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ब्रह्मवैवर्तपुराणम्

तृतीयं गणपतिखण्डम् - पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः


परशुरामकृत दुर्गास्तोत्रकथनम् -
परशुरामकृत दुर्गास्तोत्र -


नारायण उवाच
पार्वतीं बोधयित्वा तु विष्णू राममुवाच ह ।
हितं सत्यं नीतिसारं परिणामसुखावहम् ॥१॥
नारायण बोले-इस प्रकार पार्वती को समझाकर विष्णु ने राम से हितकर, सत्य, नीति का सार और परिणाम में सुखप्रद वचन कहा ॥ १ ॥

विष्णुरुवाच
राम त्वमधुना सत्यमपराधी श्रुतेर्मते ।
कोपात्कृत्वा दन्तभङ्‌गं गणेशस्य स्थिते शिवे ॥२॥
विष्णु बोले- हे राम ! तुम इस समय वेदानुसार सत्य अपराधी हो, क्योंकि शिव के रहते तुमने कोष मे गणेश का दाँत तोड़ दिया है ॥ २ ॥

स्तोत्रेणैव मयोक्तेन स्तुत्वा गणपतिं परम् ।
काण्वशाखोक्तविधिना स्तुहि दुर्गां जगत्प्रसूम् ॥३॥
अतः मेरे कहे हुए स्तोत्र द्वारा ही श्रेष्ठ गणपति की स्तुति करके तुम काण्वशाखानुसार जगज्जननी दुर्गा की स्तुति करो ॥ ३ ॥

श्रीकृष्णस्य परा शक्तिर्बुद्धिरूपा जगत्प्रभोः ।
अस्यां च तव रुष्टायां हता बुद्धिर्भविष्यति ॥४॥
क्योंकि जगत्स्वामी भगवान् श्रीकृष्ण की यह बुद्धिरूप पराशक्ति है, अतः इसके रुष्ट होने पर तुम्हारी बुद्धि नष्ट हो जायगी ॥ ४ ॥

सर्वशक्तिस्वरूपेयमनया शक्तिमज्जगत् ।
अनया शक्तिमान्कृष्णो निर्गुणः प्रकृतेः परः ॥५॥
यह सम्पूर्ण शकिरुप है और सारा जगत् इसी के द्वारा शक्तिमान् हुआ है । निर्गुण एवं प्रकृति से परे रहने वाले भगवान् श्रीकृष्ण मी इसी से शक्तिमान् हैं ॥ ५ ॥

सृष्टिं कर्तुं न शक्तश्च ब्रह्मा शक्त्याऽनया विना ।
वयमस्यां प्रसूता ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः ॥६॥
इस शक्ति के बिना ब्रह्मा भी सुष्टि करने में असमर्थ रहते हैं । ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश्वर' अदि हम लोग इन्हीं से उत्पन्न हा हैं ॥ ६ ॥

सुरसंघेऽसुरग्रस्ते काले घोरतरे द्विज ।
तेजःसु सर्वदेवानामाविर्भूता पुरा सती ॥७॥
हे द्विज ! देवगणों के असुरों के अधीन हो जाने पर उस अति मोर काल में समस्त देवों के तेज से यह सती पहले उत्पन्न हुई थी ॥ ७ ॥

कृष्णाज्ञयाऽसुरान्हत्वा दत्त्वा तेभ्यः पदं ततः ।
दक्षपत्‍न्यां जनिं लेभे दक्षस्य तपसा पुरा ॥८॥
भगवान् कृष्ण की आज्ञा से राक्षसों का बध करके इसने देवों को उनका अपना पद (अधिकार) प्रदान किया तथा दक्ष की तपस्या के कारण उनकी पत्नी में जन्म ग्रहण किया ॥ ८ ॥

भार्या भूत्वा शंकरस्य पुनः पत्युश्च निन्दया ।
देहं त्यक्त्वा शैलपत्‍न्यां जनिं लेभे पुरा सती ॥९॥
और शंकर की पत्नी होने पर पुनः पति-निन्दा के कारण उस (दक्ष-जनित) देह का त्याग कर दिया तथा हिमालय की पत्नी में जन्म लिया ॥ ९ ॥

