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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
देवीभागवतमाहात्म्यम्
पञ्चमोऽध्यायः

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देवीभागवत-श्रवणविधिवर्णनम् -
श्रीमद्देवीभागवतपुराणकी श्रवण-विधि, श्रवणकर्ताके लिये पालनीय नियम, श्रवणके फल तथा माहात्म्यका वर्णन


ऋषय ऊचुः
सूत सूत महाभाग श्रुतं माहात्म्यमुत्तमम् ।
अधुना श्रोतुमिच्छामः पुराणश्रवणे विधिम् ॥ १ ॥
ऋषियोंने कहा-हे महाभाग सूतजी ! हमलोगोंने श्रीमद्देवीभागवतमाहात्म्य सुन लिया और अब इस पुराणके श्रवणकी विधि सुनना चाहते हैं ॥ १ ॥

सूत उवाच
श्रूयतां मुनयः सर्वे पुराणश्रवणे विधिम् ।
नराणां शृण्वतां येन सिद्धिः स्यात्सार्वकामिकी ॥ २ ॥
सूतजी बोले-हे मुनियो ! अब आपलोग इस पुराणके श्रवणका विधान सुनें, जिसे सुननेवाले मनुष्योंकी समस्त कामनाएँ सिद्ध हो जाती हैं ॥ २ ॥

आदौ दैवज्ञमाहूय मुहूर्तं कल्पयेत्सुधीः ।
आरभ्य शुचिमास तु मासषट्कं शुभावहम् ॥ ३ ॥
पुराणश्रवणके इच्छुक विद्वान् मनुष्यको चाहिये कि वह सर्वप्रथम ज्योतिषीको बुलाकर शुभ मुहूर्त निर्धारित कर ले । इसके लिये ज्येष्ठमाससे लेकर छ: महीने शुभकारक होते हैं ॥ ३ ॥

हस्ताश्विमूलपुष्यर्क्षे ब्रह्ममैत्रेन्दुवैष्णवे ।
सत्तिथौ शुभवारे च पुराणश्रवणं शुभम् ॥ ४ ॥
हस्त, अश्विनी, मूल, पुष्य, रोहिणी, अनुराधा, मृगशिरा तथा श्रवण नक्षत्र, पुण्य तिथि तथा शुभ दिनमें श्रीमद्देवीभागवतपुराणका श्रवण कल्याणकारी होता है ॥ ४ ॥

गुरुभाद्वेदवेदाब्जशराङ्‌गाब्धिगुणैः क्रमात् ।
धर्माप्तिरिन्दिराप्राप्तिः कथासिद्धिः परं सुखम् ॥ ५
पीडाथ भूपतिभयं ज्ञानप्राप्तिः क्रमात्फलम् ।
पुराणश्रवणे चक्रं शोधयेच्छिवभाषितम् ॥ ६
जिस नक्षत्रमें बृहस्पति हों, उससे चन्द्रमातक गिननेपर क्रमशः इस प्रकार फल होते हैं-चार नक्षत्रतक धर्म-प्राप्ति, पुनः चारतक लक्ष्मीकी प्राप्ति, इसके बाद एक नक्षत्र कथामें सिद्धि प्रदान करनेवाला, फिर पाँच नक्षत्र परम सुखकी प्राप्ति करानेवाले, बादमें छ: नक्षत्र पीड़ा करनेवाले, इसके बाद चार नक्षत्र राज-भय उत्पन्न करनेवाले और तत्पश्चात् तीन नक्षत्र ज्ञान-प्राप्तिमें सहायक होते हैं । पुराणश्रवणके आरम्भमें शिवोक चक्रका शोधन कर लेना चाहिये ॥ ५-६ ॥

अथवा प्रीतये देव्या नवरात्रचतुष्टये ।
शृणुयादन्यमासेऽपि तिथिवारर्क्षशोधिते ॥ ७
देवीकी प्रसन्नताके लिये इसे चारों नवरात्रों में * सुनना चाहिये अथवा तिथि, वार और नक्षत्रपर सम्यक् विचार करके यह पुराण अन्य मासोंमें भी सुना जा सकता है ॥ ७ ॥

सम्भारं तादृशं कार्यं विवाहादौ च यादृशम् ।
नवाहयज्ञे चाप्यस्मिन्विधेयं यत्‍नतो बुधैः ॥ ८
विवाह आदिमें जिस प्रकार [उत्साहपूर्वक] तैयारी की जाती है, उसी प्रकार नवाह-यज्ञके अवसरपर भी बुद्धिमान् मनुष्योंको प्रयत्नपूर्वक सामग्री आदिकी तैयारी करनी चाहिये ॥ ८ ॥

सहाया बहवः कार्या दम्भलोभविवर्जिताः ।
चतुराश्च वदान्याश्च देवीभक्तिपरा नराः ॥ ९
पाखण्ड तथा लोभसे रहित, चतुर, उदार एवं देवीभक्त सज्जनोंको भी सहायकके रूपमें लेना चाहिये ॥ ९ ॥

प्रेष्या यत्नेन वार्तेयं देशे देशे जने जने ।
आगन्तव्यमिहावश्यं कथा देव्या भविष्यति ॥ १०
देश-देशमें भी यलपूर्वक यह सन्देश भेजना चाहिये-[हे कथानुरागी सज्जनो !] यहाँ श्रीमद्देवीभागवतकी कथा होने जा रही है, आप अवश्य पधारें ॥ १० ॥

सौराश्च गाणपत्याश्च शैवाः शाक्ताश्च वैष्णवाः ।
सर्वेषामपि सेव्येयं यतो देवाः सशक्तयः ॥ ११
चाहे सूर्यको उपासना करनेवाले हों, चाहे गणेशभक्त हों, चाहे शैव हों, चाहे वैष्णव अथवा शक्तिके उपासक हों, सभी इस कथाके श्रवणके अधिकारी हैं । क्योंकि सभी देवता शक्तिके साथ ही रहते हैं ॥ ११ ॥

