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भविष्य महापुराणम्

प्रथमं ब्राह्मपर्वम् - पञ्चमोऽध्यायः


स्त्रीणां शुभाशुभलक्षणवर्णनम्
स्त्रियों के शुभ और अशुभ लक्षणों का वर्णन -


सुमन्तुरुवाच -
षट्त्रिंशदाब्दिकं चर्यं गुरौ त्रैवेदिकं व्रतम् ।
तदर्धिकं पादिकं वा ग्रहणान्तिकमेव च ॥ १ ॥
सुमन्तु ने कहा-गुरु के समीप रहकर छत्तीस वर्ष तक त्रैवेदिक व्रत अर्थात् तीनों वेदों के अनुसार, ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना चाहिये अथवा उसके आधे वा चौथाई या वेद के अध्ययन समाप्त करने पर्यन्त समय तक करना चाहिये ॥ १ ॥

वेदानधीत्य वेदौ वा वेदं वापि नृपोत्तम ।
अविप्लुतब्रह्मचर्यो गृहस्थाश्रममावसेत् ॥ २ ॥
हे नृपोत्तम ! तीनों वेदों का या दो वेदों का अथवा एक वेद का विधिवत् अध्ययन कर अखण्ड ब्रह्मचर्य पालन करने वाला ब्रह्मचारी गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करे ॥ २ ॥

तं प्रतीतं स्वधर्मेण ब्रह्मदायहरं पितुः ।
स्रग्विणं तल्प आसीनमर्हयेत्प्रथमं गवा ॥ ३ ॥
पिता के द्वारा वेद का अध्ययन समाप्त करने वाले उस प्रख्यात ब्रह्मवर्चस् एवं धन सम्पत्ति के उत्तराधिकार को प्राप्त करने (अथवा गृहस्थाश्रम में आने के लिए उद्यत) ब्रह्मचारी का अपने नैष्ठिक धर्म से समन्वित उस गुरु को सुन्दर आसन पर बिठा कर माला से विभूषित कर सर्व प्रथम गौ (मधुपर्क) द्वारा पिता या आचार्य की पूजा करे ॥ ३ ॥

गुरुणा समनुज्ञातः समावृत्तौ यथाविधि ।
उद्वहेत द्विजो भार्यां सवर्णां लक्षणान्विताम् ॥ ४ ॥
इस प्रकार गुरु की आज्ञा से यथाविधि समावर्तन संस्कार सम्पन्न होकर ब्राह्मण अपने वर्ण में उत्पन्न शुभलक्षण समन्वित स्त्री के साथ विवाह संस्कार करे ॥ ४ ॥

शतानीक उवाच -
लक्षणं द्विजशार्दूल स्त्रीणां वद महामुने ।
कीदृग्लक्षणसंयुक्ता कन्या स्यात्सुखदा नृप ॥ ५ ॥
शतानीक बोले-हे महामुनि ! द्विज शार्दूल ! मुझे स्त्रियों के लक्षण बतलाइये । हे नृप, किस प्रकार के लक्षणों वाली कन्या पति को सुख देने वाली होती है ? ॥ ५ ॥

सुमन्तुरुवाच -
यदुक्तं ब्राह्मणा पूर्वं स्त्रीलक्षणमनुत्तमम् ।
श्रेयसे सर्वलोकानां शुभाशुभफलप्रदम् ॥ ६ ॥
तत्ते वच्मि महाबाहो शृणुष्वैकमना नृप ।
श्रुतेन येन जानीषे कन्यां शोभनलक्षणाम् ॥ ७ ॥
सुमन्तु ने कहा-समस्त लोक के कल्याणार्थ स्त्रियों के शुभाशुभ फल देने वाल जिन लक्षणों को पूर्वकाल में ब्रह्मा जी ने बतलाया है, उन्हें तुम्हें बतला रहा हूँ, हे महाबाहो, हे नृप ! एकाग्र होकर सुनिये ! उन सबके सुन लेने पर तुम भी शुभलक्षणान्वित कन्या के पारखी बन जाओगे ॥ ६-७ ॥

सुखासीनं सुरश्रेष्ठमभिगम्य महर्षयः ।
पप्रच्छुर्लक्षणं स्त्रीणां यत्पृष्टोऽहं त्वयाधुना ॥ ८ ॥
तुमने स्त्रियों के जिन लक्षणों को मुझसे अभी पूछा है, उन्हीं को एक बार ऋषियों ने सुखपूर्वक विराजमान सुरश्रेष्ठ ब्रह्मा जी के पास जाकर पूछा था ॥ ८ ॥

प्रणम्य शिरसा देवमिदं वचनमब्रुवन् ।
भगवन्ब्रूहि नः सर्वं स्त्रीणां लक्षणमुत्तमम् ॥ ९ ॥
श्रेयसे सर्वलोकानां शुभाशुभफलप्रदम् ।
प्रशस्तामप्रशास्तां च जानीमो येन कन्यकाम् ॥ १० ॥
देव ब्रह्मा जी को शिर नम्र कर विधिवत् प्रणाम करने के बाद ऋषियों ने यह वचन कहा-'हे भगवन् ! समस्त लोक के कल्याणार्थ स्त्रियों के शुभाशुभ फल प्रदान करने वाले लक्षणों को हमें बतलाइये । जिससे हम लोग उत्तम एवं निकृष्ट कोटि की कन्याओं की परख कर सकें ॥ ९-१० ॥

तेषां तद्वचनं श्रुत्वा विरिञ्चो वाक्यमब्रवीत् ।
शृणुध्वं द्विजशार्दूला वच्मि युष्मास्वशेषतः ॥ ११ ॥
(ऋषियों) उनके वचन सुनकर ब्रह्मा जी ने कहा-स्त्रियों के समस्त लक्षणों को बतला रहा हूँ, सुनिये ॥ ११ ॥

प्रतिष्ठिततलौ सम्यग्रताम्भोजसमप्रभौ ।
ईदृशौ चरणौ धन्यौ योषितां भोगवर्धनौ ॥ १२ ॥
सुन्दर लाल कमल दल के समान कान्तिमान् एवं प्रतिष्ठित (भूमि में समान रूप से बैठने वाले) तलुओं वाले पैर, धन्य हैं, वे स्त्रियों के भाग्य की वृद्धि करनेवाले हैं ॥ १२ ॥

करालैरतिनिर्मासै रूक्षैरर्धशिरान्वितैः ।
दारिद्र्यं दुर्भगत्वं च प्राप्नुवन्ति न संशयः ॥ १३ ॥
जो कराल मांस रहित, रूखा और नसों के उभाड़ से युक्त हो, वे स्त्रियों का चरण निस्सन्देह दारिद्य, दौर्भाग्य का देने वाला होता है ॥ १३ ॥

अङ्‌गुल्यः संहता वृत्ताः स्निग्धाः सूक्ष्मनखास्तथा ।
कुर्वन्त्यत्यन्तमैश्वर्यं राजभावं च योषितः ॥ १४ ॥
सघन, गोली, चिकनी एवम् छोटे सुन्दर नखों वाली पैर की अँगुलियाँ स्त्रियों को परम ऐश्वर्य एवं राज्यपद को देने वाली होती है ॥ १४ ॥

