Menus in CSS Css3Menu.com


ब्रह्मवैवर्तपुराणम्

प्रथमं ब्रह्मखण्डम् - द्वितीयोऽध्यायः


परब्रह्मनिरूपणम् -
गोलोक आदि की स्थिति का वर्णन तथा श्रीकृष्ण के परात्पर स्वरूप का निरूपण -


शौनक उवाच
किमपूर्वं श्रुतं सौते परमाद्‌भुतदर्शनम् ।
सर्वं कथय संव्यस्य ब्रह्मखण्डमनुत्तमम् ॥ १॥
शौनक बोले-सूतनन्दन ! आपने कौन-सा अपूर्व एवं परम अद्‌भुत शास्त्र (पुराण) सुना है । सबका विस्तार करके (पहले) अत्युत्तम ब्रह्मखण्ड सुनाइए ॥ १ ॥

सौतिरुवाच
वन्दे गुरोः पादपद्म व्यासस्यामिततेजसः ।
हरिं देवान्द्विजान्नत्वा धर्मान्वक्ष्ये सनातनान् ॥२॥
यच्छतं व्यासवक्त्रेण ब्रह्मखण्डमनुत्तमम् ।
अज्ञानान्धतमोध्वंसि ज्ञानवर्त्मप्रदीपकम् ॥३॥
ज्योतिः समूहं प्रलये पुराऽऽसीत्केवलं द्विज ।
सूर्यकोटिप्रभं नित्यमसंख्यं विश्वकारणम् ॥४॥
स्वेच्छामयस्य च विभोस्तज्ज्योतिरुज्ज्वलं महत् ।
ज्योतिरभ्यन्तरे लोकत्रयमेव मनोहरम् ॥५॥
तेषामुपरि गोलोकं नित्यमीश्वरवद्‌द्विज ।
त्रिकोटियोजनायामं विस्तीर्णं मण्डलाकृति ॥६॥
तेजः स्वरूपं सुमहद्रत्‍नभूमिमयं परम् ।
अदृश्यं योगिभिः स्वप्ने दृश्यं गम्यं च वैष्णवैः ॥७॥
योगेन धृतमीशेन चान्तरिक्षस्थितं वरम् ।
आधिव्याधिजरामृत्युशोकभीतिविवर्जितम् ॥८॥
सद्‌रत्‍नरचितासंख्यमन्दिरैः परिशोभितम् ।
लये कृष्णयुतं सृष्टौ गोपगोपीभिरावृतम् ॥९॥
सौति ने कहा - मैं अमित तेजस्वी गुरु व्यासदेव के चरणारविन्द की वन्दना करता हूँ । विष्णु, देवों और ब्राह्मणों को नमस्कार करके मैं सनातन धर्मों का वर्णन कर रहा हूँ । मैने व्यासजी के मुख से जिस परमोत्तम ब्रह्मखण्ड का श्रवण किया है, वह अज्ञान रूपी अन्धकार का विनाशक तथा ज्ञानमार्ग का प्रकाशक वै । द्विज ! पहले प्रलयकाल मे केवल ज्योतिः समूह था, जिसकी प्रभा करोडों सूर्य के समान थी । वह ज्योतिःपुंज नित्य, असंख्य तथा विश्व का कारण है । स्वेच्छामय परमात्मा की वह ज्योति महान् उज्ज्वल हे । उस ज्योति के भीतर तीनों लोक मनोहर रूप मे विद्यमान हैं । द्विज ! उन (तीनों लोक) के ऊपर गोलोक है, जो परमात्मा के समान नित्य है । उसकी लंबाई-चौडाई तीन करोड् योजन हे । वह मंडलाकार में फला हुआ है । वह महान् तेजःस्वरूप है तथा वहाँ की भूमि परम रत्नमयी हे । योगी स्वप्न मे भी उसे नहीं देख पाते हैं, जब कि वैष्णव (उसे) देखते और प्राप्त भी करते हैं । आकाश मे स्थित उस श्रेष्ठ लोक को परमात्मा ने योगशक्ति से धारण कर रखा है । गोलोक आधि (मानसिक रोग), व्याधि (शारीरिक रोग), मृत्यु, शोक तथा भय से रहित है । उत्तम रत्‍नों से खचित असंख्य मन्दिर उसकी शोभा बढाते हैं । प्रलयकाल मे वहां केवल श्रीकृष्ण रहते हैं और सृष्टिकाल में वह गोप-गोपियों से भरा रहता है ॥ २-९ ॥