शंकरस्तपसा लब्धो योगीन्द्राणां गुरोर्गुरुः ।
लब्धो गणपतिः पुत्रः कृष्णांशः कृष्णसेवया ॥१०॥
अनन्तर तप करके योगीन्द्रों के गुरु के गुरु शंकर को पति रूप में पुनः प्राप्त किया और भगवान् श्रीकृष्ण की सेवा करके गणपति पुत्र प्राप्त किया है, जो कृष्ण का अंश है ॥ १० ॥

यं ध्यायस्येव नित्यं किं तं न जानासि बालक ।
स एव भगवान्कृष्णश्चांशेन गिरिजासुतः ॥११ ॥
हे बालक ! जिसका नित्य ध्यान करते हो, क्या उसे नहीं जानते ? वही भगवान् कृष्ण अंशतः गिरिजा के पुत्र हुए हैं ॥ ११ ॥

कृताञ्जलिर्नतो भूत्वा स्तुहि दुर्गां शिवप्रियाम् ।
शिवां शिवप्रदां शैवा शिवबीजां शिवेश्वरीम् ॥१२॥
इसलिए हाथ जोड़कर विनम्र हो शिवप्रिया दुर्गा की स्तुति करो, जो शिवा (कल्याणरूपा), शिवप्रदा, शिव-भक्त, शिवबीज स्वरूप तथा शिव की ईश्वरी है ॥ १२ ॥

शिवायाः स्तोत्रराजेन पुरा शूलिकृतेन वै ।
त्रिपुरस्य वधे घोरे ब्रह्मणा प्रेरितेन च ॥ १३॥
पहले के शंकर कृत स्तोत्रराज से तुम शिवा की स्तुति करो, जिसे उन्होंने त्रिपुर के घोर वध के समय ब्रह्मा से प्रेरित होकर उन्होंने रचा था ॥ १३ ॥

इत्युक्त्वा श्रीपदं शौ जगाम श्रीनिकेतनम् ।
गते हरौ हरिं स्मृत्वा रामस्तां स्तोतुमुद्यतः ॥१४॥
स्तोत्रेण विष्णुदत्तेन सर्वविघ्नहरेण च ।
धर्मार्थकाममोक्षाणां कारणेन च नारद ॥ १५॥
हे नारद ! इतना कह कर वह (वामन बालक) शीघ्रता से विष्णुलोक चला गया । भगवान् के चले जाने पर भगवान् का स्मरण करके राम पार्वती की उस स्तोत्र द्वारा स्तुति करने के लिए तैयार हो गये, जो विष्णु प्रदत्त, समस्तविघ्नहारी और धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष का कारण था ॥ १४-१५ ॥

कृताञ्जलिपुटो भूत्वा स्नात्वा गङ्‌गोदकं शुभे ।
गुरुं प्रणम्य भक्तेशं धृत्वा धौते च वाससी ॥१६॥
आचम्य नत्वा मूर्छा तां भक्तिनम्रात्मकंधरः ।
पुलकाञ्चितसर्वाङ्‌गःश्चानन्दाश्रुसमन्वितः ॥१७॥
शुभ गंगाजल में स्नान करके हाथ जोड़कर, भक्तों के ईश गुरु को प्रणाम करके दो धुले वस्त्रों को पहना और आचमन करके भक्ति से कन्धे झुकाये, सर्वांग में पुलक (रोमाञ्च) एवं नेत्रों में आनन्द के आंसू भरे तथा शिर से नमस्कार करते हुए राम ने देवी की स्तुति की ॥ १६-१७ ॥

परशुराम उवाच
श्रीकृष्णस्य च गोलोके परिपूर्णतमस्य च ।
आविर्भूता विग्रहतः पुरा सृष्ट्युन्मुखस्य च ॥१८॥
परशुराम बोले-पूर्व समय गोलोक में परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्ण की देह से, जब वे सृष्टि के उन्मुख हो रहे थे, तुम प्रकट हुई ॥ १८ ॥