ह्रस्वाः सुजीवितं ह्रस्वा विरला वित्तहानये ।
दारिद्र्यं मूलमग्नासु प्रेष्यं च पृथुलासु च ॥ १५ ॥
छोटी अँगुलियों वाली स्त्रियाँ दीर्घजीदी होती हैं । किन्तु छोटी और बिरली जो एक में मिली न हों, अँगुलियाँ धन हानि करने वाली होती हैं । मूल स्थान पर टेढ़ी रहनेवाली अँगुलियाँ दारिद्य की सूचक हैं, मोटी अँगुलियों से दासता की प्राप्ति होती है ॥ १५ ॥

परस्परसमारूढैस्तनुभिर्वृत्तपर्वभिः ।
बहूनपि पतीन्हत्वा दासी भवति वै द्विजाः ॥ १६ ॥
हे द्विज वृन्द ! अत्यन्त सूक्ष्म, परस्पर एक दूसरे पर चढ़ी हुई एवं गोले पर्व (पोरों) वाली अँगुलियों से युक्त स्त्री अनेक पतियों को मारकर दासी होती है ॥ १६ ॥

अङ्‌गुष्ठोन्नतपर्वाणस्तुङ्‌गाग्राः कोमलान्विताः ।
रत्नकाञ्चनलाभाय विपरीता विपत्तये ॥ १७ ॥
उच्च पर्व (पोरों) से युक्त अँगूठे, उन्नत अग्रभागवाली कोमल अंगुलियाँ रत्न एवं सुवर्ण लाभ की सूचना देती हैं, इससे विपरीत जो होती हैं वे विपत्ति में डालने वाली होती हैं ॥ १७ ॥

सुभगत्वं नखैः स्निग्धैराताम्रैश्च धनाद् यता ।
पुत्राः स्युरुन्नतैरेभिः सुसूक्ष्मैश्चापि राजता ॥ १८ ॥
चिकने नखों से सौभाग्य की प्राप्ति होती है, लाल नखों से प्रचुर धन मिलता है । उन्नत नखों से अनेक पुत्रों की प्राप्ति होती है एवं सूक्ष्म नखों से राजत्व की प्राप्ति होती है ॥ १८ ॥

पाण्डुरैः स्फुटितै रूक्षैर्नीलैर्धूम्रैस्तथा खरैः १ ।
निःस्वता भवति स्त्रीणां पीतैश्चाभक्ष्यभक्षणम् ॥ १९ ॥
स्त्रियों के पाण्डुर टूटे, फटे, रूखे, नीले एवं धूमिल तथा खर नखों से निर्धनता बढ़ती है, उनके पीले नख अभक्ष्य-भक्षण की सूचना देते है ॥ १९ ॥

गुल्फाः स्निग्धाश्च वृत्ताश्च समारूढशिरास्तथा ।
यदि स्युर्नूपुरान्दध्युर्बान्धवाद्यैः समाप्नुयुः ॥ २० ॥
इसी प्रकार यदि स्त्रियों के चिकने, गोले, शिराओं (नसों) को ढंके हुए गुल्फ (ऐंडी के ऊपर की गांठ) हों तो वे नूपुर से सर्वदा शब्दायमान रहने वाले तथा बांधवों से युक्त करने वाले होंगे ॥ २० ॥

अशिरा शरकाण्डाभाः सुवृत्ताल्पतनूरुहाः ।
जङ्‌घा कुर्वन्ति सौभाग्यं यानं च गजवाजिभिः ॥ २१ ॥
शिराओं से रहित, शरकाण्ड (सरकण्डा) के समान गौरवर्ण से युक्त, सुन्दर गोले एवं छोटी-छोटी रोमावलियों से सुशोभित स्त्रियों की जंघाएँ परम सौभाग्य एवं हाथी घोड़े की सवारी देने वाली होती हैं ॥ २१ ॥

क्लिश्यते रोमजङ्‌घा स्त्री भ्रमत्युद्धतपिण्डिका ।
काकजङ्‌घा पतिं हन्ति वाचाटा कपिला च याः ॥ २२ ॥
रोमावलि से युक्त जंघावाली स्त्री कष्ट का अनुभव करती है, इसी प्रकार जिसकी पिण्डली ऊपर की ओर खिंची हुई-सी हो वह बहुत भ्रमण करने वाली होती है । कौओं के समान जंघेवाली और भूरी स्त्री अत्यन्त बकवादिनी और पति का नाश करने वाली होती है ॥ २२ ॥

जानुभिश्चैव मार्जारसिंहजान्वनुकारिभिः ।
श्रियमाप्य सुभाग्यत्वं प्राप्नुवन्ति सुतांस्तथा ॥ २३ ॥
बिल्ली और सिंह के घुटनों के अनुकरणशील घुटनों वाली स्त्रियाँ लक्ष्मी की प्राप्ति कर सौभाग्य एवं अनेक पुत्रों को भी प्राप्त करने वाली होती हैं ॥ २३ ॥

घटाभैरध्वगा नार्यो निर्मांसैः कुलटा स्त्रियः ।
शिरालैरपि हिंस्राः स्युर्विश्लिष्टैर्धनवर्जिताः ॥ २४ ॥
इसी प्रकार कलश के समान घुटनों वाली स्त्रियाँ अधिक मार्ग चलने वाली होती हैं, मांसरहित घुटनोवाली स्त्रियाँ कुलटा होती हैं । शिराओं से व्याप्त घुटनों वाली स्त्रियाँ हिंसक स्वभाव वाली होती हैं, दुर्बल एवं असुन्दर घुटनों से धनहीन होती हैं ॥ २४ ॥

अत्यन्तकुटिलै रूक्षैः स्फुटिताग्रैर्गुडप्रभैः ।
अनेकजैस्तथा रोमैः केशैश्चापि तथाविधैः ॥ २५ ॥
अत्यन्तपिङ्‌गला नारी विषतुल्येति निश्चितम् ।
सप्ताहाभ्यन्तरे पापा पतिं हन्यान्न संशयः ॥ २६ ॥
अत्यन्त कुटिल, रूखे, टूटे फूटे अग्रभाग वाले, गुड़ के समान लाल वर्णवाले, एक-एक रोम कूप से अनेक संख्या में उत्पन्न होने वाले रोम एवं केशों से युक्त अत्यन्त पिंगल वर्ण की नारी विषतुल्य समझनी चाहिये-यह निश्चित मानिये । वह पापिनी एक सप्ताह के भीतर ही अपने पति का नाश करती हैं-इसमें सन्देह मत मानिये ॥ २५-२६ ॥

हस्तिहस्तनिभैर्वृतै रम्भाभैः करभोपमैः ।
प्राप्नुवन्त्यूरुभिः शश्वत्स्त्रियः सुखमनङ्‌गजम् ॥ २७ ॥
हाथी के शुण्डादण्ड के समान चढ़ाव उतार वाले, कदली के रंग के समान गोरे, चिकने एवं शीतल करभ' के समान मनोहर एवं स्निग्ध उ6 प्रदेशों से स्त्रियाँ सर्वदा कामदेव का सुखभोगने वाली होती हैं ॥ २७ ॥

दौर्भाग्यं बद्धमांसैश्च बन्धनं रोमशोरुभिः ।
तनुभिर्वधमित्याहुर्मध्यच्छिद्रेष्वनीशता ॥ २८ ॥
बँध गये हैं मांस पिण्ड जिनमें-ऐसे उरुओं से युक्त स्त्रियाँ परम दुर्भाग्य शील होती हैं । बहुत रोमादलि से युक्त उरुओं से उसे बन्धन की प्राप्ति होती है । इसी प्रकार सूक्ष्म उरुओं वाली स्त्रियों का वध होता है-ऐसा लोग कहते हैं । मध्य में छिद्र भाग वाले उरुओं से प्रभुत्वहीनता की प्राप्ति होती है ॥ २८ ॥