श्रीमद्देवीभागवतपीयूषरसलोलुपैः ।
आगन्तव्यं विशेषेण कथार्थं प्रेमतत्परैः ॥ १२
इसलिये श्रीमद्देवीभागवतकी कथारूपी सुधाके रसिक प्रेमीजनोंको कथाश्रवणके लिये विशेषरूपसे आना चाहिये ॥ १२ ॥

ब्राह्मणाद्याश्च ये वर्णाः स्त्रियश्चाश्रमिणस्तथा ।
सकामाश्चापि निष्कामाः पातव्यं तैः कथामृतम् ॥ १३
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र-चारों वर्णके स्त्री, पुरुष एवं ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ, संन्यास-इन चारों आश्रमोंमें निरत मनुष्योंको चाहे सकामभावसे अथवा निष्कामभावसे-अवश्य ही इस कथा-सुधाका पान करना चाहिये ॥ १३ ॥

नावकाशः कदाचित्स्यान्नवाहश्रवणेऽपि तैः ।
आगन्तव्यं यथाकालं यज्ञे पुण्या क्षणस्थितिः ॥ १४ ॥
जिन लोगोंको पूरे नौ दिनतक कथा सुननेका अवकाश न मिल सके, वे जब भी समय मिले तभी आ जायँक्योंकि यज्ञमें क्षणभर भी पहुँच जाना विशेष पुण्यदायक होता है ॥ १४ ॥

विनयेनैव कर्तव्यमेवमाकारणं नृणाम् ।
आगतानाञ्च कर्तव्यं वासस्थानं यथोचितम् ॥ १५ ॥
बड़ी नम्रताके साथ मनुष्योंको निमन्त्रण देना चाहिये और आये हुए श्रोताओंके बैठनेका भी समुचित प्रबन्ध करना चाहिये ॥ १५ ॥

कथास्थानं प्रकर्तव्यं भूमौ मार्जनपूर्वकम् ।
लेपनं गोमयेनाथ विशालायां मनोरमम् ॥ १६ ॥
कार्यस्तु मण्डपो रम्यो रम्भास्तम्भोपशोभितः ।
वितानमुपरिष्ठात्तु पताकाध्वजराजितः ॥ १७ ॥
विस्तृत भूमिमें कथा-प्रवचनका सुन्दर स्थान बनाना चाहिये । उस स्थानकी सफाई कराकर गोबरसे लिपवा देना चाहिये । केलेके स्तम्भोंसे सुशोभित और ध्वज-पताकाओंसे अलंकृत एक सुरम्य मण्डपका निर्माण करना चाहिये और उसके ऊपर सुन्दर चाँदनी लगा देनी चाहिये ॥ १६-१७ ॥

वक्तुश्चैवासनं दिव्यं सुखास्तरणसंयुतम् ।
रचितव्यं प्रयत्‍नेन प्राङ्मुखं वाप्युदङ्मुखम् ॥ १८ ॥
कथावाचकका आसन दिव्य तथा सुखकर आस्तरणसे युक्त होना चाहिये । उसे प्रयत्नपूर्वक पूर्वाभिमुख अथवा उत्तराभिमुख रखना चाहिये ॥ १८ ॥

यथोचितानि कुर्वीत श्रोतॄणामासनानि च ।
नृणां चैवाथ नारीणां कथाश्रवणहेतवे ॥ १९ ॥
कथाश्रवणके लिये आनेवाले पुरुष तथा स्त्री श्रोताओंके लिये भी यथायोग्य पृथक्-पृथक् आसनोंकी व्यवस्था करनी चाहिये ॥ १९ ॥

वाग्मी दान्तश्च शास्त्रज्ञो देव्याराधनतत्परः ।
दयालुर्निस्पृहो दक्षो धीरो वक्तोत्तमो मतः ॥ २० ॥
वक्तृत्वसम्पन्न, संयमी, शास्त्रज्ञ, देवीकी आराधनामें तत्पर, दयालु, लोभहीन, दक्ष तथा धैर्यशाली कथावाचक उत्तम माना गया है ॥ २० ॥

ब्रह्मण्यो देवताभक्तः कथारसपरायणः ।
उदारोऽलोलुपो नम्रः श्रोता हिंसादिवर्जितः ॥ २१ ॥
इसी प्रकार श्रोता भी ऐसा होना चाहिये जो ब्राह्मणसेवी, देवभक्त, कथा-रसका पान करनेवाला, उदार, लोभरहित, विनम्र और हिंसा आदिसे रहित हो ॥ २१ ॥

पाखण्डनिरतो लुब्धः स्त्रैणो धर्मध्वजस्तथा ।
निष्ठुरः क्रोधनो वक्ता देवीयज्ञे न शस्यते ॥ २२ ॥
पाखण्डी, लोभी, स्त्रीस्वभाव, कामी, धर्मका दिखावामात्र करनेवाला, निष्ठुर तथा क्रोधी वक्ता देवीभागवतके नवाहयज्ञमें श्रेष्ठ नहीं माना जाता है ॥ २२ ॥

संशयच्छेदनायैकः पण्डितश्च तथागुणः ।
श्रोतृबोधकृदव्यग्रः कार्यो वक्तुः सहायकृत् ॥ २३ ॥
श्रोताओंकी शंकाओंके निवारणहेतु कथावाचकके साथ एक ऐसा सहायक भी लगा देना चाहिये, जो पण्डित, गुणवान्, शान्त तथा श्रोताओंको समझाने में कुशल हो ॥ २३ ॥

मुहूर्तदिवसादर्वाग्वक्तृश्रोत्रादिभिर्जनैः ।
कर्तव्यं क्षौरकर्मादि ततो नियमकल्पनम् ॥ २४ ॥
कथा प्रारम्भ होनेके एक दिन पूर्व ही वक्ता एवं श्रोतागणोंको क्षौरकर्म करा लेना चाहिये । तत्पश्चात् अन्यान्य नियमोंका पालन करना चाहिये ॥ २४ ॥

अरुणोदयवेलायां स्नायाच्छौचं विधाय च ।
सस्थातर्पणकार्यञ्च नित्यं संक्षेपतश्चरेत् ॥ २५ ॥
उस दिन शौचादिसे निवृत्त हो अरुणोदयवेलामें ही स्नान कर लेना चाहिये । सन्ध्या तथा तर्पण आदि नित्यकर्म संक्षेपमें ही करना चाहिये ॥ २५ ॥

