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भविष्य महापुराणम्

प्रथमं ब्राह्मपर्वम् - चतुर्थोऽध्यायः


प्रणवार्थसावित्रीमाहात्म्योपनयनविधिवर्णनञ्च
प्रणव के अर्थ, सावित्री के माहात्म्य तथा उपनयन की विधि का वर्णन -


सुमन्तुरुवाच -
केशान्तः षोडशे वर्षे ब्राह्मणस्य विधीयते ।
राजन्यबन्धोर्द्वाविंशे वैश्यस्य त्र्यधिके ततः ॥ १ ॥
सुमन्तु ने कहा-हे राजन् ! । ब्राह्मण का केशान्त संस्कार सोलहवें वर्ष में किया जाता है । क्षत्रियों का बाईसवें और वैश्य का तेईसवें वर्ष में करने का विधान है ॥ १ ॥

अमन्त्रिका सदा कार्या स्त्रीणां चूडा महीपते ।
संस्कारहेतोः कायस्य यथाकालं विभागशः ॥ २ ॥
हे महीपति ! स्त्रियों का चूड़ा संस्कार सर्वदा मंत्र रहित करना चाहिये । शरीर की रक्षा के लिए उसके संस्कारों का कालक्रमानुसार विभाग किया गया है ॥ २ ॥

वैवाहिको विधिः स्त्रीणां संस्कारो नैगमः स्मृतः ।
निवसेद्वा गुरोर्वापि गृहे वाग्निपरिक्रिया ॥ ३ ॥
स्त्रियों का केवल वैवाहिक संस्कार वेदानुमित कहा जाता है । उक्त उपनयन संस्कार के पूर्व (ब्रह्मचारी) गुरु के घर पर निवास करे अथवा अपने ही घर पर अग्न्याधान करता रहे ॥ ३ ॥

एष ते कथितो राजन्नौपनायनिको विधिः ।
द्विजातीनां महाबाहो उत्पत्तिव्यञ्जकः परः ॥ ४ ॥
हे राजन् ! ब्राह्मणादि के उपनयन संस्कार को मैं बतला चुका । हे महाबाहु ! यह (उपनयन संस्कार) द्विजातियों के लिए भावी उत्पत्ति का व्यंजक है ॥ ४ ॥

कर्मयोगमिदानीं ते कथयामि महाबल ।
उपनीय गुरुः शिष्यं प्रथमं शौचमादिशेत् ॥ ५ ॥
हे महाबल ! अब मैं कर्मयोग के बारे में तुमसे बतला रहा हूँ । सर्वप्रथम गुरु शिष्य का उपनयन संस्कार करके शौच का आदेश करे ॥ ५ ॥

आचारमग्निकार्यं च सन्ध्योपासनमेव च ।
अध्यापयेत्तु सच्छिष्यान्सदाचान्त उदङ्‌मुखः ॥ ६ ॥
फिर आचमन अग्नि कार्य और सन्ध्योपासन का उपदेश करे । आचार्य सर्वदा उत्तराभिमुख हो आचमन करके योग्य शिष्यों को पढ़ाये ॥ ६ ॥

ब्रह्माञ्जलिकरो नित्यमध्याप्यो विजितेन्द्रियः ।
लघुवासास्तथैकाग्रः सुमना सुप्रतिष्ठितः ॥ ७ ॥
शिष्य सर्वथा अपनी इन्द्रियों को वश में रख ब्रह्माञ्जलि बाँधकर अध्ययन करे । लघु वस्त्र धारण करे । एकाग्रचित्त रहे । मन प्रसन्न रखे ॥ ७ ॥

ब्रह्मारम्भेऽवसाने च पादौ पूज्यौ गुरोः सदा ।
संहत्य हस्तावध्येयं स हि ब्रह्माञ्जलिः स्मृतः ॥ ८ ॥
दृढ़ रखे । वेदाध्ययन के प्रारम्भ और समाप्ति पर सर्वदा गुरु के दोनों चरणों की पूजा करनी चाहिये । दोनों हाथों को जोड़कर रखना चाहिये । यही ब्रह्माञ्जलि कही जाती है ॥ ८ ॥

व्यत्यस्तपाणिना कार्यमुपसङ्‌ग्रहणं गुरोः ।
सव्येन सव्यः स्प्रष्टव्यो दक्षिणेन तु दक्षिणः ॥ ९ ॥
शिष्य अपने हाथों को गुरु के चरणों (व्यत्यस्त) का पाणि से स्पर्श करना चाहिये अर्थात् उस समय अपने दाहिने हाथ से गुरु के दाहिने चरण का तथा बाएँ हाथ से बाएँ चरण का स्पर्श करना चाहिये ॥ ९ ॥

अध्येष्यमाणं तु गुरुर्नित्यकालमतन्द्रितः ।
अधीष्व भो इति ब्रूयाद्विरामोऽस्त्विति वारयेत् ॥ १० ॥
सर्वदा पढ़ाते समय गुरु निरालस भाव से शिष्य को यह आज्ञा करे कि अब पाठ प्रारम्भ करो । और इसी प्रकार पाठ समाप्ति पर 'अब बन्द करो' ऐसी आज्ञा दे ॥ १० ॥

ब्रह्मणः प्रणवं कुर्यादादावन्ते च सर्वदा ।
स्रवत्यनोङ्‌कृतं पूर्वं परस्ताच्च विशीर्यते ॥ ११ ॥
ओंकार का स्वरूप-वेदाध्ययन करते समय आरम्भ और समाप्ति पर सदा प्रणव का उच्चारण करे । क्योंकि वेदाध्ययन के पूर्व ओंकार का उच्चारण न करने से पाठ व्यर्थ हो जाता है । और समाप्ति पर न करने से सारा पाठ विशीर्ण हो जाता है ॥ ११ ॥

श्रूयतां चापि राजेन्द्र यथोङ्‌कारं द्विजोऽर्हति ।
प्राक्कूलान्पर्युपासीनः पवित्रैश्चैव पावितः ॥ १२ ॥
प्राणायामैस्त्रिभिः पूतस्ततस्त्वोङ्‌कारमर्हति ।
ॐकारलक्षणं चापि शृणुष्व कुरुनन्दन ॥ १३ ॥
हे राजेन्द्र ! सुनो, मैं बतला रहा हूँ कि ब्राह्मण को इस प्रणवोच्चारण करने की क्यो आवश्यकता होती है ? सुन्दर सरोवर अथवा नदी आदि के तट पर आसीन होकर भाव पूर्वक केवल तीन प्राणायाम करने से वह पवित्र हो जाता है, यही कारण है कि ब्राह्मण के लिए इसकी विशेष महत्ता है । हे कुरुनन्दन ! इस ओंकार के लक्षण को भी बतला रहा हूँ, सुनिये ॥ १२-१३ ॥

अकारं चाप्युकारं च मकारं च प्रजापतिः ।
वेदत्रयात्तु निर्गृह्य भूर्भुवः स्वरितीति च ॥ १४ ॥
त्रिभ्य एव तु वेदेभ्यः पादंपादमदूदुहत् ।
तदित्यृचोऽस्याः सावित्र्याः परमेष्ठी प्रजापतिः ॥ १५ ॥
एतदक्षरमेतां च जपन्व्याहृतिपूर्विकाम् ।
सन्ध्ययोरुभयोर्विप्रो वेद पुण्येन युज्यते ॥ १६ ॥
(इस ओंकार के) अकार, उकार तथा मकार प्रजापति ने तीनों वेदों से तथा भूः, भुवः और स्व: को ग्रहण कर इन तीनों वेदों से ही इनके एक एक पादों का दोहन किया है । इस सावत्री की ये तीनों ऋचाएँ हैं । इन उपर्युक्त तीनों अक्षरों को व्याहृतिपूर्वक दोनों सन्ध्याओं के अवसर पर जप करने वाला ब्राह्मण वेदाध्ययन का पुण्य प्राप्त करता है ॥ १४-१६ ॥

सहस्रकृत्वस्त्वभ्यस्य बहिरेतत्त्रिकं द्विजः ।
महतोऽप्येनसो मासात्त्वचेवाहिर्विमुच्यते ॥ १७ ॥
एकान्त में बाहर जाकर इस त्रिक् अर्थात् व्याहृति पूर्वक प्रणव का एक सहस्र बार जप करने वाला ब्राह्मण एक मास में घोर से घोर पाप से भी उसी प्रकार छूट जाता है जैसे सर्प अपने पुराने चर्म से ॥ १७ ॥

एतयर्चा विसंयुक्तः काले च क्रियया स्वया ।
विप्रक्षत्रियविड्योनिर्गर्हणां याति साधुषु ॥ १८ ॥
इस ऋचा से तथा अपनी क्रिया से विहीन होकर ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य सत्पुरुषों में निन्दा के पात्र बनते हैं ॥ १८ ॥

शृणुष्वैकमना राजन्परमं ब्रह्मणो मुखम् ।
ॐकारपूर्विकास्तिस्रो महाव्याहृतयोऽव्ययाः ॥ १९ ॥
त्रिपदा चैव सावित्री विज्ञेया ब्रह्मणो मुखम् ।
योऽधीतेऽहन्यहन्येतां त्रीणि वर्षाण्यतन्द्रितः ॥ २० ॥
स ब्रह्म परमभ्येति वायुभूतः खमूर्तिमान् ।
एकाक्षरं परं ब्रह्म प्राणायामः परन्तप ॥ २१ ॥
हे राजन् ! आप एकाग्र मन से इसे फिर से सुन लीजिये कि ओंकारपूर्वक ये तीनों अक्षय महाव्याहृतियाँ ब्रह्मा का परमोत्तममुख हैं । तीनों चरणों वाली सावित्री को ब्रह्मा का मुख समझना चाहिये । जो वाह्मण निरालस भाव से तीन वर्षों तक प्रतिदिन इसका अध्ययन करता है वह आकाश की भाँति व्यापक मूर्तिमान् वायु का स्वरूप धारण कर परम ब्रह्म में विलीन हो जाता है । एकाक्षर (ओंकार साक्षात् ) पर ब्रह्म स्वरूप है । प्राणायाम तभी तपों में बढ़कर है ॥ १९-२१ ॥

सावित्र्यास्तु परं नास्ति मौनात्सत्यं विशिष्यते ।
तपः किया होमक्रिया तथा दानक्रिया नृप ॥ २२ ॥
अक्षयान्ताः सदा राजन्यथाह भगवान्मनुः ।
अवरं स्वक्षरं ज्ञेयं ब्रह्म चैव प्रजापतिः ॥ २३ ॥
सावित्री मे बढ़कर माहात्म्य किसी का नहीं है, मौन की अपेक्षा सत्यभाषण की विशेषता है । हे राजन् ! जैसा कि भगवान् मनु ने कहा, तपस्या, हवन एवं दान-ये सारी प्रणय क्रियाएँ सर्वदा अक्षय फलदायिनी होती हैं । इनके अतिरिक्त एकाक्षर प्रणव भी अक्षय फलदायी है, इसे साक्षात् प्रजापति ब्रह्मा का स्वरूप जानना चाहिये ॥ २२-२३ ॥

विधियज्ञात्सदा राजञ्जपयज्ञो विशिष्यते ।
नानाविधैर्गुणोद्देशैः सूक्ष्माख्यातैर्नृपोत्तम ॥ २४ ॥
पांशुः स्याल्लक्षगुणः सहस्रो मानसः स्मृतः ।
ये पाकयज्ञाश्चत्वारो विधियज्ञेन चान्विताः ॥ २५ ॥
सर्वे ते जपयज्ञस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ।
जपादेव तु संसिध्येद्द्‌ब्राह्मणो नात्र संशयः ॥ २६ ॥
हे राजन् । हे नृपोत्तम विधानपूर्वक किये जाने वाले यज्ञ की अपेक्षा जप यज्ञ की विशेषता मानी जाती है । विविध प्रकार के गुणों एवं नामोच्चारण और सूक्ष्म से जप का कार्य उच्चारण के कारण उपांसु' जप का लाख गुना फल होता है, मानसिक जप का सहस्र गुणित फल स्मरण किया जाता है । जो विधि यज्ञों से समन्वित चारों पाक यज्ञ हैं, वे सभी जपयज़ की सोलहवीं कला की भी योग्यता नहीं रखते । ब्राह्मण को जप से ही सिद्धि की प्राप्ति होती है-इसमें सन्देह नहीं ॥ २४-२६ ॥