सन्ध्यावर्णं समं चारु सूक्ष्मरोमान्वितं पृथु ।
जघनं शस्यते स्त्रीणां रतिसौख्यकरं द्विज ॥ २९ ॥
हे द्विज ! संध्या के समान मनोहर वर्णवाले (लालिमा युक्त) सूक्ष्म रोमावलि से सुशोभित, स्थूल जंघे स्त्रियों के परम प्रशंसनीय माने जाते हैं, वे विशेष रति सुख प्रदान करने वाले होते हैं ॥ २९ ॥

अरोमको भगो यस्याः समः सुश्लिष्टसंस्थितः ।
अपि नीचकुलोत्पन्न राजपत्नी भवत्यसौ ॥ ३० ॥
जिस स्त्री का योनि प्रदेश रोम रहित, समान एवं संधियों से सुश्लिष्ट हो, वह चाहे नीच कुल में ही उत्पन्न क्यों न हुई हों-राजा की पत्नी होती हैं ॥ ३० ॥

अश्वत्थपत्रसदृशः कूर्मपृष्ठोन्नतस्तथा ।
शशिबिम्बनिभश्चापि तथैव कलशाकृतिः ॥
भगः शस्ततमः स्त्रीणां रतिसौभाग्यवर्धनः ॥ ३१ ॥
पीपल के पत्ते के समान कछुए की पीठ के समान ऊपर की ओर उन्नत चन्द्रबिम्ब की भाँति कलश के समान आकारवाला योनि प्रदेश स्त्रियों के लिए परम प्रशस्त बतलाया गया है, वह उनके रति एवं सौभाग्य की वृद्धि करने वाला है ॥ ३१ ॥

तिलपुष्पनिभो यश्च यद्यग्रे खुरसन्निभः ।
द्वावप्येतौ परप्रेष्यं कुर्वाते च दरिद्रताम् ॥ ३२ ॥
जो तिल के पुष्प की भाँति हो, आगे की ओर पशु की खुरों की भाँति दिखाई पड़ता हो-ऐसे दो प्रकार के योनि प्रदेश दरिद्रता एवं दूसरे की दासता करने वाले होते हैं ॥ ३२ ॥

उलूखलनिभैः शोकं मरणं विवृताननैः ।
विरूपैः पूतिनिर्मांसैर्गजसन्निभरोमभिः ॥
दौःशील्यं दुर्भगत्वं च दारिद्र्यमधिगच्छति ॥ ३३ ॥
उलूखल के समान योनियों से शोक प्राप्ति होती है, जिसका मुख प्रदेश सर्वदा फैला हुआ हो-ऐसा योनि प्रदेश मरण की सूचना देता है । असुन्दर, दुर्गन्धियुक्त, मांसरहित, हाथी के समान रोमावलि युक्त प्रदेश स्त्रियों की दुःशीलता, दौर्भाग्य एवं दारिद्र्य के सूचक होते हैं ॥ ३३ ॥

कपित्थफलसंकाशः पीनो वलिविवर्जितः ।
स्फीताः प्रशस्यते स्त्रीणां निन्दितभ्रान्यथा द्विजाः ॥ ३४ ॥
हे द्विजगण ! कैथे के फल के समान गोले, पुष्ट, सिकुड़न रहित एवं चिकने योोंने प्रदेश स्त्रियों के प्रशंसनीय माने गये हैं, इनके अतिरिक्त सभी निन्दित हैं ॥ ३४ ॥

पयोधरभरानम्रप्रचलत्त्रिवलीगुरुः ।
मध्यः शुभावहः स्त्रीणां रोमराजीविभूषितः ॥ ३५ ॥
उन्नत स्तनों के भार से झुका हुआ एवं चञ्चल तीन सिकुड़न की रेखाओं से युक्त, रोमावलि से विभूषित मध्यभाग स्त्रियों का परमकल्याणदायी एवं प्रशंसनीय बतलाया गया है ॥ ३५ ॥

पणवाभैर्मृदङ्‌गाभैस्तथा मध्ये यवोपमैः ।
प्राप्नुवन्ति भयावासक्लेशदौःशील्यमीदृशैः ॥ ३६ ॥
पणव, मृदङ्ग, एवं जौ की तरह मध्यभाग वाली स्त्रियाँ भय, निवास का कष्ट एवं दुःशीलता को प्राप्त करती हैं ॥ ३६ ॥

अवक्रानुल्बणं पृष्ठमरोमशमगर्हितम् ।
नानास्तरणपर्यङ्‌करतिसौख्यकरं परम् ॥ ३७ ॥
अवक्र, सीधे एवं समान, अव्यक्त अर्थात् ऊपर की ओर न उठा हुआ, रोमावलिरहित पृष्ठ प्रदेश प्रशंसनीय माना गया है । वह विविध प्रकार के विछावन, पर्यंक एवं रति का सुख प्रदान करने वाला होता है ॥ ३७ ॥

कुब्जमद्रोणिकं पृष्ठं रोमशं यदि योषितः ।
स्वप्नान्तरे सुखं तस्या नास्ति हन्यात्पतिं च सा ॥ ३८ ॥
स्त्री का पृष्ठ प्रदेश (पीठ) यदि कुबड़ा, असुन्दर एवं रोमावलि से व्याप्त हो तो उसे कभी स्वप्न में भी सुख की प्राप्ति नहीं होती, वह अपने पति को मारने वाली होती है ॥ ३८ ॥

विपुलैः सुकुमारैश्च कुक्षिभिः सुबहुप्रजाः ।
मण्डूककुक्षिर्या नारी राजानं सा प्रसूयते ॥ ३९ ॥
विस्तृत एवं सुकुमार कुक्षि प्रदेश (उदर) से स्त्रियाँ अनेक सन्तानों वाली होती हैं । जो स्त्री मेढक के समान उदर वाली होती है वह राजा को उत्पन्न करती है ॥ ३९ ॥

उन्नतैर्बलिभिर्वध्याः सुवृत्तैः कुलटा स्त्रियः ।
जारकर्मरतास्ताः स्युः प्रव्रज्यां च समाप्नुयुः ॥ ४० ॥
उदर प्रदेश में स्थित बलियों (सिकुड़न की रेखाओं) के उन्नत होने से स्त्रियाँ बन्ध्या होती हैं, गोलाकार होने से कुलटा होती हैं । ऐसी स्त्रियाँ सर्वदा जार (छिनाले) कर्म में निरत रहकर भगेली बनी रहती हैं ॥ ४० ॥

उन्नता च नतैः क्षुद्रा विषमैर्विषमाशया ।
आयुरैश्वर्यसम्पन्ना वनिता हृदयैः समैः ॥ ४१ ॥
नीचे की ओर झुके हुए हृदय प्रदेश से स्त्रियाँ उन्नत स्वभाव वाली होती हैं । ऊँचे-नीचे हृदय प्रदेश से क्षुद्र स्वभाववाली एवं कठोर होती हैं । समान हृदय प्रदेश से युक्त स्त्रियाँ दीर्घायु एवं परम ऐश्वर्य सम्पन्न होती हैं ॥ ४१ ॥