सूर्यकोटिप्रभायुक्ता वस्त्रालंकारभूषिता ।
वह्निशुद्धांशुकाधाना सस्मिता सुमनोहरा ॥ १९॥
नवयौवनसंपन्ना सिन्दूरारुण्यशोभिता ।
ललितं कबरीभारं मालतीमाल्यमण्डितम् ॥२०॥
तुम करोड़ों सूर्य की प्रभा से युक्त, वस्त्र-आभूषणों से विभूषित, अग्नि की भांति विशुद्ध वस्त्र पहने, मन्दहास करती हुई, अति मनोहर, नवयौवना, सिन्दूर की लाली से सुशोभित, मालती-माला से विभूषित और ललित कवरी भार (केशपाश) धारण किये हुई थीं ॥ १९-२० ॥

अहोऽनिर्वचनीया त्वं चारुमूतिं च बिभ्रती ।
मोक्षप्रदा मुमुक्षूणां महाविष्णुर्विधिः स्वयम् ॥२ १॥
मुमोह क्षणमात्रेण दृष्ट्‍वा त्वां सर्वमोहिनीम् ।
बालैः संभूय सहसा सस्मिता धाविता पुरा ॥२२॥
सद्‌भिः ख्याता तेन राधा मूलप्रकृतिरीश्वरी ।
कृष्णस्तां सहसा भीतो वीर्याधानं चकार ह ॥२३॥
अहो ! सुन्दर मूर्ति धारण करने वाली तुम अनिर्वचनीया, एवं मुमुक्षजनों को मोक्ष देने वाली हो और तुम्हारा सर्वमोहन रूप देखकर स्वयं महाविष्णु और ब्रह्मा क्षणमात्र में मोहित हो गये थे । तुम सहसा बच्चों के साथ मन्दहास करते दौड़ने लगी थीं, इसीलिए सज्जनों ने तुम मूलप्रकृति ईश्वरी को 'राधा' नाम से प्रख्यात किया । कृष्ण ने भी सहसा भयभीत होकर तुम में बीर्याधान किया ॥ २१-२३ ॥

ततो डिम्भं महज्जज्ञे ततो जातो महान्विराट् ।
यस्यैव लोमकूपेषु ब्रह्माण्डान्यखिलानि च ॥२४॥
जिससे महान् डिम्भ (सुवर्ण का अंडा) उत्पन्न हुआ, और उससे महाविराट का जन्म हुआ है जिसके लोमकूपों में निखिल ब्रह्माण्ड भरे पड़े हैं ॥ २४ ॥

राधारतिक्रमेणैव तन्निःश्वासो बभूव ह ।
स निःश्वासो महावायुः स विराड्विश्वधारकः ॥२५॥
राधा के साथ रति करते समय क्रमशः जो उनका निःश्वास उत्पन्न हुआ, वह निःश्वास महावायु एवं विश्व का आधार विराट् हुआ ॥ २५ ॥

भयघर्मजलेनैव पुप्लुवे विश्वगोलकम् ।
स विराड्विश्वनिलयो जलराशिर्बभूव ह ॥२६॥
उस समय उनके पसीने के जल से गोलाकार विश्व उत्पन्न हुआ । वह विश्व-धारक विराट् जलराशि हो गया ॥ २६ ॥