कुर्यादन्यन्न वा कुर्यान्मैत्रो ब्राह्मण उच्यते ।
पूर्वां सन्ध्यां जपंस्तिष्ठेत्सावित्रीमार्कदर्शनात् ॥ २७ ॥
पश्चिमां तु समासीनः सम्यगृक्षविभावनात् ।
दिनस्यादौ भवेत्पूर्वा शर्वर्यादौ तथा परा ॥ २८ ॥
सनक्षत्रा परा ज्ञेया अपरा सदिवाकरा ।
जपंस्तिष्ठन्परां सन्ध्यां नैशमेनो व्यपोहति ॥ २९ ॥
अपरां तु समासीनो मलं हन्ति दिवाकृतम् ।
नोपतिष्ठति यः पूर्वां नोपास्ते पश्चिमां नृप ॥ ३० ॥
स शूद्रवद्‌बहिष्कार्यः सर्वस्माद्द्विजकर्मणः ।
अपां समीपे नियतो नैत्यकं विधिमास्थितः ॥ ३१ ॥
कुछ दूसरा कार्य करे अथवा न करे पर वह व्राह्मण कहलाता है क्योंकि वह जप यज्ञ करता है । प्रातःकाल सूर्य के दर्शन होने तक खड़े-खड़े गायत्री का जप करना चाहिये और उसे इसी प्रकार सायंकाल की सन्ध्या को भी भली-भाँति नक्षत्रों के आकाश में समुदित हो जाने तक बैठकर करना चाहिए । दिन के प्रारम्भ में पूर्व सन्ध्या और रात्रि के प्रारम्भ में पर सन्ध्या होती है । पर अर्थात् सायंकाल की सन्ध्या सनक्षत्रा और पूर्व अर्थात् प्रातःकाल की सन्ध्या सदिवाकरा जाननी चाहिए । परासन्ध्या का जप करने से रात्रि का तथा अपरा का जप करने से दिन का पापकर्म नष्ट होता है । हे नप ! जो व्राह्मण इन पूर्वा और परा सन्ध्याओं की उपासना नहीं करता वह द्विजाति के सभी अधिकारों से शूद्र के समान बाहर कर देने योग्य है । दसकी उपासना जलाशय के समीप संयमपूर्वक नित्यविधि के साथ करनी चाहिए ॥ २७-३१ ॥

सावित्रीमप्यधीयीत गत्याऽरण्यं समाहितः ।
वेदोपकरणे राजन्स्वाध्याये चैव नैत्यके ॥ ३२ ॥
नात्र दोषोस्त्यनध्याये होममन्त्रेषु वा विभो ।
नैत्यके नास्त्वनध्यायो ब्रह्मसत्रं हि तत्कृतम् ॥ ३३ ॥
अथवा अरण्य में जाकर समाहित चित्त हो इसका अध्ययन (जप) करना चाहिए । हे राजन् ! वेदोक्त नैत्यिक स्वाध्याय एवं हवन के मन्त्रों में अनध्याय का दोष नहीं लगता, क्योंकि ये सब ब्रह्मसूत्र कहे जाते हैं ॥ ३२-३३ ॥

ब्रह्माहुतिहुतं पुष्यमनध्यायवषट्कृतम् ।
ऋगेकां यस्त्वधीयीत विधिना नियतो द्विजः ॥ ३४ ॥
तस्य नित्यं क्षरत्येषा पयो मेध्यं घृतं मधु ।
अग्निशुश्रूषणं भैक्षमधः शय्यां गुरोर्हितम् ॥ ३५ ॥
आसमावर्तनात्कुर्यात्कृतोपनयनो द्विजः ।
आचार्यपुत्रशुश्रूषां ज्ञानदो धार्मिकः शुचिः ॥ ३६ ॥
आप्तः शक्तोन्नदः साधुः स्वाध्याप्या दश धर्मतः ।
नापृष्टः कस्यचिद्‌ब्रूयान्न चान्यायेन पृच्छतः ॥ ३७ ॥
ब्रह्म अर्थात् वेदमन्त्रों का उच्चारण करना, मन्त्रोच्चारण पूर्वक आहुति देना, अनध्याय का विचार कर अध्ययन करना तथा वषट्कार करना पुण्य है । जो ब्राह्मण नियमपूर्वक सविधि एवं ऋचा का भी अध्ययन करता है, उसे वह (ऋचा) पवित्र दूध, घृत, मधु देती है । अग्नि की शुश्रूषा, भिक्षाटन, भूमिशयन, गुरु का हित (इन सब कर्तव्यों का पालन) उपनयन संस्कार से संस्कृत द्विज समावर्तन संस्कार पर्यन्त करे । आचार्य पुत्र, सेवक, ज्ञानदाता, धार्मिक, पवित्र यथार्थवक्ता, समर्थ, अन्नदाता, साधु प्रकृति वाले इन दशों को धर्मपूर्वक पढ़ाना चाहिए । बिना पूछे किसी से कुछ न बोले और न अन्यायपूर्वक पूछे जाने पर ही बोले ॥ ३४-३७ ॥

जानन्नपि हि मेधावी जडवल्लोक आचरेत् ।
अधर्मेण च यः प्राह यश्चाधर्मेण पृच्छति ॥ ३८ ॥
तयोरन्यतरः प्रैति विद्वेषं वा निगच्छति ।
धर्मार्थौ यत्र न स्यातां शुश्रूषा चापि तद्विधा ॥
न तत्र विद्या वप्तव्या शुभं बीजमिवोषरे ॥ ३९ ॥
(अन्याय का जहाँ सम्बन्ध हो) उसे जानता हुआ भी मेधावी जड़ बनकर चुप रह जाय क्योंकि जो अधर्म से बोलता है अथवा जो अधर्मपूर्वक किसी से (कुछ कहलाने के लिए) पूछता है, उन दोनों में से एक मर जाता है अथवा (लोगों के साथ) शत्रुता को प्राप्त करता है । जिस शिष्य को पढ़ाने से धर्म अथवा अर्थ की प्राप्ति न हो और यथोचित शुश्रूषा भी न मिले, वहाँ पर ऊसर भूमि में अच्छे बीज की तरह विद्या को नहीं बोना चाहिये ॥ ३८-३९ ॥

विद्ययैव समं कामं मर्तव्यं ब्रह्मवादिना ।
आपद्यपि हि घोरायां न त्वेनामीरिणे वपेत् ॥ ४ ॥०
ब्रह्मवेत्ता को विद्या ही के साथ भले मर जाना पड़े, किन्तु कठिन से भी कठिन आपत्ति आने पर भी वह अपात्र में विद्या को न बोये ॥ ४० ॥

विद्या ब्राह्मणमित्याह शेवधिस्तेऽस्मि रक्ष माम् ।
असूयकाय मा प्रादास्तथा स्यां वीर्यवत्तमा ॥ ४१ ॥
विद्या ने ब्राह्मण के समीप आकर कहा कि तुम मेरी रक्षा करो, मैं तुम्हारी निधि हूँ मुझे एसे व्यक्ति को न देना, जो गुणों में भी दोष दिखलाता है । यदि तुम ऐसा करोंगे तो मैं तुम्हारे लिए परम बलवती सिद्ध होऊँगी ॥ ४१ ॥

शेवं सुखमुशन्तीह केचिज्ज्ञानं प्रचक्षते ।
तौ धारयति वै यस्माच्छेवधिस्तेन सोच्यते ॥ ४२ ॥
कुछ लोग शेष शब्द का अर्थ सुख बतलाते हैं और कुछ ज्ञान बतलाते हैं, इन दोनों को यतः वह धारण करती है, अतः शेवधि नाम से उसकी प्रसिद्धि है ॥ ४२ ॥

यमेव तु शुचिं विद्यान्नियतं ब्रह्मचारिणम् ।
तस्मै मां ब्रूहि विप्राय निधिपायाप्रमादिने ॥ ४३ ॥
(विद्या ने आगे चलकर ब्राह्मण से कहा कि) तुम जिस ब्रह्मचारी को नियमनिष्ठ एवं पवित्र भावों तथा आचरण वाला समझना उसी परम सावधान चेता एवं निधि की यथार्थ रक्षा करने वाले ब्राह्मण को ही मुझे सौंपना ॥ ४३ ॥

ब्रह्म यस्त्वननुज्ञातमधीयानादवाप्नुयात् ॥ ४४ ॥
लौकिकं वैदिकं वापि तथाध्यात्मिकमेव च ।
स याति नरकं घोरं रौरवं भीमदर्शनम् ॥ ४५ ॥
जो वेद का अध्ययन करते हुए, बिना उसकी आज्ञा से वेद-ज्ञान अथवा लौकिक, वैदिक तथा आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करता है, वह भयंकर रौरव नरक को जाता है ॥ ४४-४५ ॥

अणुमात्रात्मकं देहं षोडशार्धमिति स्मृतम् ।
आददीत यतो ज्ञानं तं पूर्वमभिवादयेत् ॥ ४६ ॥
अणुमात्रात्मक देह (सूक्ष्म शरीर) को आठ तत्वों से निर्मित कहा गया है । जिससे ज्ञान प्राप्त करे उसका पहले (उठकर) अभिवादन करना चाहिए ॥ ४६ ॥

सावित्रीसारमात्रोऽपि वरो विप्रः सुयन्त्रितः ।
नायन्त्रितस्त्रिवेदोऽपि सर्वाशी सर्वविक्रयी ॥ ४७ ॥
केवल सावित्री का ज्ञान रखने वाला भी संयमी ब्राह्मण जो अनियन्त्रितचित्त, सर्वभक्षी तथा सर्वविक्रमी है उस त्रिवेदज्ञ ब्राह्मण से भी श्रेष्ठ है ॥ ४७ ॥

शय्यासनेध्याचरिते श्रेयसा न समाविशेत् ।
शय्यासनस्थश्चैवेनं प्रत्युत्थायाभिवादयेत् ॥ ४८ ॥
शय्या एवं आसन पर गुरु के सामने बैठकर अध्ययनादि कार्य करने वाला कल्याणभाजन नहीं होता । यदि शय्या पर स्थित भी हो तो गुरु के आने पर उठकर अभिदादन करे ॥ ४८ ॥

ऊर्ध्वं प्राणा ह्युत्क्रामन्ति यूनः स्थविर आगते ।
प्रत्युत्थानाभिवादाभ्यां पुनस्तान्प्रतिपद्यते ॥ ४९ ॥
वृद्धों अर्थात् गुरुजनों के सामने आने पर युवकों के प्राण ऊपर की ओर खिंच उठते हैं अर्थात् बाहर निकल जाना चाहता है और अभिवादन करने से वह उनको पुनः प्राप्त करता है ॥ ४९ ॥

अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः ।
चत्वारि सम्यग्वर्धन्ते आयुः प्रज्ञा यशो बलम् ॥ ५० ॥
सर्वदा वृद्धों अर्थात् गुरुजनों की सेवा में निरत रहने वाला तथा उन्हें अभिवादन करने वाले की आयु, बुद्धि, यश और बल इन चार वस्तुओं की अभिवृद्धि होती है ॥ ५० ॥

अभिवादपरो विप्रो ज्यायांसमभिवादयेत् ।
असौ नामाहमस्मीति स्वनाम परिकीर्तयेत् ॥ ५१ ॥
अपने से बड़े लोगों को प्रणाम करने से पूर्व 'असौ नाम अहमस्मि' मैं अमुक नामक व्यक्ति हूँ-इस प्रकार अपना परिचय देते हुए अभिवादन करे ॥ ५१ ॥

नामधेयस्य ये केचिदभिवादं न जानते ।
तान्प्राज्ञोऽहमिति ब्रूयात्स्त्रियः सर्वास्तथैव च ॥ ५२ ॥
जो लोग अज्ञानता के कारण उपर्युक्त नामोच्चारणपूर्वक अभिवादन करने के अर्थ को न समझते हो उन्हें 'मैं हूँ' ऐसा स्पष्ट कहते हुए अभिवादन करें । सभी स्त्रियों में भी ऐसा ही व्यवहार करें ॥ ५२ ॥

भोः शब्दं कीर्तयेदन्ते स्वस्य नाम्नोभिवादने ।
नाम्नः स्वरूपभावो हि भो भाव ऋषिभिः स्मृतः ॥ ५३ ॥
अपने नाम का उच्चारण कर प्रणाम करते समय अन्त में 'भोः' अर्थात् अभिवादन में "असौ नाम अहमस्मि भोः' शब्द का उच्चारण करना चाहिए । नाम का स्वरूप ही भोः शब्द का स्वरूप है-ऐसा ऋषियों ने बतलाया है ॥ ५३ ॥

आयुष्मान्भव सौम्येति वाच्यो विप्रोऽभिवादने ।
अकारश्चास्य नाम्नोऽन्ते वाच्यः पूर्वाक्षरः प्लुतः ॥ ५४ ॥
अभिवादन करने पर ब्राह्मण को हे सौम्य ! दीघार्यु हो, ऐसा आशीर्वाद देना चाहिए । उसके नाम के अन्त में अकार का उच्चारण करना चाहिए । नाम का पूर्वाक्षर प्लुत अर्थात् त्रिमात्रिक उच्चारित होना चाहिए ॥ ५४ ॥

यो न वेत्त्यभिवादस्य विप्रः प्रत्यभिवादनम् ।
नाभिवाद्यः स विदुषा यथा शूद्रस्तथैव सः ॥ ५५ ॥
जो ब्राह्मण अभिवादन करने पर प्रत्यभिवादन (अभिवादन का उत्तर) करना नहीं जानता, उसका अभिवादन विद्वान् पुरुष न करें, क्योंकि जैसे एक शूद्र है, वैसा ही वह भी है ॥ ५५ ॥

अभिवादे कृते यस्तु न करोत्यभिवादनम् ।
आशीर्वा कुरुशार्दूल स याति नरकं ध्रुवम् ॥ ५६ ॥
जो ब्राह्मण किसी के अभिवादन करने पर प्रत्यभिवादन नहीं करता, अथवा आशीर्वाद नहीं देता, हे कुरुवंश शार्दूल ! वह निश्चय ही नरकगामी होता है ॥ ५६ ॥

अभीति भगवान्विष्णुार्वादयामीति शङ्‌करः ।
द्वावेव पूजितौ तेन यः करोत्यभिवादनम् ॥ ५७ ॥
अभिवादयामि (आपको प्रणाम कर रहा हूँ) इस वाक्य में 'अभि' इस शब्द से भगवान् विष्णु और 'वादयामि' इस शब्द से शंकर-ये दोनों देवता उसमें पूजित हो जाते हैं, जो अभिवादन करता है ॥ ५७ ॥