तदधो दक्षिणे सव्ये पञ्चाशत्कोटियोजनात् ।
वैकुण्ठं शिवलोकं तु तत्समं सुमनोहरम् ॥ १०॥
कोटियोजनविस्तीर्णं वैकुण्ठं मण्डलाकृति ।
लये शून्यं च सृष्टौ च लक्ष्मीनारायणान्वितम् ॥ ११॥
चतुर्भुजैः पार्षदैश्च जरामृत्य्वादिवर्जितम् ।
सव्ये च शिवलोकं च कोटियोजनविस्तृतम् ॥ १२॥
लये शून्यं च सृष्टौ च सपार्षदशिवान्वितम् ।
गोलोकाभ्यन्तरे ज्योतिरतीवसुमनोहरम् ॥ १३॥
परमाह्लादकं शश्वत्परमानन्दकारकम् ।
ध्यायन्ते योगिनः शश्वद्योगेन ज्ञानचक्षुषा ॥ १४॥
तदेवानन्दजनकं निराकारं परात्परम् ।
तज्ज्योतिरन्तरे रूपमतीवसुमनोहरम् ॥ १५॥
नवीननीरदश्यामं रक्तपङ्कजलोचनम् ।
शारदीयपार्वणेन्दुशोभितं चामलाननम् ॥ १६॥
कोटिकन्दर्पलावण्यं लीलाधाम मनोरमम् ।
द्विभुजं मुरलीहस्तं सस्मितं पीतवाससम् ॥ १७॥
सद्‌रत्‍नभूषणौघेन भूषितं भक्तवत्सलम् ।
चन्दनोक्षितसर्वाङ्गं कस्तूरीकुङ्कुमान्वितम् ॥ १८॥
श्रीवत्सवक्षःसंभ्राजत्कौस्तुभेन विराजितम् ।
सद्‍रत्‍नसाररचितकिरीटमुकुटोज्ज्वलम् ॥ १९॥
रत्‍नसिंहासनस्थं च वनमालाविभूषितम् ।
तदेव परमं ब्रह्म भगवन्तं सनातनम् ॥२०॥
स्वेच्छामयं सर्वबीजं सर्वाधारं परात्परम् ।
किशोरवयसं शश्वद्‌गोपवेषविधायकम् ॥२१॥
कोटिपूर्णेन्दुशोभाढ्यं भक्तानुग्रहकारकम् ।
निरीहं निर्विकारं च परिपूर्णतमं विभुम् ॥२२॥
रासमण्डलमध्यस्थं शान्तं रासेश्वरं वरम् ।
माङ्गल्यं मङ्गलार्हं च मङ्गलं मङ्गलप्रदम् ॥२३॥
परमानन्दबीजं च सत्यमक्षरमव्ययम् ।
सर्वसिद्धेश्वरं सर्वसिद्धिरूपं च सिद्धिदम् ॥२४॥
प्रकृतेः परमीशानं निर्गुणं नित्यविग्रहम् ।
आद्यं पुरुषमव्यक्तं पुरुहूतं पुरुष्टुतम् ॥२५॥
सत्यं स्वतन्त्रमेकं च परमात्मस्वरूपकम् ।
ध्यायन्ते वैष्णवाः शान्ताः शान्तं तत्परमायणम् ॥२६॥
एवं रूपं परं बिभ्रद्‌भगवानेक एव सः ।
दिग्भिश्च नभसा सार्धं शून्यं विश्वं ददर्श ह ॥२७॥
गोलोक से नीचे पचास करोड योजन दूर दक्षिण भाग मे वैकुण्ठ और वामभाग मे शिवलोक है । ये दोनों लोक भी गोलोक के समान अत्यन्त सुन्दर हैं । वैकुण्ठ मंडलाकार में एक करोड योजन तक फैला हुआ हे । प्रलय- काल मे वह शून्य रहता है और सृष्टिकाल मे वहां लक्ष्मी और नारायण विराजमान रहते हैं । उनके साथ चार भुजा वाले पार्षद भी रहते हैं । वैकुण्ठ भी जरा, मृत्यु आदि से रहित है । उसके वाम भाग मे एक करोड योजन में फैला हुथा शिवलोक है । प्रलयकाल मे शिवलोक शून्य रहता हे आर सृष्टिकाल मे पार्षदों