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ब्रह्मवैवर्तपुराणम्

द्वितीयं प्रकृतिखण्डम् - द्वाविंशोऽध्यायः


तुलस्युपाख्यानम् -
तुलसी-पूजन आदि का वर्णन -


नारद उवाच
तुलसी च जगत्पूज्या पूता नारायणप्रिया ।
तस्याः पूजाविधानं च स्तोत्रं किं न श्रुतं मया ॥ १ ॥
नारद बोले-नारायण की प्रेयसी होने के नाते तुलसी जगत्पूज्या और परम पवित्र हैं । उनकी पूजा का विधान और स्तोत्र मैंने नहीं सुना है, अतः बताने की कृपा करें ॥ १ ॥

केन पूज्या स्तुता केन पुरा प्रथमतो मुने ।
तव पूज्या सा बभूव केन वा वद मामहो ॥ २ ॥
मुने ! पूर्वकाल में तुलसी की पूजा एवं स्तुति किन लोगों ने की थी ? और वे आपके लिए भी पूजनीया कैसे हो गईं ? यह सब बातें मुझे बतायें ॥ २ ॥

सूत उवाच
नारदस्य वचः श्रुत्वा प्रहस्य गरुडध्वजः ।
कथां कथितुमारेभे पुण्यरूपां पुरातनीम् ॥ ३ ॥
सूत बोले-नारद की बातें सुनकर भगवान् नारायण ने हँसकर पुण्यस्वरूपा उस प्राचीन कथा को कहना आरम्भ किया ॥ ३ ॥

श्रीनारायण उवाच
हरिः संप्राप्य तुलसीं रेमे च रमया सह ।
रमासमां तां सौभाग्यां चकार गौरवेण च ॥ ४ ॥
नारायण बोले-विष्णु ने तुलसी को पाकर उस रमणी के साथ रमण किया और लक्ष्मी के समान उसे आदरपूर्वक सौभाग्य प्रदान किया ॥ ४ ॥

सेहे लक्ष्मीश्च गङ्गा च तस्याश्च नवसंगमम् ।
सौभाग्यं गौरवं कोपान्न सेहे च सरस्वती ॥ ५ ॥
तुलसी के नवसंगम, सौभाग्य और गौरव का सहन तो लक्ष्मी एवं गंगा ने हर्षपूर्वक कर लिया किन्तु कोप के कारण सरस्वती न सह सकीं ॥ ५ ॥

सा तां जघान कलहे मानिनी हरिसंनिधौ ।
व्रीडया स्वापमानाच्च साऽन्तर्धानं चकार ह ॥ ६ ॥
अनन्तर भगवान् के समीप ही दोनों में तुलसी कलह आरम्भ हुआ, जिसमें सरस्वती ने तुलसी पर आक्रमण कर दिया । लज्जा और अपने अपमान के कारण तुलसी अन्तर्हित हो गईं ॥ ६ ॥

सर्वसिद्धेश्वरी देवी ज्ञानिनी सिद्धयोगिनी ।
बभूव दर्शनं कोपात्सर्वत्र च हरेरहो ॥ ७ ॥
ज्ञानसम्पन्ना देवी तुलसी सिद्धयोगिनी एवं सर्वसिद्धेश्वरी थीं । अतः उन्होंने कोप के कारण श्रीहरि की आँखों से अपने को सर्वत्र ओझल कर लिया ॥ ७ ॥

हरिर्न दृष्ट्‍वा तुलसीं बोधयित्वा सरस्वतीम् ।
तदनुज्ञां गृहीत्वा च जगाम तुलसीवनम् ॥ ८ ॥
भगवान् ने सरस्वती को भलीभांति समझाया और तुलसी को वहाँ न देखकर सरस्वती की आज्ञा से तुलसीवन की यात्रा की ॥ ८ ॥