ब्राह्मणं कुशलं पृच्छेत्क्षत्रबन्धुमनामयम् ।
वैश्यं क्षेमं समागम्य शूद्रमारोग्यमेव तु ॥ ५८ ॥
ब्राह्मण को अभिवादन करने पर 'कुशल' शब्द कहकर वार्ता पूछनी चाहिये । क्षत्रियों 'अनाश्य' (स्वस्थ) कहकर वार्ता पूछनी चाहिए ! वैश्य का क्षेम (धन का संरक्षण, और परायेधन का अपहरण न करना) कुशल और शूद्र का आरोग्य पूछना चाहिये ॥ ५८ ॥

न वाच्यो दीक्षितो नाम्ना यवीयानपि यो भवेत् ।
भो भवत्पूर्वकत्वेन इति स्वायम्भुवोऽब्रवीत् । ५९
अपने से छोटा भी हो यदि वह दीक्षित हो चुका है तो उसे नाम लेकर नहीं पुकारना चाहिये, प्रत्युत उसे पुकारते समय आदर व्यक्त करने के लिए भो अथवा भवत् (आप) शब्द का प्रयोग करना चाहिये । ऐसा स्वायम्भुव मनु ने बतलाया है ॥ ५९ ॥

परपत्नी तु या राजन्नसम्बद्धा तु योनितः ।
वक्तव्या भवतीत्येवं सुभगे भगनीति च ॥ ६० ॥
हे राजन् ! परकीय स्त्री के साथ जिसका अपने साथ यौन सम्बन्ध नहीं है, बातचीत करते समय 'भवती' (श्रीमती) सुभगे अथवा भगिनि (ऐसे) शब्दों का उच्चारण करना चाहिये ॥ ६० ॥

पितृव्यान्मातुलान्राजञ्छ्वशुरानृत्विजो गुरून् ।
असावहमिति ब्रूयात्प्रत्युत्थाय जघन्यजः ॥ ६१ ॥
हे राजन् ! अपने चाचा, मामा, श्वसुर, पुरोहित एवं गुरुजनों को उठकर 'असौ अहम्' (मैं यह हूँ) ऐसा सादर निवेदन करते हुए प्रणाम करे, क्योंकि उनके सामने वह स्वयं छोटा है ॥ ६१ ॥

मातृष्वसा मातुलानी श्वश्रूरथ पितृष्वसा ।
सम्पूज्या गुरुपत्नी च समास्ता गुरुभार्यया ॥ ६२ ॥
मौसी, मामी, सास, फूआ और गुरु पत्नी ये सभी गुरु पत्नी के ही समान पूज्य हैं ॥ ६२ ॥

ज्येष्ठस्य भ्रातुर्या भार्या सवर्णाहन्यहन्यपि ।
पूजयन्प्रयतो विप्रो याति विष्णुसदो नृप ॥ ६३ ॥
हे राजन् ! सवर्ण ज्येष्ठ भाई की जो स्त्री हो उसकी प्रतिदिन पूजा करनी चाहिये । नियतेन्द्रिय होकर इस प्रकार का आचरण करने वाला ब्राह्मण विष्णुलोक को प्राप्त करता है ॥ ६३ ॥

प्रवासादेत्य सम्पूज्या ज्ञातिसम्बन्धियोषितः ।
पितुर्या भगिनी राजन्मातुश्चापि विशाम्पते ॥ ६४ ॥
आत्मनो भगिनी या च ज्येष्ठा कुरुकुलोद्वह ।
सदा स्वमातृवद्धृत्तिमातिष्ठेद्‌भारतोत्तम ॥ ६५ ॥
परदेश से लौटकर अपनी जाति बिरादरी की स्त्रियों की भी सादर पूजा करनी चाहिये । हे राजन् ! हे भरत कुल श्रेष्ठ ! कुरुकुलनन्दन ! अपने पिता की बहिन, माता की बहिम, अपनी बड़ी बहिन, इन सबके साथ सर्वदा माता के समान व्यवहार करना चाहिये ॥ ६४-६५ ॥

गरीयसी ततस्ताभ्यो माता ज्ञेया नराधिप ।
पुत्रमित्रभागिनेया द्रष्टव्या ह्यात्मना समाः ॥ ६६ ॥
इन सबों से माता अधिक श्रेष्ठ है-ऐसा विचार भी रखना चाहिये । हे नराधिप, अपने पुत्र, मित्र तथा भांजे को सर्वदा अपने ही समान देखना चाहिये ॥ ६६ ॥

दशाब्दाख्यं पौरसख्यं पञ्चाब्दाख्यं कलाभृताम् ।
अब्दपूर्वं श्रोत्रियाणां स्वल्पेनापि स्वयोनिषु ॥ ६७ ॥
एक ग्राम में निवास करने वाले के साथ दस वर्ष में मित्रता कही जाती है । कलाकारों अर्थात् कला से जीविका उपार्जित करने वालों के साथ पाँच वर्ष में मित्रता कही जाती है, श्रोत्रियों के साथ तीन वर्ष में मित्रता होती है, किन्तु अपने कुल अथवा परिवारादि के सम्बन्ध में बहुत स्वल्प काल (दो वर्ष) में ही मित्रता सम्पन्न होती है ॥ ६७ ॥

ब्राह्मणं दशवर्षं च शतवर्षं च भूमिपम् ।
पितापुत्रौ विजानीयाद्‌ब्राह्मणस्तु तयोः पिता ॥ ६८ ॥
इत्येवं क्षत्रियपिता वैश्यस्यापि पितामहः ।
प्रपितामहश्च शूद्रस्य प्रोक्तो विप्रो मनीषिभिः ॥ ६९ ॥
दस वर्ष की अवस्था का व्राह्मण सौ वर्ष की अवस्था का क्षत्रिय इन दोनों को परस्पर पिता पुत्र की भाँति जानना चाहिये । इन दोनों में ब्राह्मण पिता है । और इस प्रकार वह दस वर्षीय वाहाण क्षत्रिय का तो पिता है, वैश्य का पितामह और शूद्र का प्रपितामह है, मनीषियों ने इस विषय में ऐसा ही निर्णय दिया है ॥ ६८-६९ ॥

वित्तं बन्धुर्वयः कर्म विद्या भवति पञ्चमी ।
एतानि मान्यस्थानानि गरीयो यद्यदुत्तरम् ॥ ७० ॥
धन, बन्धु, अवस्था, कर्म और विद्या-ये पाँच माननीय होने के कारण होते हैं, (अर्थात् सम्मान के यही कारण हैं) इनमें एक की अपेक्षा दुसरा, दूसरे की अपेक्षा तीसरा, अर्थात् उत्तरोत्तर एक दूसरे से अधिक श्रेष्ठ हैं ॥ ७० ॥

पञ्चानां त्रिषु वर्गेषु भूयांसि गुणवन्ति च ।
यस्य स्युः सोऽत्र मानार्हः शूद्रोऽपि दशमीं गतः ॥ ७१ ॥
तीनों उच्च जातियों में ये पांचों गुण जिनमें अधिक मात्रा में हों, वही सम्मान का पात्र होता है, शूद्र भी यदि अपनी दसवीं अवस्था पर है, अर्थात् बहुत वृद्ध हो चुका है, तो वह भी सम्माननीय है ॥ ७१ ॥

चक्रिणो दशमीस्थस्य रोगिणो भारिणः स्त्रियाः ।
स्नातकस्य तु राज्ञश्च पन्था देयो वरस्य च ॥ ७२ ॥
रथ चलाने वाले अतिवृद्ध रोगी, भारवाहक, स्त्री, स्नातक और राजा एवं (विवाह करने के लिए जाते हुए) वर इनके जाने के लिए मार्ग छोड़ देना चाहिये ॥ ७२ ॥

एषां समागमे तात पूज्यौ स्नातकपार्थिवौ ।
आभ्यां समागमे राजन्स्नातको नृपमानभाक् ॥ ७३ ॥
हे राजन् ! उन सबों के एकत्र समागम होने पर स्नातक और राजा-ये दो पूजा के योग्य हैं । इन दोनों के साथ समागम में स्नातक राजा से भी सम्मान का अधिकारी है (अर्थात् वही सर्वप्रथम पूज्य है) ॥ ७३ ॥

अध्यापयेद्यस्तु शिष्यं कृत्वोपनयनं द्विजः ।
सरहस्यं सकल्पं च वेदं भरतसत्तम ।
तमाचार्यं महाबाहो प्रवदन्ति मनीषिणः ॥ ७४ ॥
जो ब्राह्मण उपनयन संस्कार सम्पन्न कर शिष्य को सरहस्य तथा कल्प समेत वेद का अध्यापन कराता है, हे महाबाहु ! मनीषी पण्डित लोग उसे 'आचार्य' कहते हैं ॥ ७४ ॥

एकदेशं तु वेदस्य वेदाङ्‌गान्यपि वा पुनः ।
योऽध्यापयति वृत्त्यर्थमुपाध्यायः स उच्यते ॥ ७५ ॥
वेद की कोई शाखा, अथवा वेदाङ्गों को जो अपनी जीविका निर्वाह के लिए अध्यापन करता है, वह 'उपाध्याय' कहा जाता है ॥ ७५ ॥

निषेकादीनि कार्याणि यः करोति नृपोत्तम ।
अध्यापयति चान्येन स विप्रो गुरुरुच्यते ॥ ७६ ॥
हे नृपोतम ! जो गर्भाधानादि संस्कार कर्म करता है, और अन्नादि से पालन करते हुए विद्याध्ययन कराता है, वह ब्राह्मण 'गुरु' कहा जाता है ॥ ७६ ॥

अग्न्याधेयं पाकयज्ञानग्निष्टोमादिकान्मखान् ।
यः करोति वृतो यस्य स तस्यर्त्विगिहोच्यते ॥ ७७ ॥
अग्न्याधान पाकयज्ञादि तथा अग्निष्टोम प्रभृति यज्ञों को वरण लेकर जो सम्पन्न करता है, वह इस लोक में 'ऋत्विक्' कहा जाता है ॥ ७७ ॥

य आवृणोत्यवितथं ब्रह्मणा श्रवणावुभौ ।
स माता स पिता ज्ञेयस्तं न द्रुह्येत्कथञ्चन १ ॥ ७८ ॥
जो शुद्धस्वरादि को उच्चारणपूर्वक दोनों कानों को भरता है (अर्थात् सिसाता है) उसी को माता और पिता अर्थात् अध्यापक जानना चाहिये, उनके साथ कभी द्रोह भावना नहीं रखनी चाहिये ॥ ७८ ॥

उपाध्यायान्दशाचार्यं आचार्याणां शतं पिता ।
सहस्रेण पितुर्माता गौरवेणातिरिच्यते ॥ ७९ ॥
उपाध्याय से दस गुना अधिक सम्मान एवं प्रतिष्ठा आचार्य की है, आचार्य से सौ गुना अधिक सम्मान पिता है । पिता की अपेक्षा सहस्र गुणित अधिक सम्मान माता का है ॥ ७९ ॥

उत्पादकब्रह्मदात्रोर्गरीयान्ब्रह्मदः पिता ।
ब्रह्मजन्म हि विप्रस्य प्रेत्य चेह च शाश्वतम् ॥ ८० ॥
उत्पन्न करने वाले और वेद ज्ञान प्रदान करने वाले इन दोनों में ब्रह्मज्ञान प्रदान करने वाला हो पिता और श्रेष्ठ है, क्योंकि ब्राह्मण के लिए ब्रह्म अर्थात् वेद जानने के लिए जन्म अर्थात् उपनयन संस्कार ही इह लोक परलोक-दोनों में शाश्वत कल्याण देने वाला है ॥ ८० ॥

कामान्माता पिता चैनं यदुत्पादयतो मिथः ।
सम्भूतिं तस्य तां विद्याद्यद्योनावभिजायते ॥ ८१ ॥
माता और पिता तो परस्पर कामना से उसकी उत्पत्ति करते हैं । जिसके द्वारा वह माता के गर्भ में आकर स्वरूप धारण करता है ॥ ८१ ॥

आचार्यस्तस्य तां जातिं विधिद्वेदपारगः ।
उत्पादयति सावित्र्या सा सत्या साऽजरामरा ॥ ८२ ॥
विधिवत् वेदों का पारगामी आचार्य उसको ही सावित्री का दान करके जो जाति जन्म देता है वह सत्य अजर एवं अमर है ॥ ८२ ॥

उपाध्यायमादितः कृत्वा ये पूज्याः कथितास्तव ।
महागुरुर्महाबाहो सर्वेषामधिकः स्मृतः ॥ ८३ ॥
महाबाहो ! ऊपर मैंने जिन उपाध्याय आदि पूज्य वर्गों की चर्चा की है, उन सबों में महागुरु श्रेष्ठ कहा जाता है ॥ ८३ ॥

सहस्रशतसंख्योऽसावाचार्याणामिदं मतम् ।
चतुर्णामपि वर्णानां स महागुरुरुच्यते ॥ ८४ ॥
एक लाख अधिक गुण वाले हैं-ऐसा आचार्यों का मत है । वह महागुरु चारों वर्गों में कहा जाता है ॥ ८४

शतानीक उवाच -
य एते भवता प्रोक्ता उपाध्यायमुखा द्विजाः ।
विदिता एव मे सर्वे न महागुरुरेव हि ॥ ८५ ॥
शतानीक बोले-आपने उपाध्याय प्रभृति जिन ब्राह्मणों की अभी चर्चा की है, उन सबको तो मैं जानता हूँ किन्तु महागुरु को नहीं जानता ॥ ८५