सुवृत्तमुन्नतं पीनमदूरोन्नतमायतम् ।
स्तनयुग्ममिदं शस्तमतोऽन्यदसुखावहम् ॥ ४२ ॥
सुडौल, गोल, उन्नत, पुष्ट, सघन एवं आयताकार दोनों स्तनों के मण्डल स्त्रियों के लिए परम प्रशंसनीय माने गये हैं, इनके विपरीत जो हों वे दुःख देने वाले कहे जाते हैं ॥ ४२ ॥

उन्नतिः प्रथमे गर्भे द्वयोरेकस्य भूयसी ।
वामे तु जायते कन्या दक्षिणे तु भवेत्सुतः ॥ ४३ ॥
प्रथम गर्भावस्था में यदि स्त्रियों के दोनों स्तनों में सेकिसी की पहले विशेष वृद्धि हो तो उसका फल इस प्रकार होता है । वाम स्तन की वृद्धि से कन्या एवं दक्षिण स्तन की वृद्धि से पुत्र की उत्पत्ति होती है ॥ ४३ ॥

दीर्घे तु चूचुके यस्याः सा स्त्री धूर्ता रतिप्रिया ।
सुवृत्ते तु पुनर्यस्या द्वेष्टि सा पुरुषं सदा ॥ ४४ ॥
जिस स्त्री के चूचक लम्बे होते हैं वह परमधूर्त एवं रति को विशेष पसन्द करने वाली होती है । इसके विपरीत जिसके चूचक बहुत गोले होते हैं वह सर्वदा अपने पति से द्वेषभाव रखने वाली होती हैं ॥ ४४ ॥

स्तनैः सर्पफणाकारैः श्वजिह्वाकृतिभिस्तथा ।
दारिद्र्यमधिगच्छन्ति स्त्रियः पुरुषचेष्टिताः ॥
अवष्टब्धघटीतुल्या भवन्ति हि तथा द्विजाः ॥ ४५ ॥
सर्प के फण एवं कुत्ते की जीभ के समान आकार वाले स्तनों से स्त्रियाँ पुरुष के समान चेष्टा करने वाली तथा दरिद्रता को प्राप्त करने वाली होती हैं । हे द्विजवृन्द ! इसी प्रकार छोटे कलश के समान स्तनों वाली स्त्रियाँ भी पुरुषवत् चेष्टाशील तथा दरिद्र होती हैं ॥ ४५ ॥

सुसमं मांसलं चारु शिरो रोमविवर्जितम् ।
वक्षो यस्या भवेन्नार्या भोगान्भुक्ते यथेप्सितान् ॥ ४६ ॥
जिस स्त्री का वक्षस्थल समान, मांसल, शिरा (नस) एवं रोमावलि से रहित होते हैं वह. मन चाहे भोग विलास का आनन्द उठाती है ॥ ४६ ॥

हिंस्रा भवति वक्रेण दौःशील्यं रोमशेन तु ।
निर्मांसेन तु वैधव्यं विस्तीर्णे कलहप्रिया ॥ ४७ ॥
वक्र वक्षस्थल से हिंसक स्वभाव वाली तथा रोमावलि युक्त वक्षस्थल से स्त्रियाँ दुःशील होती हैं । मांसरहित वक्षस्थल वैधव्य का सूचक तथा विस्तृत वक्षस्थल कलह प्रिय का सूचक होता है ॥ ४७ ॥

चतस्रो रक्तगम्भीरा रेखाः स्निग्धाः करे स्त्रियाः ।
यदि स्युः सुखमाप्नोति विच्छिन्नाभिरनीशता ॥ ४८ ॥
स्त्री के हाथ में चिकनी गम्भीर लालिमायुक्त चार रेखाएँ यदि हों तो वह प्रचुर सुख प्राप्ति करती है, यदि ये ही रेखाएँ टूटी-फूटी और अपूर्ण हों तो वह प्रभुत्वहीन होती हैं ॥ ४८ ॥

रेखाः कनिष्ठिकामूलाद्यस्याः प्राप्ताः प्रदेशिनीम् ।
शतमायुर्भवेत्तस्यास्त्रयाणामुन्नतौ क्रमात् ॥ ४९ ॥
जिस स्त्री के हाथ में कनिष्ठिका अँगुली के मूल से निकलने वाली रेखा प्रदेशिनी (तर्जनी) अँगुली तक पहुँचने वाली हो और क्रमशः तीनों अंगुलियों तक उत्तरोत्तर उन्नत हो उसको आयु सौ वर्ष की होती है ॥ ४९ ॥

संवृत्ताः समपर्वाणस्तीक्ष्णाग्राः कोमलत्वचः ।
समा ह्यंगुलयो यस्याः सा नारी भोगवर्धिनी ॥ ५० ॥
जिस स्त्री के हाथ की अंगुलियाँ सुन्दर, मोली, समान पर्वोवाली, आगे की ओर पतली, कोमल चमड़ी से युक्त एवं समान हों, वह स्त्री भोग की वृद्धि करने वाली होती है ॥ ५० ॥

बन्धुजीवारुणैस्तुंगैर्नखैरैश्वर्यमाप्नुयात् ।
खरैर्वक्रैर्विवर्णाभैः श्वेतप्रीतैरनीशता ॥ ५१ ॥
दोपहरी के पुष्प के समान अत्यन्त रक्तवर्ण एवं ऊपर की ओर उठे हुए नखों से स्त्रियाँ ऐश्वर्य की प्राप्त करने वाली होती हैं । प्रखर, टेढ़े-मेढ़े, विवर्ण, श्वेत एवं पीले नखों से अप्रभुत्व को प्राप्त करने वाली होती हैं ॥ ५१ ॥

रक्तैर्मृदुभिरैश्वर्यं निश्छिद्राङ्‌गुलिभिर्द्विजाः ।
स्फुटितैर्विषमै रूक्षैः क्लेशं पाणिभिराप्नुयुः ॥ ५२ ॥
हे द्विजवृन्द ! रक्तिम, मृदुल एवं छिद्ररहित अँगुलियों वाले मनोहर पाणि से स्त्रियाँ ऐश्वर्यशालिनी होती हैं । इसके विपरीत टूटे-फूटे, ऊँचे नीचे एवं रूखे हाथों से वह क्लेशयुक्त रहती हैं ॥ ५२ ॥

समरेखा यवा यासाङ्‌गुष्ठाङ्‌गुलिपर्वसु ।
तासां हि विपुलं सौख्यं धनं धान्यं तथाऽक्षयम् ॥ ५३ ॥
जिन स्त्रियों के हाथ में समान रेखाएँ तथा अँगूठे में जौ के आकार की रेखा हो, उनको विपुल सुख-साधन तथा अक्षय धन-धान्य की प्राप्ति होती है ॥ ५३ ॥

मणिबन्धोऽव्यवच्छिन्नो रेखात्रयविभूषितः ।
ददाति न चिरादेव भोगमायुस्तथाक्षयम् ॥ ५४ ॥
तीन लम्बी रेखाओं से विभूषित अव्यवच्छिन्न मणिबन्ध जिस स्त्री का हो उसे बहुत शीघ्र ही अक्षय भोग ऐश्वर्य एवं दीर्घायु प्राप्त होता है ॥ ५४ ॥

