पुराणश्रवणके इच्छुक विद्वान् मनुष्यको चाहिये कि वह सर्वप्रथम ज्योतिषीको बुलाकर शुभ मुहूर्त निर्धारित कर ले । इसके लिये ज्येष्ठमाससे लेकर छ: महीने शुभकारक होते हैं ॥ ३ ॥
हस्ताश्विमूलपुष्यर्क्षे ब्रह्ममैत्रेन्दुवैष्णवे । सत्तिथौ शुभवारे च पुराणश्रवणं शुभम् ॥ ४ ॥
हस्त, अश्विनी, मूल, पुष्य, रोहिणी, अनुराधा, मृगशिरा तथा श्रवण नक्षत्र, पुण्य तिथि तथा शुभ दिनमें श्रीमद्देवीभागवतपुराणका श्रवण कल्याणकारी होता है ॥ ४ ॥
गुरुभाद्वेदवेदाब्जशराङ्गाब्धिगुणैः क्रमात् । धर्माप्तिरिन्दिराप्राप्तिः कथासिद्धिः परं सुखम् ॥ ५ पीडाथ भूपतिभयं ज्ञानप्राप्तिः क्रमात्फलम् । पुराणश्रवणे चक्रं शोधयेच्छिवभाषितम् ॥ ६
जिस नक्षत्रमें बृहस्पति हों, उससे चन्द्रमातक गिननेपर क्रमशः इस प्रकार फल होते हैं-चार नक्षत्रतक धर्म-प्राप्ति, पुनः चारतक लक्ष्मीकी प्राप्ति, इसके बाद एक नक्षत्र कथामें सिद्धि प्रदान करनेवाला, फिर पाँच नक्षत्र परम सुखकी प्राप्ति करानेवाले, बादमें छ: नक्षत्र पीड़ा करनेवाले, इसके बाद चार नक्षत्र राज-भय उत्पन्न करनेवाले और तत्पश्चात् तीन नक्षत्र ज्ञान-प्राप्तिमें सहायक होते हैं । पुराणश्रवणके आरम्भमें शिवोक चक्रका शोधन कर लेना चाहिये ॥ ५-६ ॥
अथवा प्रीतये देव्या नवरात्रचतुष्टये । शृणुयादन्यमासेऽपि तिथिवारर्क्षशोधिते ॥ ७
देवीकी प्रसन्नताके लिये इसे चारों नवरात्रों में * सुनना चाहिये अथवा तिथि, वार और नक्षत्रपर सम्यक् विचार करके यह पुराण अन्य मासोंमें भी सुना जा सकता है ॥ ७ ॥
सम्भारं तादृशं कार्यं विवाहादौ च यादृशम् । नवाहयज्ञे चाप्यस्मिन्विधेयं यत्नतो बुधैः ॥ ८
विवाह आदिमें जिस प्रकार [उत्साहपूर्वक] तैयारी की जाती है, उसी प्रकार नवाह-यज्ञके अवसरपर भी बुद्धिमान् मनुष्योंको प्रयत्नपूर्वक सामग्री आदिकी तैयारी करनी चाहिये ॥ ८ ॥
चाहे सूर्यको उपासना करनेवाले हों, चाहे गणेशभक्त हों, चाहे शैव हों, चाहे वैष्णव अथवा शक्तिके उपासक हों, सभी इस कथाके श्रवणके अधिकारी हैं । क्योंकि सभी देवता शक्तिके साथ ही रहते हैं ॥ ११ ॥
श्रीमद्देवीभागवतपीयूषरसलोलुपैः । आगन्तव्यं विशेषेण कथार्थं प्रेमतत्परैः ॥ १२
इसलिये श्रीमद्देवीभागवतकी कथारूपी सुधाके रसिक प्रेमीजनोंको कथाश्रवणके लिये विशेषरूपसे आना चाहिये ॥ १२ ॥
ब्राह्मणाद्याश्च ये वर्णाः स्त्रियश्चाश्रमिणस्तथा । सकामाश्चापि निष्कामाः पातव्यं तैः कथामृतम् ॥ १३
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र-चारों वर्णके स्त्री, पुरुष एवं ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ, संन्यास-इन चारों आश्रमोंमें निरत मनुष्योंको चाहे सकामभावसे अथवा निष्कामभावसे-अवश्य ही इस कथा-सुधाका पान करना चाहिये ॥ १३ ॥