कथाश्रवणयोग्यत्वसिद्धये गाश्च दापयेत् ।
समस्तविघ्नहर्तारमादौ गणपतिं यजेत् ॥ २६ ॥
कलशांश्चापि संस्थाप्य पूजयेत्तत्र दिग्भवान् ।
वटुकं क्षेत्रपालञ्च योगिनीर्मातृकास्तथा ॥ २७ ॥
तुलसीञ्चापि सम्पूज्य ग्रहान्विष्णञ्च शङ्‌करम् ।
नवाक्षरेण मनुना पूजयेज्जगदम्बिकाम् ॥ २८ ॥
तत्पश्चात् कथाश्रवणका अधिकारी बननेके लिये गोदान करे और सब विघ्नोंको दूर करनेवाले श्रीगणेशजीका सर्वप्रथम पूजन करे । कलश स्थापन करके वहाँ दस दिक्पालों, बटुक, क्षेत्रपाल, सभी योगिनियों और मातृकाओंका भी पूजन करे । तुलसी, नवग्रह, विष्णु तथा शिवजीका पूजन करके नवाक्षरमन्त्रसे जगदम्बाका पूजन करना चाहिये ॥ २६-२८ ॥

सर्वोपचारैः सम्पूज्य श्रीभागवतपुस्तकम् ।
श्रीदेव्या वाङ्‌मयी मूर्तिं यथावच्छोभनाक्षरम् ॥ २९ ॥
कथाविघ्नोपशान्त्यर्थं वृणुयात्पञ्च वाडवान् ।
जाप्यो नवार्णमन्त्रस्तैः पाठ्यः सप्तशतीस्तवः ॥ ३० ॥
तत्पश्चात् सुन्दर अक्षरोंमें लिखी हुई भगवतीकी वाङ्मयी मूर्तिस्वरूप श्रीमद्देवीभागवतपुस्तककी सभी उपचारोंसे विधिवत् पूजा करके कथाकी निर्विघ्न समाप्तिके लिये पाँच विद्वान् ब्राह्मणोंका वरण करना चाहिये । उनसे निरन्तर नवार्णमन्त्रका जप एवं दुर्गासप्तशतीका पाठ कराना चाहिये ॥ २९-३० ॥

प्रदक्षिणनमस्कारान्कृत्वान्ते स्तुतिमाचरेत् ।
कात्यायनि महामाये भवानि भुवनेश्वरि ॥ ३१ ॥
संसारसागरे मग्नं मामुद्धर कृपामये ।
ब्रह्मविष्णुशिवाराध्ये प्रसीद जगदम्बिके ॥ ३२ ॥
मनोऽभिलषितं देवि वरं देहि नमोऽस्तु ते ।
इति सम्प्रार्थ्य शृणुयात्कथां नियतमानसः ॥ ३३ ॥
अन्तमें प्रदक्षिणा तथा नमस्कारके बाद इस प्रकार स्तुति करे-'हे कात्यायनि ! हे महामाये ! हे भुवनेश्वरि ! हे कृपामये ! हे भवानि ! मैं संसारसागरमें डूब रहा हूँ, मेरा उद्धार कीजिये तथा हे ब्रह्मा, विष्णु, महेशसे पूजनीया माता जगदम्बिके ! मेरे ऊपर प्रसन्न होइये । हे देवि ! आप मुझे मनोवांछित वर प्रदान कीजिये । आपको बार-बार प्रणाम है । इस प्रकार प्रार्थना करके स्वस्थचित्त होकर कथा सुने ॥ ३१-३३ ॥

वक्तारञ्चापि सम्पूज्य व्यासबुध्या यतात्मवान् ।
माल्यालङ्‌कारवस्त्राद्यैः सम्भूष्य प्रार्थयेच्च तम् ॥ ३४ ॥
सर्वशास्त्रेतिहासज्ञ व्यासरूप नमोऽस्तु ते ।
कथाचन्द्रोदयेनान्तस्तमःस्तोमं निराकुरु ॥ ३५ ॥
उस समय संयतचित्त होकर वक्ताको साक्षात् व्यास समझकर विधिवत् उनकी पूजा करे और वस्त्राभूषण तथा माला आदि पहनाकर उनसे प्रार्थना करे-'समस्त शास्त्र तथा पुराणेतिहासके ज्ञाता हे व्यासजी ! आपको नमस्कार है । आप कथारूपी चन्द्रमाकी ज्योतिसे हमारे अन्त:करणके अन्धकारसमूहको नष्ट कीजिये' ॥ ३४-३५ ॥

तदग्रे तु नवाहान्तं कर्तव्या नियमास्तदा ।
विप्रादीनुपवेश्यादौ सम्पूज्योपविशेत्स्वयम् ॥ ३६ ॥
इसके बाद नवाहके नियमोंका व्रत ले और ब्राह्मणोंका यथाशक्ति पूजन करके उन्हें पहले यथास्थान बैठा दे, तत्पश्चात् स्वयं भी अपने आसनपर बैठ जाय ॥ ३६ ॥

श्रोतव्यं सावधानेन चतुर्वर्गफलाप्तये ।
गृहपुत्रकलत्राप्तधनचिन्तामपास्य च ॥ ३७ ॥
तब सावधान मनसे चारों पुरुषार्थ (धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष)-फलको प्राप्त करनेके लिये पुत्र-कलत्र, धन-धान्य तथा गृहकी चिन्ता छोड़कर कथा सुने ॥ ३७ ॥

सूर्योदयं समारभ्य किञ्चित्सूर्येऽवशेषिते ।
मुहूर्तमात्रं विश्रम्य मध्याह्ने वाचयेत्सुधीः ॥ ३८ ॥
विद्वान् वक्ताको चाहिये कि वह सूर्योदवसे आरम्भ करके पुनः दोपहरमें दो घड़ी विश्राम करके सूर्यास्तके कुछ समय पहलेतक कथा-वाचन करे ॥ ३८ ॥