श्रीवत्सध्वजपद्माक्षगजवाजिनिवेशनैः ।
चक्रस्वस्तिकवज्रासिपूर्णकुम्भनिभाङ्‌कुशैः ॥ ५५ ॥
प्रासादच्छत्रमुकुटैर्हारकेयूरकुण्डलैः ।
शङ्‌खतोरणनिर्व्यूहैर्हस्तन्यस्तैर्नृपस्त्रियः ॥ ५६ ॥
श्रीवत्स, ध्वज (पताका) कमल, अक्ष, हाथी, घोड़ा, भवन, चक्र, स्वस्तिक, वज्र, तलवार, पूर्णकलश, अंकुश, राजभवन, छत्र, मुकुट, हार, केयूर, कुण्डल, शंख, तोरण एवं व्यूह के चिह्न जिनके हाथ में हों वे राजा की स्त्रियाँ होती हैं ॥ ५५-५६ ॥

यस्याः पाणितले रक्ता यूपकुम्भाश्च कुण्डिकाः ।
दृश्यन्ते चरणे यस्या यज्ञपली भवत्यसौ ॥ ५७ ॥
जिस स्त्री के हाथ में रक्तवर्ण के स्तम्भ तथा कलश एवं चौकोर कुण्डिका पैर में हों वह स्त्री किसी यज्ञकर्ता की पत्नी होती है ॥ ५७ ॥

वीथ्यापणतुलामानैस्तथा मुद्रादिभिः स्त्रियः ।
भवन्ति वणिजां पत्न्यो रत्नकाञ्चनशालिनाम् ॥ ५८ ॥
गली, बाजार, तराजू एवं मुद्राओं के चिह्न जिन स्त्रियों के हाथ में हों वे सुवर्ण रत्न के महान् व्यापारी की पत्नी होती हैं ॥ ५८ ॥

दात्रयोक्त्रयुगाबन्धफलोलूखललाङ्‌गलैः ।
भवन्ति धनधान्याढ्या कृषीवलजनाङ्‌गनाः । ५९
दात्र (काटने वाले हथियार) योक्त्र (नाधा) जूआ, फाल, उलूखल (ओखली) एवं हल के चिह्नों वाली स्त्रियाँ धन-धान्य सम्पन्न एवं किसान की गृहिणी होती हैं ॥ ५९ ॥

अनुन्नतशिरासन्धि पीनं रोमविवर्जितम् ।
गोपुच्छाकृति नारीणां भुजयोर्युगुलं शुभम् ॥ ६० ॥
जिनकी नसें एवं संधियाँ बहुत उन्नत न हों, पुष्ट, भासल एवं रोमावलि रहित हों, गौ की पूँछ के समान आकार दाली हों ऐसी स्त्रियों की दोनों भुजाएं कल्याणकारक होती हैं ॥ ६० ॥

निगूढग्रन्थयो यस्याः कूर्परौ रोमवर्जितौ ।
बाहू वै ललितौ यस्याः प्रशस्तौ वृत्तकोमलौ ॥ ६१ ॥
जिसकी ग्रन्थि (गाठ) ढंकी हुई हो, ऐसी कुहने वाली रोमरहित, गोल, कोमल, ललित भुजाएँ स्त्रियों की प्रशंसनीय मानी गई हैं ॥ ६१ ॥

उन्नतावनतौ चैव नातिस्थूलौ न रोमशौ ।
सुखदौ तु सदा स्त्रीणां सौभाग्यारोग्यवर्धनौ ॥ ६२ ॥
उचित स्थान पर उन्नत एवं उचित स्थान पर अवनत बहुत भद्दे, मोटापे से रहित, रोम विहीन बाहुएँ स्त्रियों की सौभाग्य एवं आरोग्य की वृद्धि करने वाली तथा सर्वदा सुखदायिनी होती हैं ॥ ६२ ॥

स्थूले स्कन्धे वहेद्‌भारं रोमशे व्याधिता भवेत् ।
वक्रस्कन्धे भवेद्वन्ध्या कुलटा चोन्नतानने ॥ ६३ ॥
जिस स्त्री के दोनों कन्धे बहुत मोटे होते हैं, वह भार ढोनेवाली होती हैं, रोमावलि युक्त कन्धेवाली स्त्री व्याधियुक्त होती है । टेढ़े कंधेवाली बन्ध्या तथा ऊँचे नीचे कन्धे वाली व्यभिचारिणी होती है ॥ ६३ ॥

स्पष्टं रेखात्रयं यस्या ग्रीवायां चतुरङ्‌गुलम् ।
मणिकाञ्चनमुक्ताढ्यं सा दधाति विभूषणम् ॥ ६४ ॥
जिस स्त्री के कण्ठ में चार अंगुल तक स्पष्ट तीन रेखाएँ हों, वह मणिजटित सुवर्ण के अलंकारों को धारण करने वाली होती है ॥ ६४ ॥

अधना स्त्री कृशग्रीवा दीर्घग्रीवा च .बन्धकी ।
हस्वग्रीवा मृतापत्या स्थूलग्रीवा च दुःखिता ॥ ६५ ॥
जिस स्त्री का कण्ठ प्रदेश बहुत दुर्बल रहता है वह निर्धन होती है । लम्बी ग्रीवा वाली स्त्री बंधकी अर्थात् छिनाल होती है । जिस स्त्री का कण्ठ प्रदेश बहुत अल्प होता है उसकी सन्ततियाँ नहीं जीतीं, इसी प्रकार स्थूल ग्रीवा वाली स्त्री सर्वदा दुःख भोगने वाली होती है ॥ ६५ ॥

अनुन्नता समांसा च समा यस्याः कृकाटिका ।
सुदीर्घमायुस्त्वस्यास्तु चिरं भर्ता च जीवति ॥ ६६ ॥
जिस स्त्री की कृकाटिका (ग्रीवा की ऊँची ग्रन्थि, जो रीढ़ को जोड़ती है) अनुन्नत अर्थात् ऊँची उठी हुई न हों, मांसल एवं समान होती हैं उसकी आयु बहुत लम्बी होती है, उसका पति भी दीर्घजीवी होता है ॥ ६६ ॥

निर्मांसा बहुमांसा च शिराला रोमशा तथा ।
कुटिला विकटा चैव विस्तीर्णा न च शस्यते ॥ ६७ ॥
वह ग्रन्थि यदि मांस रहित अथवा अत्यन्त मांसल, नसों से व्याप्त, रोमावलियुक्त, वक्र, विकट एवं विस्तीर्ण हो तो वह प्रशंसनीय नहीं है ॥ ६७ ॥

न स्थूलो न कृशोऽत्यर्थं न वक्रो न च रोमशः ।
हनुरेवंविधः श्रेयांस्ततोऽन्यो न प्रशस्यते ॥ ६८ ॥
न अत्यन्त स्थूल, न कृश, न वक्र, न रोमावलियुक्त-ऐसा चिबुक स्त्रियों का परम कल्याणदायी होता है । इसके विपरीत जो हों, वे प्रशंसनीय नहीं माने गये हैं ॥ ६८ ॥

चतुरस्रमुखी धूर्ता मण्डलास्या शिवा भवेत् ।
अप्रजा वाजिवक्रा स्त्री महावक्रा च दुर्भगा ॥ ६९ ॥
चौकोर मुखवाली स्त्री धूर्त स्वभाव की होती है । मण्डलाकार अर्थात् गोले मुखवाली कल्याणदायिनी होती है । घोड़े के समान मुंह वाली स्त्री सन्तानविहीन एवं लम्बे मुखवाली स्वी दुर्भगा होती है ॥ ६९ ॥