तत्रगत्वा च स्नात्वा च तुलस्या तुलसीं सतीम् ।
पूजयामास ध्यात्वा तां स्तोत्रं भक्त्या चकार ह ॥ ९ ॥
वहाँ जाकर स्नान करके भक्तिपूर्वक तुलसी की पूजा की और उसका ध्यान करते हुए स्तोत्र का निर्माण किया ॥ ९ ॥

लक्ष्मीं मायाकामवाणीबीजपूर्वं दशाक्षरम् ।
वृन्दावनीति ङेन्तं च वह्निजायान्तमेव च ॥ १० ॥
श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं वृन्दावन्यै स्वाहा ॥
अनेन कल्पतरुणा मन्त्रराजेन नारद ।
पूजयेच्च विधानेन सर्वसिद्धिं लभेन्नरः ॥ १ १ ॥
लक्ष्मीबीज (श्री) मायाबीज (ह्रीं) कामबीज (क्लीं) और वाणीबीज (ऐं)-इन बीजों का पूर्व में उच्चारण करके 'वृन्दावनी' इस शब्द के अन्त में (ङे) विभक्ति लगायी और अन्त में वह्निजाया (स्वाहा) का प्रयोग करके 'श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं वृन्दावन्यै स्वाहा' इस दशाक्षर मंत्र का उच्चारण किया । नारद ! यह मंत्र राजकल्पतरु है । विधान से इसके द्वारा पूजन करने से मनुष्य को समस्त सिद्धि प्राप्त होती है ॥ १०-११ ॥

घृतदीपेन धूपेन सिन्दूरचन्दनेन च ।
नैवेद्येन च पुष्पेण चोपहारेण नारद ॥ १२ ॥
हरिस्तोत्रेण तुष्टा सा चाऽऽविर्भूय महीरुहात् ।
प्रपन्ना चरणाम्भोजे जगाम शरणं शुचिः ॥ १३ ॥
नारद ! घृत का दीपक, धूप, सिन्दूर, चन्दन, नैवेद्य और पुष्पोपहार द्वारा पूजन करने के उपरान्त भगवान् ने तुलसी की स्तुति की । अनन्तर वे प्रसन्न होकर उसी (तुलसी) वृक्ष से प्रकट हो गयीं एवं भगवान् के चरण-कमल की शरणागत बनीं ॥ १२-१३ ॥

वरं तस्यै ददौ विष्णुर्जगत्पूज्या भवेति च ।
अहं त्वां च धरिष्यामि स्वमूर्ध्नि वक्षसीति च ॥ १४ ॥
सर्वे त्वां धारयिष्यन्ति स्वयं मूर्ध्नि सुरादयः ।
इत्युक्त्वा तां गृहीत्वा च प्रययौ स्वालयं विभुः ॥ १५ ॥
भगवान् विष्णु ने उन्हें वरदान दिया 'तुम जगत् की पूज्या होगी और मैं तुम्हें अपने शिर तथा वक्षःस्थल पर धारण करूँगा एवं सभी देवगण स्वयं तुम्हें अपने शिर पर धारण करेंगे । ' इतना कहकर भगवान् तुलसी को साथ लेकर चले गये ॥ १४-१५ ॥

नारद उवाच
किं ध्यानं स्तवनं किंवा किंवा पूजाविधिक्रमः ।
तुलस्याश्च महाभाग तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥ १६ ॥
नारद बोल-महाभाग ! तुलसी का ध्यान, स्तुति और पूजाविधान बताने की कृपा करें ॥ १६ ॥

नारायण उवाच
अन्तर्हितायां तस्यां च गत्वा च तुलसीवनम् ।
हरिः संपूज्य तुष्टाव तुलसीं विरहातुरः ॥ १७ ॥
नारायण बोले-तुलसी के छिप जाने पर भगवान् ने तुलसी वन में जाकर वियोग दुःख का अनुभव करते हुए, तुलसी की पूजा एवं स्तुति की ॥ १७ ॥