विस्तृत भूमिमें कथा-प्रवचनका सुन्दर स्थान बनाना चाहिये । उस स्थानकी सफाई कराकर गोबरसे लिपवा देना चाहिये । केलेके स्तम्भोंसे सुशोभित और ध्वज-पताकाओंसे अलंकृत एक सुरम्य मण्डपका निर्माण करना चाहिये और उसके ऊपर सुन्दर चाँदनी लगा देनी चाहिये ॥ १६-१७ ॥
तत्पश्चात् कथाश्रवणका अधिकारी बननेके लिये गोदान करे और सब विघ्नोंको दूर करनेवाले श्रीगणेशजीका सर्वप्रथम पूजन करे । कलश स्थापन करके वहाँ दस दिक्पालों, बटुक, क्षेत्रपाल, सभी योगिनियों और मातृकाओंका भी पूजन करे । तुलसी, नवग्रह, विष्णु तथा शिवजीका पूजन करके नवाक्षरमन्त्रसे जगदम्बाका पूजन करना चाहिये ॥ २६-२८ ॥
तत्पश्चात् सुन्दर अक्षरोंमें लिखी हुई भगवतीकी वाङ्मयी मूर्तिस्वरूप श्रीमद्देवीभागवतपुस्तककी सभी उपचारोंसे विधिवत् पूजा करके कथाकी निर्विघ्न समाप्तिके लिये पाँच विद्वान् ब्राह्मणोंका वरण करना चाहिये । उनसे निरन्तर नवार्णमन्त्रका जप एवं दुर्गासप्तशतीका पाठ कराना चाहिये ॥ २९-३० ॥
अन्तमें प्रदक्षिणा तथा नमस्कारके बाद इस प्रकार स्तुति करे-'हे कात्यायनि ! हे महामाये ! हे भुवनेश्वरि ! हे कृपामये ! हे भवानि ! मैं संसारसागरमें डूब रहा हूँ, मेरा उद्धार कीजिये तथा हे ब्रह्मा, विष्णु, महेशसे पूजनीया माता जगदम्बिके ! मेरे ऊपर प्रसन्न होइये । हे देवि ! आप मुझे मनोवांछित वर प्रदान कीजिये । आपको बार-बार प्रणाम है । इस प्रकार प्रार्थना करके स्वस्थचित्त होकर कथा सुने ॥ ३१-३३ ॥
उस समय संयतचित्त होकर वक्ताको साक्षात् व्यास समझकर विधिवत् उनकी पूजा करे और वस्त्राभूषण तथा माला आदि पहनाकर उनसे प्रार्थना करे-'समस्त शास्त्र तथा पुराणेतिहासके ज्ञाता हे व्यासजी ! आपको नमस्कार है । आप कथारूपी चन्द्रमाकी ज्योतिसे हमारे अन्त:करणके अन्धकारसमूहको नष्ट कीजिये' ॥ ३४-३५ ॥
मल-मूत्रके वेगको रोकनेके लिये स्वल्पाहार उत्तम होता है । कथार्थीको दिन-रातमें केवल एक बार हविष्यान्नका भोजन करना ही ठीक है; अथवा फलाहार करे या केवल दूध-घीके आहारपर ही रहे । बुद्धिमानको चाहिये कि ऐसा आहार ग्रहण करे, जिससे कथामें किसी प्रकारकी बाधा न हो ॥ ३९-४० ॥
कथाश्रवणनिष्ठानां वक्ष्यामि नियमं द्विजाः । ब्रह्मविष्णुमहेशानां मध्ये ये भेददर्शिनः ॥ ४१ ॥ देवीभक्तिविहीना ये पाखण्डा हिंसकाः खलाः । विप्रदुहो नास्तिका ये न ते योग्याः कथाश्रवे ॥ ४२ ॥
हे द्विजगण ! अब मैं कथाश्रवणमें निष्ठा रखनेवालोंके नियम बताता हूँ । जो लोग ब्रह्मा, विष्णु और शिवमें भेददृष्टि रखते हैं, देवीकी भक्तिसे रहित हैं, जो पाखण्डी, हिंसक तथा दुष्ट हैं और जो ब्राह्मणोंसे द्वेष रखनेवाले तथा नास्तिक हैं, वे कथाश्रवणके योग्य नहीं हैं ॥ ४१-४२ ॥
