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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् तृतीयं गणपतिखण्डम् - षट्चत्वारिंशोऽध्यायः परशुरामागमगनै-तत्खण्डश्रवणफलवर्णनम् -
गणेश और तुलसी का संवाद् तथा फलश्रुति - नारायण उवाच स्तुत्वा तां परशुरामोऽसौ हर्षसंफुल्लमानसः । स्तोत्रेण हरिणोक्तेन स तुष्टाव गणाधिपम् ॥१ ॥ गणेश और तुलसी का संवाद तथा फलश्रुति नारायण बोले-परशराम ने प्रसन्नचित्त होकर पार्वती की स्तुति के उपरान्त भगवान् के कहे हुए स्तोत्र द्वारा गणेश की भी स्तुति की ॥ १ ॥ पूजां चकार भक्त्या च नैवेद्यैर्विविधैरपि । धूपैर्दीपैश्च गन्धैश्च पुष्पैश्च तुलसीं विना ॥२॥ और तुलसी के बिना विविध नैवेद्य द्वारा भक्तिपूर्वक धूप, दीप, गन्ध एवं पुष्प से उनकी पूजा की ॥ २ ॥ संपूज्य भातरं भक्त्या स रामः शंकराज्ञया । गुरुपत्नीं गुरुं नत्वा गमनं कर्तुमुद्यतः ॥३॥ शंकर की आज्ञा से राम ने भ्राता गणेश को पूजकर गुरुपत्नी और गुरु को नमस्कार करके गृह की ओर प्रस्थान किया ॥ ३ ॥ नारद उवाच पूजां भगवतश्चक्रे रामो गणपतेर्यदा । नैवेद्यैर्विविधैः पुष्पैस्तुलसीं च विना कथम् ॥४॥ तुलसी सर्वपुष्पाणां मान्या धन्या मनोहरा । कथं पूतां सारभूतां न गृह्णाति गणेश्वरः ॥५॥ नारद बोले-राम ने विविध नैवेद्य और पुष्पों से भगवान् गणेश्वर देव की पूजा की, किन्तु तुलसी के बिना उनकी पूजा कैसे सम्पन्न हुई ? क्योंकि सभी पुष्पों में तुलसी मान्या, धन्या एवं मनोहरा है । तब सारभूत (तुलसी) को गणेश्वर क्यों नहीं ग्रहण करते हैं ? ॥ ४-५ ॥ नारायण उवाच शृणु नारद वक्ष्येऽहमितिहासं पुरातनम् । ब्रह्मकल्पस्य वृत्तान्तं निगूढं च मनोहरम् ॥६॥ नारायण बोले-हे नारद ! मैं एक प्राचीन इतिहास, जिसमें ब्रह्म कल्प का निगूढ़ एवं मनोहर वृत्तान्त भरा पड़ा है, तुम्हें बता रहा हूँ, सुनो ॥ ६ ॥ एकदा तुलसी देवी प्रोद्भिन्ननवयौवना । तीर्थं भ्रमन्ती तपसा नारायणपरायणा ॥७॥ ददर्श गङ्गातीरे सा गणेशं यौवनान्वितम् । अतीव सुन्दरं शुद्धं सस्मितं पीतवाससम् ॥८॥ एक बार तुलसी देवी अपने नवयौवन में तप के व्याज से नारायण का भजन करती हुई तीर्थों में भ्रमण कर रही थीं । अनन्तर गंगा के तट पर नवयौवनपूर्ण गणेश को उन्होंने देखा, जो अत्यन्त सुन्दर, शुद्धचित्त, मन्दहास करते हुए एवं पीताम्बर पहने हुए स्थित थे ॥ ७-८ ॥ चन्दनोक्षितसर्वाङ्गं रत्नभूषणभूषितम् । ध्यायन्तं कृष्णपादाब्जं जन्ममृत्युजरापहम् ॥९॥ सर्वांग में चन्दन का लेप लगाये और रत्नों के भूषणों से भूषित हुए गणेश भगवान् कृष्ण के चरण-कमल का ध्यान कर रहे थे, जो जन्म, मृत्यु और जरा का अपहर्ता है ॥ ९ ॥ जितेन्द्रियाणां प्रवरं योगीन्द्राणां गुरोर्गुरुम् । सुरूपहार्यं निष्कामं सकामा तमुवाच ह ॥१०॥ जितेन्द्रियों में श्रेष्ठ, योगीन्द्रों के गुरुओं के गुरु व अत्यन्त सुन्दर एवं निष्काम उन्हें देखकर कामातुर तुलसी ने उनसे कहा ॥ १० ॥ तुलस्युवाच अहो ध्यायसि किं देव शान्तरूप गजानन । कथं लम्बोदरो देहो गजवक्त्रं कथं तव ॥ ११ ॥ तुलसी बोली-हे देव गजानन ! शान्त रूप से किसका ध्यान कर रहे हो? तुम्हारी देह में यह लम्बा उदर और गजमुख कैसे हो गया? ॥ ११ ॥ एकदन्तः कथं वक्त्रे वदामुत्र च कारणम् । त्यज ध्यानं महाभाग सायंकाल उपस्थितः ॥१२॥ हे महाभाग ! तुम्हारे मुख में एक ही दांत क्यों है? इसका कारण बताओ, अब सायंकाल हो रहा है, ध्यान करना बन्द करो ॥ १२ ॥ इत्युवत्वा तुलसी देवी प्रजहास पुनः पुनः । परं चेतसि दग्धा सा कामवाणैः सुदारुणैः ॥१३॥ इतना कहकर तुलसी देवी बार-बार हँसने लगीं, किन्तु मन में भीषण कामबाणों से वह दग्ध हो रही थी ॥ १३ ॥ गणेशस्य प्रधानाङ्गे दत्त्वा किंचिज्जलं मुने । जघान तर्जन्यग्रेण निष्पन्दं कृष्णमानसम् ॥१४॥ हे मुने ! अनन्तर गणेश के प्रधान अंग में उसने थोड़ा-सा जल डालकर अपनी तर्जनी के अग्र भाग से उनको धक्का दिया, जो भगवान् कृष्ण में निश्चल मन लगाये हुए थे ॥ १४ ॥ बभूव ध्यानभग्नं च तस्य नारद चेतनम् । दुःखं च ध्यानभेदेन तद्विच्छेदो हि शोकदः ॥१५॥ हे नारद ! इससे उनका ध्यान भंग हो गया और ध्यान भङ्ग होने से उन्हें दुःख हुआ । क्योंकि ध्यान का टूटना शोकप्रद होता है ॥ १५ ॥ ध्यानं त्यक्त्वा हरिं स्मृत्वा चापश्यत्कामिनीं पुरः । नवयौवनसंपन्नां सस्मितां कामपीडिताम् ॥ १६॥ ध्यान त्यागकर हरि का स्मरण करके उन्होंने सामने एक कामिनी स्त्री को देखा, जो नवयौवन से सम्पन्न, मन्द मुसुकान करती हुई काम-पीड़ित हो रही थी ॥ १६ ॥ लम्बोदरश्च तां दृष्ट्वा परं विनयपूर्वकम् । उवाच सस्मितः शान्तः शान्तां कामातुरा वशी ॥१७॥ संयमी लम्बोदर ने मन्दहास समेत शान्त भाव से उसे देखकर विनयपूर्वक उस कामातुरा से कहा ॥ १७ ॥ गणेश्वर उवाच का त्वं वत्से कस्य कन्या मातर्मां ब्रूहि किं शुभे । पापदोऽशुभदः शश्वद्ध्यानभङ्गस्तपस्विनाम् ॥१८॥ गणेश्वर बोले-हे वत्से ! तुम कौन हो? किस की कन्या हो? हे मातः ! हे शुभे ! मुझे बताओ । तपस्वियों का निरन्तर ध्यान भंग करना पाप और अशुभ फल देने वाला होता है ॥ १८ ॥ कृष्णः करोतु कल्याणं हन्तु विघ्नं कृपानिधिः । तद्ध्यानभङ्गजाद्दोषान्नाशुभं स्यात्तु ते शुभे ॥१९॥ हे शुभे ! कृष्ण तुम्हारा कल्याण करें, विघ्न को कृपा निधान नष्ट करें, उनके ध्यान भंग जनित दोष से तुम्हारा अशुभ न हो ॥ १९ ॥ गणेशवचनं श्रुत्वा तमुवाच स्मरातुरा । सस्मितं सकटाक्षं च देवं मधुरया गिरा ॥२०॥ गणेश की बातें सुनकर कामातुरा तुलसी ने मन्दहास एवं उन पर कटाक्ष करती हुई अपनी मधुरवाणी द्वारा उस देव से कहा ॥ २० ॥ तुलस्युवाच धर्मात्मजस्य कन्याऽहमप्रौढा च तपस्विनी । तपस्या मे स्वामिनोऽर्थे त्वं स्वामी भव मे प्रभो ॥२१॥ तुलसी बोली-हे प्रभो ! मैं धर्मपुत्र की कन्या हूँ, अप्रौढ़ा और तपस्विनी हूँ, पति के लिए तप कर रही हूं, अतः तुम हमारे स्वामी बनो ॥ २१ ॥ तुलसीवचनं श्रुत्वा गणेशः श्रीहरिं स्मरन् । तामुवाच महाप्राज्ञः प्राज्ञीं मधुरया गिरा ॥२२॥ तुलसी की बात सुनकर महाविद्वान् गणेश ने भगवान् का स्मरण करते हुए, उस विदुषी से मधुरवाणी द्वारा कहा ॥ २२ ॥ गणेश उवाच हे मातर्नास्ति मे वाञ्छा घोरे दारपरिग्रहे । दारग्रहो हि दुःखाय न सुखाय कदाचन ॥२३॥ गणेश बोले-हे मातः ! स्त्री ग्रहण (विवाह) करना भयंकर है, अतः मुझे इसकी इच्छा नहीं है । विवाह कभी भी सिवाय दुःख के सुखकर नहीं होता है ॥ २३ ॥ हरिभक्तेर्व्यवायश्च तपस्यानाशकारकः । मोक्षद्वारकपाटश्च भवबन्धनपाशकः ॥२४॥ इससे हरिभक्ति का व्यवधान तथा तप का नाश होता है और यह मोक्ष द्वार का कपाट (किवाड़) तथा संसार बन्धन का फांस रूप है ॥ २४ ॥ गर्भवासकरः शश्वतत्त्वज्ञाननिकृन्तकः । संशयानां समारम्भो यस्त्याज्यो वृषलैरपि ॥२५॥ गेहोऽहकरणानां च सर्वमायाकरण्डकम् । साहसानां समूहश्च दोषाणां च विशेषतः ॥२६॥ गर्भवास का निरन्तर तत्त्वज्ञान का नाशक कारण, और संशयो का आरंम्भक होता है, जिसे शूद्र को भी त्याग देना चाहिए । यह अहंकारों का घर, समस्त माया की पिटारी, साहसों का समूह एवं विशेषकर दोषों का समूह है ॥ २५-२६ ॥ निवर्तस्व महाभागे पश्यान्यं कामुकं पतिम् । कामुकेनैव कामुक्याः संगमो गुणवान्भवेत् ॥२७॥ अतः हे महा ! भागे तुम लौट जाओ औरकिसी अन्य कामुक पति को ढूंढ़ो, क्योंकि कामुक का ही कामुकी के साथ संगम होना हितकर होता है ॥ २७ ॥ इत्येवं वचनं श्रुत्वा कोपात्सा तं शशाप ह । दारास्ते भविताऽसाध्वी गणेश्वर न संशयः ॥२८॥ ऐसी बातें सुनकर उसने क्रोधवश उन्हें शाप दिया. कि हे गणेश्वर ! तुम्हें व्यभिचारिणी स्त्री मिलेगी, इसमें संशय नहीं ॥ २८ ॥ इत्याकर्ण्य सुरश्रेष्ठस्तां शशाप शिवात्मजः । देवि त्वमसुरग्रस्ता भविष्यसि न संशयः ॥२९॥ इतना सुनकर शिवपुत्र गणेश ने भी उसे शाप दिया कि देवि ! तुम असुर के अधीन रहोगी, इसमें संशय नहीं ॥ २९ ॥ तत्पश्चान्महता शापाद्वृक्षस्त्वं भवितेति च । महातपस्वीत्युक्त्वा तां विरराम च नारद ॥३०॥ उसके अनन्तर बड़ों के शाप से तुम्हें वृक्ष होना पड़ेगा । इतना कहकर, हे नारद !, वे महातपस्वी चुप हो गये ॥ ३० ॥ शापं श्रुत्वा तु तुलसी सा रुरोद पुनः पुनः । तुष्टाव च सुरश्रेष्ठं स प्रसन्न उवाच ताम् ॥३१ ॥ शाप सुनकर तुलसी बार-बार रोदन करने लगी और उस देवश्रेष्ठ की स्तुति की । तब प्रसन्न होकर गणेश ने उससे कहा ॥ ३१ ॥ गणेश्वर उवाच पुष्पाणां सारभूता त्वं भविष्यसि मनोरमे । कलांशेन महाभागे स्वयं नारायणप्रिया ॥३२॥ गणेश्वर बोले-हे मनोरमे ! तुम पुष्पों में सारभूत (तुलसी) होगी, और हे महामागे !, कलांश द्वारा स्वयं नारायण की प्रिया भी ॥ ३२ ॥ प्रिया त्वं सर्वदेवानां श्रीकृष्णस्य विशेषतः । पूता विमुक्तिदा नृणां मया भोग्या न नित्यशः ॥३३॥ समस्त देवों तथा विशेषकर भगवान् श्रीकृष्ण की प्रिया बनोगी । तुम पवित्र होगी एवं मनुष्यों को मुक्ति प्रदान करोगी, पर हम कभी भी (तुम्हारा) उपभोग नहीं करेंगे ॥ ३३ ॥ इत्युक्त्वा तां सुरश्रेष्ठो जगाम तपसे पुनः । हरेराराधनव्यग्रो बदरीसंनिधिं ययौ ॥३४॥ जगाम तुलसीदेवी हृदयेन विदूयता । निराहारा तपश्चक्रे पुष्करे लक्षवर्षकम् ॥३५॥ देवश्रेष्ठ गणेश उससे इतना कहकर भगवान् की आराधना में व्यग्र होने के कारण पुनः तप करने के लिए बदरिकाश्रम के निकट चले गये और हार्दिक दुःख का अनुभव करती हुई तुलसी भी पुष्कर चली गयी । उसने वहाँ एक लाख वर्षतक निराहार रहकर तप किया ॥ ३४-३५ ॥ पश्चान्मुनीन्द्रशापेन गणेशस्य च नारद । सा प्रिया शङ्खचूडस्य बभूव सुचिरं मुने ॥३६॥ हे नारद ! हे मुने ! मुनिश्रेष्ठ गणेश के शापवश वह चिरकाल तक शंखचूड़ की प्रिया रही ॥ ३६ ॥ ततः शंकरशूलेन स ममारासुरेश्वरः । सा कलांशेन वृक्षत्वं ययौ नारायणप्रिया ॥३७॥ पश्चात् शिव के शूल से उसका निधन होने पर वह नारायण की प्रिया तुलसी कलांश से वृक्ष होकर उत्पन्न हुई ॥ ३७ ॥ कथितश्चेतिहासस्ते श्रुतो धर्ममुखात्पुरा । मोक्षप्रदश्च सारश्च पुराणेन प्रकीर्तितः ॥३८॥ मेंने धर्म के मुख से जिस प्रकार यह इतिहास सुना था, तुम्हें सुना दिया, जो पुराण में प्रसिद्ध, मोक्षप्रद तथा सारभूत है ॥ ३८ ॥ ततः परशुरामोऽसौ जगाम तपसे वनम् । प्रणम्य शंकरं दुर्गा संपूज्य च गणेश्वरम् ॥३९॥ अनन्तर वे परशुराम गणेश की पूजा और शंकर एवं दुर्गा को प्रणाम करके तप के लिए वन चले गये ॥ ३९ ॥ पूजितो वन्दितः सर्वैः सुरेन्द्रमुनिपुंगवैः । पार्वतीशिवसांनिध्ये सुखं तस्थौ गणेश्वरः ॥४०॥ समस्त सुरनायकों और मुनि-श्रेष्ठों द्वारा पूजित एवं वन्दित होकर गणेश भी पार्वती शिव के समीप सुखपूर्वक रहने लगे ॥ ४० ॥ इदं गणपतेः खण्डं यः शृणोति समाहितः । स राजसूययज्ञस्य फलमाप्नोति निश्चितम्॥४१ ॥ अपुत्रो लभते पुत्रं श्रीगणेशप्रसादतः । धीरं वीरं च धनिनं गुणिनं चिरजीविनम् ॥४२॥ यशस्विनं पुत्रिणं च विद्वांसं सुकवीश्वरम् । जितेन्द्रियाणां प्रवरं दातारं सर्वसंपदाम् ॥