श्रीभगवानुवाच
वृन्दारूपाश्च वृक्षाश्च यदैकत्र भवन्ति च ।
विदुर्बुधास्तेन वृन्दा मत्प्रियां तां भजाम्यहम् ॥ १८ ॥
भगवान् बोले-जब वृन्दा (तुलसी रूप) वृक्ष एकत्र हो जाते हैं, तब मेरी प्रेयसी (तुलसी)को बुध लोग 'वृन्दा' कहते हैं । मैं उसकी सेवा कर रहा हूँ ॥ १८ ॥

पुरा बभूव या देवी ह्यादौ वृन्दावने वने ।
तेन वृन्दावनी ख्याता सुभगां तां भजाम्यहम् ॥ १९ ॥
पूर्व समय में जो देवी वृन्दावन में प्रकट हुई थी, अतएव जिसे 'वृन्दावनी' कहते हैं, उस सौभाग्यवती देवी की मैं सेवा कर रहा हूँ ॥ १९ ॥

असंख्येषु च विश्वेषु पूजिता या निरन्तरम् ।
तेन विश्वपूजिताख्यां जगत्पूज्यां भजाम्यहम् ॥ २० ॥
असंख्य विश्वों में वह निरन्तर पूजित होती हैं, इसीलिए उसे 'विश्वपूजिता' कहते हैं । मैं उस जगत्पूज्या की पूजा कर रहा हूँ ॥ २० ॥

असंख्यानि च विश्वानि पवित्राणि यया सदा ।
तां विश्वपावनीं देवीं विरहेण स्मराम्यहम् ॥ २१ ॥
जिससे असंख्य विश्व सदैव पवित्र रहते हैं, उस 'विश्वपावनी' देवी का मैं विरहातुर होकर स्मरण करता हूँ ॥ २१ ॥

देवा न तुष्टाः पुष्पाणां समूहेन यया विना ।
तां पुष्पसारां शुद्धां च द्रष्टुमिच्छामि शोकतः ॥ २२ ॥
जिसके बिना देवगण पुष्पसमूह पाने पर भी प्रसन्न नहीं होते हैं, उस शुद्ध, पुण्यसार को मैं देखने के लिए चिन्तित हूँ ॥ २२ ॥

विश्वेयत्प्राप्तिमात्रेण भक्त्यानन्दो भवेद्ध्रुवम् ।
नन्दिनी तेन विख्याता सा प्रीता भविता हि मे ॥ २३ ॥
विश्व में जिसकी प्राप्ति मात्र से भक्त परम आनन्दित हो जाता है, इसीलिए 'नन्दिनी' नाम से जिसकी प्रसिद्धि है, वह भगवती तुलसी मुझ पर प्रसन्न हो जाय ॥ २३ ॥

यस्या देव्यास्तुला नास्ति विश्वेषु निखिलेषु च ।
तुलसी तेन विख्याता तां यामि शरणं प्रियाम् ॥ २४ ॥
प्रिये ! समस्त विश्व में जिसकी तुलना नहीं हैं, इसीलिए जिसका नाम 'तुलसी' पड़ा है, उस प्रिया की शरण में मैं जाता हूँ ॥ २४ ॥

कृष्णजीवनरूपा या शश्वत्प्रियतमा सती ।
तेन कृष्णजीवनीति मम रक्षतु जीवनम् ॥ २५ ॥
जो कृष्ण की जीवनस्वरूपा एवं नित्य प्रियतमा है, वह 'कृष्णजीवनी' देवी मेरे जीवन की रक्षा करे ॥ २५ ॥

इत्येव स्तवनं कृत्वा तत्र तस्थौ रमापतिः ।
ददर्श तुलसीं साक्षात्पादपद्मे नतां सतीम् ॥ २६ ॥
रुदतीमभिमानेन मानिनीं मानपूजिताम् ।
प्रियां दृष्ट्‍वा प्रियः शीघ्रं वासयामास वक्षसि ॥ २७ ॥
इस प्रकार उनकी स्तुति करके भगवान् वहीं अवस्थित हो गए । अनन्तर उन्होंने अपने चरण-कमलों में विनम्र भाव से स्थित तुलसी को देखा, जो अभिमान वश रुदन कर रही थी । उस मानिनी एवं मानपूजिता प्रिया को देखकर भगवान् ने तुरन्त उन्हें अपनी छाती से लगा लिया ॥ २६-२७ ॥