श्वेतकुष्ठी, कुष्ठी, क्षयरोगी, अभागा, पापी, दरिद्र तथा सन्तानहीन मनुष्य इस कथाको भक्तिपूर्वक सुने ॥ ५१ ॥
वन्ध्या वा काकवन्ध्या वा दुर्भगा वा मृतार्भका । पतद्गर्भाङ्गना या च ताभिः श्राव्या तथा कथा ॥ ५२ ॥
जो स्त्री वन्ध्या, काकवन्ध्या (जिस स्त्रीको एक बार सन्तान होकर बन्द हो जाय), अभागिन तथा मृतवत्सा हो और जिसका गर्भ गिर जाता हो, ऐसी सभी स्त्रियोंको इस देवीभागवतकथाका श्रवण करना चाहिये ॥ ५२ ॥
इस प्रकार नवाहव्रत करके उसका उद्यापन करना चाहिये । फलकी कामना करनेवाले पुरुषोंको महाष्टमीव्रतके उद्यापनकी भाँति नवाहव्रतका भी उद्यापन करना चाहिये ॥ ५५ ॥
नवाह-यज्ञमें जो श्रोता नित्य कुमारी कन्याओं, सुहागिन स्त्रियों तथा ब्राह्मणोंको भोजन कराता तथा उनसे प्रार्थना करता है, उसकी कार्यसिद्धि अवश्य हो जाती है, इसमें सन्देह नहीं है । ५८ ॥
गायत्र्या नाम साहस्रं समाप्तावथ वा पठेत् । विष्णोर्नामसहस्रञ्च सर्वदोषोपशान्तये ॥ ५९ ॥
सभी त्रुटियोंकी शान्तिके निमित्त कथासमाप्तिके दिन गायत्रीसहस्रनाम अथवा विष्णुसहस्रनामका पाठ करना चाहिये ॥ ५९ ॥
यस्य स्मृत्या च नामोक्त्या तपोयज्ञक्रियादिषु । न्यूनं सम्पूर्णतां याति तस्माद्विष्णुञ्च कीर्तयेत् ॥ ६० ॥
जिनके स्मरण तथा नामकीर्तनसे तप, यज्ञ, क्रिया आदिमें न्यूनता समाप्त हो जाती है, उन विष्णुभगवानका नाम-कीर्तन करना चाहिये ॥ ६० ॥
कथासमाप्तिके दिन दुर्गासप्तशतीके मन्त्रोंसे अथवा देवीमाहात्म्यके मूलपाठसे या नवार्ण* मन्त्रसे होम करना चाहिये अथवा घृतसहित पायसद्वारा गायत्री मन्त्रका उच्चारण करके हवन करे; क्योंकि यह श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण गायत्रीमय कहा गया है । ६१-६२ ॥
श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणोंको भोजन कराये और नानाविध दक्षिणाओंसे उन्हें सन्तुष्ट करे; क्योंकि वे विप्र पृथ्वीपर देवताके स्वरूप हैं । उनके सन्तुष्ट होनेपर वांछित फल प्राप्त होता है । ६४ ॥
सुन्दर अक्षरों में लिखी देवीभागवतकी पुस्तकको रेशमी-वस्त्रमें लपेटकर उसे सुवर्णनिर्मित सिंहासनपर रखकर अष्टमी या नवमी तिथिको विधिपूर्वक कथावाचकको दान करना चाहिये । ऐसा करनेसे वह इस संसारमें सभी सुखोंको भोगकर अन्तमें दुर्लभ मोक्ष प्राप्त करता है ॥ ६७-६८ ॥
जो लोग ताम्बूल, पुष्प आदि उपचारोंसे पुराणका पूजन किये बिना ही देवीकी कथा सुनते हैं, वे दरिद्र होते हैं और जो लोग कथाके बीचमें ही उसे छोड़कर अन्यत्र चले जाते हैं, कुछ ही समय बाद उनकी सम्पदाएँ एवं स्त्री आदि नष्ट हो जाती हैं ॥ ७३-७४ ॥