श्ववराहवृकोलूकमर्कटास्याश्च याः स्त्रियः ।
कूरास्ताः पापकर्मिण्यः प्रजाबान्धववर्जिताः ॥ ७० ॥
इसी प्रकार कुने, शूकर, भेड़िया, उल्लू, बन्दर के समान मुखवाली स्त्रियाँ र स्वभाव वाली पापिनी, सन्तान एवं बन्धु-बान्धवादि से विहीन होती हैं ॥ ७० ॥

मालतीबकुलाम्भोजनीलोत्पलसुगन्धि यत् ।
वदनं मुच्यते नैतत्पानताम्बूलभोजनैः ॥ ७१ ॥
मालती, मौलसिरी, लाल कमल एवं नीलकमल के समान सुगन्धि जिससे निकलती हो, स्त्रियों का ऐसा मुख सुस्वादु पेय, ताम्बूल एवं सुभोजन से कभी वञ्चित नहीं होता ॥ ७१ ॥

ताम्राभः किञ्चिदालम्भः स्थौल्यकार्श्यविवर्जितः ।
अधरो यदि तुङ्‌गश्च नारीणां भोजदः सदा ॥ ७२ ॥
लालिमायुक्त स्निग्ध, स्थूलता एवं कृशता से रहित, ऊपर की ओर उठे हुए स्त्रियों के अधर सर्वदा भोग देने वाले होते हैं ॥ ७२ ॥

स्थूले कलहशीला स्याद्विवर्णे चातिदुःखिता ।
उत्तरोष्ठेन तीक्ष्णेन वनिता चातिकोपना ॥ ७३ ॥
स्थूल अधरोंवाली स्त्री कलहप्रिय होती है, विवर्ण अधरों वाली अत्यन्त दुःखभागिनी होती है । ऊपर का ओठ यदि बहुत पतला हों तो वह स्त्री अत्यन्त क्रोधी स्वभाव वाली होती है ॥ ७३ ॥

जिह्वा तनुतरा वक्रा ताम्रा दीर्घा च शस्यते ।
स्थूला ह्रस्वा विवर्णा या वक्रा भिन्ना च निन्दिता ॥ ७४ ॥
जो अत्यन्त पतली, टेढ़ी, लम्बी एवं लालिमायुक्त हो-ऐसी जिह्वा स्त्रियों के लिए प्रशंसनीय मानी गई है । इसके विपरीत मोटी, छोटी, विवर्ण, टेढ़ी एवं भिन्न दिखाई पड़ने वाली जिह्वा निन्दनीय मानी गई है ॥ ७४ ॥

शङ्‌खकुन्देन्दुधवलं स्निग्धैस्तुङ्‌गैरसन्धिभिः ।
मिष्टान्नपानमाप्नोति दन्तैरेभिरनुन्नतैः ॥ ७५ ॥
शंख, कुन्दपुष्प एवं चन्द्रमा के समान श्वेत, चिकने, ऊँचे, संधि रहित (एक दूसरे में एकदम सटे हुए) एवं अनुन्नत दाँतों से स्त्रियाँ मिष्ठान एवं सुन्दर सुस्वादु पेय प्राप्त करती हैं ॥ ७५ ॥

सूक्ष्मैरतिकृशैर्ह्रस्वैः स्फुटितैर्विरलैस्तथा ।
रूक्षश्च दुःखिता नित्यं विकटैर्भामिनी भवेत् ॥ ७६ ॥
इसके विपरीत बहुत छोटे-छोटे अत्यन्त कमजोर, फूटे हुए, विरल रूखे एवं विकट दाँतों से स्त्रियाँ सर्वदा दुःख भोगने वाली होती हैं ॥ ७६ ॥

सुमृष्टदर्पणाम्भोजपूर्णबिम्बेन्दुसन्निभम् ।
वदनं वरनारीणामभीष्टफलदं स्मृतम् ॥ ७७ ॥
परम स्वच्छ, सुन्दर, दर्पण, कमल एवं पूर्णिमा के चन्द्रबिम्ब की भाँति आकर्षक एवं मनोहर मुख परमश्रेष्ठ स्त्रियों को अभीष्ट फल प्रदान करने वाले कहे जाते हैं ॥ ७७ ॥

न स्थूला न कृशा वक्रा नातिदीर्घा समुन्नता ।
ईदृशी नासिका यस्याः सा धन्या तु शुभङ्‌करी ॥ ७८ ॥
न अत्यन्त मोटी न अत्यन्त कृश, न अत्यन्त लम्बी, समुन्नत नासिका जिसकी हो वह कल्याणी स्त्री धन्य है ॥ ७८ ॥

उन्नता मृदुला या च रेखा शुद्धा न सङ्‌गन्ता ।
भ्रूर्वक्रतुल्या सूक्ष्मा च योषितां सा सुखावहा ॥ ७९ ॥
उन्नत, मृदुल (कोमल) शुद्ध रेखाङ्कित, मुख के समान आकार वाली सूक्ष्म भौंहें स्त्रियों को सुख देने वाली होती हैं ॥ ७९ ॥

धनुस्तुल्याभिः सौभाग्यं वन्ध्या स्याद्दीर्घरोमभिः ।
पिङ्‌गलासङ्‌गता ह्रस्वा दारिद्र्याय न संशयः ॥ ८० ॥
धनुष के समान टेढ़ी भौहें सौभाग्य देने वाली होती हैं, दीर्घ रोमावलि युक्त स्त्रियों की भौंहें उनके वन्ध्यापन की सूचना देती हैं । इसी प्रकार पिङ्गल वर्णवाली, असंगत एव छोटी भौहें निस्सन्देह दरिद्रता देनेवाली होती हैं ॥ ८० ॥

नीलोत्पलदलप्रख्यैराताम्रैश्चारुपक्ष्मभिः ।
वनिता नयनैरेभिर्भोगसौभाग्यभागिनी ॥ ८१ ॥
नीले कमल दल के समान मनोहर, कुछ लालिमा लिये हुए, सुन्दर, भौहों से विभूषित नेत्रों वाली स्त्री सौभाग्य एवं भोग विलास को प्राप्त करने वाली होती हैं ॥ ८१ ॥

खञ्जनाक्षी मृगाक्षी च वराहाक्षी वराङ्‌गना ।
यत्रयत्र समुत्पन्ना महान्तं भोगमश्नुते ॥ ८२ ॥
खञ्जन, मृग एवं शूकर के समान नेत्रोंवाली सुन्दरी स्त्री जहाँ तहाँ उत्पन्न होकर महान् भोग एवं ऐश्वर्य को प्राप्त करने वाली होती हैं ॥ ८२ ॥

अगम्भीरैरसंश्लिष्टैर्बहुरेखाविभूषितैः ।
राजपन्त्यो भवन्तीह नयनैर्मधुपिङ्‌गलैः ॥ ८३ ॥
गंभीरता रहित असंश्लिष्ट, बहुत रेखाओं से विभूषित मधु के समान लाल वर्ण के नेत्रों वाली स्त्रियाँ इस लोक में राजपत्नी के रूप में उत्पन्न होती हैं ॥ ८३ ॥

वायसाकृतिनेत्राणि दीर्घापाङ्‌गानि योषिताम् ।
अनाविलानि चारूणि भवन्ति हि विभूतये ॥ ८४ ॥
कौओ के आकार के समान, लम्बे कोण वाले स्वच्छ सुन्दर स्त्रियों के नेत्र उनके धन सम्पत्ति की सूचना देने वाले होते हैं ॥ ८४ ॥

