शौनक बोले-हे पुरुषोंमें श्रेष्ठ तथा भाग्यवान् सूतजी ! आप धन्य हैं; क्योंकि संसारमें अत्यन्त दुर्लभ पुराण-संहिताओं का आपने भलीभाँति अध्ययन किया है । हे पुण्यात्मन् ! हे मानद ! आपने कृष्णद्वैपायन व्यासरचित अठारह महापुराणोंका सम्यक अध्ययन किया है, जो पंच लक्षणोंसे युक्त तथा गूढ रहस्योंसे समन्वित हैं और जिनका आपने सत्यवतीपुत्र व्यासजीसे ज्ञान प्राप्त किया है ॥ २-४ ॥
अस्माकं पुण्ययोगेन प्राप्तस्त्वं क्षेत्रमुत्तमम् । दिव्यं विश्वसनं पुण्यं कलिदोषविवर्जितम् ॥ ५ ॥ समाजोऽयं मुनीनां हि श्रोतुकामोऽस्ति पुण्यदाम् । पुराणसंहितां सूत ब्रूहि त्वं नः समाहितः ॥ ६ ॥
हमारे पुण्यसे ही आप इस उत्तम, मुनियोंके निवास-योग्य, दिव्य, पुण्यप्रद तथा कलिके दोषोंसे रहित क्षेत्रमें पधारे हुए हैं । हे सूतजी ! मुनियोंका यह समुदाय परम पुण्यदायिनी पुराण-संहिताका श्रवण करना चाहता है । अतः आप समाहितचित्त होकर हमलोगोंसे उसका वर्णन कीजिये ॥ ५-६ ॥
हे सर्वज्ञ ! आप तीनों तापों (दैहिक, दैविक, भौतिक)-से रहित होकर दीर्घजीवी हों । हे महाभाग ! ब्रह्मप्रतिपादक देवीभागवतमहापुराणका वर्णन करें ॥ ७ ॥
श्रोत्रेन्द्रिययुताः सूत नराः स्वादविचक्षणाः । न शृण्वन्ति पुराणानि वञ्चिता विधिना हि ते ॥ ८ ॥ यथा जिह्वेन्द्रियाह्लादः षड्रसैः प्रतिपद्यते । तथा श्रोत्रेन्द्रियाह्लादो वचोभिः सुधियां स्मृतः ॥ ९ ॥
हे सूतजी ! जो मनुष्य श्रवणेन्द्रिययुक्त होते हुए भी केवल जिह्याके स्वादमें ही लगे रहते हैं और पुराणोंकी कथाएँ नहीं सुनते, वे निश्चित ही अभागे हैं । जैसे पडसके स्वादसे जिह्वाको आह्लाद होता है, वैसे विद्वज्जनोंके वचनोंसे कर्णेन्द्रियको आनन्द प्राप्त होता है ॥ ८-९ ॥
अश्रोत्राः फणिनः कामं मुह्यन्ति हि नभोगुणैः । सकर्णा ये न शृण्वन्ति तेऽप्यकर्णाः कथं न च ॥ १० ॥
जब कर्णहीन सर्प भी मधुर ध्वनि सुनकर मोहित हो जाते हैं, तब भला कर्णयुक्त मानव यदि कथा नहीं सुनते तो उन्हें बधिर क्यों न कहा जाय ? ॥ १० ॥
जिस किसी प्रकारसे समय तो बीतता ही रहता है, किंतु मूर्योका समय व्यर्थ दुर्व्यसनोंमें बीतता है और विद्वानोंका समय शास्त्र-चिन्तनमें जाता है ॥ १२ ॥
शास्त्राण्यपि विचित्राणि जल्पवादयुतानि च । त्रिविधानि पुराणानि शास्त्राणि विविधानि च । विताण्डाच्छलयुक्तानि गर्वामर्षकराणि च । नानार्थवादयुक्तानि हेतुमन्ति बृहन्ति च ॥ १३ ॥
शास्त्र भी विचित्र प्रकारके तर्क-वितर्कसे युक्त हैं । (पुराण तीन प्रकारके तथा शास्त्र विविध प्रकारके हैं, जो नानाविध वाद-विवाद तथा छल-प्रपंचसे युक्त हैं और अहंकार तथा अमर्ष उत्पन्न करनेवाले हैं) वे अनेक अर्थवाद तथा हेतुवादसे युक्त और बहुत विस्तारवाले हैं ॥ १३ ॥
सात्त्विकं तत्र वेदान्तं मीमांसा राजसं मतम् । तामसं न्यायशास्त्रं च हेतुवादाभियन्त्रितम् ॥ १४ ॥
उन शास्त्रोंमें वेदान्तशास्त्र सात्त्विक, मीमांसा राजस तथा न्यायशास्त्र तामस कहा गया है । क्योंकि वह हेतुवादसे परिपूर्ण है ॥ १४ ॥