ततस्त्वं पञ्चधा भूय पञ्च मूर्तीश्च बिभ्रती ।
प्राणाधिष्ठातृमूर्तिर्या कृष्णस्य परमात्मनः ॥२७॥
कृष्णप्राणाधिकां राधां तां वदन्ति पुराविदः ।
वेदाधिष्ठातृमूर्तिर्या वेदशास्त्रप्रसूरपि ॥२८॥
तां सावित्रीं शुद्धरूपां प्रवदन्ति मनीषिणः ।
ऐश्वर्याधिष्ठातृमूर्तिः शान्तिस्त्वं शान्तरूपिणी ॥२९॥
लक्ष्मीं वदन्ति सन्तस्तां शुद्धां सत्त्वस्वरूपिणीम् ।
रागाधिष्ठातृदेवी या शुक्लमूर्तिः सतां प्रसूः ॥३०॥
सरस्वतीं तां शास्त्रज्ञां शास्त्रज्ञाः प्रवदन्त्यहो ।
बुद्धिर्विद्या सर्वशक्तेर्या मूर्तिरधिदेवता ॥३१॥
सर्वमङ्‌गलदा सन्तो वदन्ति सर्वमङ्‌गलाम् ।
सर्वमङ्‌गलमङ्‌गल्या सर्वमङ्‌गलरूपिणी ॥३२॥
अनन्तर तुमने अपने को पांच रूपों में प्रकट किया । जो परमात्मा कृष्ण की प्राणाधिष्ठात्री मूर्ति है वह उनके प्राणों से भी अधिक प्रिय है, अतः पुरावेत्ता लोग उसे राधा कहते हैं । वेदों की अधिष्ठात्री देवी, जो वेद शास्त्रों की जननी भी है, उसे मनीषी गण शुद्धरूपा सावित्री कहते हैं । ऐश्वर्य की अधिष्ठात्री मूर्ति तुम शान्ति एवं शान्त रूपा हो, अतः उस शुद्ध सत्त्वस्वरूपा को सन्त लोग लक्ष्मी कहते हैं । रागों की अधिष्ठात्री देवी, जो शुक्लरूप एवं सज्जनों को जननी है, उस शास्त्रज्ञा को शास्त्रज्ञ लोग सरस्वती कहते हैं । बुद्धि और विद्यारूप, समस्त शक्ति की अधिदेवता, तथा समस्त मंगलों को देने वाली जो मूर्ति है उसे सन्त लोग सर्वमंगला कहते हैं । तुम समस्त मंगलों की मंगलकारिका तथा सकल मंगल स्वरूपा, हो ॥ २७-३२ ॥

सर्वमङ्‌गलबीजस्य शिवस्य निलयेऽधुना ।
शिवे शिवास्वरूपा त्वं लक्ष्मीर्नारायणान्तिके ॥३३॥
सरस्वती च सावित्री वेदसूर्ब्रह्मणः प्रिया ।
राधा रासेश्वरस्यैव परिपूर्णतमस्य च ॥३४॥
परमानन्दरूपस्य परमानन्दरूपिणी ।
त्वत्कलांशांशकलया देवानामपि योषितः ॥३५॥
हे इस समय तुम शिव के भवन में समस्त मंगलों का बीज हो । तुम शिव में शिवास्वरूप, नारायण के यहाँ लक्ष्मी, और ब्रह्मा के यहाँ सरस्वती तथा वेद-जननी सावित्री हो । परिपूर्णतम श्रीकृष्ण की तुम राधा हो, परमानन्दरूप की परमानन्दरूपिणी हो । तुम्हारी ही कलाओं के अंशांश से देवों की पत्नियां उत्पन्न हुई हैं ॥ ३३-३५ ॥

त्वं विद्या योषितः सर्वाः सर्वेषां बिजरूपिणी ।
छाया सूर्यस्य चन्द्रस्य रोहिणी सर्वमोहिनी ॥३६॥
शची शक्रस्य कामस्य कामिनी रतिरीश्वरी ।
वरुणानी जलेशस्य वायोः स्त्रीप्राणवल्लभा ॥३७॥
तुम विद्या, सभी स्त्रियाँ और सबकी बीज रूपा हो । तुम सूर्य की छाया और चन्द्रमा की रोहिणी हो, जो सबको मोहित करती है । तुम इन्द्र की इन्द्राणी, कामदेव की कामिनी रति, वरुण की वरुणानी एवं वायु की प्राणवल्लभा स्त्री हो ॥ ३६-३७ ॥