सुमन्तुरुवाच -
जयोपजीवी यो विप्रः स महागुरुरुच्यते ।
अष्टादशपुराणानि रामस्य चरितं तथा ॥ ८६ ॥
विष्णुधर्मादयो धर्माः शिवधर्माश्च भारत ।
कार्ष्णं वेदं पञ्चमं तु यन्महाभारतं स्मृतम् ॥ ८७ ॥
श्रौता धर्माश्च राजेन्द्र नारदोक्ता महीपते ।
जयेति नाम एतेषां प्रवदन्ति मनीषिणः ॥ ८८ ॥
सुमन्तु ने कहा-हे राजन् ! जो ब्राह्मण 'जय' से जीविका उपार्जित करने वाला है । वही महागुरु कहा जाता है ॥ (अब सुनिये कि जय का क्या तात्पर्य है) अठारहों पुराण, भगवान् रामचन्द्र के पुण्य चरित, विष्णु तथा शिव सम्प्रदाय के धर्म, कृष्ण द्वैपायन का पाँचवा वेद, जिसे लोग महाभारत भी कहते हैं, हे राजेन्द्र ! नारद के कहे गये श्रौत धर्म-इन सबों को पण्डित लोग जय नाम बतलाते हैं ॥ ८६-८८ ॥

एवं विप्रकदम्बस्य धारकःप्रवरः स्मृतः ।
यस्त्वेतानि समस्तानि पुराणानीह विन्दति ॥ ८९ ॥
भारतं च महाबाहो स सर्वज्ञो मतो नृणाम् ।
तस्मात्स पूज्यो राजेन्द्र वर्णैर्विप्रादिभिः सदा ॥ ९० ॥
जो इन समस्त पुराणादि एवं महाभारत को भलीभाँति अधिनत कर लेता है, वह ब्राह्मण समुदाय का धारक (अध्यक्ष) नेता एवं श्रेष्ठ जन कहा जाता है । हे महाबाहु ! मनुष्यों में वह सर्वज्ञ समझा जाता है । हे राजेन्द्र ! यही कारण है कि वह विप्रादि वर्णों द्वारा सर्वदा पूजनीय है ॥ ८९-९० ॥

किं त्वया न श्रुतं वाक्यं यदाह भगवान्विभुः ।
अल्पं वा बहु वा यस्य श्रुतस्योपकरोति यः ॥
तमपीह गुरुं विद्याच्छ्रुतोपक्रियया तया३ ॥ ९१ ॥
क्या तुमने वह बात नहीं सुनी है, जिसे परमैश्वर्यशाली भगवान् ने स्वयं कही है । थोड़ा या बहुत, वेद ज्ञान के बारे में जो कोई उपकार करता है, उसे भी इस वेद ज्ञान के सहायक होने के नाते इस लोक में गुरु जानना चाहिये ॥ ९१ ॥

ब्राह्मस्य जन्मनः कर्ता स्वधर्मस्य च शासिता ।
बालोऽपि विप्रो वृद्धस्य पिता भवति धर्मतः ॥ ९२ ॥
ब्रह्मज्ञान के विषय में जन्म देने वाला अर्थात् वेदज्ञान कर्ता और अपने धर्म का पालक विप्र बालक होकर भी वृद्ध धर्मतः पिता होता है ॥ ९२ ॥

अध्यापयामास पितॄञ्छिशुराङ्‌गिरसः कविः ।
पुत्रका इति होवाच ज्ञानेन परिगृह्य ताम् ॥ ९३ ॥
आंगिरस (अंगिरा के पुत्र) कवि ने शैशवावस्था में अपने पितरों को ज्ञान का उपदेश किया और यह बात जानते हुए भी कि ये हमारे पितर हैं, उनको पुत्र कहकर बुलाया ॥ ९३ ॥

ते तमर्थमपृच्छन्त देवानागतमन्यवः ।
देवाश्चैतान्समेत्योचुर्न्याय्यं वै शिशुरुक्तवान् ॥ ९४ ॥
उनके इस व्यवहार से क्रुद्ध पितरगण ने देवगणों से इसका कारण पूछा । देवताओं ने उन्हें एकत्रित कर उनसे कहा कि शिशु (कवि) ने आप लोगों को उचित ही कहा है ॥ ९४ ॥

अज्ञो भवति वै बालः पिता भवति मन्त्रदः ।
अज्ञं हि बालमित्याहुः पितेत्येव तु मन्त्रदम् ॥ ९५ ॥
पितामहेति जयदमित्यूचुस्ते दिवौकसः ।
जयो मन्त्रास्तथा वेदा देहमेकं त्रिधा कृतम् ॥ ९६ ॥
क्योंकि जो अज्ञ होता है वही बालक है और जो मंत्र का उपदेश करता है, वही पिता होता है । लोग अज्ञ को बालक, मन्त्रदाता को पिता तथा जयदाता (उक्त महाभारत पुराण, रामायणादि के उपदेशक) को पितामह कहते हैं-ऐसा देवताओं ने उन पितरों से कहा । जय, मंत्र तथा वेद-ये तीनों एक ही शरीर के तीन भाग किये गये हैं ॥ ९५-९६ ॥

नहायनैर्न पलितैर्न मित्रेण न बन्धुभिः ।
ऋषयश्चक्रिरे धर्मं योऽनूचानः स नो महान् ॥ ९७ ॥
ऋषियों ने धर्म की व्यवस्था अवस्था में बहुत वर्षों के होने से, बाल पक जाने से, मित्र अथवा बंधु होने से नहीं की, जो षडङ्गवेद का अधिकारी प्रवक्ता है, वही हम सबों में महान माना गया है ॥ ९७ ॥

ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च विशांपते ।
ज्येष्ठं वन्दन्ति राजेन्द्र सन्देहं शृणु वै यथा ॥ ९८ ॥
हे राजेन्द्र ! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र-इन चारों जातियों में जिसे ज्येष्ठ कहते हैं, उसे बतला रहा हूँ, सुनी ॥ ९८ ॥

ज्ञानतो वीर्यतो राजन्धनतो जन्मतस्तथा ।
शीलतस्तु प्रधाना ये ते प्रधाना मता मम ॥ ९९ ॥
हे राजन् ! (ब्राह्मणों में) ज्ञान से ज्येष्ठ होते हैं, (क्षत्रियों में) पराक्रम से, (वैश्यों में) धन से, एवं (शूद्रों में) जन्म से और शील से ज्येष्ठ माने जाते हैं-ऐसा हमारा मत है ॥ ९९ ॥

न तेन स्थविरो भवति येनास्य पलितं शिरः ।
यो वै युवाप्यधीयानस्तं देवाः स्थविरं विदुः ॥ १०० ॥
यदि किसी के शिर के बाल पक गये हैं तो वह उससे वृद्ध नहीं हो जाता जो जवान है और षडङ्ग वेदों का परिशीलन करने वाला है वही वृद्ध है क्योंकि देवता लोग उसी को वृद्ध जानते हैं ॥ १०० ॥

यथा काष्ठमयो हस्ती यथा चर्ममयो मृगः ।
यश्च विप्रोऽनधीयानस्त्रयस्ते नाम बिभ्रति ॥ १०१ ॥
निंद्य ब्राह्मण जैसे काष्ठ का बना हुआ हाथी और चमड़े का मृग केवल नामधारी रहता है, उसी प्रकार बिना अध्ययन का ब्राह्मण भी नामधारी रहता है-ये तीनों केवल नाम धारण करते हैं ॥ १०१ ॥

यथा योषाऽफला स्त्रीषु यथा गौर्गवि चाफला ।
यथा चाज्ञेऽफलं दानं यथा विप्रोऽनृचोऽफलः ॥ १०२ ॥
जैसे नपुंसक स्त्रियों के साथ स्त्री (संतान उत्पन्न करने में) विफल है, गौओं के साथ वंध्या गौ विफल है और मूर्ख को दान देना विफल है, उसी तरह वेद विहीन ब्राह्मण भी विफल है ॥ १०२ ॥

वैश्वदेवेन ये हीना आतिथ्येन विवर्जिताः ।
सर्वे तु वृषला ज्ञेयाः प्राप्तवेदा अपि द्विजाः ॥ १०३ ॥
किन्तु वेद प्राप्त करने वाले भी वे द्विज शूद्र हैं, जो बलिवैश्वदेव, और आतिथ्य सत्कार से विमुख रहते हैं ॥ १०३ ॥

नानृग्ब्राह्मणो भवति न वणिङ्‌न कुशीलवः ।
न शूद्रः प्रेषणं कुर्वन्नस्तेनो न चिकित्सकः ॥ १०४ ॥
जिस प्रकार वेदज्ञान विहीन ब्राह्मण ब्राह्मण नहीं है, उसी प्रकार वणिक् वृत्ति करने वाला, नट व कथक की वृत्ति से जीविका प्राप्त करने वाला, दूसरे की सेवा करने वाला या अन्य प्रकार का शूद्र व्यापार करने वाला, चोरी करने वाला तथा चिकित्सा करने वाला भी ब्राह्मण नहीं है ॥ १०४ ॥

अव्रता ह्यनधीयाना यत्र भैक्षचरा द्विजाः ।
तं ग्रामं दण्डयेद्राजा चोरभक्तप्रदो हि सः ॥ १०५ ॥
जहाँ पर व्रतविहीन, बिना पढ़े लिखे, भिक्षा पर जीविका निर्वाहित करने वाले ब्राह्मण निवास करते हों, उस ग्राम के ऊपर राजा को दण्ड लगाना चाहिये, क्योंकि वह चोरी वृत्ति को प्रोत्साहन देने वाला (ग्राम) है ॥ १०५ ॥

सन्तुष्टो यत्र वै विप्रः साग्निकः कुरुनन्दन ।
याति साफल्यतां वेदैर्देवैरेवं हि भाषितम् ॥ १०६ ॥
हे कुरुनन्दन ! जिस ग्राम में ब्राह्मण सन्तुष्ट हों वह ग्राम साग्निक (यज्ञ भूमि) है क्योंकि उसकी सफलता देद से होती है-ऐसा देवताओं ने बतलाया है ॥ १०६ ॥

वेदैरुक्तं यथा वीर सुरज्येष्ठमुपेत्य वै ।
वेपन्ते ब्राह्मणा भूमावभ्यस्यन्ति ह्यनग्निकाः ॥
क्लिश्यन्ते ते किमर्थं हि मूढा वै फलकाम्यया ॥ १०७ ॥
हे वीर ! वेदों ने देवताओं में सर्वश्रेष्ठ पितामह ब्रह्मा के पास जाकर इस प्रकार निवेदन किया था । हे देव ! पृथ्वी पर ब्राह्मण इसलिए दुःखी होते हैं कि आग्निक लोग वेदों का अभ्यास करते हैं । वे मूर्ख (वेदाभ्यास द्वारा) फल की आकांक्षा करके क्यों देकार में कष्ट भोगते हैं? ॥ १०७ ॥

अनुष्ठानविहीनानामस्मानभ्यसतां भुवि ।
क्लेशो हि केवलं देव नास्मदभ्यसने फलम् ॥ १०८ ॥
अनुष्ठान से हीन होकर केवल हमारा (वेद) अभ्यास करने से तो केवल कष्ट मिलेगा क्योंकि (कोरे) वेदाम्पास से कोई फल नहीं मिलता ॥ १०८ ॥

अनुष्ठानं परं देवमस्मत्स्वभ्यसनात्सदा ।
इत्येवं राजशार्दूल वेदा ऊचुर्हि वेधसम् ॥
तस्माच्च वेदाभ्यसनादनुष्ठानं परं मतम् ॥ १०९ ॥
हे देव ! सर्वदा वेदाभ्यास करने से क्रियाओं का अनुष्ठान श्रेष्ठ होता है । हे राजसिंह । वेदों ने इस प्रकार की बातें ब्रह्मा जी से कहीं । अतः वेदाभ्यास से (उनमें कहे गये अग्निहोत्रादि का) सदनुष्ठान श्रेष्ठ है-ऐसा हमारा भी मत है ॥ १०९ ॥

चत्वारो वा त्रयो वापि यद्‌ब्रूयुर्वेदपारगाः ।
स धर्म इति विज्ञेयो नेतरेषां सहस्रशः ॥ ११० ॥
वेदों के पारङ्गत विद्वान् चार अथवा तीन ही जो भी कुछ करें वही धर्म है, उनके अतिरिक्त ऐसे सहस्रों लोग जो वेदों के अधिकारी नहीं हैं, व्यवस्था करें तो वह धर्म नहीं कहा जा सकता ॥ ११० ॥

यद्वदन्ति तमोमूढा मूर्खा धर्ममजानतः ।
तत्पापं शतधा भूत्वा वक्तॄनेवानुगच्छति ॥ १११ ॥
धर्म के माहात्म्य को न जानने वाले अज्ञानावृत्त मूर्ख लोग (धर्म के विषय में) जो कुछ उलटी-पलटी बातें कहते हैं वह सैकड़ों पापों के रूप में (उनके) बोलने वाले के ही पीछे-पीछे चलता है ॥ ११ ॥

शौचहीने व्रतभ्रष्टे विप्रे वेदविवर्जिते ।
दीयमानं रुदत्यन्नं कि मया दुष्कृतं कृतम् ॥ ११२ ॥
वेदविवर्जित, शौचाचार विहीन, व्रत नियमादि से भ्रष्ट ब्राह्मण को दिया जाने वाला अन्न रोता है कि 'हाय मैंने ऐसा कौन दुष्कर्म किया (जो इस पापात्मा के) हाथों पड़ा ॥ ११२ ॥