तथैव च पुराणानि त्रिगुणानि कथानकैः । कथितानि त्वया सौम्य पञ्चलक्षणवन्ति च ॥ १५ ॥
इसी प्रकार हे सौम्य ! आपके द्वारा कहे गये पुराण कथा-भेदसे तीन गुणोंवाले तथा पाँच लक्षणोंसे समन्वित हैं ॥ १५ ॥
आपने यह भी बताया है कि उन पुराणोंमें यह श्रीमद्देवीभागवत पाँचवाँ पुराण है, पवित्र है, वेदके समान है और सभी लक्षणोंसे युक्त है ॥ १६ ॥
उद्देशमात्रेण तदा कीर्तितं परमाद्भुतम् । मुक्तिप्रदं मुमुक्षूणां कामदं धर्मदं तथा ॥ १७ ॥ विस्तरेण तदाख्याहि पुराणोत्तममादरात् । श्रोतुकामा द्विजाः सर्वे दिव्यं भागवतं शुभम् ॥ १८ ॥
उस समय आपने प्रसंगवश अत्यन्त अद्भुत, मुमुक्षुजनोंके लिये मुक्तिप्रद, मनोरथ पूर्ण करनेवाले, धर्ममें रुचि उत्पन्न करनेवाले जिस पुराणको संक्षेपमें कहा था, उस उत्तम पुराणको विस्तारपूर्वक कहिये । उस दिव्य तथा कल्याणमय श्रीमद्देवीभागवतपुराणको हम सभी द्विजगण आदरपूर्वक सुननेकी इच्छा रखते हैं ॥ १७-१८ ॥
हे धर्मज्ञ ! गुरुभक्त एवं सत्त्वगुणसे सम्पन्न होनेके कारण आप कृष्णद्वैपायनके द्वारा कही गयी इस प्राचीन संहिताका ज्ञान प्राप्त कर चुके हैं ॥ १९ ॥
श्रुतान्यन्यानि सर्वज्ञ त्वन्मुखान्निःसृतानि च । नैव तृप्तिं व्रजामोऽद्य सुधापानेऽमरा यथा ॥ २० ॥
जिस प्रकार देवतालोग अमृतपान करते हुए तृप्त नहीं होते, उसी प्रकार हमलोगोंने भी यहाँ आपके मुखारविन्दसे निकली अन्यान्य कथाएँ सुनी, किंतु अभी भी हम तृप्त नहीं हुए हैं ॥ २० ॥
हे सूतजी ! उस अमृतको धिक्कार है, जिसके पीनेसे कभी मुक्ति नहीं होती, परंतु इस भागवतरूपी कथा-सुधाके पानसे तो मनुष्य शीघ्र ही भवसंकटसे मुक्त हो जाता है ॥ २१ ॥
सुधापाननिमित्तं यत् कृता यज्ञाः सहस्रशः । न शान्तिमधिगच्छामः सूत सर्वात्मना वयम् ॥ २२ ॥ मखानां हि फलं स्वर्गः स्वर्गात्प्रच्यवनं पुनः । एवं संसारचक्रेऽस्म्निन् भ्रमणं च निरन्तरम् ॥ २३ ॥
हे सूतजी ! अमृतपानके लिये जो हजारों प्रकारके यज्ञ किये गये हैं, उनसे भी सर्वदाके लिये हमें शान्ति नहीं मिली । यज्ञोंका फल तो केवल स्वर्ग है, [पुण्य क्षीण होनेपर] पुनः स्वर्गसे मृत्युलोकमें लौटना ही पड़ता है । इस प्रकार निरन्तर आवागमनके चक्रमें आना-जाना लगा रहता है ॥ २२-२३ ॥
विना ज्ञानेन सर्वज्ञ नैव मुक्तिः कदाचन । भ्रमतां कालचक्रेऽत्र नराणां त्रिगुणात्मके ॥ २४ ॥ अतः सर्वरसोपेतं पुण्यं भागवतं वद । पावनं मुक्तिदं गुह्यं मुमुक्षूणां सदा प्रियम् ॥ २५ ॥
हे सर्वज्ञ ! त्रिगुणात्मक कालचक्रमें भ्रमण करते हुए मनुष्योंकी ज्ञानके बिना मुक्ति कदापि सम्भव नहीं है । इसलिये सब प्रकारके रसोंसे परिपूर्ण तथा पुण्यप्रद श्रीमद्देवीभागवतपुराण कहिये । जो पवित्र, मुक्तिदायक, गोपनीय तथा मुमुक्षुजनोंको सर्वदा प्रिय है ॥ २४-२५ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणे अष्टादशसाहस्र्यां संहितायां प्रथमस्कन्धे शौनकप्रश्नो नाम प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