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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् द्वितीयं प्रकृतिखण्डम् - एकविंशोऽध्यायः तुलस्युपाख्यानम् -
तुलसी का पातिव्रत्य भंग तथा शालिग्राम के लक्षण और महत्त्व - नारद उवाच नारायणश्च भगवान्वीर्याधानं चकार ह । तुलस्यां केन रूपेण तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥ १ ॥ नारद बोलनारायण भगवान ने तुलसी में किस रूप से वीर्याधान किया, वह मुझे बताने की कृपा करें ॥ १ ॥ श्रीनारायण उवाच नारायणश्च भगवान्देवानां साधनेन च । शङ्खचूडस्य रूपेण रेमे तद्रामया सह ॥ २ ॥ नारायण बोले-भगवान् नारायण ने देवों के हितार्थ शंखचूड का रूप धारण करके उस सुन्दरी के साथ सम्भोग किया ॥ २ ॥ शङ्खचूडस्य कवचं गृहीत्वा मायया हरिः । पुनर्विधाय तद्रूपं जगाम तुलसीगृहम् ॥ ३ ॥ विष्णु कपट के द्वारा शंखचूड से कवच लेकर और उसका रूप धारण करके तुलसी के भवन में पहुँचे ॥ ३ ॥ दुन्दुभिं वादयामास तुलसीद्वारसंनिधौ । जयशब्दरवद्वारा बोधयामास सुन्दरीम् ॥ ४ ॥ तुलसी के द्वार पर उन्होंने नगाड़ा बजवाया और जयध्वनि के द्वारा उस सुन्दरी को जगाया ॥ ४ ॥ तच्छ्रुत्वा सा च साध्वी च परमानन्दसंयुता । राजमार्गगवाक्षेण ददर्श परमादरात् ॥ ५ ॥ उसे सुनकर वह पतिव्रता परमानन्द में मग्न हो गया और परम आदरपूर्वक खिड़की से राज-मार्ग की ओर देखने लगी ॥ ५ ॥ ब्राह्मणेभ्यो धनं दत्त्वा कारयामास मङ्गलम् । बन्दिभ्यो भिक्षुकेभ्यश्च वाचिकेभ्यो धनं ददौ ॥ ६ ॥ उसने ब्राह्मणों को धन दान देकर मंगल कराया और भाटों, भिक्षुओं एवं वाचिकों को (समाचार देने वालों) को धन प्रदान किया ॥ ६ ॥ अवरुह्य रथाद्देवो देव्याश्च भवनं ययौ । अमूल्यरत्नसंक्लृप्तं सुन्दरं सुमनोहरम् ॥ ७ ॥ राजा रथ से उतरकर रानी के महल की ओर चले, जो अमूल्यरत्नों द्वारा सुरचित, सुन्दर एवं अति मनोहर था ॥ ७ ॥ दृष्ट्वा च पुरतः कान्तं शान्तं कान्ता मुदाऽन्विता । तत्पादं क्षालयामास ननाम च रुरोद च ॥ ८ ॥ सामने अपने कान्त को शान्त खड़ा देखकर वह रमणी हर्षगद्गद हो गयी । अनन्तर प्रणाम पूर्वक उनके चरणों का प्रक्षालन करती हुई वह प्रेमाश्रुओं को बहाने लगी ॥ ८ ॥ रत्नसिंहासने रम्ये वासयामास कामुकी । ताम्बूलं च ददौ तस्मै कर्पूरादिसुवासितम् ॥ ९ ॥ उस कामुकी ने उन्हें एक रमणीक सिंहासन पर बैठाकर उन्हें कर्पूरादि से सुवासित ताम्बूल प्रदान किया ॥ ९ ॥ अद्य मे सफलं जन्म ह्यद्य मे सफलाः क्रियाः । रणागतं च प्राणेशं पश्यन्त्याश्च पुनर्गृहे ॥ १० ॥ और वह बोली-आज मेरा जन्म सफल हो गया एवं मेरी समस्त (शुभ) क्रियायें सफल हो गईं, क्योंकि रणस्थल से आये हुए अपने प्राणेश्वर को आज मैं पुनः घर में देख रही हूँ ॥ १० ॥ सस्मिता सकटाक्षं च सकामा पुलकाञ्चिता । प्रपच्छ रणवृत्तान्तं कान्तं मधुरया गिरा ॥ ११ ॥ अनन्तर वह मुसकराती हुई कटाक्ष, कामवासना तथा रोमांच के साथ मधुरवाणी में अपने प्रिय से युद्ध का वृत्तान्त पूछने लगी ॥ ११ ॥ तुलस्युवाच असंख्यविश्वसंहर्त्रा सार्धमाजौ तव प्रभो । कथं बभूव विजयस्तन्मे ब्रूहि कृपानिधे ॥ १२ ॥ तुलसी बोली-प्रभो ! कृपानिधे ! असंख्य विश्वों का संहार करने वाले उन (शिव) के साथ तुम्हारा युद्ध हो रहा था, उसमें तुम्हारी विजय कैसे हुई, मुझे बताने की कृपा करें ॥ १२ ॥ तुलसीवचनं श्रुत्वा प्रहस्य कमलापतिः । शङ्खचूडस्य रूपेण तामुवाचानृतं वचः ॥ १३ ॥ तुलसी की बातें सुनकर शंखचूड के रूप में भगवान कमलापति ने हँसकर उससे असत्य कहना आरम्भ किया ॥ १३ ॥ श्रीहरिरुवाच आवयोः समरं कान्ते पूर्णमब्दं बभूव ह । नाशो बभूव सर्वेषां दानवानां च कामिनि ॥ १४ ॥ श्रीहरि बोले-कान्ते ! हम दोनों का युद्ध पूरे वर्ष तक चलता रहा । कामिनि ! उसमें समस्त दानवों का नाश हो गया ॥ १४ ॥ प्रीतिं च कारयामास ब्रह्मा च स्वयमावयोः । देवानामधिकारश्च प्रदत्तो धातुराज्ञया ॥ १५ ॥ अनन्तर ब्रह्मा ने हम दोनों में समझौता करा दिया और देवों को उनके अधिकार उन्होंने पहले ही दे दिये थे ॥ १५ ॥ मयाऽऽगतं स्वभवनं शिवलोकं शिवो गतः । इत्युक्त्वा जगतां नाथः शयनं च चकार ह ॥ १६ ॥ इससे हम अपने भवन लौट आये और शिव जी अपने घाम को चले गये । इतना कहकर जगत् के नाथ ने शयन किया ॥ १६ ॥ रेमे रमापतिस्तत्र रामया सह नारद । सा साध्वी सुखसंभोगादाकर्षणव्यतिक्रमात् ॥ सर्वं वितर्कयामास कस्त्वमेवेत्युवाच ह ॥ १७ ॥ नारद ! भगवान् रमापति विष्णु ने उस सुन्दरी के साथ रमण किया । तुलसी को इस बार पहले की अपेक्षा सुख-संभोग के आकर्षण में व्यतिक्रम का अनुभव हुआ । अतः उसने सारी वास्तविकता का अनुमान लगा लिया और पूछा कि-तुम कौन हो ॥ १७ ॥ तुलस्युवाच को वा त्वं वद मायेश भुक्ताऽहं मायया त्वया । दूरीकृतं मत्सतीत्वमथवा त्वां शपामहे ॥ १८ ॥ तुलसीवचनं श्रुत्वा हरिः शापभयेन च । दधार लीलया ब्रह्मन्स्वां मूर्तिं सुमनोहराम् ॥ १९ ॥ ददर्श पुरतो देवी देवदेवं सनातनम् । नवीननीरदश्यामं शरत्पङ्कजलोचनम् ॥ २० ॥ कोटिकन्दर्पलीलाभं रत्नभूषणभूषितम् । ईषद्धास्यं प्रसन्नास्यं शोभितं पीतवाससा ॥ २१ ॥ तुलसी बोली-तुम मायाधीश तो नहीं हो ? बताओ, कौन हो ? तुमने छल करके मेरा भोग किया है और मेरा सतीत्व नष्ट किया है । अब मैं तुम्हें शाप दे रही हूँ । ब्रह्मन् ! तुलसी की बात सुन कर शाप के भय से विष्णु ने लीला से अपनी अत्यन्त मनोहर मूर्ति को धारण कर लिया । रानी ने देखा कि सामने देवों के देव सनातन भगवान् खड़े हैं, जो नूतन मेघ के समान श्यामल, शारदीय कमल की भाँति नेत्रों वाले, करोड़ों कन्दर्प के समान कान्तिमान् करोड़ों रत्नों के भूषणों से भूषित, मन्द मुसकान से युक्त प्रसन्न मुख वाले एवं पीताम्बर से सुशोभित हैं ॥ १८-२१ ॥ तं दृष्ट्वा कामिनी कामान्मूर्च्छां संप्राप लीलया । पुनश्च चेतनां प्राप्य पुनः सा तमुवाचह ॥ २२ ॥ उन्हें देखकर वह कामिनी काम के कारण मूच्छित हो गयी और चेतना प्राप्त होने पर वह उनसे पुनः बोली ॥ २२ ॥ तुलस्युवाच हे नाथ ते दया नास्ति पाषाणसदृशस्य च । छलेन धर्मभङ्गेन मम स्वामी त्वया हतः ॥ २३ ॥ तुलसी ने कहा-नाथ ! तुममें दया नहीं है । तुम पत्थर के समान (कठोर) हो । तुमने छल से मेरा धर्म भंग करके मेरे स्वामी को मार डाला है ॥ २३ ॥ पाषाणसदृशस्त्वं च दयाहीनो यतः प्रभो । तस्मात्पाषाणरूपस्त्वं भुवि देव भवाधुना ॥ २४ ॥ प्रभो, देव ! जिस लिए तुम दया रहित पाषाण के समान हो, अतः तुम भूतल पर पाषाण का रूप धारण करो ॥ २४ ॥ ये वदन्ति दयासिन्धु त्वां ते भ्रान्ता न संशयः । भक्तो विनाऽपराधेन परार्थे च कथं हतः ॥ २५ ॥ सर्वात्मा त्वं च सर्वज्ञो न जानासि परव्यथाम् । अतस्त्वमेकजनुषि स्वमेव विस्मरिष्यसि ॥ २६ ॥ जो तुम्हें दयासिन्धु कहते हैं, वे भ्रान्त हैं, इसमें संशय नहीं । तुमने मात्र दूसरे के लिए अपने निरपराध भक्त को क्यों मार डाला ? तुम सर्वात्मा एवं सर्वज्ञ हो, फिर भी दूसरे की व्यथा को नहीं जानते हो इसीलिए एक जन्म में तुम अपने को ही भूल जाओगे ॥ २५-२६ ॥ इत्युक्त्वा च महासाध्वी निपत्य चरणे हरेः । भृशं रुरोद शोकार्ता विललाप मुहुर्मुहुः ॥ २७ ॥ इतना कहकर वह महासती भगवान् के चरणों में गिरकर रोने लगी और शोकपीड़ित होने से बार-बार विलाप करने लगी ॥ २७ ॥ तस्याश्च करुणां दृष्ट्वा करुणामयसागरः । नयेन तां बोधयितुमुवाच कमलापतिः ॥ २८ ॥ भगवान् कमलापति ने उसकी करुणा देखकर उसे नीति से समझाते हुए कहा ॥ २८ ॥ श्रीभगवानुवाच तपस्त्वया कृतं साध्वि मदर्थे भारते चिरम् । त्वदर्थे शङ्खचूडश्च चकार सुचिरं तपः ॥ २९ ॥ श्रीभगवान बोले-सती ! तुमने मेरे लिए भारत वर्ष में चिरकाल तक तप किया था, और तुम्हारे लिए शंखचूड ने अति चिरकाल तक तप किया था ॥ २९ ॥ कृत्वा त्वां कामिनीं कामी विजहार च तत्फलात् । अधुना दातुमुचितं तवैव तपसः फलम् ॥ ३० ॥ इदं शरीरं त्यक्त्वा च दिव्यं देहं विधाय च । रासे मे रमया सार्धं त्वं रमासदृशी भव ॥ ३१ ॥ उसके फलस्वरूप उस कामी ने तुम्हें पाया । अब मैंने तुम्हारे तप का फल देना उचित समझा, अतः तुम इस शरीर को छोड़कर दिव्य देह धारण करके मेरी रासलीला में लक्ष्मी के साथ लक्ष्मी के समान ही बनकर रहो ॥ ३०-३१ ॥ इयं तनुर्नदीरूपा गण्डकीति च विश्रुता । पूता सुपुण्यदा नॄणां पुण्या भवतु भारते ॥ ३२ ॥ तव केशसमूहाश्च पुण्यवृक्षा भवन्त्विति । तुलसीकेशसंभूता तुलसीति च विश्रुता ॥ ३३ ॥ और यह तुम्हारा शरीर 'गण्डकी' नामक नदी का रूप धारण करेगा, जो भारत में मनुष्यों के लिए पवित्र, अतिपुण्यप्रद और पुण्यस्वरूपा होगी । तुम्हारे केश-समूह पुण्यात्मक वृक्ष होंगे । तुलसी के केश से उत्पन्न होने के कारण उस वृक्ष का नाम 'तुलसी' होगा ॥ ३२-३३ ॥ त्रिलोकेषु च पुष्पानां पत्राणां देवपूजने । प्रधानरूपा तुलसी भविष्यति वरानने ॥ ३४ ॥ सुमुखी ! तीनों लोकों में देव-पूजन के उपयोग में आने वाले सभी पुष्पों और पत्रों में तुलसी प्रधान होगी ॥ ३४ ॥ स्वर्गे मर्त्ये च पाताले वैकुण्ठे मम संनिधौ । भवन्तु तुलसीवृक्षा वराः पुष्पेषु सुन्दरि ॥ ३५ ॥ गोलोके विरजातीरे रासे वृन्दावने भुवि । भाण्डीरे चम्पकवने रम्ये चन्दनकानने ॥ ३६ ॥ माधवीकेतकीकुन्दमल्लिकामालतीवने । भवन्तु तरवस्तत्र पुष्पस्थानेषु पुण्यदाः ॥ ३७ ॥ सुन्दरी ! तुलसी वृक्ष समस्त पुष्प-वृक्षों में श्रेष्ठ होगा । वह स्वर्ग, मृत्यु, पाताल और मेरे वैकुण्ठ लोक में तथा गोलोक में विरजा के तट पर, वृन्दावन के रास में, पृथिवी पर, भाण्डीर वन में, चम्पक वन में, रम्य चन्दन वन में एवं माधवी, केतकी, कुन्द, मल्लिका तथा मालती के वनों में तथा पुष्प-स्थानों में तुलसी के पुण्यदायक वृक्ष उत्पन्न होंगे ॥ ३५-३७ ॥ तुलसीतरुमूले च पुण्यदेशे सुपुण्यदे । अधिष्ठानं तु तीर्थानां सर्वेषां च भविष्यति ॥ ३८ ॥ पवित्र देश तथा अत्यन्त पुण्यदायक स्थान में उत्पन्न तुलसी वृक्ष के मूल भाग में सभी तीर्थों का निवास होगाः ॥ ३८ ॥ तत्रैव सर्वदेवानां समधिष्ठानमेव च । तुलसीपत्रपतनं प्रायो यश्च वरानने ॥ ३९ ॥ सुमुखी ! वहाँ समस्त देवों का अधिष्ठान रहता है, जहाँ प्रायः तुलसी-पत्र गिर जाता है ॥ ३९ ॥ स स्नातः सर्वतीर्थेषु सर्वयज्ञेषु दीक्षितः । तुलसीपत्रतोयेन योऽभिषेकं समाचरेत् ॥ ४० ॥ तुलसीपत्र के जल से जिसने अभिषेक कर लिया, वह मानों समस्त तीर्थों में स्नान कर चुका और समस्त यज्ञों की दीक्षा से दीक्षित हो गया ॥ ४० ॥ सुधाघटसहस्रेण सा तुष्टिर्न भवेत्समा । या च तुष्टिर्भवेन्नृणां तुलसीपत्रदानतः ॥ ४१ ॥ भगवान् विष्णु को अमृत भरे सहस्रों घड़ों से उतनी तुष्टि नहीं होती, जितनी मनुष्यों के तुलसीपत्रदान से होती है ॥ ४१ ॥ गवामयुतदानेन यत्फलं लभते नरः । तुलसीपत्रदानेन तत्फलं कार्तिके सति ॥ ४२ ॥ दश सहस्र गायें दान करने से मनुष्य को जो फल प्राप्त होता है, वह केवल तुलसीपत्र दान करने से प्राप्त हो जाता है ॥ ४२ ॥ तुलसीपत्रतोयं च मृत्युकाले च यो लभेत् । स मुच्यते सर्वपापाद्विष्णुलोकं स गच्छति ॥ ४३ ॥ मृत्यु के समय जो तुलसी पत्र समेत जल का पान करता है, वह समस्त पापों से मुक्त होकर विष्णुलोक को जाता है ॥ ४३ ॥ नित्यं यस्तुलसीतोयं भुङ्क्ते भक्त्या च यो नरः । स एव जीवन्मुक्तश्च गङ्गास्नानफलं लभेत् ॥ ४४ ॥ जो मनुष्य नित्य तुलसीपत्र समेत जल का भक्तिपूर्वक पान करता है, वह जीवन्मुक्त होता है और गंगा स्नान का फल प्राप्त करता है । ॥ ४४ ॥ नित्यं यस्तुलसीं दत्त्वा पूजयेन्मां च मानवः । लक्षाश्वमेधजं पुण्यं लभते नात्र संशयः ॥ ४५ ॥ जो मनुष्य मुझे नित्य तुलसी दान करते हुए मेरी अर्चना करता है, उसे लाख अश्वमेध के पुण्य फल प्राप्त होते हैं, इसमें संशय नहीं ॥ ४५ ॥ तुलसीं स्वकरे धृत्वा देहे धृत्वा च मानवः । प्राणांस्त्यजति तीर्थेषु विष्णुलोकं स गच्छति ॥ ४६ ॥ जो मनुष्य तीर्थों में जाकर अपने हाथ और देह पर तुलसी रख कर प्राण परित्याग करता है, वह विष्णुलोक में चला जाता है ॥ ४६ ॥ तुलसीकाष्ठनिर्माणमालां गृह्णाति यो नरः । पदे पदेऽश्वमेधस्य लभते निश्चितं फलम् ॥ ४७ ॥ तुलसी के काष्ठ की माला धारण करनेवाला मनुष्य पग-पग पर अश्वमेध यज्ञ का भागी होता है, इसमें संशय नहीं ॥ ४७ ॥ तुलसीं स्वकरे धृत्वा स्वीकारं यो न रक्षति । स याति कालसूत्रं च यावच्चन्द्रदिवाकरौ ॥ ४८ ॥ हाथ में तुलसी लेकर स्वीकार किये गये वचन का पालन न करनेवाला मनुष्य चन्द्र-सूर्य के समय तक कालसूत्र में रहता है ॥ ४८ ॥ करोति मिथ्या शपथं तुलस्या यो हि मानवः । स याति कुम्भीपाकं च यावदिन्द्राश्चतुर्दश ॥ ४९ ॥ तुलसी रखकर लिये हुए शपथ को मिथ्या करने वाला मनुष्य चौदहों इन्द्रों के समय तक कुम्भीपाक नरक में पड़ा रहता है ॥ ४९ ॥ तुलसीतोयकणिकां मृत्युकाले च यो लभेत् । रत्नयानं समारुह्य वैकुण्ठं स प्रयाति च ॥ ५० ॥ मृत्यु के समय तुलसी-जल का कण भी प्राप्त करनेवाला मनुष्य रत्न निर्मित यान पर बैठकर वैकुण्ठ को जाता है । ॥ ५० ॥ पूर्णिमायाममायां च द्वादश्यां रविसंक्रमे । तैलाभ्यङ्गे चास्नाते च मध्याह्ने निशि संध्ययोः ॥ ५१ ॥ आशौचेऽशुचिकाले वा रात्रिवासान्विते नराः । तुलसीं ये च छिन्दन्ति ते छिन्दन्ति हरेः शिरः ॥ ५२ ॥ पूर्णिमा, अमावास्या, द्वादशी तथा सूर्य की संक्रान्ति के दिन, तेल लगाकर, मध्याह्नकाल, रात्रि और दोनों संध्याओं में तथा अशौच के समय, बिना नहाये-धोये अथवा रात के वस्त्र पहने हुए जो तुलसीपत्र तोड़ते हैं, वे मानों भगवान् विष्णु का शिरश्छेदन करते हैं ॥ ५१-५२ ॥ त्रिरात्रं तुलसीपत्रं शुद्धं पर्युषितं सति । श्राद्धे व्रते वा दाने वा प्रतिष्ठायां सुरार्चने ॥ ५३ ॥ तीन रात का बासी तुलसीपत्र श्राद्ध, व्रत, दान,-प्रतिष्ठा और देव-पूजन में शुद्ध माना जाता है ॥ ५३ ॥ भूगतं तोयपतितं यद्दत्तं विष्णवे सति । शुद्धं तु तुलसीपत्रं क्षालनादन्यकर्मणि ॥ ५४ ॥ पृथ्वी पर गिरा हुआ, जल में गिरा हुआ तथा श्रीविष्णु को अर्पित तुलसी-पत्र धो देने पर अन्य कर्म के लिए शुद्ध हो जाता है ॥ ५४ ॥ वृक्षाधिष्ठात्री देवी या गोलोके च निरामये । कृष्णेन सार्धं रहसि नित्यं क्रीडां करिष्यति ॥ ५५ ॥ नद्यधिष्ठातृदेवी या भारते च सुपुण्यदा । लवणोदस्य पत्नी च मदंशस्य भविष्यति ॥ ५६ ॥ (हे तुलसी !) तुम वृक्षों की अधिष्ठात्री देवी होकर निरामय गोलोक में भगवान् श्रीकृष्ण के साथ एकान्त में नित्य क्रीड़ा करोगी । और तुम हरि के अंश से भारतवर्ष में नदी की अधिष्ठात्री देवी होकर मेरे अंश से उत्पन्न लवण (खार) सागर की अतिपुण्यदा पत्नी बनोगी ॥ ५५-५६ ॥ त्वं च स्वयं महासाध्वि वैकुण्ठे मम संनिधौ । रमासमा च रासे च भविष्यसि न संशयः ॥ ५७ ॥ स्वयं तुम महासाध्वी तुलसी रूप से वैकुण्ठ में मेरे निकट निवास करोगी । वहाँ तुम लक्ष्मी के समान सम्मानित होगी । गोलोक के रास में भी तुम उपस्थित रहोगी, इसमें संशय नहीं ॥ ५७ ॥ अहं च शैलरूपेण गण्डकीतीरसंनिधौ । अधिष्ठानं करिष्यामि भारते तव शापतः ॥ ५८ ॥ तुम्हारे शाप के कारण भारत में मैं गण्डकी नदी के तट पर पर्वत रूप में रहूँगा ॥ ५८ ॥ वज्रकीटाश्च कृमयो वज्रदंष्ट्राश्च तत्र वै । तच्छिलाकुहरे चक्रं करिष्यन्ति मदीयकम् ॥ ५९ ॥ वहाँ रहने वाले वोपम कीड़े अपने वज्रसदृश दाँतों से काट-काटकर उस पाषाण में मेरे चक्र का चिह्न करेंगे ॥ ५९ ॥ एकद्वारे चतुश्चक्रं वनमालाविभूषितम् । नवीननीरदश्यामं लक्ष्मीनारायणाभिधम् ॥ ६० ॥ उनमें से एक द्वारवाले चार चक्रवाले, वनमाला से विभूषित और नूतन मेघ के समान श्यामल वर्णवाले (शालग्राम) का नाम 'लक्ष्मीनारायण' होगा ॥ ६० ॥ एकद्वारे चतुश्चक्रं नवीननीरदोपमम् । लक्ष्मीजनार्दन ज्ञेयं रहितं वनमालया ॥ ६१ ॥ एक द्वार, चार चक्र, नवीन मेघ के समान श्यामल और वनमाला रहित (शालग्राम) का नाम लक्ष्मी-जनार्दन होगा ॥ ६१ ॥ द्वारद्वये चतुश्चक्रं गोष्पदेन समन्वितम् । रघुनाथाभिधं ज्ञेयं रहितं वनमालया ॥ ६२ ॥ दो द्वार, चार चक्र, गोपद चिह्न तथा वनमाला से रहित का नाम 'रघुनाथ' होगा ॥ ६२ ॥ अतिक्षुद्रं द्विचक्रं च नवीनजलदप्रभम् । दधिवामनाभिधं ज्ञेयं गृहिणां च सुखप्रदम् ॥ ६३ ॥ बहुत छोटे, दो चक्र वाले तथा नूतन मेघ की प्रभा से पूर्ण का नाम 'दधिवामन' होगा, जो गृहस्थ मनुष्यों को सुख प्रदान करेंगे ॥ ६३ ॥ अतिक्षुद्रं द्विचक्रं च वनमालाविभूषितम् । विज्ञेयं श्रीधरं देवं श्रीप्रदं गृहिणां सदा ॥ ६४ ॥ बहुत छोटे, दो चक्रवाले और वनमाला से विभूषित का नाम 'श्रीधर' देव होगा, जो गृही जनों को सदा श्री प्रदान करेंगे ॥ ६४ ॥ स्थूलं च वर्तुलाकारं रहितं वनमालया । द्विचक्रं स्फुटमत्यन्तं ज्ञेयं दामोदराभिधम् ॥ ६५ ॥ स्थूल, गोल, वनमाला से रहित और दो अत्यन्त स्पष्ट चक्रवाले शालग्राम का नाम.'दामोदर' होगा ॥ ६५ ॥ मध्यमं वर्तुलाकारं द्विचक्रं बाणविक्षतम् । रणरामाभिधं ज्ञेयं शरतूणसमन्वितम् ॥ ६६ ॥ जो मध्यम श्रेणी का वर्तलाकार हो, जिसमें दो चक्र तथा तरकस और बाण के चिह्न शोभा पाते हों, एवं जिसके ऊपर बाण से कट जाने का चिह्न हो, उस पाषाण को रण में शोभा पानेवाले 'रणराम' की संज्ञा देनी चाहिए ॥ ६६ ॥ मध्यमं सप्तचक्रं च च्छत्रतूणसमन्वितम् । राजराजेश्वरं ज्ञेयं राजसंपत्प्रदं नृणाम् ॥ ६७ ॥ मध्यम, सात चक्रों, छत्र और तरकस से युक्त का नाम 'राजराजेश्वर' समझना चाहिए । वे मनुष्यों को राज्य-सम्पत्ति प्रदान करते हैं ॥ ६७ ॥ द्विसप्तचक्रं स्थूलं च नवीनजलदप्रभम् । अनन्ताख्यं च विज्ञेयं चतुर्वर्गफलप्रदम् ॥ ६८ ॥ चौदह चक्रवाले स्थूल और नवीनमेघ के समान कान्तिवाले (शालग्राम) का नाम 'अनन्त' समझना चाहिए, जो (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष रूप) चार प्रकार के फल प्रदान करते हैं ॥ ६८ ॥ चक्राकारं द्विचक्रं च सश्रीकं जलदप्रभम् । सगोपदं मध्यमं च विज्ञेयं मधुसूदनम् ॥ ६९ ॥ चक्राकार, द्विचक्री, श्री से सम्पन्न, मेघ समान प्रभापूर्ण और गो-खुर के चिह्न से सुशोभित मध्यम श्रेणी के पाषाण को 'मधुसूदन' कहते हैं ॥ ६९ ॥ सुदर्शनं चैकचक्रं गुप्तचक्रं गदाधरम् । द्विचक्रं हयवक्त्राभं हयग्रीवं प्रकीर्तितम् ॥ ७० ॥ उसी भाँति एक चक्र को 'सुदर्शन', गुप्त चक्र को 'गदाधर' तथा दो चक्र और अश्वमुख की आकृति से युक्त पाषाण को 'हयग्रीव' कहते हैं ॥ ७० ॥ अतीव विस्तृतास्यं च द्विचक्रं विकटं सति । नरसिंहाभिधं ज्ञेयं सद्यो वैराग्यदं नृणाम् ॥ ७१ ॥ अति विस्तृत मुखवाले, दो चक्रवाले और विकट आकार वाले को 'नरसिंह' कहते हैं, जो मनुष्यों को तुरन्त वैराग्य प्रदान करते हैं ॥ ७१ ॥ द्विचक्रं विस्तृतास्यं च वनमालासमन्वितम् । लक्ष्मीनृसिंहं विज्ञेयं गृहिणां सुखदं सदा ॥ ७२ ॥ दो चक्र, विस्तृत मुख एवं वनमाला से विभूषित पाषाण का नाम 'लक्ष्मीनृसिंह' है, जो गृही जनों को सदैव सुख प्रदान करते हैं ॥ ७२ ॥ द्वारदेशे द्विचक्रं च सश्रीकं च समं स्फुटम् । वासुदेवं च विज्ञेयं सर्वकामफलप्रदम् ॥ ७३ ॥ जो द्वार देश में दो चक्रों से युक्त हो, तथा जिस पर श्री का चिह्न स्पष्ट दिखाई पड़े, ऐसे पाषाण को भगवान् 'वासुदेव' का विग्रह मानना चाहिए । वह विग्रह सकल कामनादायक है ॥ ७३ ॥ प्रद्युम्नं सूक्ष्मचक्रं च नवीननीरदप्रभम् । सुषिरे छिद्रबहुलं गृहिणा च सुखप्रदम् ॥ ७४ ॥ सूक्ष्मचक्र, नये मेघ की भाँति प्रभा तथा छोटे-छोटे छिद्रों से सुशोभित पाषाण प्रद्युम्न का स्वरूप है, जो गृही मनुष्यों को सुख प्रदान करता है ॥ ७४ ॥ द्वे चक्रे चैकलग्ने च पृष्ठे यत्र तु पुष्कलम् । संकर्षणं तु विज्ञेयं सुखदं गृहिणां सदा ॥ ७५ ॥ जिसमें दो चक्र सटे हुए हों और जिसका पृष्ठभाग विशाल हो, उसे 'संकर्षण' कहते हैं, जो गृहस्थों को सदा सुखी रखता है ॥ ७५ ॥ अनिरुद्धं तु पीताभं वर्तुलं चातिशोभनम् । सुखप्रदं गृहस्थानां प्रवदन्ति मनीषिणः ॥ ७६ ॥ पीत वर्ण, गोलाकार और अति सुन्दर पाषाण को मनीषी लोग 'अनिरुद्ध' कहते हैं, जो गृहस्थों को सुख प्रदान करते रहते हैं ॥ ७६ ॥ शालग्रामशिला यत्र तत्र संनिहितो हरिः । तत्रैव लक्ष्मीर्वसति सर्वतीर्थसमन्विता ॥ ७७ ॥ शालग्राम की शिला जहाँ रहती है, वहाँ भगवान् विष्णु और समस्त तीर्थों समेत लक्ष्मी निवास करती हैं ॥ ७७ ॥ यानि कानि च पापानि ब्रह्महत्यादिकानि च । तानि सर्वाणि नश्यन्ति शालग्रामशिलार्चनात् ॥ ७८ ॥ शालग्राम शिला के पूजन करने से ब्रह्महत्या आदि जितने पाप हैं, सभी नष्ट हो जाते हैं ॥ ७८ ॥ छत्राकारे भवेद्राज्यं वर्तुले च महाश्रियः । दुःखं च शकटाकारे शूलाग्रे मरणं ध्रुवम् ॥ ७९ ॥ शालग्राम के छत्राकार होने से राज्य, गोलाकार होने से महाश्री, शकट (गाड़ी) के आकार से दुःख एवं शूल के अग्रभाग के समान होने से निश्चित ही मृत्यु की प्राप्ति होती है ॥ ७९ ॥ विकृतास्ये च दारिद्र्यं पिङ्गले हानिरेव च । लग्नचक्रे भवेद्व्याधिर्विदीर्णे मरणं ध्रुवम् ॥ ८० ॥ विकृत मुख होने से दारिद्य, पिंगलवर्ण से हानि, भग्नचक्र से व्याधि, और फटे हुए शालग्राम से निश्चित मरण की प्राप्ति होती है ॥ ८० ॥ व्रतं दानं प्रतिष्ठां च श्राद्धं च देवपूजनम् । शालग्रामशिलायाश्चैवाधिष्ठानात्प्रशस्तकम् ॥ ८१ ॥ व्रत, दान, प्रतिष्ठा, श्राद्ध तथा देवपूजन आदि में शालग्राम शिला के रहने ही से अमित फल मिलता है ॥ ८१ ॥ स स्नातः सर्वतीर्थेषु सर्वयज्ञेषु दीक्षितः । शालग्रामशिलातोयैर्योऽभिषेकं समाचरेत् ॥ ८२ ॥ शालग्राम शिला के जल से जो अभिषेक करता है वह समस्त तीयों में स्नान कर लेता है और समस्त यज्ञों की दीक्षाओं से दीक्षित हो जाता है ॥ ८२ ॥ सर्वदानेषु यत्पुण्यं प्रादक्षिष्ये भुवो यथा । सर्वयज्ञेषु तीर्थेषु व्रतेष्वनशनेषु च ॥ ८३ ॥ तस्य स्पर्शं च वाञ्छन्ति तीर्थानि निखिलानि च । जीवन्मुक्तो महापूतो भवेदेव न संशयः ॥ ८४ ॥ सकल पदार्थ दान करने और पृथ्वी की प्रदक्षिणा करने का पुण्य उसे प्राप्त होता है तथा सभी यज्ञों, तीर्थों, व्रतों और तपस्याओं के फल का वह अधिकारी समझा जाता है क्योंकि वह जीवन्मुक्त और महापूत होता है इसमें संशय नहीं ॥ ८३-८४ ॥ पाठे चतुर्णां वेदानां तपसां करणे सति । तत्पुण्यं लभते नूनं शालग्रामशिलार्चनात् ॥ ८५ ॥ चारों वेदों के पाठ और तप करने का समस्त पुण्य शालग्राम शिला की पूजा करने से निश्चित प्राप्त होता है । ८५ ॥ शालग्रामशिलातोयं नित्यं भुङ्क्ते च यो नरः । सुरेप्सितं प्रसादं च जन्ममृत्युजराहरम् ॥ ८६ ॥ तस्य स्पर्शं च वाञ्छन्ति तीर्थानि निखिलानि च । जीवन्मुक्तो महापूतोऽप्यन्ते याति हरेः पदम् ॥ ८७ ॥ जो नित्य शालग्राम शिला के जल का पान करता है तथा देवों के प्रिय प्रसाद (को भोग लगाकर) भक्षण करता है, वह जन्म-मरण और बुढ़ापे से रहित हो जाता है । उसके स्पर्श के लिए समस्त तीर्थ लालायित रहते हैं । अत: जीवन्मुक्त और अति पवित्र होकर अन्त में विष्णुधाम को जाता है ॥ ८६-८७ ॥ तत्रैव हरिणा सार्धमसंख्यं प्राकृतं लयम् । पश्यत्येव हि दास्ये च निर्मुक्तो दास्यकर्मणि ॥ ८८ ॥ वहाँ भगवान् के साथ रहकर उनकी सेवा करता हुआ असंख्य प्राकृत लयों को देखता है ॥ ८८ ॥ यानि कानि च पापानि ब्रह्महत्यादिकानि च । तं च दृष्ट्वा भिया यान्ति वैनतेयमिवोरगाः ॥ ८९ ॥ उसे देखकर ब्रह्महत्या आदि समस्त पाप, उसी तरह भाग खड़े होते हैं जैसे गरुड़ को देखकर साँप पलायन कर जाते हैं ॥ ८९ ॥ तत्पादपद्मरजसा सद्यः पूता वसुंधरा । पुंसां लक्षं तत्पितॄणां निस्तारस्तस्य जन्मनः ॥ ९० ॥ उसके चरण-कमल के रज से वसुन्धरा सद्यः पवित्र होती है । उसके पितरों की लाख पीढ़ियाँ तर जाती हैं ॥ ९० ॥ शालग्रामशिलातोयं मृत्युकाले च यो लभेत् । सर्वपापाद्विनिर्मुक्तो विष्णुलोकं स गच्छति ॥ ९१ ॥ मरण-समय शालग्राम शिला का जल प्राप्त करनेवाला मनुष्य समस्त पापों से मुक्त होकर विष्णुलोक को जाता है ॥ ९१ ॥ निर्वाणमुक्तिं लभते कर्मभोगाद्विमुच्यते । विष्णुपादे प्रलीनश्च भविष्यति न संशयः ॥ ९२ ॥ अनन्तर कर्मफल-भोग से मुक्त होकर वह निर्वाण प्राप्त करता है और भगवान् विष्णु के चरण में अत्यन्त लीन हो जाता है, इसमें संशय नहीं ॥ १२ ॥ शालग्रामशिलां धृत्वा मिथ्यावादं वदेत्तु यः । स याति कूर्मदंष्ट्रं च यावद्वै ब्रह्मणो वयः ॥ ९३ ॥ इसीलिए शालग्राम शिला रखकर जो मिथ्या भाषण करता है, उसे ब्रह्मा की आयु पर्यन्त कूर्मदंष्ट्र नामक नरक में रहना पड़ता है ॥ ९३ ॥ शालग्रामशिलां स्पृष्टा स्वीकार यो न पालयेत् । स प्रयात्यसिपत्रं च लक्षमन्वन्तराधिकम् ॥ ९४ ॥ शालग्राम शिला का स्पर्श करके की गई प्रतिज्ञा का पालन न करने वाला मनुष्य एक लाख मन्वन्तरों के समय तक असिपत्र नामक नरक में रहता है ॥ ९४ ॥ तुलसीपत्रविच्छेदं शालग्रामे करोति यः । तस्य जन्मान्तरे काले स्त्रीविच्छेदो भविष्यति ॥ ९५ ॥ जो शालग्राम शिला पर से तुलसीपत्र का विच्छेद (वियोग) करता है, जन्मान्तर में उसे स्त्री से वियोग होता है ॥ ९५ ॥ तुलसीपत्रविच्छेदं शङ्खे यो हि करोति च । भार्याहीनो भवेत्सोऽपि रोगी च सप्तजन्मसु ॥ ९६ ॥ इसी प्रकार जो शंख पर से तुलसीपत्र को हटाता है, वह भार्याहीन तथा सात जन्म तक रोगी होता है ॥ ९६ ॥ शालग्रामं च तुलसीं शङ्खमेकत्र एव च । यो रक्षति महाज्ञानी स भवेच्छ्रीहरिप्रियः ॥ ९७ ॥ शालग्राम, तुलसी और शंख इन्हें एकत्र रखकर जो इन (तुलसी-पत्रादि) की रक्षा करता है, वह महाज्ञानी एवं श्री हरि का प्रिय पात्र होता है ॥ ९७ ॥ सकृदेव हि यो यस्यां वीर्याधानं करोति यः । तद्विच्छेदे तस्य दुःखं भवेदेव परस्परम् ॥ ९८ ॥ जो पुरुष जिस स्त्री में एकबार भी वीर्याधान कर देता है उसके लिए उसका वियोग परस्पर दु:खदायी होता है ॥ ९८ ॥ त्वं प्रिया शङ्खचूडस्य चैकमन्वन्तरावधि । शङ्खेन सार्धं त्वद्भेदः केवलं दुःखदस्तव ॥ ९९ ॥ तुम तो एक मन्वन्तर तक शंखचूड की प्रेयसी बनकर रही हो, इसलिए शंख के साथ तुम्हारा वियोग करना केवल तुम्हें दुःख देना है ॥ ९९ ॥ इत्युक्त्वा श्रीहरिस्तां च विरराम च नारद । सा च देहं परित्यज्य दिव्यरूपं दधार ह ॥ १ ०० ॥ भगवान् श्री विष्णु सादर इतना कह कर मौन हो गये और उसने देह त्याग कर दिव्य रूप धारण किया ॥ १०० ॥ यथा श्रीश्च तथा सा चाप्युवास हरिवक्षसि । प्रजगाम तया सार्धं वैकुण्ठं कमलापतिः ॥ १०१ ॥ श्री की भांति वह भी भगवान् के वक्षःस्थल पर निवास करने लगी और कमलापति भगवान् उसके साथ वैकुण्ठ चले गये ॥ १०१ ॥ लक्ष्मी सरस्वती गङ्गा तुलसी चापि नारद । हरेः प्रियाश्चतस्रश्च बभूवुरीश्वरस्य च ॥ १०२ ॥ नारद ! इस प्रकार ईश्वर विष्णु की लक्ष्मी, सरस्वती, गंगा और तुलसी ये चार स्त्रियाँ हुईं ॥ १०२ ॥ सद्यस्तद्देहजाता च बभूव गण्डकी नदी । हरेरंशेन शैलश्च तत्तीरे पुण्यदो नृणाम् ॥ १०३ ॥ तुलसी की देह से उसी क्षण गण्डकी नदी उत्पन्न हो गयी । उसी के तट पर भगवान् के अंश से उत्पन्न शैल अवस्थित है, जो मनुष्यों के लिए पुण्यदायक है ॥ १०३ ॥ कुर्वन्ति तत्र कीटाश्च शिलां बहुविधां मुने । जले पतन्ति या याश्च जलदाभाश्च निश्चितम् ॥ १०४ ॥ मुने ! वहाँ कीड़े (पाषाण को काट-काटकर) अनेक प्रकार की शिलायें बना डालते हैं । मेघ के समान कान्तिवाली वे शिलाएँ (कट-कट कर) निश्चित ही जल में गिरती हैं ॥ १०४ ॥ स्थलस्थाः पिङ्गला ज्ञेयाश्चोपतापाद्धरेरिति । इत्येवं कथितं सर्वं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ १०५ ॥ श्री हरि के ताप से स्थलवर्ती शिलायें ललाई लिये भूरे रंग की होती हैं । इस भांति मैंने सब कुछ बता दिया है अब और क्या सुनना चाहते हो ? ॥ १०५ ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे तुलस्युपाख्याने एकविशोऽध्यायः ॥ २१ ॥ श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराण के प्रकृति-खण्ड में तुलसी-उपाख्यान नामक इक्कीसवां अध्याय समाप्त ॥ २१ ॥ |