४३॥ सुशीलं च सदाचारं प्रशंस्य वैष्णवं लभेत् । अहिंसकं दयालुं च तत्त्वज्ञानविशारदम् ॥४४॥ इस प्रकार सावधान होकर इस गणपति खण्ड का जो श्रवण करता है, वह निश्चित रूप से राजसूय यज्ञ का फल प्राप्त करता है । श्री गणेश के प्रसाद से पुत्रहीन व्यक्ति ऐसे पुत्र की प्राप्ति करता है, जो धीर, वीर, धनी, गुणी, चिरजीवी, यशस्वी, पुत्री, विद्वान्, कवीश्वर, जितेन्द्रियों में श्रेष्ठ, समस्त सम्पत्ति के दाता, सुशील, सदाचारी, प्रशंसनीय, वैष्णव, अहिंसक, दयालु, और तत्त्वज्ञान में निपुण होता है ॥ ४१-४४ ॥ भक्त्या गणेशं संपूज्य वस्त्रालकारचन्दनैः । श्रुत्वा गणपतेः खण्डं महावन्ध्या प्रसूयते ॥४५॥ मृतवत्सा काकवन्ध्या ब्रह्मन्पुत्रं लभेद्धृवम् । अदूष्यदूषणपरा शुद्धा चैव लभेत्सुतम् ॥४६॥ गणेश की भक्तिपूर्वक वस्त्राभूषण एवं चन्दन से पूजा करके गणपतिखण्ड के श्रवण करने पर महावन्ध्या भी प्रसव करती है । हे ब्रह्मन् ! मृतवत्सा और काकवन्ध्या निश्चित रूप से पुत्र प्राप्त करती हैं । एवं दुषण रहित के ऊपर दोष लगानेवाली स्त्री भी शुद्ध होकर पुत्र प्राप्त करती है ॥ ४५-४६ ॥ संपूर्णं ब्रह्मवैवर्तं श्रुत्वा यल्लभते फलम् । तत्फलं लभते मर्त्यः श्रुत्वेदं खण्डमुत्तमम् ॥४७॥ मनुश्य को समस्त ब्रह्मवैवर्त पुराण के सुनने से जिस फल की प्राप्ति होती है, वह फल इस उत्तम खण्ड के सुनने पर भी प्राप्त होता है ॥ ४७ ॥ वाञ्छां कृत्वा तु मनसि शृणोति परमास्थितः । तस्मै ददाति सर्वेष्टं शूरश्रेष्ठो गणेश्वरः ॥४८॥ जो मन में अभिलाषा रखकर परमश्रद्धापूर्वक इसका श्रवण करता है, उसे श्रेष्ठ गणेश्वर समस्त अभीष्ट प्रदान करते हैं ॥ ४८ ॥ श्रुत्वा गणपतेः खण्डं विघ्ननाशाय यत्नतः । स्वर्णयज्ञोपवीतं च श्वेतच्छत्रं च माल्यकम् ॥४९॥ प्रदीयते वाचकाय स्वस्तिकं तिललड्डुकान् । परिपक्वफलान्येव देशकलोद्भवानि च ॥५०॥ गणपतिखण्ड सुनकर विघ्न के नाशार्थ सुवर्ण का यज्ञोपवीत, श्वेत छत्र, माला, तिल के लड्डू एवं देश-काल के अनुसार उत्पन्न फल समेत स्वस्तिक (मंगल द्रव्य) वाचक को समर्पित करना चाहिए ॥ ४९-५० ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे गणपतिखण्डे नारदनारायणसंवादे परशुरामागमगनै- तत्खण्डश्रवणफलवर्णनं नामषट्चत्वारिशोऽध्यायः ॥४६॥ श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के तीसरे गणपतिखण्ड में नारद-नारायण-संवाद में परशुराम के आगमन तथा इस खण्ड के सुनने का फल वर्णन नामक छियालीसवाँ अध्याय समाप्त ॥ ४६ ॥ समाप्तमिदं श्रीब्रह्मवैवर्तपुराणस्य तृतीयं महागणपतिखण्डम्
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