ये च तुङ्गासनारूढाः कथां शृण्वन्ति दाम्भिकाः । ते वायसा भवन्त्यत्र भुक्त्वा निरययातनाम्॥ ७५ ॥
जो अभिमानवश व्याससे ऊँचे स्थानपर बैठकर कथा सुनते हैं, वे नरक-यातना भोगकर इस लोकमें कौएकी योनि पाते हैं ॥ ७५ ॥
ये चाढ्यासनसंस्थाश्च ये वीरासनसंस्थिताः । शृण्वन्ति च कथां दिव्यां ते स्युरर्जुनशाखिनः ॥ ७६ ॥
जो बहुमूल्य आसनपर अथवा वीरासनसे बैठकर दिव्य कथाका श्रवण करते हैं, वे 'अर्जुन' वृक्ष होते हैं । ७६ ॥
कथा होते समय जो लोग व्यर्थ तर्क-वितर्क करते हैं, वे इस लोकमें पहले गर्दभयोनिमें तत्पश्चात् गिरगिटकी योनिमें जाते हैं । ७७ ॥
निन्दन्ति ये पुराणज्ञान् कथां वा पापहारिणीम् । ते तु जन्मशतं दुष्टाः शुनकाः स्युर्न संशयः ॥ ७८ ॥
जो लोग पुराण जाननेवालोंकी अथवा पापनाशिनी कथाकी निन्दा करते हैं, वे सैकड़ों जन्मतक दुष्ट कुत्ते होते हैं । इसमें सन्देह नहीं है ॥ ७८ ॥
ये शृण्वन्ति कथां वक्तुः समानासनसंस्थिताः । गुरुतल्पसमं पापं लभन्ते नरकालयाः ॥ ७९ ॥ ये चाप्रणम्य शृण्वन्ति ते भवन्ति विषद्रुमाः । शयाना येऽपि शृण्वन्ति भवन्त्यजगराहयः ॥ ८० ॥
जो लोग कथावाचकके बराबर आसनपर बैठकर कथा सुनते हैं, उन्हें गुरुके आसनपर बैठनेका पाप लगता है और वे नरकमें वास करते हैं । जो लोग वक्ताको प्रणाम किये बिना ही कथा सुनने लगते हैं, वे जन्मान्तरमें विषैले वृक्ष होते हैं । इसी प्रकार जो लोग लेटे-लेटे कथा सुनते हैं; वे अजगर, साँपकी योनि पाते हैं ॥ ७९-८० ॥
ये कदाचन पौराणीं न शृण्वन्ति कथां नराः । ते घोरं नरकं भुक्त्या भवन्ति वनसूकराः ॥ ८१ ॥ ये कथां नानुमोदन्ते विघ्नं कुर्वन्ति ये शठाः । कोट्यब्दं निरयं भुक्त्वा भवन्ति ग्रामसूकराः ॥ ८२ ॥
जो मनुष्य कभी भी पुराणकी कथा नहीं सुनते, वे घोर नरक भोगकर बनैले सूअरकी योनिमें जाते हैं । जो शठ मनुष्य कथाका अनुमोदन नहीं करते अपितु उसमें विघ्न डाला करते हैं, वे करोड़ों वर्षोंतक नरक-यातना भोगकर अन्तमें ग्रामसूकर होते हैं ॥ ८१-८२ ॥
जिस प्रकार नदियों में गंगा श्रेष्ठ हैं; देवताओंमें शिव, काव्योंमें वाल्मीकीय रामायण तथा तेजस्वियोंमें भगवान् सूर्य श्रेष्ठ हैं; और जैसे आनन्द देनेवालोंमें चन्द्रमा, सब धनोंमें सुयश, क्षमाशीलोंमें पृथ्वी, गम्भीरतामें समुद्र, मन्त्रोंमें गायत्री तथा पापनाशके उपायोंमें भगवत्स्मरण श्रेष्ठ है, उसी प्रकार अठारहों पुराणों में यह श्रीमद्देवीभागवतपुराण सर्वश्रेष्ठ है ॥ ८६-८८ ॥
येन केनाप्युपायेन नवकृत्व शृणोति चेत् । न शक्यं तत्कलं वक्तुं जीवन्मुक्तः स एव हि ॥ ८९ ॥