भारत्याज्ञा गृहीत्वा च स्वालयं च ययौ हरिः ।
भारत्या सह तत्प्रीतिं कारयामास सत्वरम् ॥ २८ ॥
फिर सरस्वती की आज्ञा से वे तुलसी को अपने भवन में ले गये और उसी समय सरस्वती के साथ उनकी मैत्री करायी ॥ २८ ॥

वरं विष्णुर्ददौ तस्यैविश्वपूज्या भवेति च ।
शिरोधार्या च सर्वेषां वन्द्या मान्या ममेति च ॥ २९ ॥
अनन्तर विष्णु ने उन्हें वरदान दिया-देवि ! तुम विश्वपूज्या होकर सबकी शिरोधार्या और मेरी भी वन्द्या मान्या होओ ॥ २९ ॥

विष्णोर्वरेण सा देवी परितुष्टा बभूव ह ।
सरस्वती तामाश्लिष्य वासयामास सन्निधौ ॥ ३० ॥
इस प्रकार भगवान् विष्णु के वरदान को पाकर वह देवी अत्यन्त प्रसन्न हुई और सरस्वती ने उनका आलिंगन कर अपने समीप बैठाया ॥ ३० ॥

लक्ष्मीर्गङ्‌गा सस्मिता तां समाश्लिष्य च नारद ।
गृहं प्रवेशयामास विनयेन सतीं मुदा ॥ ३१ ॥
नारद ! लक्ष्मी और गंगा ने भी मन्द मुसकान के साथ विनयपूर्वक साध्वीं तुलसी का हाथ पकड़कर उन्हें भवन में प्रवेश कराया ॥ ३१ ॥

वृन्दां वृन्दावनीं विश्वपावनीं विश्वपूजिताम् ।
पुष्पसारां नन्दिनीं च तुलसीं कृष्णजीवनीम् ॥ ३२ ॥
एतन्नामाष्टकं चैतत्स्तोत्रं नामार्थसंयुतम् ।
यः पठेत्तां च संपूज्य सोऽश्वमेधफलं लभेत् ॥ ३३ ॥
वृन्दा, वृन्दावनी, विश्वपावनी, विश्वपूजिता, पुष्पसारा, नन्दिनी, तुलसी और कृष्णजीवनी-ये तुलसी देवी के आठ नाम हैं । यह सार्थक नामावली स्तोत्र के रूप में परिणत है । जो पुरुष तुलसी की पूजा करके इस नामाष्टक का पाठ करता है, उसे अश्वमेध का फल प्राप्त होता है ॥ ३२-३३ ॥

कार्तिकीपूर्णिमाया च तुलस्या जन्म मङ्‌गलम् ।
तत्र तस्याश्च पूजा च विहिता हरिणा पुरा ॥ ३४ ॥
कार्तिक की पूर्णिमा के दिन तुलसी का मांगलिक जन्म हुआ था और भगवान् ने सर्वप्रथम उसी दिन उनकी पूजा की थी ॥ ३४ ॥

तस्यां यः पूजयेत्तां च भक्त्या च विश्वपावनीम् ।
सर्वपापाद्विनिर्मुक्तो विष्णुलोकं स गच्छति ॥ ३५ ॥
अतः जो उस पूर्णिमा के दिन भक्तिपूर्वक उस विश्वपावनी की पूजा करता है, वह समस्त पापों से मुक्त होकर विष्णुलोक चला जाता है ॥ ३५ ॥

कार्तिके तुलसीपत्रं विष्णवे यो ददाति च ।
गवामयुतदानस्य फलमाप्नोति निश्चितम् ॥ ३६ ॥
कार्तिक मास में जो भगवान् विष्णु को तुलसी-पत्र अर्पित करता है, उसे निश्चित रूप से दश सहस्र गोदान का फल प्राप्त होता है ॥ ३६ ॥

