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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् प्रथमं ब्रह्मखण्डम् - प्रथमोऽध्यायः ब्रह्मखण्डेऽनुक्रमणिका
मंगलाचरण, ब्रह्मवैवर्तपुराण का परिचय तथा महत्त्व - गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः
सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च यं नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥ १॥ गणेश, ब्रह्मा, शंकर, इन्द्र, शेषनाग, देवता, समस्त मनु, मुनिवर, सरस्वती, लक्ष्मी तथा पार्वती आदि देवियां जिनको नमस्कार करती हैं, उन व्यापक परमात्मा को मैं प्रणाम करता हूँ ॥ १ ॥ स्थूलास्तनूर्विदधतं त्रिगुणं विराजं
विश्वानि लोमविवरेषु महान्तमाद्यम् । सृष्ट्युन्मुखः स्वकलयाऽपि ससर्ज सूक्ष्मं नित्यं समेत्य हृदि यस्तमजं भजामि ॥२॥ जो स्थूल शरीरों का धारण करने वाले, त्रिगुणात्मक, विराट्स्वरूप, अपने लोमकूपो मे अनेक विश्वों को निहित करने वाले, महान्, आदिपुरुष, सृष्टि करने मे प्रवृत्त होने पर अपनी कला से भी सृष्टि-रचना करने वाले तथा सूक्ष्म रूप से सदा (सब के) हृदय मे रहने वाले हैं, उन अजन्मा ब्रह्म का मैं भजन करता हूँ ॥ २ ॥ ध्यायन्ते ध्याननिष्ठाः सुरनरमनवो
योगिनो योगरूढाः सन्तः स्वप्नेऽपि सन्तं कतिकतिजनिभिर्यं न पश्यन्ति तप्त्वा । ध्याये स्वेच्छामयं तं त्रिगुणपरमहो निर्विकारं निरीहं भक्त्या ध्यानैकहेतोर्निरुपमरुचिर श्यामरूपं दधानम् ॥३॥ देवता, मनुष्य तथा मनु ध्याननिष्ठ होकर और योगी लोग योगारूढ होकर जिनका ध्यान करते हैं एवं की कतिपय साधक कई जन्मो तक तपस्या करके भी स्वप्न मे भी जिनको नहीं देख पाते हैं, उन, भक्त पुरुषो के ध्यान के लिट् अनुपम सुन्दर तथा श्याम रूप धारण करने वाले भगवान् का मैं ध्यान करता हूँ ॥ ३ ॥ वन्दे कृष्णं गुणातीतं परं ब्रह्माच्युतं यतः ।
आविर्बभूवुः प्रकृतिब्रह्मविष्णुशिवादयः ॥४॥ जिनसे प्रकृति, ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव आदि प्रकट हुए हैं, उन त्रिगुणातीत परब्रह्म श्रीकृष्ण की मैं वन्दना करता हूँ ॥ ४ ॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय । ॐ नमः सर्वलोकविघ्नविनायकाय ।
ॐ नमो ब्रह्मणे । ॐ नमः शिवाय । ॐ नमो गणपतये । ॐ नमो नारदाय । ॐ नमो व्यासाय । ॐ नमः प्रकृत्यै । नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् । देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ॥ १॥ भगवान् वासुदेव को नमस्कार है । ओं नमो भगवते वासुदेवाय (भगवान् नारायण, नरश्रेष्ठ नर तथा सरस्वती देवी को नमस्कार करके जय बोले (अर्थात् इतिहास-पुराण का पाठ करे) ॥ १ ॥ अमृतपरमपूर्वं भारतीकामधेनुं