जिस किसी भी उपायसे यदि कोई मनुष्य इस महापुराणकी नौ आवृत्तियाँ सुन ले तो उसके फलका वर्णन नहीं किया जा सकता, वह तो जीवन्मुक्त ही हो जाता है ॥ ८९ ॥
राजशत्रुभये प्राप्ते महामारीभये तथा । दुर्भिक्षे राष्ट्रभङ्गे च तच्छान्त्यै शृणयादिदम् ॥ ९० ॥
किसी शत्रु राजासे भय होनेपर, महामारीके समय, अकाल पड़नेपर तथा राष्ट्र-भंगके अवसरपर उसकी शान्तिके लिये यह पुराण सुनना चाहिये ॥ ९० ॥
स्वयं भगवती जगदम्बाने इस पुराणको सर्वप्रथम केवल आधे श्लोकमें ही प्रकाशित किया, वही बादमें शिष्य-प्रशिष्योंके द्वारा देवीभागवतके रूपमें विस्तृत कर दिया गया ॥ ९३ ॥
न गायत्र्या परो धर्मो न गायत्र्याः परं तपः । न गायत्र्या समो देवो न गायत्र्याः परो मनुः ॥ ९४ ॥
गायत्रीसे बढ़कर न कोई धर्म है, न तप है, न कोई देवता है और न कोई मन्त्र ही है ॥ ९४ ॥
भगवती अपना गुणगान करनेवालेकी रक्षा करती हैं, इसी कारणसे उन्हें गायत्री कहा जाता है । वे भगवती गायत्री इस पुराणमें अपने रहस्योंसहित विराजती हैं । अतः भगवतीको प्रसन्न करनेवाले इस देवीभागवतकी सोलहवीं कलाके समान भी अन्य महापुराण नहीं हो सकते ॥ ९५-९६ ॥
श्रीमद्देवीभागवतपुराण अत्यन्त निर्मल है । जो ब्राहाणोंका अमूल्य धन है और जिसमें स्वयं धर्मपुत्र नारायणने पवित्र धर्मका वर्णन किया है । इसमें श्रीगायत्रीदेवीका रहस्य एवं मणिद्वीपका सम्यक् वर्णन किया गया है । साथ ही इसमें हिमालयके प्रति स्वयं भगवतीद्वारा कही गयी देवीगीता विद्यमान है । ९७ ॥
इस कारण हे विप्रो ! इस महापुराणके सदृश दूसरा कोई उत्तम पुराण लोकमें नहीं है, अतः आपलोग सदा इस श्रीमद्देवीभागवतका भलीभाँति सेवन करें ॥ ९८ ॥
यस्याः प्रभावमखिलं न हि वेद धाता नो वा हरिर्न गिरिशो न हि चाप्यनन्तः । अंशांशका अपि च ते किमुतान्यदेवा- स्तस्यै नमोऽस्तु सततं जगदम्बिकायै ॥ ९९ ॥
जिनके सम्पूर्ण प्रभावको ब्रह्मा, विष्णु, शिव तथा भगवान् शेष भी भलीभाँति नहीं जान सकते जबकि वे उन्हींके अंशज भी हैं, तब दूसरे देवता उन्हें कैसे जान सकेंगे ? उन भगवती जगदम्बिकाको मेरा निरन्तर प्रणाम है ॥ ९९ ॥
जिनके चरण-कमलोंकी धूलि पाकर ब्रह्मा समस्त संसारकी रचना करते हैं, भगवान् विष्णु निरन्तर पालन करते हैं और रुद्र संहार करते हैं; दूसरे किसी उपायसे वे अपना-अपना कार्य करनेमें समर्थ नहीं हो सकते ऐसी उन भगवती जगदम्बिकाको मेरा सतत प्रणाम है ॥ १०० ॥
अमृत-सागरके तटपर कल्पवृक्षकी वाटिकासे सुशोभित मणिद्वीपमें स्थित बहुवर्णचित्रित चिन्तामणिमय भवनमें तथा परम शिवके हदयमें विराजमान रहनेवाली और मन्द-मन्द मुसकानयुक्त मुखमण्डलवाली जगदम्बाका ध्यान करके मनुष्य सांसारिक सुखोंका उपभोग करता है और अन्तमें निश्चय ही मोक्ष प्राप्त करता है । १०१ ॥