वह्नेः प्रिया हि स्वाहा च कुबेरस्य च सुन्दरी ।
यमस्य तु सुशीला च नैर्ऋतस्य च कैटभी ॥३८॥
ऐशानी स्याच्छशिकला शतरूपा मनोः प्रिया ।
देवहूतिः कर्दमस्य वसिष्ठस्याप्यरुन्धती ॥३९॥
लोपामुद्राऽप्यगस्त्यस्य देवमाताऽदितिस्तथा ।
अहल्या गौतमस्यापि सर्वाधारा वसुंधरा ॥४०॥
गङ्‌गा च तुलसी चापि पृथिव्यां या सरिद्वरा ।
एताः सर्वाश्च या ह्यन्या सर्वास्त्वत्कलयाऽम्बिके ॥४१ ॥
अग्नि की प्रिया स्वाहा, कुबेर की सुन्दरी, यम की सुशीला, नैर्ऋत की कैटभी, शंकर की शशिकला, मनु की प्रिया शतरूपा,कर्दम की देवहूति, वसिष्ठ की अरुन्धती, अगस्त्य की लोपामुद्रा, देवों की माता अदिति, गौतम की अहल्या और सब की आधार वसुन्धरा (पृथ्वी) हो । हे अम्बिके ! पृथ्वी पर गंगा, तुलसी और श्रेष्ठ नदियाँ जो हैं वे सब तथा अन्य समस्त तुम्हारी कला से उत्पन्न हुई हैं ॥ ३८-४१ ॥

गृहलक्ष्मीर्गृहे नृणां राजलक्ष्मीश्च राजसु ।
तपस्विनां तपस्या त्वं गायत्री ब्राह्मणस्य च ॥४२॥
सतां सत्त्वस्वरूपा त्वमसतां कलहाङ्‍कुरा ।
ज्योतीरूपा निर्गुणस्य शक्तिस्त्वं सगुणस्य च ॥४३॥
सूर्ये प्रभास्वरूपा त्वं दाहिका च हुताशने ।
जले शैत्यस्वरूपा च शोभारूपा निशाकरे ॥४४॥
त्वं भूमौ गन्धरूपा चाप्याकाशे शब्दरूपिणी ।
क्षुत्पिपासादयस्त्वं च जीविनो सर्वशक्तयः ॥४५॥
मनुष्यों के घर में गृहलक्ष्मी, राजाओं की राजलक्ष्मी, तपस्वी जनों की तपस्या, ब्राह्मण की गायत्री, सज्जनों की सत्त्वस्वरूपा, असज्जनों को कलहबीज, निर्गुण की ज्योतिरूप, सगुण की शक्ति, सूर्य की प्रभा, अग्नि की दाहिका, जल में शैत्य रूप, चन्द्र में शोभा रूप, पृथिवी में गन्ध-रूप, आकाश में शब्द रूप और जीवों की भूख-प्यास आदि समस्त शक्तियाँ तुम्हीं हो ॥ ४२-४५ ॥

सर्वबीजस्वरूपा त्वं संसारे साररूपिणी ।
स्मृतिर्मेधा च बुद्धिर्वा ज्ञानशक्तिर्विपश्चिताम् ॥४६॥
संसार में सर्वबीजरूप और साररूप एवं विद्वानों की स्मृति, मेघा, बुद्धि और ज्ञानशक्ति हो ॥ ४६ ॥

कृष्णेन विद्या या दत्ता सर्वज्ञानप्रसूः शुभा ।
शूलिने कृपया सा त्वं यया मृत्युंजयः शिवः ॥४७॥
कृष्ण ने शिव को कृपया जो सर्वज्ञान की जननी विद्या प्रदान की, जिससे शिव मृत्युञ्जय हो गये हैं, वह तुम्ही हो ॥ ४७ ॥

सृष्टिपालनसंहारशक्तयस्त्रिविधाश्च याः ।
ब्रह्मविष्णुमहेशानां सा त्वमेव नमोऽस्तु ते ॥४८॥
ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर की सृष्टि, पालन और संहार ये तीन प्रकार की शक्तियाँ तुम्ही हो, अतः तुम्हें नमस्कार है ॥ ४८ ॥

मधुकैटभभीत्या च त्रस्तोधाता प्रकम्पितः ।
स्तुत्वा मुक्तश्च यां देवीं तां मूर्ध्ना प्रणमाम्यहम् ॥४९॥
मधुकैटभ के भय से ब्रह्मा त्रस्त होकर कांप गये, फिर वे जिसकी स्तुति करने से मुक्त हुए उस देवी को मैं शिर से प्रणाम कर रहा हूँ ॥ ४९ ॥