जपोपजीविने दत्तं यदात्मानं प्रपश्यति ।
नृत्यति स्म तदा राजन्करावुद्धृत्य भारत ॥ ११३ ॥
हे भरतकुल श्रेष्ठ ! जप द्वारा जीविका निर्वाह करने वाले को अपने को दिये जाते अन्न जब देखता है तो दोनों हाथों को ऊपर (उठाकर) अपने सौभाग्य पर नाच उठता है ॥ ११३ ॥

विद्यातपोभ्यां सम्पन्ने ब्राह्मणे गृहमागते ।
क्रीडन्त्यौषधयः सर्वा यास्यामः परमां गतिम् ॥ ११४ ॥
हे राजन् ! वह अन्न विद्या एवं तपस्या से सुसम्पन्न ब्राह्मण के अपने घर आने पर समस्त औषधियाँ (अन्नादि) क्रीड़ा करने लगती हैं कि हम सब परम गति प्राप्त करेंगी ॥ ११४ ॥

अव्रतानाममन्त्राणामजपानां च भारत ।
प्रतिग्रहो न दातव्यो न शिला तारयेच्छिलाम् ॥ ११५ ॥
हे भारत ! जो व्रत नियमादि के पालन करने वाले नहीं हैं, मंत्र नहीं जानते, जप नहीं करते, उन्हें कभी दान नहीं करना चाहिये, क्योंकि एक शिला कभी भी दूसरी शिला को नहीं तार सकती ॥ ११५ ॥

श्रोत्रियायैव देयानि हव्यकव्यानि नित्यशः ।
अश्रोत्रियाय दत्तानि न पितॄन्नापि देवताः ॥ ११६ ॥
सर्वदा हव्य, कव्यादि श्रोत्रिय ब्राह्मणों को देना चाहिये, अश्रोत्रियों को दिया गया हव्य, कव्यादि न देवताओं को प्राप्त होता है न पितरों को ॥ ११६ ॥

यस्य चैव गृहे मूर्खो दूरे चापि बहुश्रुतः ।
बहुश्रुताय दातव्यं नास्ति मूर्खव्यतिक्रमः ॥ ११७ ॥
जिसके घर में मूर्ख हैं और बहुश्रुत विद्वान् दूरी पर हैं, उसे भी बहुश्रुत को ही बुलाकर दान देना चाहिये, इससे मूर्ख का व्यतिकम नहीं होता ॥ (अर्थात् मूर्ख के अपमान की कोई चिन्ता नहीं करनी चाहिये ॥ ११७ ॥

ब्राह्मणातिक्रमो नास्ति मूर्खे जपविवर्जिते ।
ज्वलन्तमग्निमुत्सृज्य न हि भस्मनि हूयते ॥ ११८ ॥
जप रहित मूर्ख ब्राह्मण को किसी कार्य में अतिक्रमण (दोष) नहीं होता, जैसे जलती हुई अग्नि को छोड़कर राख में आहुति नहीं दी जाती ॥ ११८ ॥

न चैतदेव मन्यन्ते .पितरो देवतास्तथा ।
सगुणं निर्गुणं वापि ब्राह्मणं दैवतं परम् ॥ ११९ ॥
पितर और देवगत इस प्रकार का दान प्रशस्त नहीं मानते । ब्राह्मण सगुण हो अथवा निर्गुण वह परमदेवता है ॥ ११९ ॥

नातिक्रमेद्‌गृहासीनं ब्राह्मणं विप्रकर्मणि ।
अतिक्रमन्महाबाहो रौरवं याति भारत ॥ १२० ॥
दाह्मणों द्वारा सम्पन्न होने वाले यज्ञादि शुभ कार्यों में अपने घर पर बैठे ब्राह्मण का अतिक्रम नहीं करना चाहिये । हे महाबाहु भारत ! जो ऐसे ब्राह्मण का अतिक्रमण करता है वह रौरव नरक प्राप्त करता है ॥ १२० ॥

गायत्रीमात्रसारोऽपि ब्राह्मणः पूज्यतां गतः ।
गृहासन्नो विशेषेण न भवेत्पतितस्तु सः ॥ १२१ ॥
केवल गायत्री जानने वाला भी ब्राह्मण पूज्य है, विशेषतया यदि वह घर में हो तो उसकी पूजा करनी चाहिए ॥ १२१ ॥

धान्यशून्यो यथा ग्रामो यथा कूपश्च निर्जलः ।
ब्राह्मणश्चानधीयानस्त्रयस्ते नामधारकाः ॥ १२२ ॥
अन्न रहित ग्राम, जल रहित कूप तथा वेद न पढ़ता हुआ ब्राह्मण-ये तीनों केवल नामधारी हैं ॥ १२२ ॥

यस्त्वेकपङ्‌क्त्यां विषमं ददाति
     स्नेहाद्‌भयाद्वा यदि वार्थहेतोः ।
वेदेषु दृष्टमृषिभिश्च गीतं
     तां ब्रह्महत्यां मुनयो वदन्ति ॥ १२३ ॥
जो किसी स्वार्थवश, भयवश अथवा मेहवश होकर एक पंक्ति में बैठे हुए को भेद करके दान करता है वह ब्रह्महत्या का भागी होता है-ऐसा नियम वेदों में देखा गया है, ऋषियों और मुनियों ने ऐसी व्यवस्था बतलाई है ॥ १२३ ॥

अहिंसयैव भूतानां कार्यं श्रेयोऽनुशासनम् ।
वाक्चैव मधुरा श्लक्ष्णा प्रयोज्या धर्ममीप्सता ॥ १२४ ॥
धर्म की इच्छा करने वाले को सभी जीवों के ऊपर कल्याण का अनुशासन अहिंसक भावना से करना 'चाहिए, मधुर और कोमल वाणी का प्रयोग करना चाहिये ॥ १२४ ॥

यस्य वाङ्‌मनसी शुद्धे सत्यगुप्ते च भारत ।
स वै सर्वमवाप्नोति वेदान्तोपगतं फलम् ॥ १२५ ॥
हे भारत ! जिस व्यक्ति के मन और वचन शुद्ध सत्य सुरक्षित हैं, वह वेदान्त प्रतिपादित समस्त फलों को प्राप्त करता है ॥ १२५ ॥

नारुन्तुदः स्यादार्तोऽपि न परद्रोहकर्मधीः ।
ययास्यो द्विजते लोको न तां वाचमुदीरयेत् ॥ १२६ ॥
आर्त होकर भी कभी किसी की भावना को चोट न पहुँचाये, दूसरे का द्रोह करने का विचार न करे । जिस वाणी को सुनकर लोगों का मन उद्विग्न हो जाय, उस वाणी का उच्चारण कभी न करे ॥ १२६ ॥

यत्करोति शुभं वाचा प्रोच्यमाना मनीषिभिः ।
श्रूयतां कुरुशार्दूल सदा चापि तथोच्यताम् ॥ १२७ ॥
हे कुरुशार्दल ! मनीषी पण्डितों द्वारा मधुर वचन का प्रयोग कर जो शुभ कार्यों को सम्पन्न करते हैं उन्हें सुनिये और वैसा ही प्रयोग कीजिये ॥ १२७ ॥

न तथा शशी न सलिलं न चन्दनरसो न शीतलच्छाया ।
प्रह्लादयति च पुरुषं यथा मधुरभाषिणी वाणी ॥ १२८ ॥
चन्द्रमा, जल, चन्दन का रस और शीतल सुखदायिनी छाया पुरुष को उतनी आह्लादित नहीं करती जितनी उसकी मधुर वाणी ॥ १२८ ॥

अर्हणाद्‌ब्राह्मणो नित्यमुद्विजेत विषादिव ।
अमृतस्येव चाकांक्षेदपमानस्य सर्वदा ॥ १२९ ॥
ब्राह्मण को सर्वदा सम्मान एवं प्रतिष्ठा से विष की भाँति उद्विग्न होना चाहिये (अर्थात् सम्मान और प्रतिष्ठा से बहुत दूर रहना चाहिए) सर्वदा अमृत की तरह उसे अपमान की आकांक्षा करनी चाहिये ॥ १२९ ॥

सुखं ह्यवमतः शेते सुखं च प्रतिबुध्यते ।
सुखं चरति लोकेस्मिन्नवमन्ता विनश्यति ॥ १३० ॥
क्योंकि जिसका अपमान हुआ रहता है वह तो सुखपूर्वक शयन करता है सुखपूर्वक जागता है और सुखपूर्वक अपना कार्य करता है परन्तु अपमान करने वाला इस लोक में विनष्ट हो जाता है ॥ १३० ॥

अनेन विधिना राजन्संस्कृतात्मा द्विजः शनैः ।
गुरौ वसन्सेचिनुयाद्‌ब्रह्माधिगमिदं तपः ॥ १३१ ॥
हे राजन् ! इस.प्रकार से शनैः-शनैः परिशुद्ध आत्मा होकर गुरु के आश्रम में निवास करते हुए ब्रह्मा को प्राप्त करने वाले तप का संचयन करना चाहिये ॥ १३१ ॥

तपोविशेषैर्विविधैर्व्रतैश्च विविधोदितैः ।
वेदः कृत्स्नोधिगन्तव्यः सरहस्यो द्विजन्मना ॥ १३२ ॥
विविध प्रकार के व्रतों एवं तपस्याओं द्वारा गूढ़ स्थलों समेत समस्त वेदों का अध्ययन द्विजाति को करना चाहिये ॥ १३२ ॥

वेदमेवाभ्यसेन्नित्यं तपस्तप्यं द्विजोत्तमः ।
वेदाभ्यासो हि विप्रस्य तपः परमिहोच्यते ॥ १३३ ॥
उत्तम. द्विज को सर्वदा तपों का विधिपूर्वक पालन करते हुए वेदाभ्यास में ही निरत रहना चाहिये । इस लोक में ब्राह्मण के लिए वेदाभ्यास ही परम श्रेष्ठ तप कहा गया ॥ १३३ ॥

आहैव स नखाग्रेभ्यः परमं तप्यते तपः ।
यः सुप्तोऽपि द्विजोऽधीते स्वाध्यायं शक्तितोऽन्वहम् ॥ १३४ ॥
जो व्राह्मण सोते हुए भी अपनी शक्ति के अनुकूल प्रतिदिन स्वाध्याय करता है वह नख पर्यन्त समस्त शरीर से परम तपस्या करता है ॥ १३४ ॥

योऽनधीत्य द्विजो वेदमन्यत्र कुरुते श्रमम् ।
स जीवन्नेव शूद्रत्वमाशु गच्छति सान्वयः ॥ १३५ ॥
जो ब्राह्मण वेदों का अध्ययन कर करके अन्य कार्यों में श्रम करता है वह जीता हुआ ही परिवार समेत बहुत शीघ्र शूद्रता को प्राप्त करता है ! १३५ ॥

न यस्य वेदो न जपो न विद्याश्च विशाम्पते ।
स शूद्र एव मन्तव्य इत्याह भगवान्विभुः ॥ १३६ ॥
हे राजन् ! जिस व्राह्मण के पास न वेद है, न जप है, न विद्या है, उसे शूद्र ही मानना चाहिये-ऐसा भगवान् ने स्वयं कहा है ॥ १३६ ॥

मातुरग्रे च जननं द्वितीयो मौञ्जिबन्धनम् ।
तृतीयो यज्ञदीक्षायां द्विजस्य विधिरीरितः ॥ १३७ ॥
ब्राह्मण का जन्म सर्वप्रथम माता के उदर से होता है, दूसरा जन्म मौजीबन्धन (अर्थात् यज्ञोपवीत) संस्कार से होता है, तीसरा जन्म यज्ञ की दीक्षा लेने से होता है ॥ १३७ ॥

तत्र यद्‌ब्रह्म जन्मास्य मौञ्जीबन्धनचिह्नितम् ॥ १३८ ॥
तत्रास्य माता सावित्री पिता त्वाचार्य उच्यते ।
वेदप्रदानात्त्वाचार्यं पितरं मनुरब्रवीत् ॥ १३९ ॥
उपनयन संस्कार का महत्त्व इन तीनों जन्मों से उसका दूसरा जन्म जो मौजीबन्धन के समय होता है, उसमें उसकी माता सावित्री और पिता आचार्य होता है । वेदों के दान करने के कारण मनु ने आचार्य को पिता बतलाया है ॥ १३८-१३९ ॥

न ह्यस्य विद्यते कर्म किञ्चिदामौञ्जिबन्धनात् ।
नाभिव्याहारयेद्‌ब्रहम स्वधानिनयनादृते ॥ १४० ॥
मौजीबन्धन संस्कार के पूर्व ब्राह्मण का कोई (वैदिक और स्मार्त) कर्ग नहीं होता (अर्थात् यज्ञोपवीत संस्कार होने के पहले ब्राह्मण कोई (वैदिक और स्मार्त) कर्म नहीं कर सकता ॥ 'स्वधा' कहने के अधिकारी हुए बिना (अर्थात् श्राद्धमंत्रों के अतिरिक्त) वेद का उच्चारण नहीं करना चाहिये ॥ १४० ॥

शूद्रेण तु समं तावद्यावद्वेदे न जायते ।
कृतोपनयनस्यास्य व्रतादेशनमिष्यते ॥
ब्रह्मणो ग्रहणं चैव क्रमेण विधिपूर्वकम् ॥ १४१ ॥
जब तक वेद में अधिकार नहीं प्राप्त कर लेता तब तक वह भी शूद्र के समान है । उपनयन संस्कार के बाद उसे सभी कर्मों के करने का आदेश दिया जाता है । उसके बाद ही वेदाध्ययन क्रमशः विधिपूर्वक करना चाहिये ॥ १४१ ॥