समेत शंकर वहाँ विराजमान रहते हे । गोलोक के भीतर अत्यन्त मनोहर ज्योति है, जो परम आह्लादजनक तथा नित्य परमानन्द उत्पन्न करने वाली हे । योगी जन सदा योग के द्वारा ज्ञानचक्षु से उसका ध्यान करते हैं । वह ज्योति ही आनन्ददायक, निराकार तया परात्पर ब्रह्म है । उस ज्योति के भीतर अत्यन्त मनोहर रूप विराजमान है, जो नये बादल के समान श्यामवर्ण हैं । उसके नेत्र लाल कमल के समान हैं । उसका निर्मल मुख शरद्‌पूर्णिमा के समान शोभायमान हैं । करोडो कन्दर्प के तुल्य उसका लावण्य हैं । वह मनोरम रूप विविध लीलाओं का धाम हे । उसकी दो भुजाएँ हैं, हाथ मे मुरली हे । चेहरा मुसकराता हुआ है और शरीर पीताम्बरधारी है । वह उत्तम रत्‍नों के आभूषणों से विभूषित, भक्त-वत्सल है । उसके अंग चंदन से चर्चित तथा कस्तूरी और केसर से युक्त हैं । उसका वक्षःस्थल श्रीवत्स चिह्न तथा कौस्तुभ मणि से सुशोमित है । उत्तम रत्नों के सार-तत्त्व से बने हुए किरीट-मुकुटों से उसका मस्तक भासमान है । वह रत्‍न-सिंहासन पर आसीन तथा वनमाला से विभूषित है । वही परम ब्रह्म एवं सनातन भगवान् है । वह स्वेच्छामय, सब का आदिकारण, सब का आधार तथा परात्पर ब्रह्म है । उसकी नित्य किशोरावस्था रहती हैं और वह गोपवेष धारण किये रहता है । वह करोडों पूर्णचन्द्र की शोभा से युक्त है तथा भक्तों पर अनुग्रह करने वाला है । वह निरीह, निर्विकार, परिपूर्णतम, सर्वव्यापक, रासमंडल के मध्य में अवस्थित, शान्त, रासेश्वर, श्रेष्ठ मंगलकारी, मंगलयोग्य, मंगलमय, परमानन्द का बीज, सत्य, अक्षर, अविनाशी, समस्त सिद्धियों का प्रभु, सकल सिद्धियों का स्वरूप, सिद्धिदायक, प्रकृति से परे, ईश्वर, निर्गुण, नित्यशरीरधारी, आदिपुरुष, अव्यक्त, बहुत नामों से पुकारा जाने वाला, बहुतों द्वारा स्तवन किया जाने वाला, सत्य, स्वतन्त्र, एक, परमात्मस्वरूप, शान्त तथा परम आश्रय है । शान्त वैष्णव जन उसी का ध्यान करते हैं । इस प्रकार परम रूप धारण करने वाले वे भगवान् एक ही हैं । उन्होनें प्रलय काल में दिशाओं और आकाश के साथ विश्व को शून्य देखा ॥१०-२७ ॥

इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे सौतिशौनकसंवादे ब्रह्मखण्डे
परब्रह्मनिरूपणं नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥२॥
श्री ब्रह्यवैवर्तमहापुराण के ब्रह्मखण्डं मे परबह्मनिरूपण नामक दूसरा अध्याय समाप्त ॥ २ ॥

GO TOP