मधुकैटभयोर्युद्धे त्राताऽसौ विष्णुरीश्वरीम् ।
बभूव शक्तिमान्स्तुत्वा तां दुर्गां प्रणमाम्यहम् ॥५०॥
मधुकैटभ के युद्ध के समय जिस ईश्वरी की स्तुति करके त्राता विष्णु शक्तिमान् हुए,उस दुर्गा को मैं प्रणाम कर रहा हूँ ॥ ५० ॥

त्रिपुरस्य महायुद्धे सरथे पतिते शिवे ।
यां तुष्टुवुः सुराः सर्वे तां दुर्गां प्रणमाम्यहम् ॥५१॥
त्रिपुर के महायुद्ध में रथ समेत शिव के गिर जाने पर देवों ने जिस देवी की स्तुति की उस दुर्गा को मैं प्रणाम कर रहा हूँ ॥ ५१ ॥

विष्णुना वृषरूपेण स्वयं शंभुः समुत्थितः ।
जघान त्रिपुरं स्तुत्वा तां दुर्गां प्रणमाम्यहम्॥५२॥
विष्णु ने स्वयं वृष (बैल) रूप बनकर शिव को उठाया, पश्चात् शम्भु ने जिसकी स्तुति कर त्रिपुर का हनन किया उस दुर्गा को मैं प्रणाम कर रहा हूँ ॥ ५२ ॥

यदाज्ञया वाति वातः सूर्यस्तपति संततम् ।
वर्षतीन्द्रो दहत्यग्निस्तां दुर्गां प्रणमाम्यहम् ॥५३॥
जिसकी आज्ञा से वायु चलता है, सूर्य सतत तपता है, इन्द्र वर्षा करता है और अग्नि जलाता है, उस दुर्गा को मैं प्रणाम कर रहा हूँ ॥ ५३ ॥

यदाज्ञया हि कालश्च शश्वद्‌भ्रमति वेगतः ।
मृत्युश्चरति जन्तूनां तां दुर्गां प्रणमाम्यहम् ॥५४॥
जिसकी आज्ञा वश काल निरन्तर वेग से भ्रमण किया करता है और मृत्यु जन्तुओं में विचरण करता है, उस दुर्गा को मैं प्रणाम कर रहा हूँ ॥ ५४ ॥

स्रष्टा सृजति सृष्टिं च पाता पाति यदाज्ञया ।
संहर्ता सहरेत्काले तां दुर्गां प्रणमाम्यहम् ॥५५॥
जिसकी आज्ञा से स्रष्टा सृष्टि का सर्जन करते हैं, विष्णु पालन करते हैं और शिव संहार करते हैं, उस दुर्गा को मैं प्रणाम कर रहा हूं ॥ ५५ ॥

ज्योतिःस्वरूपो भगवाञ्छ्रीकृष्णो निर्गुणः स्वयम् ।
यया विनान शक्तश्च सृष्टिकर्तुं नमामि ताम् ॥५६॥
ज्योतिःस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं निर्गुण हैं और जिस शक्ति के बिना सृष्टि करने में समर्थ नहीं होते हैं उस देवी को नमस्कार करता है ॥ ५६ ॥

रक्ष रक्ष जगन्मातरपराधं क्षमस्व मे ।
शिशूनामपराधेन कुतो माता हि कुप्यति ॥५७॥
हे संसार की माता ! मेरी रक्षा करो । मेरी रक्षा करो । मेरा अपराध क्षमा करो, बच्चों के अपराध से माता कहाँ कुपित होती है ? ॥ ५७ ॥

इत्युक्त्वा परशुरामश्च नत्वा तां च रुरोद ह ।
तुष्टा दुर्गा संभ्रमेण चाभयं च वरं ददौ ॥५८॥
इतना कहकर नमस्कार करके परशुराम रोदन करने लगे, जिससे सहसा दुर्गा ने प्रसन्न होकर उन्हें अभय और वर प्रदान किया ॥ ५८ ॥

अमरो भव हे पुत्र वत्स सुस्थिरतां व्रज ।
शर्वप्रसादात्सर्वत्र जयोऽस्तु तव संततम् ॥५९॥
हे पुत्र ! अमर हो, हे वत्स ! सुस्थिर हो और सबके प्रसाद से तुम्हारा सर्वत्र जय हो ॥ ५९ ॥