मलमूत्रजयायैषां लघु भोजनमिष्यते ।
हविष्यान्नं वरं भोज्यं सकृदेव कथार्थिना ॥ ३९ ॥
अथवा स्यात्फलाहारी पयोभुग्वा धृताशनः ।
यथा स्यान्न कथाविघ्नस्तथा कार्यं विचक्षणैः ॥ ४० ॥
मल-मूत्रके वेगको रोकनेके लिये स्वल्पाहार उत्तम होता है । कथार्थीको दिन-रातमें केवल एक बार हविष्यान्नका भोजन करना ही ठीक है; अथवा फलाहार करे या केवल दूध-घीके आहारपर ही रहे । बुद्धिमानको चाहिये कि ऐसा आहार ग्रहण करे, जिससे कथामें किसी प्रकारकी बाधा न हो ॥ ३९-४० ॥

कथाश्रवणनिष्ठानां वक्ष्यामि नियमं द्विजाः ।
ब्रह्मविष्णुमहेशानां मध्ये ये भेददर्शिनः ॥ ४१ ॥
देवीभक्तिविहीना ये पाखण्डा हिंसकाः खलाः ।
विप्रदुहो नास्तिका ये न ते योग्याः कथाश्रवे ॥ ४२ ॥
हे द्विजगण ! अब मैं कथाश्रवणमें निष्ठा रखनेवालोंके नियम बताता हूँ । जो लोग ब्रह्मा, विष्णु और शिवमें भेददृष्टि रखते हैं, देवीकी भक्तिसे रहित हैं, जो पाखण्डी, हिंसक तथा दुष्ट हैं और जो ब्राह्मणोंसे द्वेष रखनेवाले तथा नास्तिक हैं, वे कथाश्रवणके योग्य नहीं हैं ॥ ४१-४२ ॥

ब्रह्मस्वहरणे लुब्धाः परदारधनेषु च ।
देवस्वहरणे तेषां नाधिकारः कथाश्रवे ॥ ४३ ॥
जो परस्त्री, पराया धन, ब्राह्मणधन तथा देवसम्पत्तिके हरणमें लुब्ध रहते हैं, उनका कथाश्रवणमें अधिकार नहीं है ॥ ४३ ॥

ब्रह्मचारी च भूशायी सत्यवक्ता जितेन्द्रियः ।
कथासमाप्तौ भुञ्जीत पत्रावल्यां यतात्मवान् ॥ ४४ ॥
श्रोताको चाहिये कि वह ब्रह्मचर्यका पालन करे, पृथ्वीपर सोये, सत्य बोले, जितेन्द्रिय रहे तथा कथाकी समाप्तिपर संयमपूर्वक पत्तलपर भोजन करे ॥ ४४ ॥

वृन्ताकञ्च कलिन्दञ्च तैलञ्च द्विदलं मधु ।
दग्धमन्नं पर्युषितं भावदुष्टं त्यजेद् व्रती ॥ ४५ ॥
व्रतीको बैगन, बहेड़ा (कलिन्द), तेल, दाल, मधु और जला हुआ, बासी तथा भावदूषित अन्नका त्याग कर देना चाहिये ॥ ४५ ॥

आमिषञ्च मसूरान्नमुदक्यादृष्टमेव च ।
रसोनं मूलकं हिङ्‌गुं पलाण्डुं गृञ्जनं तथा ॥ ४६ ॥
कूष्माण्डं नलिकाशाकं न भुञ्जीत कथाव्रती ।
कामं क्रोधं मदं लोभं दम्भ मानञ्च वर्जयेत् ॥ ४७ ॥
कथा सुननेवाला व्रती मांस, मसूर, रजस्वला स्त्रीका देखा हुआ खाद्यान्न, लहसुन, मूली, हींग, प्याज, गाजर, कोहड़ा और करमीका साग न खाये । काम, क्रोध, मद, लोभ, पाखण्ड और अहंकारको छोड़ दे ॥ ४६-४७ ॥

विप्रध्रुक्पतितव्रात्यश्‍वपाकयवनान्त्यजैः ।
उदक्यया वेदबाह्यैर्न वदेद्यः कथाव्रती ॥ ४८ ॥
विप्रद्रोही, पतित, संस्कारहीन, चाण्डाल, यवन, अन्त्यज, रजस्वला स्त्री और वेदविहीन मनुष्योंसे कथाव्रतीको वार्तालाप नहीं करना चाहिये ॥ ४८ ॥

वेदगोगुरुविप्राणां स्त्रीराज्ञां महतां तथा ।
देवानां देवभक्तानां न निन्दां शृणुयादपि ॥ ४९ ॥
श्रोताको चाहिये कि वह वेद, गौ, गुरु, ब्राह्मण, स्त्री, राजा, महापुरुष, देवताओं और देवभक्तोंकी निन्दा कभी न सुने । ४९ ॥

विनयं चार्जवं शौचं दयां च मितभाषणम् ।
उदारं मानसञ्चैव कुर्याद्यस्तु कथावती ॥ ५० ॥
जो कथाव्रती हो उसे सर्वदा विनयशील, सरलचित्त, पवित्र, दयालु, कम बोलनेवाला तथा उदार मनवाला होना चाहिये ॥ ५० ॥

श्वित्री कुष्ठी क्षयी रुग्णो भाग्यहीनश्च पापकृत् ।
दरिद्रश्चानपत्यश्च भक्त्येमां शृणयात्कथाम् ॥ ५१ ॥
श्वेतकुष्ठी, कुष्ठी, क्षयरोगी, अभागा, पापी, दरिद्र तथा सन्तानहीन मनुष्य इस कथाको भक्तिपूर्वक सुने ॥ ५१ ॥

वन्ध्या वा काकवन्ध्या वा दुर्भगा वा मृतार्भका ।
पतद्‌गर्भाङ्‌गना या च ताभिः श्राव्या तथा कथा ॥ ५२ ॥
जो स्त्री वन्ध्या, काकवन्ध्या (जिस स्त्रीको एक बार सन्तान होकर बन्द हो जाय), अभागिन तथा मृतवत्सा हो और जिसका गर्भ गिर जाता हो, ऐसी सभी स्त्रियोंको इस देवीभागवतकथाका श्रवण करना चाहिये ॥ ५२ ॥