श्रुतिगणकृतवत्सो व्यासदेवो दुदोह । अतिरुचिरपुराणं ब्रह्मवैवर्तमेतत् पिबत पिबत मुग्धा दुग्धमक्षय्यमिष्टम् ॥२॥ सरस्वती को कामधेनु तथा वेदों को बछडा बना कर व्यासदेव ने अत्यन्त मनोरम ब्रह्मवैवर्तपुराण रूप अपूर्व अमृत का दोहन किया है । सज्जनो ! इस अक्षय्य दुग्ध का यथेच्छ पान करो ॥ २ ॥ भारते नैमिषारण्ये ऋषयः शौनकादयः ।
नित्यां नैमित्तिकीं कृत्वा क्रियामूषुः कुशासने ॥३॥ एतस्मिन्नन्तरे सौतिमागच्छन्तं यदृच्छया । प्रणतं सुविनीतं तं विलोक्य ददुरासनम् ॥४॥ तं संपूज्यातिथिं भक्त्या शौनको मुनिपुंगवः । पप्रच्छ कुशलं शान्तं शान्तः पौराणिकं मुदा ॥५॥ वर्त्मायासविनिर्मुक्तं वसन्तं सुस्थिरासने । सस्मितं सर्वतत्त्वज्ञं पुराणानां पुराणवित् ॥६॥ परं कृष्णकथोपेतं पुराणं श्रुतिसम्मतम् । मङ्गल मङ्गलार्हं च मङ्गल्यं मङ्गलालयम् ॥७॥ सर्वमङ्गलबीजं च सर्वदा मङ्गलप्रदम् । सर्वामङ्गलनिघ्नं च सर्वसंपत्करं परम् ॥८॥ हरिभक्तिप्रदं शश्वत्सुखदं मोक्षदं भवेत् । तत्त्वज्ञानप्रदं दारपुत्रपौत्रविवर्धनम् ॥९॥ पप्रच्छ सुविनीतं च सुप्रीतो मुनिसंसदि । यथाऽऽकाशे तारकाणां द्विजराजो विराजते ॥ १०॥ भारतवर्ष के नैमिषारण्य तीर्थ मे शौनक आदि ऋषि नित्य और नैमित्तिक क्रियाओं का अनुष्ठान करके कुशासन पर बैठे हुए थे । इसी बीच सूत-पुत्र (उग्रश्रवा) को अकस्मात् वहाँ आते हुए तथा विनीत भाव से (सबको) प्रणाम करते हुए देख कर ऋषियो ने उन्हे आसन दिया । उस अतिथि की भक्तिपूर्वक पूजा करके मुनिवर शान्त शौनक ने उस शान्त पौराणिक सूत से हर्षपूर्वक कुशल-समाचार पूछा । मार्ग की थकावट से रहित होकर सुस्थिर आसन पर बैठे हुए, मुसकराते हुए, पुराणों के सकल तत्त्वों के ज्ञाता तथा परम विनीत सूत से आकाश मे तारों के बीच चन्द्रमा की भांति मुनिसभा मे शोभा पाने वाले पुराणवेत्ता सुप्रसन्न शौनक ने ऐसे पुराण के विषय मे प्रश्न किया, जो परम उत्तम, श्रीकृष्ण की कथा से युक्त, सुनने मे सुन्दर एवं सुखद, मगलमय, मंगलयोग्य, मंगलयुस्त, मंगलधाम, सकल मंगलों का बीज, सर्वदा मंगलदायक, समस्त अमंगलो का नाशक, निखिल सम्पत्तियों की प्राप्ति कराने वाला, श्रेष्ठ, हरिभक्तिदायक, सदा सुख एवं मोक्ष देने वाला, तत्त्वज्ञान देने वाला और स्त्री, पुत्र एवं पौत्रों की वृद्धि करने वाला हो ॥ ३-१० ॥ शौनक उवाच
प्रस्थानं भवतः कुत्र कुत आयासि ते शिवम् । किमस्माकं पुण्यदिनमद्य त्वद्दर्शनेन च ॥ ११॥ वयमेव कलौ भीता विशिष्टज्ञानवर्जिताः । मुमुक्षवो भवे मग्नास्तद्धेतुस्त्वमिहागतः ॥ १२॥ भवान्साधुर्महाभागः पुराणेषु पुराणवित् । सर्वेषु च पुराणेषु निष्णातोऽतिकृपानिधिः ॥ १३॥ श्रीकृष्णे निश्चला भक्तिर्यतो भवति शाश्वती । तत्कथ्यतां महाभाग पुराणं ज्ञानवर्धनम् ॥ १४॥ गरीयसी या साक्षाच्च कर्ममूलनिकृन्तनी । संसारसंनिबद्धानां निगडच्छेदकर्तरी ॥ १५॥ भवदावाग्निदग्धानां पीयूषवृष्टिवर्षिणी । सुखदाऽऽनन्ददा सौते शश्वच्चेतसि जीविनाम् ॥१६॥ शौनक ने पूछा-आपने कहाँ के लिए प्रस्थान किया है ? कहाँ से आये हैं ? आपका कल्याण हो । आज आपके दर्शन से हमारा दिन कैसा पुण्यमय हो गया है । हम सभी लोग कलियुग मे भयभीत हैं, विशिष्ट ज्ञान से शून्य हैं, संसार मे डूबे हुए हैं और मोक्ष के अभिलाषी हैं । इसी कारण आप यहां पधारे हैं । आप सज्जन, महाभाग्यवान्, पुराणों के वेत्ता; समस्त पुराणों मे निष्णात तथा महान् कृपानिधान हैं । महाभाग ! आप कोई ऐसा ज्ञानवर्धक पुराण बताइए जिससे श्रीकृष्ण मे निश्चल एवं- नित्य भक्ति प्राप्त हो । क्योंकि हे सूतपुत्र ! श्रीकृष्ण की भक्ति मोक्ष से भी श्रेष्ठ, कर्म का मूलोच्छेद क रने वाली, संसार मे बंधे हुए जीवों का बन्धन काटने वाली, जगत् रूपी दावानलो से दग्ध हुए जीवों पर अमृत-वर्षा करने वाली तथा प्राणियों के हृदय मे नित्य-निरन्तर सुख एवं आनन्द देने वाली हे ॥ ११-१६ ॥ यत्राऽऽदौ सर्वबीजं च परब्रह्मनिरूपणम् ।
तस्य सृष्ट्युन्मुखस्यापि सृष्टेरुत्कीर्तनं परम् ॥१७॥ साकारं वा निराकारं परमात्मस्वरूपकम् । किमाकारं च तद्ब्रह्म तद्ध्यानं किंच भावनम् ॥ १८॥ ध्यायन्ते वैष्णवाः किं वा शान्ताश्च योगिनस्तथा । मतं प्रधानं केषां वा गूढं वेदे निरूपितम् ॥ १९॥ आप ऐसा पुराण सुनाइए, जिसके आदिम भाग मे सबके बीज (कारणतश्च) का प्रतिपादन और परब्रह्म का निरूपण हो । सृष्टि के लिट् प्रवृत्त हुए उस (परमात्मा) की सृष्टि का भी उत्तम वर्णन हो । (हम आपसे वह पूछना चाहते हैं कि) परमात्मा का स्वरूप साकार है या निराकार ? उस ब्रह्म का स्वरूप क्या हे ? उसका ध्यान और चिन्तन कैसे किया जाय ? वैष्णव या शान्त योगी जन किसका ध्यान करते हैं ? वेद मे किनके प्रधान या गूढ मत का निरूपण हुआ है ? ॥ १७-१९ ॥ प्रकृतेश्च य आकारो यत्र वत्स निरूपितः ।
गुणानां लक्षणं यत्र महदादेश्च निश्चयः ॥२०॥ गोलोकवर्णनं यत्र यत्र वैकुण्ठवर्णनम् । वर्णनं शिवलोकस्य यत्रान्यत्स्वर्गवर्णनम् ॥२१॥ अंशानां च कलानां च यत्र सौते निरूपणम् । के प्राकृताः का प्रकृतिः क आत्मा प्रकृतेः परः ॥२२॥ निगूढं जन्म येषां वा देवानां देवयोषिताम् । समुत्पत्तिः समुद्राणां शैलानां सरितामपि ॥२३॥ के वांऽशाः प्रकृतेश्चापि कलाः का वा कलाकलाः । तासां च चरितं ध्यानं पूजास्तोत्रादिकं शुभम् ॥२४॥ दुर्गासरस्वतीलक्ष्मीसावित्रीणां च वर्णनम् । यत्रैव राधिकाख्यानमत्यपूर्वं सुधोपमम् ॥२५॥ जीवकर्मविपाकश्च नरकाणां च वर्णनम् । कर्मणां खण्डनं यत्र यत्र तेभ्यो विमोक्षणम् ॥२६॥ येषां च जीविनां यद्यत्स्थानं यत्र शुभाशुभम् । जीविनां कर्मणो यस्माद्यासु यासु च योनिषु ॥२७॥ जीवानां कर्मणो यस्माद्यो यो रोगो भवेदिह । मोक्षणं कर्मणो यस्मात्तेषां च तन्निरूपय ॥२८॥ वत्स ! ओजस पुराण मे प्रकृति के स्वरूप का निरूपण हुआ हो, गुणों का लक्षण (बताया गया हो) 'महत्' आदि का निर्णय किया गया हो, गोलोक, वैकुण्ठ, शिवलोक तथा स्वर्गों का वर्णन हो और अंशो एव कलाओं का निरूपण हो, वह हमे सुनाइए । सूतनन्दन ! प्राकृत पदार्थ कौन हैं ? प्रकृति कौन हैं ? और प्रकृति से परे आत्मा कौन हैं ? जिन देवों और देवांगनाओं का जन्म (पृथ्वी पर) गूढ रूप से हुआ है, उनके विषय मे तथा समुद्रों, पर्वतों और नदियों की उत्पत्ति के विषय मे भी हमे बताइए । प्रकृति के अंश कौन हैं ? कलायें कौन हैं ? कलाओं की कलाये कौन हैं ? उनके चरित्र, ध्यान, पूजन तथा पवित्र स्तोत्र आदि जिस पुराण मे वर्णित हों, दुर्गा, सरस्वती, लक्ष्मी तथा सावित्री का वर्णन जिसमे हो, राधिका का अत्यन्त अपूर्व तथा अमृतोपम आख्यान जिसमे हो, जीवों के कर्म-फल तथा नरकों का वर्णन जिसमे हो, कर्मो का खण्डन तथा उनसे मुक्ति पाने का उपाय जिसमे प्रतिपादित हो, वह हमे बताइए । जीवधारियों को जहाँ जो शुभ या अशुभ स्थान प्राप्त होता हो उन्हे जिन कर्मो से जिन योनियो मे जाना पडता हो, जिन कर्मों से जो रोग होते हों तथा जिन कर्मो से मोक्ष मिलता हो, उनका प्रतिपादन कीजिए ॥ २०-२८ ॥ मनसा तुलसी काली गङ्गा पृथ्वी वसुंधरा ।
आसां यत्र शुभाख्यानमन्यासामपि यत्र वै ॥२९॥ शालग्रामशिलानां च दानानां च निरूपणम् । अपूर्वं यत्र वा सौते धर्माधर्मनिरूपणम् ॥३०॥ गणेश्वरस्य चरितं यत्र तज्जन्म कर्म च । कवचस्तोत्रमन्त्राणां गूढानां यत्र वर्णनम् ॥३१॥ यदपूर्वमुपाख्यानमश्रुतं परमाद्भुतम् । कृत्वा मनसि तत्सर्वं सांप्रतं वक्तुमर्हसि ॥३२॥ यत्र जन्मभ्रमो विश्वे पुण्यक्षेत्रे च भारते । परिपूर्णतमस्यापि कृष्णस्य परमात्मनः ॥३३॥ जन्म कस्य गृहे लब्धं पुण्ये पुण्यवतो मुने । सुतं प्रसूता का धन्या मान्या पुण्यवती सती ॥३४॥ आविर्भूय च तद्गेहात्क्व गतः केन हेतुना । गत्वा किं कृतवांस्तत्र कथं वा पुनरागतः ॥३५॥ भारावतरणं केन प्रार्थितो गोश्चकार सः । विधाय किंवा सेतुं च गोलोकं गतवान्पुनः ॥३६॥ इतीदमन्यदाख्यानं पुराणं श्रुतिदुर्लभम् । दुर्विज्ञेयं मुनीनां च मनोनिर्मलकारणम् ॥३७॥ स्वज्ञानाद्यन्मया पृष्टमपृष्टं वा शुभाशुभम् । सद्यो वैराग्यजननं तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥३८॥ शिष्यपृष्टमपृष्टं वा व्याख्यानं कुरुते च यः । स सद्गुरुः सतां श्रेष्ठो योग्यायोग्ये च यः समः ॥३९॥ सूतपुत्र ! जिस पुराण मे मनसा, तुलसी, काली, गंगा और वसुन्धरा पृथ्वी-इनका तथा अन्य देवियों का भी पवित्र आख्यान हो, शालग्राम शिलाओं तथा दानों का निरूपण हो, धर्म और अधर्म का अपूर्व निरूपण हो, गणपति के चरित्र, जन्म, कर्म, गूढ कवच, स्तोत्र तथा मन्त्रो का वर्णन हो तथा जो उपाख्यान पहले न सुना गया हो और परम अद्भुत हो, वह सब आप मन मे सोचकर इस समय बताए । जिस पुराण मे विश्व के पुण्य-क्षेत्र भारतवर्ष मे परिपूर्णतम परमात्मा कृष्ण के जन्म (अवतार) लेने की बात हो, वह हमे सुनाइए । मुने ! किस पुण्यवान् के पवित्र गृह मे (भगवान् कृष्ण का) जन्म हुआ ? किस धन्य, मान्य एवं पुण्यवती पतिव्रता ने उन्हे पुत्र रूप मे जन्म दिया ? प्रकट होकर वे उसके घर से कहां चले गए ? किसलिए गए ? जाकर उन्होने क्या किया ? या वे फिर वहा कैसे आये ? किसकी प्रार्थना करने पर उन्होने पृथ्वी का भार उतारा ? अथवा किस तु (मर्यादा) की स्थापना करके वे पुनः गोलोक को पधारे ? इन बातों से तथा अन्य आख्यानों से युक्त जो श्रुतिदुर्लभ पुराण है, उसका सम्यक् ज्ञान मुनियों के लिए भी दुर्लभ है । वह मन को निर्मल करने का साधन है । मैने अपने ज्ञान के अनुसार जो कुछ शुभ तथा अशुभ बातें पूछी हैं, उनसे सम्बद्ध (या उनका उत्तर देते हुए) जो पुराण सद्यः वैराग्य उत्पन्न करने वाला हो, उसे आप बताएँ । जो शिष्य के पूछे या न पूछे हुए विषय की भी व्याख्या करके बता देता हे तथा योग्य और अयोग्य (शिष्य) के प्रति भी समान भाव रखता है, वही सत्पुरुषों मे श्रेष्ठ सद्गुरु हे ॥ २९-३९ ॥ सौतिरुवाच
सर्वं कुशलमस्माकं त्वत्पादपद्मदर्शनात् । सिद्धक्षेत्रादागतोऽहं यामि नारायणाश्रमम् ॥४०॥ दृष्ट्वा विप्रसमूहं च नमस्कर्तुमिहागतः । द्रष्टुं च नैमिषारण्यं पुण्यदं चापि भारते ॥४१॥ देवं विप्रं गुरुं दृष्ट्वा न नमेद्यस्तु सम्भ्रमात् । स कालसूत्रं व्रजति यावच्चन्द्रदिवाकरौ ॥४२॥ हरिब्राह्मणरूपेण शश्वद्भ्रमति भूतले । सुकृती प्रणमेत्पुण्याद्ब्राह्मणं हरिरूपिणम् ॥४३॥ भगवन्यत्त्वया पृष्टं ज्ञातं सर्वमभीप्सितम् । सारभूतं पुराणेषु ब्रह्मवैवर्तमुत्तमम् ॥४४॥ पुराणोपपुराणानां वेदानां भ्रमभञ्जनम् । हरिभक्तिप्रदं सर्वतत्त्वज्ञानविवर्धनम् ॥४५॥ कामिनां कामदं चेदं मुमुक्षूणां च मोक्षदम् । भक्तिप्रदं वैष्णवानां कल्पवृक्षस्वरूपकम् ॥४६॥ ब्रह्मखण्डे सर्वबीजं परब्रह्मनिरूपणम् । ध्यायन्ते योगिनः सन्तो वैष्णवा यत्परात्परम् ॥४७॥ वैष्णवा योगिनः सन्तो न च भिन्नाश्च शौनक । स्वज्ञानपरिपाकेन भवन्ति जीविनः क्रमात् ॥४८॥ सन्तो भवन्ति सत्सङ्गाद्योगिसंगेन योगिनः । वैष्णवा भक्तसंगेन क्रमात्सद्योगिनः पराः ॥४९॥ सूतनन्दन बोले - आपके चरणारविन्द के दर्शन से मेरे लिए सब कुशल हे । मैं सिद्ध क्षेत्र से आ रहा हूँ और नारायण-आश्रम को जाऊँगा । ब्राह्मण-समूह को देखकर नमस्कार करने के लिए तथा भारतवर्ष मे पुण्यदायक नैमिषारण्य को देखने के लिए भी यहां चला आया हूँ । देवता, ब्राह्मण तथा गुरु को देरवकर जो झट से उन्हे प्रणाम नहीं करता है, वह कालसूत्र नरक मे तब तक पडा रहता वै जब तक सूर्य और चन्द्रमा रहते हैं । पृथ्वी