गम्भीरैः पिङ्‌गलैश्चैव दुःखिताः स्युश्चिरायुषः ।
वयोमध्ये त्यजेत्प्राणानुन्नताक्षी तुयाङ्‌गना ॥ ८५ ॥
अत्यन्त गम्भीर (गहरे) पीले वर्ण के नेत्रों वाली स्त्रियाँ लम्बी आय प्राप्त कर दुःख भोगने वाली होती हैं । जो स्त्री उन्नत नेत्रों वाली होती है वह अपनी जवानी में ही मृत्यु को प्राप्त करने वाली होती है ॥ ८५ ॥

रक्ताक्षी विषमाक्षी च धूम्राक्षी प्रेतलोचना ।
वर्जनीया सदा नारी श्वनेत्रा चैव दूरतः ॥ ८६ ॥
लाल, विषम, धूमिल एवं प्रेतों के समान नेत्रों वाली स्त्री सर्वदा वर्जनीय है, इसी प्रकार कुत्ते के समान नेत्रवाली स्त्री को भी दूर से ही छोड़ देना चाहिये ॥ ८६ ॥

उद्‌भ्रान्तकैः करैश्चित्रैर्नयनस्त्वंगनास्त्विह ।
मद्यमांसप्रिया नित्यं चपलाश्चैव सर्वतः ॥ ८७ ॥
उद्भ्रान्त (टपरे) केकर (ऐंचाताना) एवं विचित्र वर्ण वाले नेत्रों से स्त्रियाँ मद्य मांस को पसन्द करने वाली तथा सर्वत्र चञ्चल रहती हैं ॥ ८७ ॥

करालाकृतयः कर्णा नभःशब्दास्तु संस्थिताः ।
वहन्ति विकसत्कान्तिं हेमरत्नविभूषणम् ॥ ८८ ॥
कराल आकृति वाले लम्बे कान स्त्रियों के सुवर्ण एवं कणों के आभूषण से युक्त मनोहर कान्ति प्राप्त करनेवाले होते हैं ॥ ८८ ॥

खरोष्ट्रनकुलोलूककपिलश्रवणाः स्त्रियः ।
प्राप्नुवन्ति महद्दुःखं प्रायशः प्रव्रजन्ति च ॥ ८९ ॥
गधा, ऊँट, नेवला एवं उलूक के समान कानों वाली एवं कपिल वर्ण के कानों वाली स्त्रियाँ महान् दुःख भोगती हैं और प्रायः इधर-उधर भ्रमण करने वाली होती हैं ॥ ८९ ॥

ईषदापाण्डुगण्डा या सुवृत्ता पर्वणि त्विह ।
प्रशस्ता निन्दिता त्वन्या रोमकूपकदूषिता ॥ ९० ॥
कुछ पाण्डु वर्ण वाले गोल कपोल स्त्रियों के प्रशंसनीय माने गये हैं । इसके विपरीत रोम कपों से दूषित कपोल वाली स्त्रियाँ दूषित बतलायी गई हैं ॥ ९० ॥

अर्धेन्दुप्रतिमाभोगमरोम तु समाहितम ।
भोगारोग्यकरं श्रेष्ठं ललाटं वरयोषिताम् ॥ ९१ ॥
अर्धचन्द्रमा के समान आकार वाले, रोमावलि रहित, समान, सुन्दर ललाट सुन्दरी स्त्रियों के भोग एवं आरोग्य की वृद्धि करने वाले होते हैं ॥ ९१ ॥

द्विगुणं परिणाहेन ललाटं विहितं च यत् ।
शिरः प्रशस्तं नारीणामधन्या हस्तिमस्तका ॥ ९२ ॥
जैसा कि ललाट बतलाया गया है, विस्तार में उससे द्विगुणित शिर स्त्रियों के प्रशंसनीय माने गये हैं । हाथी के समान विशाल शिर वाली स्त्री प्रशंसनीय नहीं समझी जाती है ॥ ९२ ॥

सूक्ष्माः कृष्णा मृदुस्निग्धाः कुञ्जिताग्राः शिरोरुहाः ।
भवन्ति श्रेयसे स्त्रीणामन्ये स्युः क्लेशशोकदाः ॥ ९३ ॥
सूक्ष्म (महीन) काले, मृदुल चिकने, आगे की ओर कुञ्चित (घुघराले) शिर के केश स्त्रियों के कल्याण के लिए होते हैं, इसके विपरीत जो हैं वे क्लेश और शोक देने वाले कहे जाते हैं ॥ ९३ ॥

हंसकोकिलवीणालिशिखिवेणुस्वराः स्त्रियः ।
प्राप्नुवन्ति बहून्भोगान्भृत्यानाज्ञापयन्ति च ॥ ९४ ॥
हंस, कोकिल, वीणा, भ्रमर, मयूर और वेणु के समान स्वर वाली स्त्रियाँ बहुत भोग एवं ऐश्वर्य की अधिकारिणी होती हैं, वे नौकरों पर शासन चलाने वाली होती हैं ॥ ९४ ॥

भिन्नकांस्यस्वरा नारी खरकाकस्वरा च या ।
रोगं व्याधिं भयं शोकं दारिद्र्यं चाधिगच्छति ॥ ९५ ॥
जो स्त्री फूटे हुए कांसे के वर्तन के समान स्वर वाली एवं गधे और कौओ के समान स्वरवाली होती है वह रोग, शोक, व्यादि, भय एवं दरिद्रता को प्राप्त करने वाली होती है ॥ ९५ ॥

हंसगोवृषचक्राह्वमत्तमातङ्‌गगामिनी ।
स्वकुलं द्योतयेन्नारी महिषी पार्थिवस्य च ॥ ९६ ॥
हंस, गौ, वृषभ, चक्रवाक एवं मतवाले हाथी के समान गमन करने वाली स्त्री अपने कुल को प्रकाशित करने वाली अथवा राजा की स्त्री होती है ॥ ९६ ॥

श्वशृगालगतिर्निन्द्या या च वायसवद्व्रजेत् ।
दासी मृगगतिर्नारी द्रुतगामी च बन्धकी ॥ ९७ ॥
कुत्ते और सियार के समान गमन करने वाली स्त्री निन्दित मानी गई है, इसी प्रकार जो कौओ के समान चलती है वह भी निन्दनीय है । मृग के समान गमन करने वाली स्त्री दूसरे की दासी एवं शीघ्र गमन करने वाली व्यभिचारिणी होती है ॥ ९७ ॥

फलिनी रोचना हेमकुङ्‌कुमप्रभ एव च ।
वर्णः शुभकरः स्त्रीणां यश्च दूर्वाङ्‌कुरोपमः ॥ ९८ ॥
मेंहदी, हरिद्रा, गोरोचन. सुवर्ण, केसर और चम्पे के पुष्प के समान शरीर का वर्ण स्त्रियों के लिए कल्याणकारी होता है ॥ ९८ ॥

मृदूनि मृदुरोमाणि नात्यन्तस्वेदकानि च ।
सुरभीणि च गात्राणि यासां ताः पूजिताः स्त्रियः ॥ ९९ ॥
इसी प्रकार दूब के अंकुर के समान (गोरे) वर्ण भी स्त्रियों का प्रशस्त बतलाया गया है । मृदुल, मनोहररोमावलि से विभूषित अत्यन्त पसीना न होने वाले सुगन्धित शरीर जिन स्त्रियों के हों वे पूजनीय हैं ॥ ९९ ॥