धर्मार्थकाममोक्षांश्च यो वाच्छति विना श्रमम् ।
भगवत्या भागवतं श्रोतव्यं तेन यत्नतः ॥ ५३ ॥
जो मनुष्य बिना परिश्रमके ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्राप्त करना चाहता है, वह यत्नपूर्वक इस देवीभागवतकी कथा अवश्य सुने ॥ ५३ ॥

कथादिनानि चैतानि नवयज्ञैः समानि हि ।
तेषु दत्तं हुतं जप्तमनन्तफलदं भवेत् ॥ ५४ ॥
इस नवाहकथाके नौ दिन नौ यज्ञोंके समान हैं । उनमें किया गया दान, हवन तथा जप अनन्त फल देनेवाला होता है ॥ ५४ ॥

एवं व्रतं नवाहं तु कृत्वोद्यापनमाचरेत् ।
महाष्टमीव्रतं यद्वत्तथा कार्यं फलेप्सुभिः ॥ ५५ ॥
इस प्रकार नवाहव्रत करके उसका उद्यापन करना चाहिये । फलकी कामना करनेवाले पुरुषोंको महाष्टमीव्रतके उद्यापनकी भाँति नवाहव्रतका भी उद्यापन करना चाहिये ॥ ५५ ॥

निष्कामाः श्रवणेनैव पूता मुक्तिं व्रजन्ति हि ।
भोगमोक्षप्रदा नॄणां यतो भगवती परा ॥ ५६ ॥
निष्काम व्यक्ति कथाके श्रवणमात्रसे पवित्र होकर मुक्ति पा जाते हैं; क्योंकि परा भगवती मनुष्योंको भोग और मोक्ष सब कुछ देनेवाली हैं ॥ ५६ ॥

पुस्तकस्य च वक्तुश्च पूजा कार्या तु नित्यशः ।
वक्त्रा दत्तं प्रसादं तु गह्णीयाद्भक्तिपूर्वकम् ॥ ५७ ॥
पुस्तक और कथावाचक-दोनोंकी प्रतिदिन पूजा करनी चाहिये और वक्ताद्वारा दिया हुआ प्रसाद भक्तिपूर्वक ग्रहण करना चाहिये ॥ ५७ ॥

कुमारीः पूजयेन्नित्यं भोजयेत्पार्थयेच्च यः ।
सुवासिनीश्च विप्रांश्च तस्य सिद्धिर्न संशयः ॥ ५८ ॥
नवाह-यज्ञमें जो श्रोता नित्य कुमारी कन्याओं, सुहागिन स्त्रियों तथा ब्राह्मणोंको भोजन कराता तथा उनसे प्रार्थना करता है, उसकी कार्यसिद्धि अवश्य हो जाती है, इसमें सन्देह नहीं है । ५८ ॥

गायत्र्या नाम साहस्रं समाप्तावथ वा पठेत् ।
विष्णोर्नामसहस्रञ्च सर्वदोषोपशान्तये ॥ ५९ ॥
सभी त्रुटियोंकी शान्तिके निमित्त कथासमाप्तिके दिन गायत्रीसहस्रनाम अथवा विष्णुसहस्रनामका पाठ करना चाहिये ॥ ५९ ॥

यस्य स्मृत्या च नामोक्त्या तपोयज्ञक्रियादिषु ।
न्यूनं सम्पूर्णतां याति तस्माद्विष्णुञ्च कीर्तयेत् ॥ ६० ॥
जिनके स्मरण तथा नामकीर्तनसे तप, यज्ञ, क्रिया आदिमें न्यूनता समाप्त हो जाती है, उन विष्णुभगवानका नाम-कीर्तन करना चाहिये ॥ ६० ॥

देव्याः सप्तशतीमन्त्रैः समाप्तौ होममाचरेत् ।
देवीमाहात्म्यमूलेन नवार्णमनुनाथवा ॥ ६१ ॥
गायत्र्या त्वथवा होमः पायसेन ससर्पिषा ।
यतो भागवतं त्वेतद् गायत्रीमयमीरितम् ॥ ६२ ॥
कथासमाप्तिके दिन दुर्गासप्तशतीके मन्त्रोंसे अथवा देवीमाहात्म्यके मूलपाठसे या नवार्ण* मन्त्रसे होम करना चाहिये अथवा घृतसहित पायसद्वारा गायत्री मन्त्रका उच्चारण करके हवन करे; क्योंकि यह श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण गायत्रीमय कहा गया है । ६१-६२ ॥

वाचकं तोषयेत्सम्यग्वस्त्रभूषाधनादिभिः ।
प्रसन्ने वाचके सर्वाः प्रसनास्तस्य देवताः ॥ ६३ ॥
कथावाचकको वस्त्र, भूषण, धन आदिके द्वारा सन्तुष्ट करे; क्योंकि कथावाचकके प्रसन्न होनेपर सभी देवता उसपर प्रसन्न हो जाते हैं । ६३ ॥

ब्राह्मणान्भोजयेद्भक्त्या दक्षिणाभिश्च तोषयेत् ।
पृथिव्यां देवरूपास्ते तुष्टेष्वेष्वीप्सितं फलम् ॥ ६४ ॥
श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणोंको भोजन कराये और नानाविध दक्षिणाओंसे उन्हें सन्तुष्ट करे; क्योंकि वे विप्र पृथ्वीपर देवताके स्वरूप हैं । उनके सन्तुष्ट होनेपर वांछित फल प्राप्त होता है । ६४ ॥

सुवासिनीः कुमारीश्च देवीभक्त्या च भोजयेत् ।
ताभ्योऽपि दक्षिणां दत्त्वा प्रार्थयेत्सिद्धिमात्मनः ॥ ६५ ॥
सुहागिन स्त्रियों तथा कुमारी कन्याओंको साक्षात् देवी समझकर उन्हें भोजन कराये और उन्हें दक्षिणा देकर अपने मनोरथकी सिद्धिके लिये प्रार्थना करे ॥ ६५ ॥