पर विष्णु ब्राह्मण के रूप मे सदा भ्रमण करते रहते हैं । इसलिए पुण्यात्मा व्यक्ति अपने पुण्य के प्रभाव से विष्णु रूपी ब्राह्मण को प्रणाम करता हे । भगवन् ! आपने जो कुछ पूछा है, वह सब (आपका) अभिप्राय मैने जान लिया । पुराणो मे सारभूत ब्रह्मवैवर्तपुराण है । यह पुराण पुराणों, उपपुराणों एवं वेदों के भ्रम का निराकरण करने वाला, हरि-भक्ति देने वाला और समस्त तत्त्वों का ज्ञान बढाने वाला हे । यह भोगियों को भोग तथा मुमुक्षुओं को मोक्ष प्रदान करता हे । यह वैष्णवों के लिए भक्तिदायक तथा कल्पवृक्ष-स्वरूप है । इसके ब्रह्मखण्ड मे सर्व-बीजस्वरूप उस परात्पर परब्रह्म का निरूपण है, जिसका योगी, सन्त तथा वैष्णव ध्यान करते हैं । शौनक ! वैष्णव, योगी तथा सन्त मे कोई भेद नहीं हे । जीवधारी मनुष्य अपने ज्ञान के परिणामस्वरूप क्रमशः सन्त आदि होते हैं । सत्संग से मनुष्य सन्त होते हैं, योगी के संग से योगी और भक्त के संग से वैष्णव होते हैं । ये क्रमशः उत्तरोत्तर श्रेष्ठ योगी हैं ॥ ४०-४९ ॥ यत्रोःद्भवश्च देवानां देवीनां सर्वजीविनाम् ।
ततः प्रकृतिखण्डे च देवीनां चरितं शुभम् ॥५०॥ जीवकर्मविपाकश्च शालिग्रामनिरूपणम् । तासां च कवचस्तोत्रमन्त्रपूजानिरूपणम् ॥५१॥ प्रकृतेर्लक्षणं तत्र कलांशानां निरूपणम् । कीर्तेरुत्कीर्तनं तासां प्रभावश्च निरूपितः ॥५२॥ सुकृतीनां दुष्कृतीनां यद्यत्स्थानं शुभाशुभम् । वर्णनं नरकाणां च रोगाणां मोक्षणं ततः ॥५३॥ इसके बाद प्रकृतिखण्ड है, जिसमे देवों, देवियों तथा सकल जीवधारियों की उत्पत्ति और देवियों का पवित्र चरित्र वर्णित है । जीवों के कर्म-परिणाम तथा शालिग्राम का निरूपण है । उन देवियों के कवच, स्तोत्र, मन्त्र तथा पूजा का भी निरूपण हे । उस (प्रकृतिखण्ड) मे प्रकृति के लक्षण तथा उसकी कलाओं और अंशों का वर्णन है । उन देवियों की कीर्ति का कीर्तन एवं प्रभाव का प्रतिपादन हैं । पुण्यात्माओं तथा पापात्माओं को जो-जो शुभ तथा अशुभ स्थान प्राप्त होते हैं, उनका तथा नरकों एवं रोगों और उनसे छूटने के उपाय का भी वर्णन है ॥ ५०-५३ ॥ ततो गणेशखण्डे च तज्जन्म परिकीर्तितम् ।
अतीवापूर्वचरितं श्रुतिवेदसुदुर्लभम् ॥५४॥ गणेशभृगुसंवादे सर्वतत्त्वनिरूपणम् । निगूढकवचस्तोत्र-मन्त्रतन्त्रनिरूपणम् ॥५५॥ तदनन्तरं गणेशखण्ड मे गणेश के जन्म एवं वेद-शास्त्रों मे अत्यन्त दुर्लभ उनके चरित्र का वर्णन हैं । गणेश और भृगु के संवाद मे सकल तत्त्वों का निरूपण शुभा है । (गणेश के) गूढ कवच, स्तोत्र, मन्त्र तथा तन्त्रो का वर्णन हैं ॥ ५४-५५ ॥ श्रीकृष्णजन्मखण्डं च कीर्तितं च ततः परम् ।