सर्वान्तरात्मा भगवांस्तुष्टः स्यात्संततं हरिः ।
भक्तिर्भवतु ते कृष्णे शिवदे च शिवे गुरौ ॥६०॥
सबके अन्तरात्मा भगवान् निरन्तर प्रसन्न रहें, कृष्ण में तुम्हारी भक्ति हो और श्रीकृष्ण एवं कल्याणप्रद गुरु शिव में भक्ति हो ॥ ६० ॥

इष्टदेवे गुरौ यस्य भक्तिर्भवति शाश्वती ।
तं हन्तुं न हि शक्ता वा रुष्टा वा सर्वदेवताः ॥६१॥
क्योंकि इष्टदेव और गुरु में जिसकी निरन्तर निश्चल भक्ति बनी रहती है, उसे समस्त देवता के रुष्ट रहने पर भी कोई मार नहीं सकता है ॥ ६१ ॥

श्रीकृष्णस्य च भक्तस्त्वं शिष्यो वै शंकरस्य च ।
गुरुपत्‍नीं स्तौषि यस्मात्कस्त्वां हन्तुमिहेश्वरः ॥६२॥
श्रीकृष्ण के भक्त और शंकर के शिष्य होकर तुम गुरुपत्नी की स्तुति कर रहे हो, अतः तुम्हें मारने में कौन समर्थ हो सकता है ? ॥ ६२ ॥

अहो न कृष्णभक्तानामशुभं विद्यते क्वचित् ।
अन्यदेवेषु ये भक्ता न भक्ता वा निरङ्‍कुशाः ॥६३॥
अहो ! कृष्ण के भक्तों का कहीं भी अशुभ नहीं होता । अन्य देवता के जो भक्त हैं, वे या तो भक्त नहीं हैं या निरंकुश हैं ॥ ६३ ॥

चन्द्रमा बलवांस्तुष्टो येषां भाग्यवतां भृगो ।
तेषां तारागणा रुष्टाः किं कृर्वन्ति च दुर्बलाः ॥६४॥
हे भृगो ! जिन भाग्यवानों पर चन्द्रमा प्रसन्न हों और तारागण रुष्ट हों तो दुर्बल तारे उनका क्या बिगाड़ सकते हैं ? ॥ ६४ ॥

यस्मै तुष्टः पालयति नरदेवो महान्सुखी ।
तस्य किंवा करिष्यन्ति रुष्टा भृत्याश्च दुर्बलाः ॥६५॥
राजा प्रसन्न चित्त से जिसवा पालन करता है, वह महासुखी होता है । यदि सेवक वर्ग उस पर असन्तुष्ट रहें तो वे दुर्बल कर ही क्या सकते हैं ? ॥ ६५ ॥

इत्युक्त्वा पार्वती तुष्टा दत्त्वा रामाय चाऽऽशिषम् ।
जगामान्तःपुरं तूर्णं हर्षशब्दो बभूव ह ॥६६॥
इतना कहकर पार्वती ने प्रसन्न होकर राम को आशीर्वाद दिया और शीघ्रता से अपने अन्तःपुर चली गयीं । तदनन्तर हर्ष का शब्द होने लगा ॥ ६६ ॥

स्तोत्रं वै कण्वशाखोक्तं पूजाकाले च यः पठेत् ।
यात्राकाले तथा प्रातर्वाञ्छितार्थं लभेद्ध्रुवम् ॥६७॥
इस काण्वशाखोक्त स्तोत्र का, जो पूजा समय, यात्रा समय और प्रातःकाल पाठ करता है, उसे निश्चित अभीष्ट प्राप्त होता है ॥ ६७ ॥

पुत्रार्थी लभते पुत्रं कन्यार्थी कन्यकां लभेत् ।
विद्यार्थी लभते विद्यां प्रजार्थी चाऽप्नुयात्प्रजाः ॥६८॥
भ्रष्टराज्यो लभेद्‍राज्यं नष्टवित्तो धनं लभेत् ।
पुत्र चाहने वाले को पुत्र, कन्यार्थी को कन्या, विद्यार्थी को विद्या, प्रजार्थी को प्रजा, नष्ट राज्य वाले को राज्य और नष्ट धन वाले को धन की प्राप्ति होती है ॥ ६८.५ ॥