यत्सूत्रं चापि यच्चर्म या या चास्य च मेखला ।
वसनं चापि यो दण्डस्तद्वै तस्य व्रतेष्वपि ॥ १४२ ॥
यज्ञोपवीत संस्कार में उसके पास जो सूत्र, धर्म, मेखला, वस्त्र और दण्ड रहता है, वह सब वेदाध्ययन के व्रत में भी रखना चाहिये ॥ १४२ ॥

सेवेतेमांस्तु नियमान्ब्रह्मचारी गुरौ वसन् ।
सन्नियम्येन्द्रियग्रामं तपोवृद्ध्यर्थमात्मनः ॥ १४३ ॥
ब्रह्मचारी गुरु के समीप निवास करता हुआ इन समस्त नियमों का सेवन करे, अपनी तपः शक्ति बढ़ाने के लिए उसे अपने इन्द्रिय समूहों को वश में करना चाहिये ॥ १४३॥

वृन्दारकर्षिपितॄणां कुर्यात्तर्पणमेव हि ।
नराणां च महाबाहो नित्यं स्नात्वा प्रयत्नतः ॥ १४४ ॥
हे महाबाहु ! सर्वदा देवताओं, ऋषियों, पितरों और मनुष्यों का विधिपूर्वक स्नानकर तर्पण करना चाहिये ॥ १४४ ॥

पुष्पं तोयं फलं चापि समिदाधानमेव च ।
नानाविधानि काष्ठानि मृत्तिकां च तथा कुशान् ॥ १४५ ॥
पुष्प, जल, फल, समिधा, विविध प्रकार के काष्ठ, मृत्तिका और कुश का उसे संचयन करना चाहिये ॥ १४५ ॥

वर्जयेन्मधु मांसं च गन्धमाल्यरथान्स्त्रियः ।
शुक्लानि चैव सर्वाणि प्राणिनां चैव हिंसनम् ॥ १४६ ॥
नियमकाल में उसे मधु, मांस, चन्दन, माला, दाहनादि स्त्रियाँ सभी प्रकार की श्वेत वस्तुयें तथा प्राणियों की हिंसा-इस सबों से वर्जित रहना चाहिये ॥ १४६ ॥

अभ्यङ्‌गमञ्जनं चाक्ष्णोरुपानच्छत्रधारणम् ।
संकल्पं कामजं क्रोधं लोभं गीतं च वादनम् ॥ १४७ ॥
नर्तनं च तथा द्यूतं जनवादं तथानृतम् ।
परिवादं चापि विभो दूरतः परिवर्जयेत् ॥ १४८ ॥
हे विभो ! आँख में अंजन लगाना, शरीर में उबटन लगाना, जूता, छाता, कामजनित संकल्प, क्रोध, लोभ, गीत वादन, नाचना, द्यूत क्रीडा, असत्य प्रचार, असत्य भाषण, परकीय निन्दा-इन सबको ब्रह्मचारी को दूर से ही छोड़ देना चाहिये ॥ १४७-१४८ ॥

स्त्रीणां च प्रेक्षणालम्बो रपवीतंपरस्य च ।
पुंश्चलीभिस्तथा सङ्‌गं न कुर्यात्कुरुनन्दन ॥ १४९ ॥
हे कुरुनन्दन ! ब्रह्मचारी को स्त्रियों की ओर देखना, स्त्रियों का आलिंगन, दूसरे के अपकार, पुश्चली स्त्री का साथ कभी नहीं करना चाहिये ॥ १४९ ॥

एकः शयीत सर्वत्र न रेतः स्कन्दयेत्क्वचित् ।
कामाद्धि स्कन्दयन्रेतो हिनस्ति व्रतमेव तु ॥ १५० ॥
उसे सब जगह अकेले ही शयन करना चाहिये, कहीं वीर्यपात नहीं करना चाहिये । कामवश यदि वह कहीं अपने वीर्य का क्षरण करता है तो अपने व्रत को ही नष्ट करता है ॥ १५० ॥

सुप्तः क्षरन्ब्रह्मचारी द्विजः शुक्रमकामतः ।
स्नात्वार्कमर्चयित्वा तु पुनर्मामित्यृचं जपेत् ॥ १५१ ॥
ब्रह्मचारी शयन करते समय यदि बिना कामोपासना के वीर्य क्षरण करे तो स्नान कर सूर्य की पूजा करते हुए 'पुर्नमाम...' इस ऋचा का (तीन बार) जप करे ॥ १५१ ॥

मनोरपि तथा चात्र श्रूयते परमं वचः ।
उदकुम्भं सुमनसो गोशकृन्मृत्तिकां कुशान् ॥
आहरेद्यावदर्थान्हि भैक्षं चापि हि नित्यशः ॥ १५२ ॥
ब्रह्मचारियों के व्रत एवं नियमादि के बारे में मनु का भी बहुमूल्य वचन सुना जाता है । जल कलश, पुष्प, गोबर, मृत्तिका, कुश आदि प्रतिदिन अपनी शक्ति के अनुकूल एकत्र करे और भिक्षाटन कर जीविका निर्वाहित करे ॥ १५२ ॥

गृहेषु येषां कर्तव्यं ताञ्छृणुष्व नृपोत्तम ।
स्वकर्मसु रता ये वै तथा वेदेषु ये रताः ।
यज्ञेषु चापि राजेन्द्र ये च श्रद्धासमाश्रिताः ॥ १५३ ॥
हे नृपोत्तम ! ब्रह्मचारी किन-किन घरों में भिक्षा की याचना करे-इसका भी निश्चय किया गया है, सुनो । हे. राजेन्द्र ! जो अपने कर्म में निरत हों, वेदों में आस्था रखते हों, यज्ञादि करने वाले और श्रद्धालु प्रकृति के हों, उनके घर से ब्रह्मचारी अपनी भिक्षा का संग्रह करे ॥ १५३ ॥

ब्रह्मचार्या हरेद्‌भैक्षं गृहेभ्यः प्रयतोऽन्वहम् ।
गुरोः कुले न भिक्षेत् स्वज्ञातिकुलबन्धुषु ॥ १५४ ॥
प्रतिदिन चित्त एवं इन्द्रियों को निरुद्ध कर उसे गृहस्थों के घरों से भिक्षा की याचना करनी चाहिये । अपने गुरु के एवं परिवार वर्ग के घर भिक्षाटन नहीं करना चाहिये ॥ १५४ ॥

अलाभे त्वन्यगोत्राणां पूर्वं पूर्वं विवर्जयेत् ।
सर्वं चापि चरेद्‌ग्रामं पूर्वोक्तानामसम्भवे ॥
अन्त्यवर्जं महाबाहो इत्याह भगवान्विभुः ॥ १५५ ॥
यदि अन्यत्र न मिले तो पूर्व-पूर्व को अर्थात् ऊपर कहे हुए घरों में पहले वालों को छोड़ देना चाहिये । और क्रमशः अन्त से लेना चाहिये । हे महाबाहु ! यदि अन्यत्र मिलना एकदम असम्भव हो तो शूद्र को छोड़कर ग्राम भर में भिक्षाटन करना चाहिये-ऐसा स्वयं भगवान् ने कहा है ॥ १५५ ॥

वाचं नियम्य प्रयतस्त्वग्निं शस्त्रं च वर्जयेत् ।
चातुर्वर्ण्यं चरेद्‌भैक्षमलाभे कुरुनन्दन ॥ १५६ ॥
ब्रह्मचारी को मन एवं इन्द्रियों को वश में कर वचन को भी नियन्त्रित करना चाहिये, (अपने कार्य के लिए) अग्नि एवं शस्त्र का भी प्रयोग उसे नहीं करना चाहिये । हे कुरुनन्दन ! यदि सर्वथा असम्भव हो तो चारो वर्णों में भिक्षाटन करना चाहिये ॥ १५६ ॥

आरादाहृत्य समिधः. सन्निदध्याद् गृहोपरि ।
सायंप्रातस्तु जुहुयात्ताभिरग्निमतन्द्रितः ॥ १५७ ॥
दूर के वन प्रान्त से समिधाएँ लाकर उसे अपनी कुटी के ऊपर रख देना चाहिये उन्हीं समिधाओं से सावधानीपूर्वक आलस्यादि छोड़कर सायंकाल एवं प्रातःकाल हवन करना चाहिये ॥ १५७ ॥

भैक्षाचरणमकृत्वा न तमग्निं समिध्य वै ।
अनातुरः सप्तरात्रमवकीर्णिव्रतं चरेत् ॥ १५८ ॥
ब्रह्मचारी भिक्षाटन एवं अग्नि में हवन कार्य-इन दोनों नैत्यिक कर्मों को यदि नहीं करता है तो उसे सात रात तक सुस्थिर एवं व्यवस्थित चित्त से अवकीर्ण प्रायश्चित्त का पालन करना चाहिये ॥ १५८ ॥

वर्तनं चास्य भैक्षेण प्रवदन्ति मनीषिणः ।
तस्माद्‌भैक्षेण वै नित्यं नैकान्नादी भवेद्यती ॥ १५९ ॥
जब ब्रह्मचारी को जीविका के लिए भिक्षाटन का ही विधान बतलाते हैं इसलिए उसे सर्वदा भिक्षा द्वारा ही जीविका निर्वाहित करनी चाहिये । एक व्यक्ति का अन्न खाने वाला व्रती नहीं कहा जा सकता ॥ १५९ ॥

भैक्षेण व्रतिनो वृत्तिरुपवाससमा स्मृता ।
दैवत्ये व्रतवद्राजन्पित्र्ये कर्मण्यथर्षिवत् ॥
काममभ्यर्थितोऽश्नीयाद्व्रतमस्य न लुप्यते ॥ १६० ॥
भिक्षाटन द्वारा जीविका चलाने वाले ब्रह्मचारियों का भोजन भी उपवास के समान स्मरण किया जाता है । हे राजन् ! देव कर्म में द्रती के समान पितृकर्म में ऋषियों के समान व्यवहार करना चाहिये-इनमें यदि कोई भोजन ग्रहण करने के लिए बहुत अनुरोध करे तो भोजन कर लेना चाहिये । इस प्रकार उसका व्रत नष्ट नहीं होता ॥ १६० ॥

ब्राह्मणस्य महाबाहो कर्म यत्समुदाहृतम् ।
राजन्यवैश्ययोर्नैतत्पण्डितैः कुरुनन्दन ॥ १६१ ॥
हे कुरुनन्दन ! महाबाहु ! ये ब्राह्मण ब्रह्मचारी के कर्म बतलाये गये हैं, पण्डितों ने क्षत्रिय एवं वैश्यों के लिए इनके अतिरिक्त अन्यान्य नियम बनाये हैं ॥ १६१ ॥

चोदितोऽचोदितो वापि गुरुणा नित्यमेव हि ।
कुर्यादध्ययने योगमाचार्यस्य हितेषु च ॥ १६२ ॥
गुरु प्रेरणा करे या न करे, सर्वदा अध्ययन में चित्त लगाना चाहिये । उसी प्रकार गुरु के कल्याण की भी उसे सर्वदा चिन्ता करनी चाहिये ॥ १६२ ॥

बुद्धीन्द्रियाणि मनसा शरीरं वाचमेव हि ।
नियम्य प्राञ्जलिस्तिष्ठेद्वीक्षमाणो गुरोर्मुखम् ॥ १६३ ॥
बुद्धि, इन्द्रिय समूह, मन, शरीर और वाणी इन सबको नियन्त्रित करगुरु के मुख की ओर देखते हुए उसे अंजलि बाँधकर स्थित रहना चाहिये ॥ १६३ ॥

नित्यमुद्धृतपाणिः स्यात्साध्वाचारस्तु संयतः ।
आस्यतामिति चोक्तः सन्नासीताभिमुखं गुरोः ॥ १६४ ॥
अपने दाहिने हाथ को सदैव उत्तरीय से बाहर रखना चाहिए और सर्वदा साधु आचरण करना चाहिये । तथा शरीर को वस्त्र से आच्छादित रखें । गुरु यदि कहे कि बैठ जाओ, तब उसे गुरु के अभिमुख होकर बैठना चाहिये ॥ १६४ ॥

वस्त्रवेषैस्तथान्नैस्तु हीनः स्याद्‌गुरुसन्निधौ ।
उत्तिष्ठेत्प्रथमं चास्य जघन्यं चापि संविशेत् ॥ १६५ ॥
गुरु के समीप में उसे हीन (अल्प) वस्त्र हीनवेश (अल्प) तथा हीन भोजन अन्न (अल्प अन्न) से करना चाहिये । गुरु के उठने के पहले ही उठ जाना चाहिये और बैठने के बाद बैठना वाहिये ॥ १६५ ॥

प्रतिश्रवणसम्भाषे तल्पस्थो न समाचरेत् ।
न चासीनो न भुञ्जानो न तिष्ठन्न पराङ्‌मुखः ॥ १६६ ॥
गुरु के उपदेश सुनते समय, सम्भाषण करते समय, उसे विस्तर पर नहीं बैठना चाहिये । इसी प्रकार बैठकर भोजन करते हुए खड़े-खड़े एवं पराङ्मुख होकर भी गुरु से सम्भाषणादि नहीं करना चाहिये ॥ १६६ ॥

