर तथा मनुष्य, पितर, सर्प एवं नागों के विविध गणों की सृष्टि की ॥ ६३-६४ ॥ क्षणरुचोऽशनिगणान्रोहितेन्द्रधनूंषि च । धूमकेतूंस्तथा चोल्का निर्याताञ्ज्योतिषां गणान् ॥ ६५ ॥ इसी प्रकार क्षण भर चमककर छिप जाने वाली बिजलियों इन्द्रधनुष, धूमकेतु-उल्का एवं वातरहित ज्योतिष् चक्रों की सृष्टि की ॥ ६५ ॥ मनुष्यान्किन्नरान्मत्स्यान्वराहांश्च विहङ्गमान् । गजानश्वानथ पशून्मृगान्व्यालांश्च भारत ॥ ६६ ॥ कृमिकीटपतङ्गांश्च यूकालिक्षकमत्कुणान् । सर्वं च दंशमशकं स्थावरंच पृथग्विधम् ॥ ६७ ॥ हे कुरुनन्दन ! इस प्रकार भगवान् ने मनुष्य, किन्नर, मत्स्य, वराह, विहंगम, गज, अश्व, पशु, मृग, व्याल, कृमि, कीट, पतंग, यूका (जू), लिक्षा (लीख), खटमल, मच्छर, दंस एवं विविध स्थावरों की सृष्टि की ॥ ६६-६७ ॥ एवं स भास्करो देवः ससर्ज भुवनत्रयम् । येषां तु यादृशं कर्म भूतानामिह कीर्तितम् ॥ ६८ ॥ कथयिष्यामि तत्सर्वं क्रमयोगं च जन्मनि । गजा व्याला मृगास्तात पशवश्च पृथग्विधाः ॥ ६९ ॥ पिशाचा मानुषास्तात रक्षांसि च जरायुजाः । द्विजास्तु अण्डजाः सर्पा नक्रा मत्स्याः सकच्छपाः ॥ ७० ॥ उस भास्कर देव ने इस प्रकार तीनोंभुवनों की सृष्टि की । इस लोक में जिन-जिन भूतोंकाजोऔर जैसा कर्म कहा जाता है, उन सबको उनकी उत्पत्ति के साथ-साथ क्रमानुसार मैं बतला रहा हूँ । हे तात ! हाथी, व्याल, मृग एवं विविध पशु जाति के जीव-समूह (इन सबकी उत्पत्ति एवं कर्म) को बतला रहा हूँ । हे तात ! पिशाच एवं जरायुज, मनुष्य और राक्षस, सर्प, नक्र, मत्स्य और कच्छप सभी प्रकार के पक्षी इन अण्डजों का भी कर्म कह रहे हैं ॥ ६८-७० ॥ एवंविधानि यानीह स्थलजान्यौदकानि च । स्वेदजं दंशमशकं यूकालिक्षकमत्कुणाः ॥ ७१ ॥ ऊष्मणा चोपजायन्ते यच्चान्यत्किञ्चिदीदृशम् । उद्भिज्जाः स्थावराः सर्वे बीजकाण्डप्ररोहिणः ॥ ७२ ॥ इसी प्रकार भूमि और जल में उत्पन्न होने वाले एवं दंस, मच्छर, नँ, लीख और खटमल की कोटि के स्वेदज (पसीने) से उत्पन्न होने वाले जीव-समूह हैं । ये सब गरमी से उत्पन्न होते हैं । फिर बीज और काण्ड से उत्पन्न होने वाले जीव उद्भिज्ज कहे जाते हैं ॥ ७१-७२ ॥ ओषध्यः फलपाकान्ता नानाविधफलोपगाः । अपुष्पाः फलवन्तो ये ते वनस्पतयः स्मृताः ॥ ७३ ॥ अनेक प्रकार के फलों से युक्त ओषधियाँ फलों के पक जाने तक स्थित रहने वाली होती हैं, अर्थात् फल के पक जाने पर ओषधियाँ सूख जाती हैं । जो पुष्परहित हैं, किन्तु फल लगता है, वे वनस्पति के नाम से प्रसिद्ध हैं ॥ ७३ ॥ पुष्पिणः फलिनश्चैव वृक्षास्तूभयतः स्मृताः । गुच्छगुल्मं तु विविधं तथैव तृणजातयः ॥ ७४ ॥ फलने और फूलने वाले को वृक्ष कहते हैं । गुच्छों और गुल्मों की अनेक कोटियाँ होती हैं । उसी प्रकार तृणों को भी बहुत-सी जातियाँ होती हैं ॥ ७४ ॥ बीजकाण्डरुहाण्येव प्रताना वल्ल्य एव च । तमसा बहुरूपेण वेष्टिताः कर्महेतुना ॥ ७५ ॥ बीजों और काण्डों से उत्पन्न होकर वृक्षों पर फैलने वाली लताएँ तथा वल्लियाँ कही जाती हैं । अपने पूर्व जन्म के कर्म-बन्धन से ये सभी प्रकार के अज्ञानान्धकार (तमोगुण) से परिवेष्टित रहते हैं ॥ ७५ ॥ अन्तःसंज्ञा भवन्त्येते सुखदुःखसमन्विताः । एतावत्यस्तु गतयः प्रोद्भूताः कुरुनन्दन ॥ ७६ ॥ इनके अन्तःकरण में चेतना होती है एवं सुख और दुःख का इन्हें भी अनुभव होता है । हे कुरुनन्दन ! जीवों की इतनी गतियाँ प्रकट हैं ॥ ७६ ॥ तस्माद्देवाद्दीप्तिमन्तो भास्कराच्य महात्मनः । घोरेऽस्मिंस्तात संसारे नित्यं सततयायिनि ॥ ७७ ॥ हे तात उस (परम प्रकाशमान) एवं महात्मा भास्कर देव (के प्रकाश) से ये सब इस घोर संसार में प्रतिक्षण तथा निरन्तर चलने वाले हैं ॥ ७७ ॥ एवं सर्वं स सृष्ट्वेदं राजँल्लोकगुरुं परम् । तिरोभूतः स भूतात्मा कालं कालेन पीडयन् ॥ ७८ ॥ हे राजन् ! काल द्वारा काल को पीड़ित करते हुए, वह भूतों का आत्मा (परमेश्वर) लोक के गुरु एवं अन्य सभी की सृष्टि करने के उपरान्त तिरोहित हो जाता है ॥ ७८ ॥ यदा स देवो जागर्ति तदेदं चेष्टते जगत् । यदा स्वपिति शान्तात्मा तदा सर्वं निमीलति ॥ ७९ ॥ जब वह देव जागता रहता है, तब यह जगत् चेष्टावात्रहता है, जब वह शान्तात्मा शयन करने लगता है, तब यह सारा जगत् भी विलीन हो जाता है ॥ ७९ ॥ तस्मिन्स्वपिति राजेन्द्र जन्तवः कर्मबन्धनाः । स्वकर्मभ्यो निवर्तन्ते मनश्च ग्लानिमृच्छति ॥ ८० ॥ हे राजेन्द्र ! अपने कर्मों के बन्धन में बँधे हुए जीव-समूह भी उसके सो जाने पर अपने कर्मों से निवृत्त हो जाते हैं और मन ग्लानि को प्राप्त होता है ॥ ८० ॥ युगपत्तु प्रलीयन्ते यदा तस्मिन्महात्मनि । तदायं सर्वभूतात्मा सुखं स्वपिति भारत ॥ ८१ ॥ हे भारत ! उस महात्मा (परमेश्वर) में सब एक साथ ही जब प्रलीन हो जाते हैं, उस समय सर्वभूतात्मा (भगवान्) सुखपूर्वक शयन करता है ॥ ८१ ॥ तमो यदा समाश्रित्य चिरं तिष्ठति सेन्द्रियः । न नवं कुरुते कर्म तदोत्क्रामति मूर्तितः ॥ ८२ ॥ समस्त इन्द्रियों समेत जब वह तमोगुण का आश्रय लेकर चिरकाल तक स्थित रहता है और कोई नवीन कर्म नहीं करता है उस समय वह मूर्ति से बाहर आता है ॥ ८२ ॥ यदाहंमात्रिको भूत्वा बीजं स्थास्नु चरिष्णु च । समाविशति संसृष्टस्तदा मूतिं विमुञ्चति ॥ ८३ ॥ जब वह समस्त स्थावरजङ्गमात्मक बीज में प्रवेश करता है । बीजसे जब वह अहंमात्रिक होता है,तब वह उसमें संसृष्ट होकर अपनी मूर्ति को छोड़ देता है ॥ ८३ ॥ एवं स जाग्रत्स्वप्नाभ्यामिदं सर्वं जगत्प्रभुः । संजीवयति चाजस्रं प्रमापयति चाव्ययः ॥ ८४ ॥ प्रभावशालीएवं अविनाशी वह भगवान् इस प्रकार जाग्रत् और स्वप्न अवस्था द्वारा निरन्तर इस समस्त जगत्मण्डल को जीवन प्रदान और सीमित करता है ॥ ८४ ॥ कल्पादौ सृजते तात अन्ते कल्पस्य संहरेत् । दिनं तस्येह यत्तात कल्पान्तमिति कथ्यते ॥ ८५ ॥ हे तात ! कल्प के आदि में वह इस जगत् की सृष्टि करता है और कल्प के अन्त में संहार करता है । हे तात ! उसका जो दिन अर्थात् जागरण का समय है, वही कल्पान्त कहा जाता है ॥ ८५ ॥ कालसंख्यां ततस्तस्य कल्पस्य शृणु भारत । निमेषा दश चाष्टौ च अक्ष्णः काष्ठा निगद्यते ॥ ८६ ॥ हे भारत ! उस कल्प की अवधि का प्रमाण सुनिये, बतला रहा हूँ । आँख के मूंदने और खोलने में जितना समय लगता है, उसे निमेष कहते हैं, ऐसे अठारह निमेषों की एक काष्ठा कही जाती है ॥ ८६ ॥ त्रिंशत्काष्ठाः कलामाहुः क्षणस्त्रिंशत्कलाः स्मृताः । मुहूर्तमथ मौहूर्ता वदन्ति द्वादश क्षणम् ॥ ८७ ॥ तीस काष्ठा की एक कला बतलाते हैं, तीस कला का एक क्षण कहा जाता है । मुहूर्तों को जानने वाले पण्डित लोग बारह क्षणों का एक मुहूर्त बतलाते हैं ॥ ८७ ॥ त्रिंशन्मुहूर्तमुद्दिष्टमहोरात्रं मनीषिभिः । मासस्त्रिंशदहोरात्रं द्वौ द्वौ मासावृतुः स्मृतः ॥ ८८ ॥ मनीषियों ने एक दिन-रात के बीच में तीस मुहूर्त निश्चित किये हैं । तीस दिन-रात का एक महीना होता है, दो-दो महीनों की एक ऋतु होती है ॥ ८८ ॥ ऋतुत्रयमप्ययनमयने द्वे तु वत्सरः । अहोरात्रे विभजते सूर्यो मानुषदैविके ॥ ८९ ॥ तीन-तीन ऋतुओं का एक अयन होता है । दो अयनों का एक वर्ष माना जाता है । मनुष्य और देव इन दोनों के रात-दिन का विभाग सूर्य करता है ॥ ८९ ॥ रात्रिः स्वप्नाय भूतानां चेष्टायै कर्मणामहः । पित्र्ये रात्र्यहनी मासः प्रविभागस्तु पक्षयोः ॥ ९० ॥ भूतों के शयनादि के लिए रात्रि और कर्म-व्यापार चालू रखने के लिए दिन हैं । पितरों के एक रात दिन मनुष्यों के एक मास में पूरे होते हैं ॥ ९० ॥ कर्म चेष्टास्वहः कृष्णः मुक्तः स्वप्नाय शर्वरी । दैवे रात्र्यहनी वर्षं प्रविभागस्तयोः पुनः ॥ ९१ ॥ मनुष्यों का एक पक्ष उनकी रात्रि और एक पक्ष दिन है । कर्म-चेष्टा के लिए मानव का शुक्ल पक्ष उनका दिन और शयन के लिए मानव का कृष्ण पक्ष उनकी रात्रि है । देवताओं का एक दिन रात मानव का एक वर्ष होता है ॥ ९१ ॥ अहस्तत्रोदगयनं रात्रिः स्याद्दक्षिणायनम् । ब्राह्मस्य तु क्षपाहस्य यत्प्रमाणं महीपते ॥ ९२ ॥ एकैकशो युगानां तु क्रमशस्तन्तिबोध मे । चत्वार्याहुः सहस्राणि वर्षाणां तत्कृतं युगम् ॥ ९३ ॥ उनमें रात्रि ओर दिन का विभाग होता है । उत्तरायण • (देवताओं का) दिन और दक्षिणायन (उनकी) रात्रि है । ब्रह्मा के दिन और रात्रि का जो प्रमाण है, हे महीपते ! उसे भी प्रत्येक युगों के क्रम से बतला रहा हूँ, सुनिये । चार सहस्र वर्षों का सतयुग माना जाता है ॥ ९२-९३ ॥ तस्य तावच्छती सन्ध्या सन्ध्यांशश्च तथाविधः । त्रेता त्रीणि सहस्राणि वर्षाणि च विदुर्बुधाः ॥ ९४ ॥ और उसकी संध्या (संधिकाल) तथा संध्यांश भी उतने ही सौ अर्थात् चार सौ वर्षों का होता है । संध्या के अन्त का प्रमाण भी इतना ही कहा जाता है । पण्डित लोग त्रेता को तीन सहस्र वर्षों का बतलाते हैं ॥ ९४ ॥ शतानि षट् च राजेन्द्र सन्ध्यासन्ध्यांशयोः पृथक् । वर्षाणां द्वे सहस्रे तु द्वापरे परिकीर्तिते ॥ ९५ ॥ हे राजेन्द्र ! वेता की संध्या और संध्यांश दोनों का प्रमाण छ: सौ वर्षों का है । द्वापर का प्रमाण दो सहन वर्ष कहा जाता है ॥ ९५ ॥ चत्वारि च शतान्याहुः सन्ध्यासन्ध्यांशयोर्बुधः । सहस्रं कथितं तिष्ये शतद्वयसमन्वितम् ॥ ९६ ॥ पण्डित लोग उसकी संध्या और संध्यांश दोनों का प्रमाण चार सौ वर्ष बतलाते हैं । हे नृपोत्तम ! कलियुग का प्रमाण एक सहस्र वर्ष का तथा उसकी संध्या और संध्यांश का प्रमाण दो सौ वर्षों का कहा जाता है ॥ ९६ ॥ एषा चतुर्युगस्यापि संख्या प्रोक्ता नृपोत्तम । यदेतत्परिसंख्या तमादावेव चतुर्युगम् ॥ ९७ ॥ एतद्द्वादशसाहस्रं देवानां युगमुच्यते । दैविकानां युगानां तु सहस्रपरिसंख्यया ॥ ९८ ॥ ब्राह्ममेकमहर्ज्ञेयं तावती रात्रिरुच्यते । एतद्युगसहस्रान्तं ब्राह्मं पुण्यमहर्विदुः ॥ ९९ ॥ हेनृपोत्तम ! चारों युगों की संख्या ऊपर बतलाई गई है । यह जो चारों युगों का प्रमाण मैंने अभी आपको बतलाया है, वही बारह सहस्र वर्ष देवताओं का युग बतलाया जाता है । देवताओं के एक सहस्र युगों का ब्रह्मा का एक दिन जानना चाहिए और उतने ही की एक रात्रि भी कही जाती है । इस प्रकार (पण्डित लोग) देवताओं के सहस्र युग की समाप्ति पर ब्रह्मा का एक पुण्य दिन समाप्त होना बतलाते हैं ॥ १९७-९९ ॥ रात्रिं च तावतीमेव तेऽहोरात्रविदो जनाः । ततोऽसौ युगपर्यन्ते प्रसुप्तः प्रतिबुध्यते ॥ १०० ॥ और उतने ही प्रमाण की रात्रि भी बतलाते हैं । इस रात्रि के व्यतीत होने पर जब कि देवताओं का एक सहस्र युग व्यतीत होता है, भगवान् अपने शयन से निवृत्त होकर जाग उठते हैं ॥ १०० ॥ प्रतिबुद्धस्तु सृजति मनः सदसदात्मकम् । मनः सृष्टिं विकुरुते चोद्यमानं सिसृक्षया ॥ १०१ ॥ प्रतिबुद्ध होकर अपने सत्-असदात्मक मन की सृष्टि करते हैं, सृष्टि विस्तार करने की भावना से प्रेरित होकर वह मन ही सृष्टि करता है ॥ १०१ ॥ विपुलं जायते तस्मात्तस्य शब्दं गुणं विदुः । विपुलात्तु विकुर्वाणात्सर्वगन्धवहः शुचिः ॥ १०२ ॥ बलवाञ्जायते वायुः स वै स्पर्शगुणो मतः । वायोरपि विकुर्वाणाद्विरोचिष्णु तमोनुदम् ॥ १०३ ॥ उत्पद्यते विचित्रांशुस्तस्य रूपं गुणं विदुः । तस्मादपि विकुर्वाणादापो जाताः स्मृता बुधैः ॥ १०४ ॥ उससे विपुल आकाश की उत्पत्ति होती है । उस आकाश का गुण शब्द कहा जाता है । आकाश में विकार होने से सब की सुगन्धि को वहन करने वाले, पवित्र, बलवान् और स्पर्शगुणात्मक वायु की उत्पत्ति होती है । तदनन्तर विकारयुक्त वायु से अंधकार को नष्ट करने वाले, विचित्र किरणों से समन्वित तेज की उत्पत्ति होती है, उसका गुण रूप कहा जाता है । उससे भी विकार युक्त होने पर जल की उत्पत्ति हुई-ऐसा बुद्धिमान् लोग स्मरण करते हैं ॥ १०२-१०४ ॥ तासां गुणो रसो ज्ञेयः सर्वलोकस्य भावनः २ । अद्भ्यो गन्धगुणा भूमिरित्येषा सृष्टिरादितः ॥ १०५ ॥ उस जल का गुण रस है, जो समस्त लोकों को (भावन) जीवन दान करने वाला है । जल से पृथ्वी की उत्पत्ति हुई, जो गन्ध गुण विशिष्ट है, यही सृष्टि का आदि क्रम है ॥ १०५ ॥ यत्प्राग्द्वादशसाहस्रमुक्तं सौमनसं युगम् । तदेकसप्ततिगुणं मन्वन्तरमिहोच्यते ॥ १०६ ॥ अभी जिन देवताओं के बारह सहस्र वर्षों के एक युग की चर्चा की गयी है, उसके एकहत्तर गुने का एक 'मन्वन्तर' कहा जाता है ॥ १०६ ॥ मन्वन्तराण्यसंख्यानि सर्गः संहार एव च । तथाप्यहे सदा ब्राह्मे मनवस्तु चतुर्दश ॥ १०७ ॥ यद्यपि ऐसे मन्वन्तरों की संख्या परिगणित नहीं की जा सकती एवं सृष्टि तथा प्रलय की भी कोई इयत्ता नहीं है, तथापि ब्रह्मा के एक दिन में चौदह मनु का कार्य-काल समाप्त होना कहा जाता है ॥ १०७ ॥ कथ्यन्ते कुरुशार्दूल संख्यया पण्डितैः सदा । मनोः स्वायम्भुवस्येह षड्वंश्या मनवोऽपरे ॥ १०८ ॥ सृष्टवन्तः प्रजाः स्वाःस्वाः महात्मानो महौजसः । सावर्णेयस्तथा पञ्चभौत्यो रौच्यस्तथापरः ॥ १०९ ॥ एते भविष्या मनवः सप्त प्रोक्ता नृपोत्तम । स्वस्वेऽन्तरे सर्वमिदं पालयन्ति चराचरम् ॥ ११० ॥ हे कुरुशार्दूल ! सर्वदा पण्डितगण संख्या द्वारा ऐसा ही निश्चय करते हैं । स्वायम्भुव मनु के वंश में उत्पन्न होने वाले अन्य छह मनु गण,जो महान् ऐश्वर्यशाली एवं परम तेजस्वी थे,प्राचीन काल में अपनी-अपनी प्रजाओं की सृष्टि कर चुके हैं । नृपोत्तम ! सावर्णेय, पञ्चभौत्य तथा रौच्य प्रभृति सात मनु गण, जो भविष्य में उत्पन्न होंगे, अपने-आने समय में अपनी-अपनी प्रजाओं की सृष्टि करके इस चराचर जगत् का पालन करेंगे ॥ १०८-११० ॥ एवंविधं दिनं तस्य विरिञ्चेस्तु महात्मनः । तस्यान्ते कुरुते सर्गं यथेदं कथितं तव ॥ १११ ॥ महात्मा ब्रह्मा का दिन इस प्रकार का होता है । उसके अन्तिम समय में वह सृष्टि-कार्य इसी तरह सम्पन्न करता है, जैसा अभी आपसे बतला चुका हूँ ॥ १११ ॥ क्रीडन्निवैतत्कुरुते परमेष्ठी नराधिप । चतुष्पात्सकलो धर्मः सत्यं चैव कृते युगे ॥ ११२ ॥ नराधिप ! वह परमेष्ठी इस समस्त चराचर जगत् की सृष्टि खेलते हुए की तरह कर डालता है । सतयुग में सभी प्रकार के धर्म अपने चारो चरणों से सम्पन्न रहते हैं ॥ ११२ ॥ नाधर्मेणागमः कश्चिन्मनुष्याणां प्रवर्तते । इतरेष्वागमास्तात धर्मश्च कुरुनन्दन ॥ ११३ ॥ यादृशाः परिहीयन्ते यथाह भगवान्मनुः १ । चौर्याच्चाप्यनृताद्राजन्मायाभिरमितद्युते ॥ ११४ ॥ पादेन हीयते धर्मस्त्रेतादिषु युगेषु वै । अरोगाः सर्वसिद्धार्थाश्चतुर्वर्षशतायुषः ॥ ११५ ॥ उस युग में मनुष्यों की प्रवृत्ति अधर्म में तनिक भी नहीं होती । हे कुरुनन्दन ! अन्यान्य युगों में, मनुष्यों की प्रवृत्ति एवं धर्म जिस प्रकारहीन कोटि के हो जाते हैं, उसे भगवान् मनु ने इस प्रकार बतलाया है । हेराजन् ! चोरी करने से तथा असत्य भाषण करने से एवं मायावीपन से त्रेता आदि युगों में सभी धर्म एक-चरण से हीन हो जाते हैं । सतयुग में मनुष्य रोगरहित एवं सम्पूर्ण सिद्धियों तथा इच्छाओं को प्राप्त करने के कारण सुखपूर्वक चार सौ वर्ष की आयु वाले होते थे ॥ ११३-११५ ॥ कृतत्रेतादिषु त्वेषां वयो ह्रसति पादशः । वेदोक्तमायुराशीश्च मर्त्यानां कुरुनन्दन ॥ ११६ ॥ कर्मणां तु फलं तात फलत्यनुयुगं सदा । प्रभावश्च तथा लोके फलत्येव शरीरिणाम् ॥ ११७ ॥ त्रेता आदि में एक-एक चरण आयु का भी ह्रास होता जाता है । हे कुरुनन्दन ! मनुष्यों को वेदों में कही गयी आयु, आशीर्वचन एवं कर्मों के शुभाशुभ फल युगों के अनुरूप ही सर्वदा फलित होते हैं । शरीरधारियों का प्रभाव भी युगों के अनुसारही फलित होता है ॥ ११६-११७ ॥ अन्ये कृतयुगे धर्मास्त्रेतायां द्वापरे परे । अन्ये कलियुगे नृणां युगधर्मानुरूपतः ॥ ११८ ॥ सतयुग में दूसराधर्म था, त्रेता में दूसरा, द्वापर में दूसरा और कलियुग में दूसरा । तात्पर्य यह कि मनुष्यों के ये धर्म युग-धर्मों के अनुसार बदलते रहते हैं ॥ ११८ ॥ तपः परं कृतयुगे त्रेतायां ज्ञानमुच्यते । द्वापरे यज्ञमित्याहुर्दानमेकं कलौ युगे ॥ ११९ ॥ कृतयुग में तपस्या ही परम (धर्म) था, त्रेता में ज्ञान को ही (परम धर्म) कहा जाता है । द्वापर में यज्ञ को और कलियुग में एकमात्र दान को (परमश्रेष्ठ) धर्म बतलाया जाता है ॥ ११९ ॥ सर्वस्य राजन्सर्गस्य गुप्त्यर्थं च महाद्युते । मुखबाहूरुपादानां पृथक्कर्माण्यकल्पयत् ॥ १२० ॥ हे परमकान्तिमान् ! राजन् ! सभी सृष्टि की रक्षा के लिए भगवान् ने अपने मुख, बाहु, उरु एवं चरणों से उत्पन्न होने वालों के कर्मों का भी विभाजन किया है ॥ १२० ॥ अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा । दानं प्रतिग्रहं चैव ब्राह्मणानामकल्पयत् ॥ १२१ ॥ अध्यापन, अध्ययन, यज्ञाराधन, यज्ञ का अनुष्ठान कराना, दान देना और दान लेना-ये सब कर्म ब्राह्मणों के लिए निश्चित किये गये ॥ १२१॥ प्रजानां पालनं राजन्दानमध्ययनं तथा । विषयेषु प्रसक्तिं च तथेज्यां क्षत्रियस्य तु ॥ १२२ ॥ हे राजन् इसी प्रकार प्रजाओं का भलीभाँति पालन, दान, अध्ययन, विषय-सेवन एवं यज्ञाराधन-ये सब क्षत्रियों के कर्म हैं ॥ १२२ ॥ पशूनां रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च । वणिक्पथं कुसीदं च वैश्यस्य कृषिरेव च ॥ १२३ ॥ पशुओं की रक्षा, दान, यज्ञाराधन, अध्ययन, वाणिज्य, ब्याज लेकर कर्ज देना और कृषि–ये वैश्यों के कर्म हैं ॥ १२३ ॥ एकमेव तु शूद्रस्य कर्म लोके प्रकीर्तितम् । एतेषामेव वर्णानां शुश्रूषामनुपूर्वशः ॥ १२४ ॥ इस लोक में शूद्रों का केवल एक ही कर्म कहा जाता है-इन उपर्युक्त ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्यों की क्रमानुसार शुश्रूषा करना ॥ १२४ ॥ पुरुषस्य सदा श्रेष्ठं नाभेरूर्ध्वं नृपोत्तम । तस्मादपि शुचितरं मुखं तात स्वयम्भुवः ॥ १२५ ॥ तस्मान्मुखाद्द्विजो जात इतीयं वैदिकी श्रुतिः । सर्वस्यैवास्य धर्मस्य धर्मतो ब्राह्मणः प्रभुः ॥ १२६ ॥ नृपोत्तम ! मनुष्य के शरीर में नाभि के ऊपर का भाग सर्वदा श्रेष्ठ माना जाता है, हे तात ! उस ऊपरी भाग में भी मुख पवित्रतरहै । स्वयम्भू भगवान् के उसी पुनीत मुख से द्विजों की उत्पति हुई है-ऐसा वेदों में भी सुना जाता है । ब्राह्मण सभी धार्मिक कार्यों में अपने धर्म से ही अधिकारी माना गया है ॥ १२५-१२६ ॥ स सृष्टो ब्रह्मणा पूर्वं तपस्तप्त्वा कुरूद्वह । हव्यानामिव कव्यानां सर्वस्यापि च गुप्तये ॥ १२७ ॥ हे कुरुश्रेष्ठ ! ब्रह्मा ने प्रचुरतपस्या करके सर्वप्रथम इन्हीं ब्राह्मणों की उत्पत्ति हव्यों (देवता के उद्देश्य से यज्ञादि में जो कुछ दिया जाता है उसे हव्य कहते हैं) और कव्यों (पितरों के निमित्त श्राद्ध आदि में जो कुछ दिया जाता है उसे कव्य कहते हैं ॥ ) की तरह सब की रक्षा के लिए की थी ॥ १२७ ॥ अश्नन्ति च मुखेनास्य हव्यानि त्रिदिवौकसः । कव्यानि चैव पितरः किम्भूतमधिकं ततः ॥ १२८ ॥ देवगण इन्हीं के मुख से हव्यों का भक्षण करते हैं, इसी प्रकार पितरगण भी उनके मुख से कव्य पदार्थों का भक्षण करते हैं-इससे बढ़कर और क्या हो सकता है ॥ १२८ ॥ भूतानां प्राणिनः श्रेष्ठाः प्राणिनां बुद्धिजीविनः । बुद्धिमत्सु नराः श्रेष्ठा नरेषु ब्राह्मणाः स्मृताः ॥ १२९ ॥ सभी भूतों में प्राणधारी श्रेष्ठ माने जाते हैं, प्राणियों में वे श्रेष्ठ हैं, जो बुद्धिजीवी हैं, बुद्धिजीवियों में मनुष्य श्रेष्ठ हैं, मनुष्यों में ब्राह्मण श्रेष्ठ हैं ॥ १२९ ॥ ब्राह्मणेषु च विद्वांसो विद्वत्सु कृतबुद्धयः । कृतबुद्धिषु कर्तारः कर्तृषु ब्रह्मवेदिनः ॥ १३० ॥ ब्राह्मणों में बुद्धिमान् ब्राह्मण श्रेष्ठ हैं, बुद्धिमान् ब्राह्मणों में वे श्रेष्ठ हैं, जो दृढ़ बुद्धि हैं, उनमें भी वे श्रेष्ठ हैं, जो वैसा आचरण करते हैं किन्तु वैसे आचरण करने वालों में भी वे अधिक श्रेष्ठ हैं, जो ब्रह्मवेत्ता हैं ॥ १३० ॥ जन्म विप्रस्य राजेन्द्र धमार्थमिह कथ्यते । उत्पन्नः सर्वसिद्धयर्थंयाति ब्रह्मसदो नृप ॥ १३१ ॥ हे राजन् ! ब्राह्मणों का जन्म धर्म के लिए हुआ है-ऐसा कहा जाता है । नृप ! (इस भूतल पर) वह सभी सिद्धियों को प्राप्त करने के लिए उत्पन्न हुआ है । अन्त में भी वह ब्रह्म-लोक को प्राप्त करता है ॥ १३१ ॥ स चापि जायमानस्तु पृथिव्यामिह जायते । भूतानां प्रभवायैव धर्मकोशस्य गुप्तये ॥ १३२ ॥ वह इस पृथ्वी पर जन्म धारण कर समस्त प्राणियों के ऊपर बाधिपत्य करने के लिए तथा धर्मकोश की रक्षा के लिए उत्पन्न होता है ॥ १३२ ॥ सर्वं हि ब्राह्मणस्येदं यत्किञ्चित्पृथिवीगतम् । जन्मना चोत्तमेनेदं सर्वं वै ब्राह्मणोऽर्हति ॥ १३३ ॥ इस पृथ्वी पर जो कुछ है, वह सब ब्राह्मण का ही है, क्योंकि उत्तम जन्म लेने के कारण वही सब कुछ पाने योग्य है ॥ १३३ ॥ स्वकीयं ब्राह्मणो भुङ्क्ते विदधाति च सुव्रत । करुणां कुर्वतस्तस्य भुञ्जन्ती हेतरे जनाः ॥ १३४ ॥ हे सुव्रत ! ब्राह्मण अपना ही भोजन करता है । फिर भी लोककल्याण के लिए प्रयत्न करता है जिसका अन्य लोग उपभोग करते हैं ॥ १३४ ॥ त्रयाणामिह वर्णानां भावाभावाय वै द्विजः । भवेद्राजन्न सन्देहस्तुष्टो भावाय वै द्विजः ॥ १३५ ॥ हे राजन् ! ब्राह्मण इस पृथ्वी पर तीनों वर्गों के भाव (कल्याण) तथा अभाव (अकल्याण) को करने में समर्थ हैं, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है कि ब्राह्मण सन्तुष्ट होकर कल्याण करता है ॥ १३५ ॥ अभावाय भवेत्क्रुद्धस्तस्मात्पूज्यतमो हि सः । ब्राह्मणे सति नान्यस्य प्रभुत्वं विद्यते नृप । .। १३६ और (उसी प्रकार) क्रुद्ध होकर अकल्याण कर सकता है । अत. वह सबसे बढ़कर पूजनीय है । हे नृप ! ब्राह्मण के विद्यमान रहते हुए, दूसरे वर्ण का प्रभुत्व नहीं रह सकता ॥ १३६ ॥ कामात्करोत्यसौ कर्म कामगश्च नृपोत्तम । तस्माद्वृन्दारकपुरी तस्मादपि महः पुनः ॥ १३७ ॥ हे नृपोत्तम ! ब्राह्मण केवल अपनी इच्छा से कर्म करता है । वह इच्छानुसार गमन करने में समर्थ है । इस लोक से वह देवलोक को प्राप्त करता है, वहाँ से भी महर्लोक की उसे प्राप्ति होती है ॥ १३७ ॥ महर्लोकाज्जनोलोकं ब्रह्मलोकं च गच्छति । ब्रह्मत्वं च महाबाहो याति विप्रो न संशयः ॥ १३८ ॥ महर्लोक से जनलोक और (जनलोक से) ब्रह्मलोक जाता है । हे महाबाहु | इसमें सन्देह नहीं कि ब्राह्मण ब्रह्मलोक को प्राप्त करता है ॥ १३८ ॥ शतानीक उवाच - ब्रह्मत्वं नाम दुष्प्रापं ब्रह्मलोकेषु सुव्रत ॥ १३९ ॥ शतानीक बोले-हे सुव्रत ब्रह्मलोक में ब्रह्मत्व की प्राप्ति करना परम दुर्लभ है ॥ १३९ ॥ ब्रह्मत्वं कीदृशं विप्रो ब्रह्मलोकं च गच्छति । नाममात्रोऽथ किं विप्रो ब्रह्मत्वं ब्रह्मणः सदा ॥ याति ब्रह्मन्गुणाः के स्युर्ब्रह्मप्राप्तौ ममोच्यताम् ॥ १४० ॥ ब्राह्मण किस प्रकार ब्रह्मलोक एवं ब्रह्मत्व की प्राप्ति करता है ? नाममात्र के लिए ही क्या ब्राह्मण सदा ब्रह्मपद की प्राप्ति करता है ? हे ब्रह्मन् ! उस ब्रह्मपद के प्राप्ति के साधन भूत गुण कौन से हैं ? यह सब मुझे बतलाइए ॥ १४० ॥ सुमन्तुरुवाच - साधुसाधु महाबाहो शृणु मे परमं वचः ॥ १४१ ॥ सुमन्तु ने कहा-हे महाबाहु ! आपको अनेकशः साधुवाद है । मेरी उत्तम बात सुनिये ॥ १४१ ॥ ये प्रोक्ता वेदशास्त्रेषु संस्कारा ब्राह्मणस्य तु । गर्भाधानादयो ये च संस्कारा यस्य पार्थिव ॥ १४२ ॥ चत्वारिंशतथाष्टौ च निर्वृत्ताः शास्त्रतो नृप । स याति ब्रह्मणः स्थानं ब्राह्मणत्वं च मानद ॥ संस्काराः सर्वथा हेतुर्ब्रह्मत्वे नात्र संशयः ॥ १४३ ॥ ब्राह्मण के लिए वेदों एवं शास्त्रों में जो संस्कार बतलाये गये हैं, हे पार्थिव ! गर्भाधान आदि जो अड़तालीस संस्कार शास्त्रों में बतलाये गये हैं, वे जिस ब्राह्मण के शास्त्रीय विधि के अनुसार हुए रहते हैं, हे मानद ! वही ब्राह्मण ब्रह्मा के स्थान को प्राप्त करता है और वही सच्चे ब्रह्मत्व की भी प्राप्ति करता है । ब्रह्मत्व की प्राप्ति में सर्वथा ये संस्कार ही कारण हैं, इसमें कोई संदेह नहीं है ॥ १४२-१४३ ॥ शतानीक उवाच - संस्काराः के मता ब्रह्मन्ब्रह्मत्वे ब्राह्मणस्य तु । शंस मे द्विजशार्दूलं कौतुकं हि महन्मम ॥ १४४ ॥ शतानीक बोले-हे द्विजशार्दूल ! ब्रह्मन् ! ब्राह्मण की ब्रह्मत्व-प्राप्ति में साधनभूत वे संस्कार कौन-कौन माने गये हैं ? मुझे उनके सुनने का बड़ा कुतूहल है, मुझे सुनाइये ॥ १४४ ॥ सुमन्तुरुवाच - साधुसाधु महाबाहो शृणु मे परमं वचः । ये प्रोक्ता वेदशास्त्रेषु संस्कारा ब्राह्मणस्य तु ॥ मनीषिभिर्महाबाहो शृणु सर्वानशेषतः ॥ १४५ ॥ सुमन्तु ने कहा-हे महाबाहु ! आपको अनेकशः साधुवाद है, मेरी उत्तम बातें सुनिये । हे महाबाहो ! मनीषियों द्वारा वेदों एवं शास्त्रों में ब्राह्मणों के लिए जो संस्कार बतलाये गये हैं, उन सब संस्कारों को सुनिये ॥ १४५ ॥ गर्भाधानं पुंसवनं सीमन्तोन्नयनं तथा । जातकर्मान्नाशनं च चूडोपनयनं नृप ॥ १४६ ॥ ब्रह्मव्रतानि चत्वारि स्नानं च तदनन्तरम् । सधर्मचारिणीयोगो यज्ञानां कर्म मानद ॥ १४७ ॥ हे राजन् । गर्भाधान,पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, अन्नप्राशन, चूड़ाकरण, उपनयन, चार प्रकार के ब्रह्मचर्यावस्था के व्रत (अभिषव) स्नान, सहधर्मिणी के साथ संयोग अर्थात् विवाह (पाँचों) यज्ञों का सदनुष्ठान इनको आत्मकल्याण के लिए परम उपयोगी बतलाया जाता है ॥ १४६-१४७ ॥ पञ्चानां कार्यमित्याहुरात्मनः श्रेयसे नृप । देवपितृमनुष्याणां भूतानां ब्राह्मणस्तथा ॥ १४८ ॥ एतेषां चाष्टकाकर्म पार्वणश्राद्धमेव हि । श्रावणी चाग्रहायणी चैत्री चाश्वयुजी तथा ॥ १४९ ॥ पाकयज्ञास्तथा सप्त अग्न्याधानं च सत्क्रिया । अग्निहोत्रं तथा राजन्दर्शं च विधुसञ्क्षये ॥ १५० ॥ पौर्णमासं च राजेन्द्र चातुर्मास्यानि चापि हि । निरूपणं पशुवधं तथा सौत्रामणीति च ॥ १५१ ॥ हविर्यज्ञास्तथा सप्त तेषां चापि हि सत्क्रिया । अग्निष्टोमोऽत्यग्निष्टोमस्तथोक्थ्यः षोडशीं विदुः ॥१५२ ॥ वाजपेयोऽतिरात्रश्च आप्तोर्यामेति वै स्मृतः १ । संस्कारेषु स्थिताः सप्त सोमाः कुरुकुलोद्वह ॥ १५३ ॥ देव, पितर, मनुष्य, भूत एवं ब्रह्म-इन सबके अष्टकाकर्म (अष्टमी के दिन किया जाने वाला धार्मिक कृत्य), श्रावण, अगहन, चैत्र एवं आश्विन की पूर्णिमा को पार्वण श्राद्ध, सात पाकयज्ञ, अग्नि-स्थापना, सत्क्रिया, अग्निहोत्र, अमावस्या को दर्शश्राद्ध, पौर्णमास श्राद्ध, चातुर्मास्य-निरूपण, पशुवध, सौत्रामणियाग, हविर्यज्ञ, जो सात प्रकार के होते हैं, उनकी सक्रिया, अग्निष्टोम, उक्थ्य, षोडशी, वाजपेय, अतिरा, आप्तोर्याम-ये सब संस्कार कहे जाते हैं । हे कुलश्रेष्ठ ! इन संस्कारों में सात सोमयज्ञ भी स्थित हैं ॥ १४८-१५३ ॥ इत्येते द्विजसंस्काराश्चत्वारिंशन्नृपोत्तम । अष्टौ चात्मगुणास्तात शृणु तानपि भारत ॥ १५४ ॥ हे नृपोत्तम ! ये चालीस वाह्मणों के संस्कार कहे जाते हैं । हे भारत । आठ उनके स्वाभाविक गुण हैं, उन्हें भी सुनिये ॥ १५४ ॥ अनसूया दया क्षान्तिरनायासं च मङ्गलम् । अकार्पण्यं तथा शौचमस्पृहा च कुरूद्वह ॥ १५५ ॥ अनसूया, दया, क्षान्ति, अनायास, मङ्गल, अकार्पण्य, शौच तथा अस्पृहा ॥ १५५ ॥ य एतेऽष्टगुणास्तात कीर्त्यन्ते वै मनीषिभिः । एतेषां लक्षणं वीर शृणु सर्वमशेषतः ॥ १५६ ॥ हे तात ! मनीषियों के द्वारा जो ये आठ ब्राह्मणों के स्वाभाविक गुण कहे जाते हैं. हे वीर ! इन सद्गुणों के सम्पूर्ण लक्षणों को भी दतला रहा हूँ, सुनिये ॥ १५६ ॥ न गुणान्गुणिनो हन्ति न स्तौत्यात्मगुणानपि । प्रहष्यन्ते नान्यदोषैरनसूया प्रकीर्तिता ॥ १५७ ॥ जिसमें गुणवान् गुणों का हनन नहीं करता है तथा अपने गुणों की प्रशंसा नहीं करता है तथा दूसरे के दोषों से प्रसन्न नहीं होता, उसे 'अनसूया' कहते हैं ॥ १५७ ॥ अपरे बन्धुवर्गे वा मित्रे द्वेष्टरि वा सदा । आत्मवद्वर्तनं यत्स्यात्सा दया परिकीर्तिता ॥ १५८ ॥ अन्य जनों तथा बन्धु-वर्ग (आत्मीय जनों) में, मित्र अथवा शत्रु में सर्वदा जो आत्मवत् व्यवहार हुआ करता है, उसे 'दया' कहते हैं ॥ १५८ ॥ वाचा मनसि काये च दुःखेनोत्पादितेन च । न कुप्यति न चाप्रीतिः सा क्षमा परिकीर्तिता ॥ १५९ ॥ मन और शरीर में कष्ट उत्पन्न करने वाली वाणी से न क्रोध किया जाता है और न दुःखानुभव होता है, उसे 'क्षमा' कहते हैं ॥ १५९ ॥ अभक्ष्यपरिहारश्च संसर्गश्चाप्यनिन्दितैः । आचारे च व्यवस्थानं शौचमेतत्प्रकीर्तितम् ॥ १६० ॥ अभक्ष्य का त्याग, प्रशंसनीय का सम्पर्क और सदाचार में रहने को 'शौच' कहते हैं ॥ १६० ॥ शरीरं पीड्यते येन शुभेनापि च कर्मणा । अत्यन्तं तन्न कुर्वीत अनायासः स उच्यते ॥ १६१ ॥ जिस शुभ कार्य के द्वारा शरीर को क्लेश होता है, उस कर्म का सर्वथा त्याग करना चाहिए । इस त्याग को 'अनायास' कहते हैं ॥ १६१ ॥ प्रशस्ताचरणं नित्यमप्रशस्तविवर्जनम् । एतद्धि मङ्गलं प्रोक्तं मुनिभिर्ब्रह्मवादिभिः ॥ १६२ ॥ प्रशंसनीय कर्म के आचरण तथा निन्दित कर्म के सर्वथा त्याग को ब्रह्मवादी मुनियों ने 'मङ्गल कहा है ॥ १६२ ॥ स्तोकादपि प्रदातव्यमदीनेनान्तरात्मना । अहन्यहनि यत्किंचिदकार्पण्यं तदुच्यते ॥ १६३ ॥ प्रतिदिन प्रसन्नचित्त होकर, थोड़े में से भी जो दान दिया जाता है, उसे अकार्पण्य कहते हैं ॥ १६३ ॥ यथोत्पन्नेन सन्तुष्टः स्वल्पेनाप्यथ वस्तुना । अहिंसया परस्वेषु साऽस्पृहा परिकीर्तिता ॥ १६४ ॥ स्वल्प मात्रा में भी प्राप्त वस्तु से सन्तुष्ट होने तथा अन्य जन (के धन) में अहिंसा भाव रखने को 'स्पृहा' कहते हैं ॥ १६४ ॥ वपुर्यस्य तु इत्येतैः संस्कारैः संस्कृतं द्विजः । ब्रह्मत्वमिह सम्प्राप्य ब्रह्मलोकं च गच्छति ॥ १६५ ॥ हे द्विज ! इन संस्कारों से जिसका शरीर संस्कृत है, वह इस लोक में ब्रह्मस्वरूप को प्राप्त कर, अन्त में ब्रह्मलोक को जाता है ॥ १६५ ॥ वैदिकैः कर्मभिः पुण्यैर्निषेकाद्यैर्द्विजन्मनाम् । कार्यः शरीरसंस्कारः पावनः प्रेत्य चेह च ॥ १६६ ॥ इस लोक और परलोक को सफल बनाने के निमित्त द्विजों (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों) को प्रशस्त वैदिक कर्म द्वारा शरीर का पवित्र संस्कार करना चाहिए ॥ १६६ ॥ गर्भशुद्धिं ततः प्राप्य धर्मं चाश्रमलक्षणम् । याति मुक्तिं न सन्देहः पुराणेऽस्मिन्नृपोत्तम ॥ १६७ ॥ इस तरह शरीर संस्कृत होने पर गर्भ-शुद्धि और आश्रमानुसार धर्म को प्राप्त कर, पुराणवचनानुसार हे राजन्, वह व्यक्ति मुक्ति प्राप्त करता है, इसमें संदेह नहीं है ॥ १६७ ॥ उशन्ति कुरुशार्दूल ब्राह्मणा नात्र संशयः । आश्रितानां विशेषेण ये नित्यं स्वस्तिवादिनः ॥ १६८ ॥ हे कुरुवंश में श्रेष्ठ राजन् ! आश्रित जनों के प्रति स्वस्तिवाचन करने वाले ब्राह्मण (ब्रह्मवेत्ता) सर्वदा प्रसन्न रहते हैं । इसमें कोई संदेह नहीं है ॥ १६८ ॥ निकटस्थान्द्विजान्हित्वा योऽन्यान्पूजयति द्विजान् । सिद्धं पापं तदपमानात्तद्वक्तुं नैव शक्यते ॥ १६९ ॥ समीपस्थ ब्राह्मणों को त्यागकर जो अन्य ब्राह्मणों की पूजा करते हैं, वे निकटस्थ ब्राह्मण के अपमान से निश्चित ही पाप के भागी होते हैं, उस पाप का वर्णन नहीं किया जाता ॥ १६९ ॥ तस्मात्सदा समीपस्थः सम्पूज्यो विधिवन्नृप । पूजयेदतिथींस्तद्वदन्नपानादिदानतः ॥ १७० ॥ हे राजन् ! इसलिए निकटस्थ ब्राह्मण की सदा पूजा करनी चाहिए । इसी प्रकार भोजन और पेय पदार्थों से अतिथियों का सम्मान करना चाहिए ॥ १७० ॥ ब्राह्मणः सर्ववर्णानां ज्येष्ठः श्रेष्ठस्तथोत्तमः । एवमस्मिन्पुराणे तु संस्कारान्ब्राह्मणस्य तु ॥ १७१ ॥ शृणोति यश्च जानाति यश्चापि पठते सदा । ऋद्धिं वृद्धिं तथा कीर्तिं प्राप्येह श्रियमुत्तमाम् ॥ १७२ ॥ धनं धान्यं यशश्चापि पुत्रान्बन्धून्सुरूपताम् । सावित्रं लोकमासाद्य ब्रह्मलोकमवाप्नुयात् ॥ १७३ ॥ ब्राह्मण सभी वर्गों में ज्येष्ठ, श्रेष्ठ तथा उत्तम है । इस प्रकार इस पुराण में (प्रतिपादित) ब्राह्मण के संस्कारों को जो व्यक्ति सदा श्रवण करता है या जानता है पाठ करता है, वह इस संसार में ऋद्धि, वृद्धि, कीर्ति, उत्तम श्री, धन, धान्य, यश, पुत्र, बन्धु तथा सुन्दर स्वरूप को प्राप्त करके सविता के लोक में जाता है और अनन्तर ब्रह्मलोक को प्राप्त करता है ॥ १७१-१७३ ॥ इति श्रीभविष्य महापुराणे शतार्द्धसाहस्र्यां संहितायां ब्राह्मे पर्वणि द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥ श्रीभविष्यमहापुराण में शतार्धसाहस्री नामक संहिता के ब्रह्मपर्व में दूसरा अध्याय समाप्त ॥ २ ॥ |