यस्य रुष्टो गुरुर्देवो राजा वा बान्धवोऽथवा ॥६९॥
तस्मै तुष्टश्च वरदः स्तोत्रराजप्रसादतः ।
दस्युग्रस्तः फणिग्रस्तः शत्रुग्रस्तो भयानकः ॥७०॥
व्याधिग्रस्तो भवेन्मुस्तः स्तोत्रस्मरणमात्रतः ।
राजद्वारे श्मशाने च कारागारे ज बन्धने ॥७१ ॥
जलराशौ निमग्नश्च मुक्तस्तत्स्मृतिमात्रतः ।
स्वामिभेदे पुत्रभेदे मित्रभेदे च दारुणे ॥७२ ॥
स्तोत्रस्मरणमात्रेण वाञ्छितार्थं लभेद्धुवम् ।
जिसके ऊपर गुरुदेव, राजा या बन्धुगण रुष्ट रहते हैं, इस स्तोत्रराज के प्रसाद से वे सब उस पर प्रसन्न हो जाते हैं । लुटेरों से घिरा, सर्पग्रस्त, शत्रुओं से घिरा, भयानक और रोगी इस स्तोत्र के स्मरण मात्र से मुक्त हो जाता है । राजदरबार, श्मशान, कारागृह (जेल), बन्धन तथा जल-राशि में निमग्न व्यक्ति इसके स्मरण मात्र से मुक्त हो जाता है । पति, पुत्र या मित्र से घोर विरोध होने पर इस स्तोत्र के स्मरण मात्र से उसे निश्चित ही अभीष्ट-सिद्धि मिलती है ॥ ६९-७२.५ ॥

कृत्वा हविष्यं वषे च स्तोत्रराजं शृणोति या ॥७३॥
भक्त्या दुर्गां च संपूज्य महावन्ध्या प्रसूयते ।
लभते सा दिव्यपुत्रं ज्ञानिनं चिरजीविनम् ॥७४॥
एक वर्ष तक हविष्य भोजन कर जो स्त्री इस स्तोत्रराज का श्रवण करती है और दुर्गा की पूजा करती है, वह महावन्ध्या हो जाने पर भी बच्चा उत्पन्न करती है । उसे ज्ञानी, चिरजीवी और दिव्य पुत्र की प्राप्ति होती है ॥ ७३-७४ ॥

असौभाग्या च सौभाग्यं षण्मासश्रवणाल्लभेत् ।
नवमासं काकवन्ध्या मृतवत्सा च भक्तितः ॥७५॥
छह मास तक श्रवण करने से दुर्भगा सौभाग्य प्राप्त करती है । नव मास तक भक्तिपूर्वक इस स्तोत्रराज के सुनने से काकवन्ध्या और मृतवत्सा भी पुत्र प्राप्त करती है ॥ ७५ ॥

स्तोत्रराजं या शृणोति सा पुत्रं लभते ध्रुवम् ।
कन्यामाता पुत्रहीना पञ्चमासं शृणोति या ॥७६॥
घटे संपूज्य दुर्गां च सा पुत्रं लभते ध्रुवम् ॥७७॥
जो स्तोत्रराज का श्रवण करती है, वह निश्चित ही पुत्र पाती है । कन्या जनने वाली स्त्री पुत्रहीन होने पर पांच मास तक इसका श्रवण और कलश में दुर्गापूजन करके निश्चित रूप से पुत्र प्राप्त करती है ॥ ७६-७७ ॥

इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराणे गणपतिखण्डे
नारदनारायणसंवादे परशुरामकृतदुर्गास्तोत्रं
नाम पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः ॥४५॥
श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के तीसरे गणपतिखण्ड में नारद-नारायण-संवाद में परशुरामकृत दुर्गा-स्तोत्र-वर्णन नामक पैतालीसवाँ अध्याय समाप्त ॥ ४५ ॥

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