अपुत्रो लभते पुत्रं प्रियाहीनो लभेत्प्रियाम् ।
बन्धुहीनो लभेद्‌बन्धुं स्तोत्रस्मरणमात्रतः ॥ ३७ ॥
उनके स्तोत्र के स्मरण मात्र से पुत्रहीन को पुत्र, स्त्रीरहित को स्त्री और बन्धुहीन को बन्धु की प्राप्ति होती है ॥ ३७ ॥

रोगी प्रमुच्यते रोगाद्‌बद्धो मुच्येत बन्धनात् ।
भयान्मुच्येत भीतस्तु पापान्मुच्येत पातकी ॥ ३८ ॥
एवं रोगी रोग से मुक्त हो जाता है, बंधन में पड़ा हुआ व्यक्ति बन्धन-मुक्त होता है और भयभीत प्राणी भय से तथा पातकी पातक से मुक्त होता है ॥ ३८ ॥

इत्येवं कथितं स्तोत्रं ध्यानं पूजाविधिं शृणु ।
त्वमेव देव जानासि काण्वशाखोक्तमेव च ॥ ३९ ॥
यद्वक्ष्ये पूजयेत्तां च भक्त्या चाऽऽवाहनं विना ।
उपचारैः षोडशभिर्ध्यानं पातकनाशनम् ॥ ४० ॥
तुलसीं पुष्पसारां च सतीं पूज्या मनोहराम् ।
कृत्स्नपापेध्मदाहाय ज्वलदग्निशिखोपमाम् ॥ ४१ ॥
इस प्रकार स्तोत्र तुम्हें बता दिया, अब उनका ध्यान और पूजाविधान बता रहा हूँ, सुनो ! तुम भी तो वेद जानते ही हो-उसमें काण्वशाखोक्त विधान तुम्हें बता रहा हूँ बिना आवाहन किये ही तुलसीवृक्ष में भक्तिपूर्वक षोडशोपचार द्वारा तुलसी की पूजा करके उनका पापनाशक ध्यान इस प्रकार करना चाहिए-तुलसी, पुष्पों का साररूप है । वह सती, पूज्य, मनोहर और समस्त पापरूप ईंधन को जलाने के लिए प्रज्वलित अग्निरूप है ॥ ३९-४१ ॥

पुष्पेषु तुलनाऽप्यस्या नासीद्‌देवीषु वा मुने ।
पवित्ररूपा सर्वासु तुलसी सा च कीर्तिता ॥ ४२ ॥
मुने ! इस देवी की तुलना पुष्पों अथवा देवियों से नहीं हो सकी । इसीलिए उन सबमें पवित्ररूपा इन देवी को तुलसी कहा गया ॥ ४२ ॥

शिरोधार्यां च सर्वेषामीप्सितां विश्वपावनीम् ।
जीवन्मुक्ता मुक्तिदा च भजे तां हरिभक्तिदाम् ॥ ४३ ॥
इति ध्यात्वा च संपूज्य स्तुत्वा च प्रणमेद्‌बुधः ।
उक्तं तुलस्युपाख्यानं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ ४४ ॥
यह सभी लोगों की शिरोधार्या, अभीष्ट, विश्व को पावन करने वाली, जीवन्मुक्त, मुक्ति और हरिभक्ति देनेवाली हैं, अतः मैं उनकी सेवा कर रहा हूँ । इस प्रकार उनका ध्यान, पूजन और स्तुति करके विद्वान् लोग उन्हें प्रणाम करें । तुलसी का उपाख्यान तुम्हें सुना दिया है । अब और क्या सुनना चाहते हो ? ॥ ४३-४४ ॥

इति श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे
तुलस्युपाख्यानं नाम द्वाविंशोऽध्यायः ॥ २२ ॥
श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के दूसरे प्रकृतिखण्ड में तुलसी-उपाख्यान वर्णन नामक बाईसवाँ अध्याय समाप्त ॥ २२ ॥

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