दद्याद्दानानि चान्यानि सुवर्णं गाः पयस्विनीः ।
हयानिभान्मेदिनीञ्च तस्य स्यादक्षयं फलम् ॥ ६६ ॥
सुवर्ण, दूध देनेवाली गौ, हाथी, घोड़े और भूमिका दान करना चाहिये; क्योंकि उसका अक्षय फल होता है ॥ ६६ ॥

देवीभागवतं चैतल्लिखितं शोभनाक्षरम् ।
हेमसिंहासने स्थाप्य पट्टवस्त्रेण वेष्टितम् ॥ ६७ ॥
अष्टम्यां वा नवम्याञ्च वाचकायार्चिताय च ।
दद्यात्स भोगान्भुक्त्वेह दुर्लभं मोक्षमाप्नुयात् ॥ ६८ ॥
सुन्दर अक्षरों में लिखी देवीभागवतकी पुस्तकको रेशमी-वस्त्रमें लपेटकर उसे सुवर्णनिर्मित सिंहासनपर रखकर अष्टमी या नवमी तिथिको विधिपूर्वक कथावाचकको दान करना चाहिये । ऐसा करनेसे वह इस संसारमें सभी सुखोंको भोगकर अन्तमें दुर्लभ मोक्ष प्राप्त करता है ॥ ६७-६८ ॥

दरिद्रो दुर्बलो बालस्तरुणो जरठोऽपि वा ।
पुराणवेत्ता वन्द्यः स्यात्पूज्यो मान्यश्च सर्वदा ॥ ६९ ॥
पुराणको जाननेवाला वक्ता चाहे दरिद्र हो, दुर्बल हो, बालक हो, युवक हो अथवा वृद्ध हो, वह सर्वदा वन्दनीय पूज्य एवं मान्य होता है ॥ ६९ ॥

सन्ति लोकस्य बहवो गुरवो गुणजन्मतः ।
सर्वेषामपि तेषाञ्च पुराणज्ञः परो गुरुः ॥ ७० ॥
यद्यपि संसारमें जन्म अथवा गुणके कारण अनेक गुरु हैं, परंतु पुराणका ज्ञाता उन सबमें श्रेष्ठ गुरु है ॥ ७० ॥

पौराणिको ब्राह्मणस्तु व्यासासनसमाश्रितः ।
आसमाप्ते प्रसङ्‌गे तु नमस्कुर्यान्न कस्यचित् ॥ ७१ ॥
व्यासके आसनपर बैठा हुआ पौराणिक ब्राह्मण जबतक कथा समाप्त न हो जाय, तबतक किसीको भी प्रणाम न करे ॥ ७१ ॥

पौराणिकीं कथां दिव्यां येऽपि शृण्वन्त्यभक्तितः ।
तेषां पुण्यफलं नास्ति दुःखदारिद्र्यभागिनाम् ॥ ७२ ॥
जो लोग इस दिव्य पौराणिक कथाको श्रद्धारहित होकर सुनते हैं, उन दुःख तथा दारिद्र्य युक्त मनुष्योंको कथाश्रवणका पुण्य-फल प्राप्त नहीं होता ॥ ७२ ॥

असम्पूज्य पुराणं तु ताम्बूलकुसुमादिभिः ।
ये शृण्वन्ति कथां देव्यास्ते दरिद्रा भवन्तिहि ॥ ७३ ॥
कीर्त्यमानां कथां त्यक्त्या ये व्रजन्त्यन्यतो नराः ।
भोगान्तरे प्रणश्यन्ति तेषां दाराश्च सम्पदः ॥ ७४ ॥
जो लोग ताम्बूल, पुष्प आदि उपचारोंसे पुराणका पूजन किये बिना ही देवीकी कथा सुनते हैं, वे दरिद्र होते हैं और जो लोग कथाके बीचमें ही उसे छोड़कर अन्यत्र चले जाते हैं, कुछ ही समय बाद उनकी सम्पदाएँ एवं स्त्री आदि नष्ट हो जाती हैं ॥ ७३-७४ ॥

ये च तुङ्‌गासनारूढाः कथां शृण्वन्ति दाम्भिकाः ।
ते वायसा भवन्त्यत्र भुक्त्वा निरययातनाम्॥ ७५ ॥
जो अभिमानवश व्याससे ऊँचे स्थानपर बैठकर कथा सुनते हैं, वे नरक-यातना भोगकर इस लोकमें कौएकी योनि पाते हैं ॥ ७५ ॥

ये चाढ्यासनसंस्थाश्च ये वीरासनसंस्थिताः ।
शृण्वन्ति च कथां दिव्यां ते स्युरर्जुनशाखिनः ॥ ७६ ॥
जो बहुमूल्य आसनपर अथवा वीरासनसे बैठकर दिव्य कथाका श्रवण करते हैं, वे 'अर्जुन' वृक्ष होते हैं । ७६ ॥

कथायां कीर्त्यमानायां ये वदन्ति दुरुत्तरम् ।
रासभास्ते भवन्तीह कृकलासास्ततः परम् ॥ ७७ ॥
कथा होते समय जो लोग व्यर्थ तर्क-वितर्क करते हैं, वे इस लोकमें पहले गर्दभयोनिमें तत्पश्चात् गिरगिटकी योनिमें जाते हैं । ७७ ॥

निन्दन्ति ये पुराणज्ञान् कथां वा पापहारिणीम् ।
ते तु जन्मशतं दुष्टाः शुनकाः स्युर्न संशयः ॥ ७८ ॥
जो लोग पुराण जाननेवालोंकी अथवा पापनाशिनी कथाकी निन्दा करते हैं, वे सैकड़ों जन्मतक दुष्ट कुत्ते होते हैं । इसमें सन्देह नहीं है ॥ ७८ ॥