भारते पुण्यक्षेत्रे च श्रीकृष्णजन्म कर्म च ॥५६॥ भुवो भारावतरणं क्रीडाकौतुकमङ्गलम् । सतां सेतुविधानं च जन्मखण्डे निरूपितम् ॥५७॥ इदं ते कथितं विप्र पुराणप्रवरं परम् । चतुःखण्डैः परिमितं सर्वधर्मनिरूपणम् ॥५८॥ सर्वेषामीप्सितं श्रीदं सर्वाशापूर्णकारकम् । ब्रह्मवैवर्तकं नाम सर्वाभीष्टफलप्रदम् ॥५९॥ सारभूतं पुराणेषु केवलं वेदसंमतम् । विवृतं ब्रह्म कार्त्स्न्यं च कृष्णेन यत्र शौनक ॥६०॥ ब्रह्मवैवर्तकं तेन प्रवदन्ति पुराविदः ॥६१॥ तदनन्तर श्रीकृष्णजन्मखण्ड का कीर्तन हुआ हैं । उसमें भारतवर्ष के पुण्य क्षेत्र मे श्रीकृष्ण के जन्म-कर्म, (उनके द्वारा) पृथ्वी के भार उतारने, (उनके) मंगलमय क्रीडाकौतुक और सज्जनों के लिए सेतु (मर्यादा) विधान का वर्णन हे । विप्र ! यह मैने परम उत्कृष्ट पुराण के विषय मे तुमसे कहा हे । यह चार खण्डो मे सीमित हे । इसमे समस्त धर्मो का निरूपण हे । यह सबको प्रिय, लक्ष्मीदायक तथा सबकी आशाओं को पूर्ण करने वाला वै । इसका नाम ब्रह्मवैवर्त हे । यह सम्पूर्ण अभीष्ट फलों को देने वाला है । यह पुराणों का सार है और पूर्णतया वेदों के अनुकूल हैं । शौनक ! इसमे श्रीकृष्ण ने अपने सम्पूर्ण ब्रह्मभाव को प्रकट किया है, इसलिए पुराणवेत्ता इसे ब्रह्म-वैवर्तक कहते हैं ॥ ५६-६१ ॥ इदं पुराणसूत्रं च पुरा दत्तं च ब्रह्मणे ।
निरामये च गोलोके कृष्णेन परमात्मना ॥६२॥ महातीर्थं पुष्करे च दत्तं धर्माय ब्रह्मणा । धर्मेण दत्तं पुत्राय प्रीत्या नारायणाय च ॥६३॥ नारायणर्षिर्भगवान्प्रददौ नारदाय च । नारदो व्यासदेवाय प्रददौ जाह्नवीतटे ॥६४॥ व्यासः पुराणसूत्रं तत्संव्यस्य विपुलं महत् । मह्यं ददौ सिद्धक्षेत्रे पुण्यदेशे मनोहरम् ॥६५॥ मयेदं कथितं ब्रह्मंस्तत्समग्रं निशामय । अष्टादशसहस्रं तु व्यासेनेदं पुराणकम् ॥६६॥ पुराणकार्त्स्न्यश्रवणे यत्फलं लभते नरः । तत्फलं लभते नूनमध्यायश्रवणेन च ॥६७॥ पूर्वकाल मे रोग-रहित गोलोक मे परमात्मा श्रीकृष्ण ने यह पुराण-सूत्र ब्रह्मा को दिया था । फिर ब्रह्मा ने महान तीर्थ पुष्कर मे यह धर्म को दे दिया । धर्म ने (अपने) पुत्र नारायण को प्रसन्नतापूर्वक यह प्रदान किया । भगवान् नारायण ने नारद को प्रदान किया । नारद ने गंगा-तट पर व्यास जी को दिया । व्यास जी ने उस मनोहर पुराणसूत्र को बहुत विस्तृत करके पुण्य प्रदेश वाले सिद्धक्षेत्र मे मुझे दिया । ब्रह्मन् ! मेरे कहे हुए इस सम्पूर्ण पुराण को आप सुनिए । व्यासजी ने इस पुराण को अठारह हजार श्लोको मे विस्तृत किया है । मनुष्य सम्पूर्ण पुराणों के श्रवण से जो फल प्राप्त करता है, वह फल इसके एक अध्याय के श्रवण से ही प्राप्त हो जाता है ॥ ६२-६७ ॥ इति श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराणे सौतिशौनकसंवादे
ब्रह्मखण्डेऽनुक्रमणिकानाम प्रथमोऽध्यायः ॥१॥ श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराण के ब्रह्मखण्ड मे अनुक्रमणिका नामक पहला अध्याय समाप्त ॥ १ ॥ |