आसीनस्य स्थितः कुर्यादभिगच्छंश्च तिष्ठतः ।
प्रत्युद्‌गन्ता तु व्रजतः पश्चाद्धावंश्च धावतः ॥ १६७ ॥
गुरु बैठे हों तो (उनकी आज्ञा से) उठकर उनकी आज्ञा शिरोधार्य तथा बात-चीत करे । यदि वे खड़े हों तो उनकी ओर दो चार पग चलकर आज्ञा को सुने और बात-चीत करें । वे जब आयें तो उनके सम्मुख जाकर आज्ञा स्वीकार एवं बात-चीत कर और यदि वे दौड़ रहे हों तो उनके पीछे दौड़कर सुने ॥ १६७ ॥

पराङ्‌मुखस्याभिमुखो दूरस्थस्यैत्य चान्तिकम् ।
नमस्कृत्य शयानस्य निदेशे तिष्ठेत्सर्वदा ॥ १६८ ॥
यदि गुरु अपनी ओर से पराङ्मुख हों तो उनके सम्मुख स्वयं हो जाना चाहिये , वे दूर हों तो स्वयं उनके समीप जाकर बातचीत प्रारम्भ करनी चाहिये । उनके शयन करते समय नमस्कार करके आदेश का सर्वदा पालन करना चाहिये ॥ १६८ ॥

नीचं शय्यासनं चास्य सर्वदा गुरुसन्निधौ ।
गुरोश्च चक्षुर्विषये न यथेष्टासनो भवेत् ॥ १६९ ॥
सर्वदा गुरु के समीप में अपनी शय्या निम्न स्थान में रखे । गुरु की जहाँ तक दृष्टि पड़े वहाँ तक स्वतंत्रता से (अर्थात् पैर फैलाकर आदि) न बैठें ॥ १६९ ॥

नामोच्चारणमेवास्य परोक्षमपि सुव्रत ।
न चैनमनुकुर्वीत गतिभाषणचेष्टितैः ॥ १७० ॥
हे सुव्रत ! गुरु के नाम का कभी परोक्ष में भी उच्चारण नहीं करना चाहिये, गमन, भाषण एवं वेष्टाओं से भी कभी उनका अनुकरण नहीं करना चाहिये ॥ १७० ॥

परीवादस्तथा निन्दा गुरोर्यत्र प्रवर्तते ।
कर्णौ तत्र पिधातव्यो गन्तव्यं वा ततोऽन्यतः ॥ १७१ ॥
जहाँ पर गुरु की निन्दा अथवा अप्रतिष्ठा की चर्चा हो रही हो, वहाँ अपने कानों को मूंद लेना चाहिये अथवा वहाँ से अन्यत्र हट जाना चाहिये ॥ १७१ ॥

परीवादाद्रासभः स्यात्सारमेयस्तु निन्दकः ।
परिभोक्ता कृमिर्भवति कीटो भवति मत्सरी ॥ १७२ ॥
गुरु की अपमानसूचक बातें करने से गर्दभ योनि में जन्म होता है, निन्दा करने वाला कुत्ता होता है । इसी प्रकार गुरु का अन्नादि भक्षण करने वाला कृमि होता है, गुरु के सम्मुख मत्सर प्रकट करने वाला कीट योनि में उत्तम होता है ॥ १७२ ॥

दूरस्थो नार्चयेदेनं न क्रुद्धो नान्तिके स्त्रियाः ।
यानासनगतो राजन्नवरुह्याभिवादयेत् ॥ १७३ ॥
दूर से ही गुरु की पूजा नहीं करनी चाहिये, क्रोधावेश में एवं स्त्रियों के समीप में भी नहीं करनी चाहिये । हे राजन् ! इसी प्रकार वाहन एवं आसन से उतर कर गुरु का अभिवादन करना चाहिये ॥ १७३ ॥

प्रतिकूले समाने तु नासीत गुरुणा सह ।
अशृण्वंति गुरौ राजन्न किञ्चिदपि कीर्तयेत् ॥ १७४ ॥
गुरु के साथ प्रतिकूल एवं समान स्थिति में नहीं बैठना चाहिये । हे राजन् ! उस समय जब कि गुरु का ध्यान किसी अन्य विषय में हो, अर्थात् अपनी बात वह न सुन रहा हो, शिष्य को कोई बातचीत नहीं करनी चाहिये ॥ १७४ ॥

गोश्वोष्ट्रयानप्रासादप्रस्तरेषु कटेषु च ।
आसीत गुरुणा सार्धं शिलाफलक नौषु च ॥ १७५
किन्तु बैलगाड़ी, ऊँटगाड़ी, अट्टालिका प्रस्तर खण्ड, चटाई, शिलाखण्ड नौका में गुरु के साथ भी बैठना चाहिये ॥ १७५ ॥

गुरोर्गुरौ सन्निहिते गुरुवद्वृत्तिमाचरेत् ।
गुरुपुत्रेषु चार्येषु गुरोश्चैव स्वबन्धुषु ॥ १७६
गुरु के गुरु यदि वर्तमान हों तो उनके साथ भी गुरुवत् व्यवहार करना चाहिये, इसी प्रकार श्रेष्ठ गुरु पुत्रों एवं गुरु के परिवार वर्ग वालों के साथ भी गुरुवत् व्यवहार करना चाहिये ॥ १७६ ॥

बालः समानजन्मा वा विशिष्टो यज्ञकर्मणि ।
अध्यापयन्गुरुसुतो गुरुवन्मानमर्हति ॥ १७७
गुरु का पुत्र यदि बालक है, अथवा समान अवस्था का है, तब भी यज्ञ कर्म में उसकी विशेषता है । गुरु का पुत्र यदि पढ़ाता है तो वह गुरु के समान ही सम्मानीय है ॥ १७७ ॥

उत्सादनमथाङ्‌गानां स्नापनोच्छिष्टभोजने ।
पादयोर्नेजन राजन्गुरुपुत्रेषु वर्जयेत् ॥ १७८
हे राजन् ! (गुरुपुत्र के साथ गुरुवत् व्यवहार करते हुए भी इन कार्यों को वर्जित रखे) अंगों में उबटन लगाना, स्नान करवाना, जूठा भोजन करना, पैरों का धोना ॥ १७८ ॥

गुरुवत्प्रतिपूज्यास्तु सवर्णा गुरुयोषितः ।
असवर्णास्तु सम्पूज्याः प्रत्युत्थानाभिवादनैः ॥ १७९
गुरु की पत्नी यदि सवर्णा हैं, (अर्थात् उन्हीं की वर्ण वालो हैं) तो वह भी गुरु के समान ही पूजनीय हैं । और यदि असवर्णा हैं तो वह भी उठकर सम्मान व्यक्त करके तथा अभिवादन करके सम्माननीय है ॥ १७९ ॥

अभ्यञ्जनं स स्नपनं गात्रोत्सादनमेव च ।
गुरुपत्न्या न कार्याणि केशानां च प्रसाधनम् ॥ १८०
गुरु की पत्नियों के अंगों में तेल लगाना, दबाना, स्नान करवाना, शरीर में उबटन लगाना एवं केशों की रचना करना आदि कार्य नहीं करना चाहिये ॥ १८० ॥

गुरुपत्नीं तु युवतीं नाभिवादेत पादयोः ।
पूर्णविंशतिवर्षेण गुणदोषौ विजानता ॥ १८१ ॥
स्वभाव एव नारीणां नराणामिह दूषणम् ।
अतोर्थान्न प्रमाद्यन्ति प्रतिपाद्य विपश्चितः ॥ १८२ ॥
गुरु की पत्नी यदि युवती है तो संसार के गुण दोष जानने वाले, उसके बीस वर्ष के शिष्य को उसके चरणों का स्पर्श करके अभिवादन नहीं करना चाहिये । क्योंकि इस संसार में स्त्री एवं पुरुष दोनों की स्वाभाविक प्रवृत्ति दोषों की ओर होती है । जो परम विवेकशील एवं बुद्धिमान हैं, वे इसीलिए स्त्रियों के प्रति असावधानी नहीं करते ॥ १८१-१८२ ॥

अविद्वांसमलं लोके विद्वांसमपि वा पुनः ।
प्रमदा ह्युत्पथं नेतुं कामक्रोधवशानुगम् ॥ १८३ ॥
स्त्रियाँ काम एवं क्रोध के वशीभूत अविद्वान् तथा विद्वान् को भी अनुचित मार्ग में ले जाने को समर्थ होती हैं ॥ १८३ ॥

मात्रा स्वस्रा दुहित्रा वा न विविक्तासनो भवेत् ।
बलवानिन्द्रियग्रामो विद्वांसमपि कर्षति ॥ १८४ ॥
अपनी ही माता, बहिन एवं कन्या हों, तब भी उनके साथ एकान्त में नहीं बैठना चाहिये, ये इन्द्रिया बड़ी बलवान् हैं, बड़े-बड़े पण्डित को भी ये खींच लेती हैं ॥ १८४ ॥

राजेन्द्र गुरुपत्नीनां युवतीनां युवा भुवि ।
विधिवद्वन्दनं कुर्यादसावहमिति ब्रुवन् ॥ १८५
हे राजेन्द्र ! इसलिए युवा शिष्य को इस पृथ्वी पर युवती गुरुपनियों के साथ दूर से ही अमुक मैं प्रणाम कर रहा हूँ, कहकर प्रणाम करना चाहिये ॥ १८५ ॥

विप्रोऽस्य पादग्रहणमन्वहं चाभिवादनम् ।
गुरुदारेषु कुर्वीत सतां धर्ममनुस्मरन् ॥ १८६
प्रवास से आने पर शिष्य को सत्पुरुषों के चलाये हुए धर्म का स्मरण कर प्रतिदिन गुर पत्नी का पाद स्पर्श एवं अभिवादन करना चाहिये ! १८६ ॥

यथा खनन्खनित्रेण जलमाप्नोति मानवः ।
तथा गुरुगतां विद्यां शुश्रूषुरधिगच्छति ॥ १८७
जिस प्रकार कुदाल आदि खनने वाले हथियारों से लगातार खनते रहने पर मनुष्य अन्त में जल प्राप्त कर लेता है, उसी प्रकार गुरु सेवा में निरत रहने वाला शिष्य गुरु की समस्त विद्याओं को प्राप्त कर लेता है ॥ १८७ ॥

मुण्डो वा जटिलो वा स्यादथ वा स्याच्छिखी जटी ।
नैनं ग्रामेऽभिनिम्लोचेदर्को नाभ्युदियात्क्वचित् ॥ १८८
ब्रह्मचारी चाहे मुंडित शिर हो, चाहे जटाधारी हो चाहे जटा की भाँति शिखाधारी हो, उसको ग्राम में शयन करते हुए सूर्य का अस्त एवं उदय नहीं देखना चाहिये ॥ १८८ ॥

तं चेदभ्युदियात्सूर्यः शयानं कामकारतः ।
निम्लोचेद्वाप्यभिज्ञानाज्जपन्नुपवसेद्दिनम् ॥ १८९
यदि इस नियम को जान बूझकर इच्छानुकूल शयन करते-करते उसके सूर्य अस्त हो जायँ वा उदित हो जायँ तो दिन भर उपवास रखकर जप करना चाहिये ॥ १८९ ॥

सूर्येण ह्यभिनिर्मुक्तः शयानोभ्युदितश्च यः ।
प्रायश्चित्तमकुर्वाणो युक्तः स्यान्महतैनसा ॥ १९०
सूर्योदय अथवा सूर्यास्त तक सोकर जो उक्त प्रायश्चित्त नहीं करता है वह महान् पापकर्म से युक्त होता है ॥ १९० ॥

उपस्पृश्य महाराज उभे सन्ध्ये समाहितः ।
शुचौ देशे जपञ्जप्यमुपासीत यथाविधि ॥ १९१
हे महाराज ! समाहित चित्त हो दोनों सन्ध्याओं को विधिपूर्वक पवित्र देश में बैठकर आचमन कर जप एवं उपासना करनी चाहिये ॥ १९१ ॥

यदि स्त्री यद्यवरजः श्रेयः किञ्चित्समाचरेत् ।
तत्सर्वमाचरेद्युक्तो यत्र वा रमते मनः ॥ १९२
यदि स्त्री (अथवा शूद्र) कुछ श्रेयस्कर कार्य करे तो स्वयमेव उन सब कर्मों को करना चाहिये अथवा अपना मन जिस कार्य में लगे वह काम करना चाहिये ॥ १९२ ॥

धर्मार्थावुच्यते श्रेयः कामार्थौ धर्ममेव च ।
अर्थ एवेह वा श्रेयस्त्रिवर्ग इति संस्थितिः ॥ १९३
कुछ लोग धर्म और अर्थ को श्रेय कहते हैं, कुछ काम और अर्थ को श्रेय कहते हैं । इस लोक में कुछ लोग अर्थ को ही श्रेय मानते हैं-इन्हीं तीनों को त्रिवर्ग कहते हैं ॥ १९३ ॥

पिता माता तथा भ्राता आचार्याः कुरुनन्दन ।
नार्तेनाप्यवमन्तव्या ब्राह्मणेन विशेषतः ॥ १९४
हे कुरुनन्दन ! पिता, माता, भ्राता एवं आचार्य इन सबका अपमान विशेष आर्त अवस्था में होने पर भी कभी नहीं करना चाहिये । ब्राह्मण को तो इस नियम का विशेषतया पालन करना चाहिये ॥ १९४ ॥