ये शृण्वन्ति कथां वक्तुः समानासनसंस्थिताः ।
गुरुतल्पसमं पापं लभन्ते नरकालयाः ॥ ७९ ॥
ये चाप्रणम्य शृण्वन्ति ते भवन्ति विषद्रुमाः ।
शयाना येऽपि शृण्वन्ति भवन्त्यजगराहयः ॥ ८० ॥
जो लोग कथावाचकके बराबर आसनपर बैठकर कथा सुनते हैं, उन्हें गुरुके आसनपर बैठनेका पाप लगता है और वे नरकमें वास करते हैं । जो लोग वक्ताको प्रणाम किये बिना ही कथा सुनने लगते हैं, वे जन्मान्तरमें विषैले वृक्ष होते हैं । इसी प्रकार जो लोग लेटे-लेटे कथा सुनते हैं; वे अजगर, साँपकी योनि पाते हैं ॥ ७९-८० ॥

ये कदाचन पौराणीं न शृण्वन्ति कथां नराः ।
ते घोरं नरकं भुक्त्या भवन्ति वनसूकराः ॥ ८१ ॥
ये कथां नानुमोदन्ते विघ्नं कुर्वन्ति ये शठाः ।
कोट्यब्दं निरयं भुक्त्वा भवन्ति ग्रामसूकराः ॥ ८२ ॥
जो मनुष्य कभी भी पुराणकी कथा नहीं सुनते, वे घोर नरक भोगकर बनैले सूअरकी योनिमें जाते हैं । जो शठ मनुष्य कथाका अनुमोदन नहीं करते अपितु उसमें विघ्न डाला करते हैं, वे करोड़ों वर्षोंतक नरक-यातना भोगकर अन्तमें ग्रामसूकर होते हैं ॥ ८१-८२ ॥

आसनं भाजनं द्रव्यं फलं वस्वाणि कम्बलम् ।
पुराणज्ञाय यच्छन्ति ते व्रजन्ति हरेः पदम् ॥ ८३ ॥
जो लोग पुराणवेत्ताको आसन, पात्र, द्रव्य, फल, वस्त्र तथा कम्बल प्रदान करते हैं, वे भगवान्के परम पदको प्राप्त करते हैं ॥ ८३ ॥

पुराणपुस्तकस्यापि ये पट्टवसनं नवम् ।
प्रयच्छन्ति शुभं सूत्रं ते नराः सुखभागिनः ॥ ८४ ॥
जो मनुष्य पुराणपुस्तकके लिये नवीन रेशमी वस्त्र तथा सुन्दर सूत्रका दान करते हैं, वे सुखी रहते हैं ॥ ८४ ॥

पुराणानां तु सर्वेषां श्रवणाद्यत्फलं लभेत् ।
तस्माच्छतगुणं पुण्यं देवीभागवताल्लभेत् ॥ ८५ ॥
सभी पुराणोंके सुननेसे जो फल प्राप्त होता है, उससे सौगुना पुण्य श्रीमद्देवीभागवतपुराणके श्रवणसे होता है ॥ ८५ ॥

यथा सरित्सु प्रवरा गङ्‌गा देवेषु शङ्‌करः ।
काव्ये रामायणं यद्वज्ज्योतिष्मत्सु यथा रविः ॥ ८६ ॥
आह्लादकानां चन्द्रश्च धनानाञ्च यथा यशः ।
क्षमावतां यथा भूमिर्गाम्भीर्ये सागरो यथा ॥ ८७ ॥
मन्त्राणां चैव सावित्री पापनाशे हरिस्मृतिः ।
अष्टादशपुराणानां देवीभागवतं तथा ॥ ८८ ॥
जिस प्रकार नदियों में गंगा श्रेष्ठ हैं; देवताओंमें शिव, काव्योंमें वाल्मीकीय रामायण तथा तेजस्वियोंमें भगवान् सूर्य श्रेष्ठ हैं; और जैसे आनन्द देनेवालोंमें चन्द्रमा, सब धनोंमें सुयश, क्षमाशीलोंमें पृथ्वी, गम्भीरतामें समुद्र, मन्त्रोंमें गायत्री तथा पापनाशके उपायोंमें भगवत्स्मरण श्रेष्ठ है, उसी प्रकार अठारहों पुराणों में यह श्रीमद्देवीभागवतपुराण सर्वश्रेष्ठ है ॥ ८६-८८ ॥

येन केनाप्युपायेन नवकृत्व शृणोति चेत् ।
न शक्यं तत्कलं वक्तुं जीवन्मुक्तः स एव हि ॥ ८९ ॥
जिस किसी भी उपायसे यदि कोई मनुष्य इस महापुराणकी नौ आवृत्तियाँ सुन ले तो उसके फलका वर्णन नहीं किया जा सकता, वह तो जीवन्मुक्त ही हो जाता है ॥ ८९ ॥

राजशत्रुभये प्राप्ते महामारीभये तथा ।
दुर्भिक्षे राष्ट्रभङ्‌गे च तच्छान्त्यै शृणयादिदम् ॥ ९० ॥
किसी शत्रु राजासे भय होनेपर, महामारीके समय, अकाल पड़नेपर तथा राष्ट्र-भंगके अवसरपर उसकी शान्तिके लिये यह पुराण सुनना चाहिये ॥ ९० ॥

भूतप्रेतविनाशाय राज्यलाभाय शत्रुतः ।
पुत्रलाभाय शृणुयाद्देवीभागवतं द्विजाः ॥ ९१ ॥
हे विप्रो ! भूत-प्रेतादिके शमनके लिये, शत्रुसे राज्य प्राप्त करनेके लिये और पुत्र-प्राप्तिके लिये श्रीमद्देवीभागवतका श्रवण करना चाहिये । ९१ ॥

श्रीमद्‌भागवतं यस्तु पठेद्वा शृणुयादपि ।
श्लोकार्धं श्लोकपादं वा स याति परमां गतिम् ॥ ९२ ॥
जो देवीभागवतके आधे श्लोक या चौथाई श्लोकको भी प्रतिदिन सुनता या पढ़ता है, वह परमगतिको प्राप्त होता है ॥ ९२ ॥