नोद्वहेत्कपिलां कन्यां नाधिकाङ्‌गीं न रोगिणीम् ।
नालोमिकां नातिह्रस्वां न वाचाटां न पिङ्‌गलाम् ॥ १०० ॥
कपिल (भूरे) वर्ण की कन्या का विवाह न करें । इसी प्रकार रुग्ण, अधिक अंगों वाली, लोम विहीन, वामनाकृति, वकवादिनी एवं पिंगल वर्णवाली कन्याओं के साथ विवाह नहीं करना चाहिये ॥ १०० ॥

नर्क्षवृक्षनदीनाम्नीं नान्त्यपर्वतनामिकाम् ।
न पक्ष्यहिप्रेष्यनाम्नीं न च भीषणनामिकाम् ॥ १०१ ॥
नदी, वृक्ष, नक्षत्र, पर्वत, पक्षी, सर्प, दासादि भाव व्यञ्जक तथा भयानक नाम जिन कन्याओं के हों उनके साथ भी विवाह नहीं करना चाहिये ॥ १०१ ॥

अव्यङ्‌गाङ्‌गीं सौम्यनाम्नीं हंसवारणगामिनीम् ।
तनुलोमकेशदशनां मृदङ्‌गीमुद्वहेत्स्त्रियम् ॥ १०२ ॥
मनोहर अंगोंवाली सुन्दर नाम से विभूषित, हंस एवं हाथी के समान गमन करमे वाली, सूक्ष्म लोभ, सूक्ष्म केश एवं सूक्ष्म दांतों वाली कोमलाङ्गी स्त्री के साथ विवाह करना चाहिये ॥ १०२ ॥

महान्त्यपि समृद्धानि गोजाविधनधान्यतः ।
स्त्रीसम्बन्धे दशैतानि कुलानि परिवर्जयेत् ॥ १०३ ॥
प्रचुर धन-धान्य सम्पत्ति के समूह हों, गौ, अज, (बकरी) अवि (भेंड) आदि दूध देने वाले पशुओं की भी अधिकता हो, किन्तु फिर भी इन दस कुलों को स्त्री सम्बन्ध करते हुए छोड़ देना चाहिये ॥ १०३ ॥

हीनक्रियं निष्पुरुषं निश्छन्दोरोमशार्शसम् ।
क्षयामयाव्यपस्मारिश्वित्रकुष्ठिकुलानि च ॥ १०४ ॥
क्रियाहीन, पौरुषरहित, वेदविहीन, अधिकरोमवाले, अर्श रोग वाले, क्षय रोगवाले, मृगी रोग वाले, सर्वदा किसी न किसी रोग में ग्रस्त रहने वाले, श्वेत कुष्ठ एवं गलित कुष्ठ वाले कुलों के साथ विवाह संस्कार न करे ॥ १०४ ॥

पादौ सुगुल्फौ प्रथमं प्रतिष्ठौ
    जङ्‌घे द्वितीयं च सुजानुचक्रे ।
मेढ्रोरुगुह्यं च ततस्तृतीयं
    नाभिः कटिश्चेति चतुर्थमाहुः ॥ १०५ ॥
स्त्रियों के दोनों पैर और गुल्फ प्रथम प्रशंसनीय माने गये हैं । फिर सुन्दर जानु (घुटने) भाग से सुशोभित जंघाओं की प्रशंसा में द्वितीय स्थान हैं । फिर मेढ़ (लिङ्ग) उरु एवं गुह्याङ्ग का तृतीय स्थान है, कटि एव नाभि का चतुर्थ स्थान बतलाया गया है ॥ १०५ ॥

उदरं कथयन्ति पञ्चमं हृदयं षष्ठमथ स्तनान्वितम् ।
अथ सप्तममंसजत्रुणी कथयन्त्यष्टममोष्ठकन्धरे ॥ १०६ ॥
पाँचवाँ स्थान सुन्दरता में उदर का है, स्तनमण्डल समेत हृदय का छठा स्थान है । कंधा और उसकी सन्धि का सातवाँ तथा दोनों ओठों का आठवाँ स्थान है ॥ १०६ ॥

नवमं नयने च सभ्रुणी सललाटं दशमं शिरस्तथा ।
अशुभेष्वशुभं दशाफलं चरणं चरणाद्यशुभेषु शोभनम् ॥ १०७ ॥
नवाँ स्थान सुन्दर भौहों से युक्त नेत्रों का तथा दसवाँ स्थान सुन्दर ललाट से सुशोभित शिर का है । इन चरणादि अङ्गों के उपर्युक्त लक्षणों के अनुसार शुभ होने पर शुभ दशा एवं फल भोगना पड़ता है, अशुभ होने पर अशुभ भोगना पड़ता है ॥ १०७ ॥

इदं महात्मा स महानुभावः शचीनिमित्तं गुरुरब्रवीद्द्विजाः ।
शक्रेण पृष्टः सविशेषमुत्तमं संलक्ष्यमुक्तं वरयोषलक्षणम् १ ॥ १०८ ॥
द्विजवृन्द ! महानुभाव एवं परममहात्मा बृहस्पति ने इन्द्र द्वारा शची के लिए पूछे जाने पर स्त्रियों के इन समस्त लक्षणों को विशेषता पूर्वक बतलाया था ॥ १०८ ॥

मत्सकाशात्पुनः श्रुत्वा लक्षणं पुरुषस्य च ।
यथाधुना भवद्‌भिस्तु श्रुतं मत्तो द्विजोत्तमाः ॥ १०९ ॥
हे द्विजवृन्द ! जिस प्रकार आप लोगों ने स्त्रियों के समस्त शुभाशुभ लक्षणों को सुना है उसी प्रकार पुरुषों के समस्त लक्षणों को मुझसे सुनकर अवगत कर लीजिये ॥ १०९ ॥

लक्षणेभ्यः प्रशस्तं तु स्त्रीणां सद्वृत्तमुच्यते ।
सद्वृत्तमुक्त्वा या स्त्री सा प्रशस्ता न च लक्षणैः ॥ ११० ॥
मैंने जिन शुभाशुभ फलदायक लक्षणों की ऊपर चर्चा की है, उनसे बढ़कर स्त्रियों के सदाचरण की प्रशंसा की गई है । अच्छे लक्षणों वाली भी स्त्री यदि सदाचरण विहीन है तो वह प्रशंसनीय नहीं है ॥ ११० ॥

ईदृग्लक्षणसम्पन्नां सुकन्यामुद्वहेत्तु यः ।
ऋद्धिर्वृद्धिस्तथा कीर्तिस्तत्र तिष्ठति नित्यशः ॥ १११ ॥
इन उपर्युक्त शुभ लक्षणों से सुशोभित सुकन्या के साथ जो विवाह करता है, उसके गृह में सर्वदा ऋद्धि, वृद्धि एवं कीर्ति का निवास रहता है ॥ १११ ॥

इति श्रीभविष्ये महापुराणे शतार्द्धसाहस्र्यां
संहितायां ब्राह्मे पर्वणि स्त्रीलक्षणवर्णनं
नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥
श्री भविष्यमहापुराण के ब्रह्मचर्य पर्व में स्त्रीलक्षण वर्णन नामक पाँचवाँ अध्याय समाप्त ॥ ५ ॥

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