आचार्यो ब्रह्मणो मूर्तिः पिता मूर्तिः प्रजापतेः ।
माताप्यथादितेर्मूर्तिर्भ्राता स्यान्मूर्तिरात्मनः ॥ १९५
आचार्य ब्रह्मा की मूर्ति है, पिता प्रजापति की मूर्ति है, माता अदिति की मूर्ति है, भाई अपनी ही मूर्ति है ॥ १९५ ॥

यन्माता पितरौ क्लेशं सहेते सम्भवे नृणाम् ।
न तस्य निष्कृतिः शक्या कर्तुं वर्षशतैरपि ॥ १९६ ॥
मनुष्य को उत्पन्न करने में माता और पिता जो कष्ट सहते हैं, उसका बदला सैकड़ों वर्ष में भी नहीं किया जा सकता ॥ १९६ ॥

तयोर्नित्यं प्रियं कुर्यादाचार्यस्य च भारत ।
तेषु हि त्रिषु तुष्टेषु तपः सर्वं समाप्यते ॥ १९७ ॥
हे भारत ! इसलिए मनुष्य को सर्वदा उन दोनों अर्थात् माता-पिता का तथा आचार्य का कल्याण साधन करना चाहिये । इन तीनों के सन्तुष्ट रहने पर सभी तपस्याएँ समाप्त हो जाती हैं ॥ १९७ ॥

तेषां त्रयाणां शुश्रूषा परमं तप उच्यते ।
न तैरनभ्यनुज्ञातो धर्ममन्यं समाचरेत् ॥ १९८ ॥
इन तीनों की शुश्रूषा करना ही परम तपस्या कही गयी है । इनकी आज्ञा को बिना प्राप्त किये हुए किसी अन्य धर्म का पालन नहीं करना चाहिये ॥ १९८ ॥

त एव हि त्रयो लोकास्त एव त्रय आश्रमाः ।
त एव च त्रयो वेदास्त एवोक्तास्त्रयोऽग्नयः ॥ १९९ ॥
वे ही तीनों-तीनों लोक हैं तीनों आश्रम हैं, तीनों वेद हैं, और तीनों अग्नियाँ हैं ॥ १९९ ॥

माता वै गार्हपत्याग्निः पिता वै दक्षिणः स्मृतः ।
गुरुराहवनीयश्च साग्नित्रेता गरीयसी ॥ २०० ॥
माता गार्हपत्याग्नि है, पिता दक्षिण अग्नि कहा जाता है, गुरु आहवनीय अग्नि है ये तीनों अग्नियाँ परम गौरदास्पद हैं ॥ २०० ॥

त्रिषु तुष्टेषु चैतेषु त्रींल्लोकाञ्जयते गृही ।
दीप्यमानः स्ववपुषा देववद्दिवि मोदते ॥ २०१ ॥
गृहस्थ पुरुष यदि इन तीनों को सन्तुष्ट कर लेता है तो वह तीनों लोकों को जीत लेता है ॥ (इसके माहात्म्य से) वह अपनी दिव्य शरीर कान्ति से संयुक्त होकर देवताओं के समान स्वर्ग में आनन्द का अनुभव करता है ॥ २०१ ॥

इमं लोकं पितृभक्त्या मातृभक्त्या तु मध्यमम् ।
गुरुशुश्रूषया चैव गच्छेच्छक्रसलोकताम् ॥ २०२ ॥
पितृभक्ति से इस लोक को मातृभक्ति से मध्यलोक को एवं गुरु भक्ति से इन्द्रलोक को प्राप्त करता है ॥ २०२ ॥

सर्वे तेनादृता धर्मा यस्यैते त्रय आदृताः ।
अनादृतास्तु येनैते सर्वास्तस्याफलाः ॥२०३
जिसने इन तीनों का आदर किया उसने सब धर्मों का आदर कर लिया और जिसने इन तीनों का अनादर किया उसकी सारी क्रियाएँ निष्फल हैं ॥ २०३ ॥

यावत्त्रयस्ते जीवेयुस्तावन्नान्यत्समाचरेत्।
तेष्वेव नित्यं शुश्रूषां कुर्यात्प्रियहिते रतः ॥ २०४ ॥
जब तक ये तीन जीवित हैं तब तक किसी अन्य धर्म का पालन नहीं करना चाहिये सर्वदा उनके प्रिय एवं कल्याणदायी कार्यों में लगे रहकर उनकी शुश्रूषा करते रहना चाहिये ॥ २०४ ॥

तेषामनुपरोधेन पार्थक्यं यद्यदाचरेत् ।
तत्तन्निवेदयेत्तेभ्यो मनोवचनकर्मभिः ॥ २०५ ॥
उनकी अनुमति से यदि उनसे अलग रहकर कुछ कार्य करे भी तो उन सबको मनसा वाचा कर्मणा उनसे निवेदित कर देना चाहिए ॥ २०५ ॥

त्रिष्वेतेष्विति कृत्यं हि पुरुषस्य समाप्यते ।
एष धर्मः परः साक्षादुपधर्मोऽन्य उच्यते ॥ २०६ ॥
गृहस्थ पुरुष के सारे कर्तव्य सारे धर्म इन्हीं तीनों की सेवा में समाप्त हो जाते हैं । यही परम धर्म है, इसके अतिरिक्त सब उपधर्म कहे जाते हैं ॥ २०६ ॥

श्रद्धधानः शुभां विद्यामाददीतावरादपि ।
अन्त्यादपि परं धर्मं स्त्रीरत्नं दुष्कुलादपि ॥ २०७ ॥
अपने से निम्न कोटि के व्यक्ति से भी कल्याणदायिनी, विद्या श्रद्धापूर्वक लेनी चाहिये । शूद्र भी हो यदि उसके पास कोई श्रेष्ठ धर्म है तो उसे ले लेना चाहिये । इसी प्रकार दुष्ट कुल से भी स्त्रीरत्न ले लेना चाहिये ॥ २०७ ॥

विषादप्यमृतं ग्राह्यं बालादपि सुभाषितम् ।
अमित्रादपि सद्वृत्तममेध्यादपि काञ्चनम् ॥ २०८ ॥
विष से भी अमृत ले लेना चाहिये, बच्चा भी है यदि कोई सच्ची और सुन्दर बात कह रहा है तो उसे ग्रहण करना चाहिये । इसी प्रकार शत्रु से भी सदाचरण की शिक्षा लेनी चाहिये, और अपवित्र स्थल से भी सुवर्ण ले लेना चाहिए ॥ २०८ ॥

स्त्रियो रत्नं नयो विद्या धर्मः शौचं सुभाषितम् ।
विविधानि च शिल्पानि समादेयानि सर्वशः ॥ २०९ ॥
स्त्री, रत्न, नीति, विद्या, पवित्रता, धर्म सुभाषित एवं विविध प्रकार के शिल्प कर्म-इन्हें सम स्थानों से ले लेना चाहिये ॥ २०९ ॥

अब्राह्मणादध्ययनमापत्काले विधीयते ।
अनुव्रज्या च शुश्रूषा यावदध्ययनं गुरोः ॥ २१० ॥
आपत्ति काल में अब्राह्मण से भी अध्ययन करने का विधान है । जब तक अब्राह्मण गुरु के समीप अध्ययन चले तब तक उसकी भी सेवा-शुश्रूषा करनी चाहिये ॥ २१० ॥

नाब्राह्मणे गुरौ शिष्यो वासमात्यन्तिकं वसेत् ।
ब्राह्मणे चाननूचाने काञ्क्षन्गतिमनुत्तमाम् ॥ २११ ॥
कोई ब्राह्मण यदि वेदों का अधिकारी विद्वान् नहीं हैं, किन्तु शिष्य वेदाध्ययन कर परमोत्तम गति प्राप्त करने की इच्छा से अव्राह्मण गुरु से अध्ययन करता है तो उसे उस अब्राह्मण गुरु के समीप सर्वदा निवास नहीं करना चाहिये ॥ २११ ॥

यदि त्वात्यन्तिको वासो रोचते च गुरोः कुले ।
युक्तः परिचरेदेनमाशरीरविमोक्षणात् ॥ २१२ ॥
यदि गुरु के कुल में सर्वदा निवास करने की रुचि शिष्य को है तो उसे अपने शरीर छोड़ने तक निष्ठा एवं भक्तिपूर्वक सेवा करते हुए निवास करना चाहिये ॥ २१२ ॥

आ समाप्तेः शरीरस्य यस्तु शुश्रूषते गुरुम् ।
स गच्छत्यञ्जसा विप्रो ब्राह्मणः सद्य शाश्वतम् ॥ २१३ ॥
न पूर्वं गुरवे किञ्चिदुपकुर्वीत धर्मवित् ।
स्नानाय गुरुणाज्ञस्तः शक्त्या गुर्वर्थमाहरेत् ॥ २१४ ॥
इस प्रकार जो ब्राह्मण शिष्य अपने शरीर के त्याग पर्यन्त गुरु की शुश्रूषा करता है वह शीघ्र ही ब्रह्म के शाश्वत पद को प्राप्त करता है । धर्म की मर्यादा जानने वाले शिष्य को अध्ययन समाप्ति के पूर्व उपकार नहीं करना चाहिये, उसे दीक्षा स्नान के लिए गुरु की आज्ञा प्राप्त करने के अनन्तर यथाशक्ति दक्षिणा देनी चाहिये ॥ २१३-२१४ ॥

क्षेत्रं हिरण्यं गामश्वं छत्रोपानहमेव च ।
धान्यं वासांसि शाकं वा गुरवे प्रीतमाहरेत् ॥ २१५ ॥
श्वेत, सुवर्ण, गौ, अश्व, छत्र, जूता, धान्य, वस्त्र, शाकादि गुरु के प्रसन्नार्थ लाना चाहिये ॥ २१५ ॥

स्वर्गते गां परित्यज्य गुरौ भरतसत्तम ।
गुणान्विते गुरुसुते गुरुदारेऽथ वा नृप ॥
सपिण्डे वा गुरोश्चापि गुरुवद्वृत्तिमाचरेत् ॥ २१६ ॥
हे भरतकुल सत्तम ! गुरु के इस पृथ्वी को छोड़कर स्वर्ग चले जाने पर गुणयुक्त गुरुपुत्र गुरु पत्नी वा गुरु के सपिण्डज के साथ भी गुरुवत् व्यवहार करना चाहिये ॥ २१६ ॥

एतेष्वविद्यमानेषु स्थानासनविहारवान् ।
प्रयुञ्जानोऽग्निशुश्रूषां साधयेद्देहमात्सनः ॥
वीरस्य कुर्वञ्छुश्रूषां याति वीरसलोकताम् ॥ २१७ ॥
इन सबों के न रहने पर उचित स्थान, आसन एवं बिहार से युक्त अग्नि की शुश्रूषा करते हुए अपने शरीर को उचित ढंग से साधन में लगावे । वीर की शुश्रूषा करने से वीरता की प्राप्ति होती है ॥ २१७ ॥

चरत्येवं हि यो विप्रो ब्रह्मचर्यमविप्लुतः ।
स गत्वा ब्रह्मसदनं ब्रह्मणा सह मोदते ॥ २१८ ॥
इन उपर्युक्त नियमों के अनुसार जो विप्र अखण्ड ब्रह्मचर्य का पालन करता है वह ब्रह्मलोक को प्राप्त कर ब्रह्मा के साथ आनन्द का अनुभव करता है ॥ २१८ ॥

इत्येष कथितो धर्मः प्रथमं ब्रह्मचारिणः ।
गृहस्थस्यापि राजेन्द्र शृणु धर्ममशेषतः ॥ २१९ ॥
प्रथम ब्रह्मचारी के धर्म का यह वर्णन मैं कर चुका, हे राजेन्द्र ! अब गृहास्थाश्रम में निवास करने वालों के समस्त धर्मों को भी बतला रहा हूँ, सुनो ॥ २१९ ॥

काले प्राप्य व्रतं विप्र ऋतुयोगेन भारत ।
प्रपालयन्व्रतं याति ब्रह्मसालोक्यतां विभो ॥ २२० ॥
हे भारत ! हे विभो ! इस प्रकार उचित समय एवं ऋतु काल के अवसर पर ब्रह्मचर्यव्रत का पालन कर मनुष्य ब्रह्मलोक की प्राप्ति करता है ॥ २२० ॥

सदोपनयनं शस्तं वसन्ते ब्राह्मणस्य तु ।
क्षत्रियस्य ततो ग्रीष्मे प्रशस्तं मनुरब्रवीत् ॥ २२१ ॥
ब्राह्मण का यज्ञोपवीत संस्कार सर्वदा वसन्त ऋतु में प्रशस्त माना गया है, मनु ने क्षत्रियों का यज्ञोपवीत संस्कार ग्रीष्म ऋतु में श्रेयस्कर बतलाया है ॥ २२१ ॥

प्राप्ते शरदि वैश्यस्य सदोपनयनं परम् ।
इत्येष त्रिविधः कालः कथितो व्रतयोजने ॥ २२२ ॥
वैश्यवर्ण का उपनयन संस्कार सर्वदा शरद् ऋतु के आने पर श्रेष्ठ है । यज्ञोपवीत संस्कार के लिये तीनों वर्णवालों के ये तीन समय बतलाये गये हैं ॥ २२२ ॥

इति श्रीभविष्ये महापुराणे शतार्द्धसाहस्र्यां
संहितायां ब्राह्मे पर्वणि उपनयनविधिवर्णनं
नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥
श्री भविष्य महापुराण के ब्राह्मपर्व में यज्ञोपवीत संस्कार विधि वर्णन नामक चौथा अध्याय समाप्त ॥ ४ ॥

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