भगवत्या स्वयं देव्या श्लोकार्धेन प्रकाशितम् ।
शिष्यप्रशिष्यद्वारेण तदेव विपुलीकृतम् ॥ ९३ ॥
स्वयं भगवती जगदम्बाने इस पुराणको सर्वप्रथम केवल आधे श्लोकमें ही प्रकाशित किया, वही बादमें शिष्य-प्रशिष्योंके द्वारा देवीभागवतके रूपमें विस्तृत कर दिया गया ॥ ९३ ॥

न गायत्र्या परो धर्मो न गायत्र्याः परं तपः ।
न गायत्र्या समो देवो न गायत्र्याः परो मनुः ॥ ९४ ॥
गायत्रीसे बढ़कर न कोई धर्म है, न तप है, न कोई देवता है और न कोई मन्त्र ही है ॥ ९४ ॥

गातारं त्रायते यस्माद् गायत्री तेन सोच्यते ।
सात्र भागवते देवी सरहस्या प्रतिष्ठिता ॥ ९५ ॥
अतो भागवतस्यास्य देव्याः प्रीतिकरस्य च ।
महान्त्यपि पुराणानि कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥ ९६ ॥
भगवती अपना गुणगान करनेवालेकी रक्षा करती हैं, इसी कारणसे उन्हें गायत्री कहा जाता है । वे भगवती गायत्री इस पुराणमें अपने रहस्योंसहित विराजती हैं । अतः भगवतीको प्रसन्न करनेवाले इस देवीभागवतकी सोलहवीं कलाके समान भी अन्य महापुराण नहीं हो सकते ॥ ९५-९६ ॥

श्रीमद्‌भागवतं पुराणममलं यद्‍ब्राह्मणानां धनं
धर्मो धर्मसुतेन यत्र गदितो नारायणेनामलः ।
गायत्र्याश्च रहस्यमत्र च मणिद्वीपश्च संवर्णितः
श्रीदेव्या हिमभूभृते भगवती गीता च गीता स्वयम् ॥ ९७ ॥
श्रीमद्देवीभागवतपुराण अत्यन्त निर्मल है । जो ब्राहाणोंका अमूल्य धन है और जिसमें स्वयं धर्मपुत्र नारायणने पवित्र धर्मका वर्णन किया है । इसमें श्रीगायत्रीदेवीका रहस्य एवं मणिद्वीपका सम्यक् वर्णन किया गया है । साथ ही इसमें हिमालयके प्रति स्वयं भगवतीद्वारा कही गयी देवीगीता विद्यमान है । ९७ ॥

तस्मान्नास्य पुराणस्य लोकेऽन्यत्सदृशं परम् ।
अतः सदैव संसेव्यं देवीभागवतं द्विजाः ॥ ९८ ॥
इस कारण हे विप्रो ! इस महापुराणके सदृश दूसरा कोई उत्तम पुराण लोकमें नहीं है, अतः आपलोग सदा इस श्रीमद्देवीभागवतका भलीभाँति सेवन करें ॥ ९८ ॥

यस्याः प्रभावमखिलं न हि वेद धाता
    नो वा हरिर्न गिरिशो न हि चाप्यनन्तः ।
अंशांशका अपि च ते किमुतान्यदेवा-
    स्तस्यै नमोऽस्तु सततं जगदम्बिकायै ॥ ९९ ॥
जिनके सम्पूर्ण प्रभावको ब्रह्मा, विष्णु, शिव तथा भगवान् शेष भी भलीभाँति नहीं जान सकते जबकि वे उन्हींके अंशज भी हैं, तब दूसरे देवता उन्हें कैसे जान सकेंगे ? उन भगवती जगदम्बिकाको मेरा निरन्तर प्रणाम है ॥ ९९ ॥

यत्पादपङ्‌कजरजः समवाप्य विश्वं
    ब्रह्मा सृजत्यनुदिनञ्च बिभर्ति विष्णुः ।
रुद्रश्च संहरति नेतरथा समर्था-
    स्तस्यै नमोऽस्तु सततं जगदम्बिकायै ॥ १०० ॥
जिनके चरण-कमलोंकी धूलि पाकर ब्रह्मा समस्त संसारकी रचना करते हैं, भगवान् विष्णु निरन्तर पालन करते हैं और रुद्र संहार करते हैं; दूसरे किसी उपायसे वे अपना-अपना कार्य करनेमें समर्थ नहीं हो सकते ऐसी उन भगवती जगदम्बिकाको मेरा सतत प्रणाम है ॥ १०० ॥

सुधाकूपारान्तस्त्रिदशतरुवाटीविलसिते
    मणिद्वीपे चिन्तामणिमयगृहे चित्ररुचिरे ।
विराजन्तीमम्बां परशिवहृदि स्मेरवदनां
    नरो ध्यात्वा भोगं भजति खलु मोक्षञ्च लभते ॥ १०१ ॥
अमृत-सागरके तटपर कल्पवृक्षकी वाटिकासे सुशोभित मणिद्वीपमें स्थित बहुवर्णचित्रित चिन्तामणिमय भवनमें तथा परम शिवके हदयमें विराजमान रहनेवाली और मन्द-मन्द मुसकानयुक्त मुखमण्डलवाली जगदम्बाका ध्यान करके मनुष्य सांसारिक सुखोंका उपभोग करता है और अन्तमें निश्चय ही मोक्ष प्राप्त करता है । १०१ ॥

ब्रह्मेशाच्युतशक्राद्यैर्महर्षिभिरुपासिता ।
जगतां श्रेयसे सास्तु मणिद्वीपाधिदेवता ॥ १०२ ॥
इस प्रकार ब्रह्मा, विष्णु, शिव, इन्द्र-आदि देवताओं एवं समस्त महर्षियोंद्वारा पूजित मणिद्वीपनिवासिनी वे भगवती संसारका कल्याण करती रहें ॥ १०२ ॥

इति श्रीस्कन्दपुराणे मानसखण्डे श्रीमद्देवीभागवतमाहाम्ये
देवीभागवत-श्रवणविधिवर्णनं नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥
॥ समाप्तमिदं श्रीमद्देवीभागवतमाहात्म्यम् ॥
पांचवाँ अध्याय समाप्त
॥ श्रीमद्देवीभागवतमाहात्म्य समाप्त ॥


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